मंगलवार, 27 दिसंबर 2011
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011
एक पत्र सांताक्लॉस के नाम ...
डॉ महेश परिमलसांताक्लॉज केवल उपहार देने वाला एक देवदूत ही नही, बल्कि मासूमों को अपना प्यार लुटाने वाला एक ऐसा शख्स है, जिससे बच्चे कई अपेक्षाएँ पालते हैं. बच्चे तो आखिर बच्चे होते हैं, वे क्या समझें सांताक्लॉज के व्यक्तित्व को. वे तो उसे देवदूत मानते हैं और उनसे अपनी माँगें मनवाते हैं. सांताक्लाँज एक कल्पना है, इसकी जानकारी मासूमों को नहीं है. वे उसे एक सच्चाई मानते हैं. ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं से पीडि़त कोई मासूम सांताक्लॉज से अपने स्वर्गीय माता-पिता को ही माँग ले, तो उसकी माँग भला किस तरह से पूरी हो सकती है. कुछ इसी तरह की माँग एक मासूम ने सांताक्लॉज से की है, प्रस्तुत है उस मासूम का पत्र...
प्यारे सांता,
लोग तुम्हें उपहार बाँटने वाले एक देवदूत के रूप में जानते हैं. पूरे विश्व के करोड़ों मासूमों को तुम्हारा इंतजार रहता है. कई मासूमों को तो तुम्हारा साल भर इंतजार रहता है. पहले मुझे तुम्हारा इंतजार नहीं रहता था, लेकिन इस बार मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ. मेरी विवशता कुछ दूसरी ही है. पहले मैं खास था, पर अब मैं आम हूँ. पहले मेरे पास सबकुछ था, पर आज मेरे पास मेरी ईमानदारी के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर स्वर्गीय माता-पिता से विरासत में मिली ये ईमानदारी मैं अधिक समय तक सँभालकर नहीं रख पाऊँगा. मेरी ये ईमानदारी अब मेरा साथ नहीं दे रही है. इस ईमानदारी ने मुझे कई रात भूखे सोने के लिए विवश कर दिया है. लगता है बहुत जल्द ही मैं इस ईमानदारी कोअलविदा कह दूँगा.
हर साल इस धरती पर क्रिसमस की रात तुम आते हो. सूनी आँखों में आशाओं के दीप जलाते हो, उदास चेहरे पर मुस्कान खिलाते हो. मासूमों के देवदूत बनकर उनके लिए अपना प्यार लुटाते हो. तुम्हारी झोली में ढेरों उपहार होते हैं, जो उन मासूमों के इंद्रधनुषी सपनों को एक आकार देते हैं. यही कारण है कि हर बच्चा क्रिसमस की रात तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करता है. इस इंतजार में पूरे साल भर के इंतजार का पल-पल का सफर होता है और विदा लेती बेला में फिर से एक लंबे इंतजार का अहसास होता है. इस अहसास के साथ जीते हुए करोड़ों मासूम सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही राह तकते हैं.
आज उन करोड़ों में एक नाम मेरा भी शामिल हो गया है. कल तक नहीं था मुझे तुम्हारा इंतजार. क्योंकि कल तक मेरे लिए तुम एक कोरी कल्पना ही थे. उस समय मेरे पास वह सब कुछ था, जो एक बच्चा चाहता है. माता-पिता ही नहीं, बल्कि बहुत से दोस्त, बहुत सारे खिलौनों का भी संसार था मेरे आसपास. तुम्हें केवल दोस्तों के बीच समय गुजारने और अपनी बुद्धिमानी दिखाने के लिए ही जानबूझकर याद किया जाता था. किंतु आज? आज तुम मेरे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो. क्योंकि अब तुमसे मुझे कई अपेक्षाएँ हैं. मैं जानना चाहता हूँ कि तुम क्या-क्या दे सकते हो. अब मेरे पास केवल अच्छी यादों के सिवाय कुछ नहीं है.
करीब पाँच महीने पहले ही मुम्बई में जो धमाका हुआ, उसमें मेरे मॉं की मौत हो गई। उनका कोई दोष नहीं था, वह तो एक आम आदमी की तरह खरीददारी करने गई थी। शायद मौत उनका रास्ता देख रही थी। इसके बाद तो लोग मुझ पर दया करने लगे, कोई कुछ दे जाता, कोई कुछ। इस दौरान मेरे पिता ने ही मुझे मॉं बनकर पालते रहे। मुझे समझदार बनाने की कोशिश करते रहे।
मैं समझदार हो भी जाता, यदि वे असमय ही मुझे छोड़ न गए होते। एक दिन रास्ते में उन्हें एक र्टक ने कुचल दिया। मेरी दुनिया भी उसी ट्रक के नीचे खत्म हो गई। आपदाऍं इस तरह से जीवन में आती ही रहती हैं। सच तो यह है कि इन आपदाओं से कई मासूम अपने ऊपर स्नेह की छाँव से वंचित हो जाते हैं. फिर चाहे वह कश्मीर का भूकंप हो या फिर सुनामी. हर तरह की आपदा मेरे जैसे कई मासूमों को अनाथ कर जाती है. इन आपदाओं ने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया. मैं कहीं का नहीं रहा. पहले माँ मुझे पिता के हवाले कर ईश्वर के पास चली गई. मैं पिता की छाया में ही बढऩे लगा, पर दूसरे हादसे ने मुझसे मेरे पिता को ही छीन लिया, अब मैं क्या करुँ?
आज मैं बेसहारा होकर यहाँ-वहाँ भटक रहा हूँ. कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तो कभी पानी पीकर अपनी भूख मिटाता हूँ. कभी किसी का कोई छोटा-मोटा काम करने से कुछ पैसे मिल जाते हैं, तो खुशी से झूम उठता हूँ. कभी किसी के सामने हाथ फैलाया नहीं, तो इसके लिए हिम्मत भी नहीं कर पाता हूँ. मैं जानता हूँ कि अगर यही हाल रहा तो एक दिन यही करना होगा. कब तक याद रख पाऊँगा, ईमानदारी का पाठ? पेट की भूख सब भूला देती है. मुझ मासूम को भी एक दिन भिखारी बना ही देगी. लेकिन मैं वैसा नहीं बनना चाहता. मैं तो पढऩा चाहता हूँ. खूब आगे बढऩा चाहता हूँ. अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना चाहता हूँ. लेकिन कैसे क रूँ? मेरा तो कोई वर्तमान ही नहीं, तो भविष्य क्या होगा? मेरी आँखों में तो अब आँसू भी नहीं, हाँ सूखे आँसुओं के बाद की कोरी जलन है, जो मुझे भीतर तक आहत कर देती है. मैं पल-पल टूट रहा हूँ और ऐसे में क्रिसमस के अवसर पर तुम एक विश्वास बन कर आए हो.
सुना है कि हर साल बड़े-बड़े शहरों में कई लोग सांता क्लास के वेश में मासूमों के बीच आते हैं और अपनी झोली में से अनेक उपहार निकाल कर उन्हें देते हैं. उनके होठों पर मुस्कान खिलाते हैं. अब तो विदेशों में कई ऐसे टे्रनिंग सेंटर भी खुल गए हैं, जहाँ बुजुर्ग व्यक्ति सांता क्लॉस बनने की ट्रेनिंग लेते हैं, ताकि 24 दिसम्बर की रात वे प्यारे बच्चों के साथ एक यादगार क्षण बिता सकें. मुझे भी उस 24 दिसम्बर की रात का इंतजार है.
सुना है, तुम बच्चों को कई तरह के उपहार बाँटते हो, पर मुझे उपहार नहीं, खुशियाँ चाहिए. मुस्कान चाहिए. मेरे लिए उपहार मत लाना सांता क्लॉस, वह तो मुझे बहुत मिल जाएँगे. मुझे तो चाहिए मेरे माता-पिता, मेरे दोस्त, मेरा घर, मेरा परिवार. मुझे तो यहीं मिल जाएगी खुशियाँ. इन खुशियों मेें डूबकर ही मैं अपने उन सभी साथियों को याद कर लूँगा, जिनके दामन में खुशियाँ है ही नहीं. तुम्हें आना ही होगा सांता क्लॉस, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. अपनी झोली से मेरी झोली में थोड़ी सी खुशियाँ डालने तुम आओगे ना सांताक्लॉस?
तुम्हारे इंतजार में....
एक मासूम
डा. महेश परिमल
प्यारे सांता,
लोग तुम्हें उपहार बाँटने वाले एक देवदूत के रूप में जानते हैं. पूरे विश्व के करोड़ों मासूमों को तुम्हारा इंतजार रहता है. कई मासूमों को तो तुम्हारा साल भर इंतजार रहता है. पहले मुझे तुम्हारा इंतजार नहीं रहता था, लेकिन इस बार मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ. मेरी विवशता कुछ दूसरी ही है. पहले मैं खास था, पर अब मैं आम हूँ. पहले मेरे पास सबकुछ था, पर आज मेरे पास मेरी ईमानदारी के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर स्वर्गीय माता-पिता से विरासत में मिली ये ईमानदारी मैं अधिक समय तक सँभालकर नहीं रख पाऊँगा. मेरी ये ईमानदारी अब मेरा साथ नहीं दे रही है. इस ईमानदारी ने मुझे कई रात भूखे सोने के लिए विवश कर दिया है. लगता है बहुत जल्द ही मैं इस ईमानदारी कोअलविदा कह दूँगा.
हर साल इस धरती पर क्रिसमस की रात तुम आते हो. सूनी आँखों में आशाओं के दीप जलाते हो, उदास चेहरे पर मुस्कान खिलाते हो. मासूमों के देवदूत बनकर उनके लिए अपना प्यार लुटाते हो. तुम्हारी झोली में ढेरों उपहार होते हैं, जो उन मासूमों के इंद्रधनुषी सपनों को एक आकार देते हैं. यही कारण है कि हर बच्चा क्रिसमस की रात तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करता है. इस इंतजार में पूरे साल भर के इंतजार का पल-पल का सफर होता है और विदा लेती बेला में फिर से एक लंबे इंतजार का अहसास होता है. इस अहसास के साथ जीते हुए करोड़ों मासूम सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही राह तकते हैं.
आज उन करोड़ों में एक नाम मेरा भी शामिल हो गया है. कल तक नहीं था मुझे तुम्हारा इंतजार. क्योंकि कल तक मेरे लिए तुम एक कोरी कल्पना ही थे. उस समय मेरे पास वह सब कुछ था, जो एक बच्चा चाहता है. माता-पिता ही नहीं, बल्कि बहुत से दोस्त, बहुत सारे खिलौनों का भी संसार था मेरे आसपास. तुम्हें केवल दोस्तों के बीच समय गुजारने और अपनी बुद्धिमानी दिखाने के लिए ही जानबूझकर याद किया जाता था. किंतु आज? आज तुम मेरे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो. क्योंकि अब तुमसे मुझे कई अपेक्षाएँ हैं. मैं जानना चाहता हूँ कि तुम क्या-क्या दे सकते हो. अब मेरे पास केवल अच्छी यादों के सिवाय कुछ नहीं है.
करीब पाँच महीने पहले ही मुम्बई में जो धमाका हुआ, उसमें मेरे मॉं की मौत हो गई। उनका कोई दोष नहीं था, वह तो एक आम आदमी की तरह खरीददारी करने गई थी। शायद मौत उनका रास्ता देख रही थी। इसके बाद तो लोग मुझ पर दया करने लगे, कोई कुछ दे जाता, कोई कुछ। इस दौरान मेरे पिता ने ही मुझे मॉं बनकर पालते रहे। मुझे समझदार बनाने की कोशिश करते रहे।
मैं समझदार हो भी जाता, यदि वे असमय ही मुझे छोड़ न गए होते। एक दिन रास्ते में उन्हें एक र्टक ने कुचल दिया। मेरी दुनिया भी उसी ट्रक के नीचे खत्म हो गई। आपदाऍं इस तरह से जीवन में आती ही रहती हैं। सच तो यह है कि इन आपदाओं से कई मासूम अपने ऊपर स्नेह की छाँव से वंचित हो जाते हैं. फिर चाहे वह कश्मीर का भूकंप हो या फिर सुनामी. हर तरह की आपदा मेरे जैसे कई मासूमों को अनाथ कर जाती है. इन आपदाओं ने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया. मैं कहीं का नहीं रहा. पहले माँ मुझे पिता के हवाले कर ईश्वर के पास चली गई. मैं पिता की छाया में ही बढऩे लगा, पर दूसरे हादसे ने मुझसे मेरे पिता को ही छीन लिया, अब मैं क्या करुँ?
आज मैं बेसहारा होकर यहाँ-वहाँ भटक रहा हूँ. कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तो कभी पानी पीकर अपनी भूख मिटाता हूँ. कभी किसी का कोई छोटा-मोटा काम करने से कुछ पैसे मिल जाते हैं, तो खुशी से झूम उठता हूँ. कभी किसी के सामने हाथ फैलाया नहीं, तो इसके लिए हिम्मत भी नहीं कर पाता हूँ. मैं जानता हूँ कि अगर यही हाल रहा तो एक दिन यही करना होगा. कब तक याद रख पाऊँगा, ईमानदारी का पाठ? पेट की भूख सब भूला देती है. मुझ मासूम को भी एक दिन भिखारी बना ही देगी. लेकिन मैं वैसा नहीं बनना चाहता. मैं तो पढऩा चाहता हूँ. खूब आगे बढऩा चाहता हूँ. अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना चाहता हूँ. लेकिन कैसे क रूँ? मेरा तो कोई वर्तमान ही नहीं, तो भविष्य क्या होगा? मेरी आँखों में तो अब आँसू भी नहीं, हाँ सूखे आँसुओं के बाद की कोरी जलन है, जो मुझे भीतर तक आहत कर देती है. मैं पल-पल टूट रहा हूँ और ऐसे में क्रिसमस के अवसर पर तुम एक विश्वास बन कर आए हो.
सुना है कि हर साल बड़े-बड़े शहरों में कई लोग सांता क्लास के वेश में मासूमों के बीच आते हैं और अपनी झोली में से अनेक उपहार निकाल कर उन्हें देते हैं. उनके होठों पर मुस्कान खिलाते हैं. अब तो विदेशों में कई ऐसे टे्रनिंग सेंटर भी खुल गए हैं, जहाँ बुजुर्ग व्यक्ति सांता क्लॉस बनने की ट्रेनिंग लेते हैं, ताकि 24 दिसम्बर की रात वे प्यारे बच्चों के साथ एक यादगार क्षण बिता सकें. मुझे भी उस 24 दिसम्बर की रात का इंतजार है.
सुना है, तुम बच्चों को कई तरह के उपहार बाँटते हो, पर मुझे उपहार नहीं, खुशियाँ चाहिए. मुस्कान चाहिए. मेरे लिए उपहार मत लाना सांता क्लॉस, वह तो मुझे बहुत मिल जाएँगे. मुझे तो चाहिए मेरे माता-पिता, मेरे दोस्त, मेरा घर, मेरा परिवार. मुझे तो यहीं मिल जाएगी खुशियाँ. इन खुशियों मेें डूबकर ही मैं अपने उन सभी साथियों को याद कर लूँगा, जिनके दामन में खुशियाँ है ही नहीं. तुम्हें आना ही होगा सांता क्लॉस, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. अपनी झोली से मेरी झोली में थोड़ी सी खुशियाँ डालने तुम आओगे ना सांताक्लॉस?
तुम्हारे इंतजार में....
एक मासूम
डा. महेश परिमल
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011
नैतिक मूल्यों के साथ-साथ बदलते पैमाने
डॉ. महेश परिमल
फिल्मी दुनिया में आने के बाद भी धर्मेद्र ने काफी संघर्ष किया। पहली फिल्म करने के बाद उन्हें मात्र 51 रुपए मिले। धीरे-धीरे हालात बदले। सितारा बनते ही उन्होंने जुहू में एक बंगला लिया और पूछे जाने पर कि कितना बड़ा बंगला है, उन्होंने कहा यही कोई चालीस-पचास मंजियां (खटियाएं) आ जाएंगी। ये था उनका ठेठ गँवईपन, जिसमें पंजाब की माटी का सौंधापन कूट-कूटकर भरा है। जीवन में इंसान अपने तरीके से मापदंड तय करता है। कई चीजें कुछ लोगों के लिए बड़ी सहज होती हैं। इसे वे उसी सहजता से बोल भी जाते हैं। हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि हम उसे पेचीदा बना देते हैं। उसे गुिफत करते रहते हैं। सहज और सरल को यथावत् रखा जाए, तो कई पेचीदे सवाल भी आसानी से सुलझ सकते हैं। अाी कुछ दिनों पहले ही छत्तीसगढ़ जाना हुआ। रास्ते में एक ग्रामीण से पूछा कि यहाँ से उदयपुर कितने किलोमीटर है। ग्रामीण ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया- बस वाला 30 रुपए लेता है। एकदम आसान जवाब। उसने दूरी को न तो कोस से नापा, न ही किलोमीटर से। उसके पास न तो फर्लाग का पैमाना था, न ही गज का। ग्रामीण ने जो बताया, वह दोनों को समझ में आने वाला था। अब यह बात अलग है कि आप अपडेट नहीं हैं। यदि आप अपडेट हैं, तो आपको आसानी से पता चल जाना चाहिए कि बस वाले 30 रुपए में कितने किलोमीटर ले जाते हैं। दूरी को रुपए से नापने का यह तरीका अपने आप में अनोखा है।
जिस तरह से प्यार को सीमाओं से नहीं बाँधा जाता, ठीक उसी तरह जब कोई कहे कि मैं उसे उतना ही प्यार करता हूँ, जितना हनुमान जी श्री राम से करते थे। यहाँ आकर सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं। इससे अधिक तो कोई किसी से प्यार कर ही नहीं सकता। हमारी आदत है कि हम इस प्यार को पेचीदगियों के साथ समझना शुरू कर देते हैं। सागर की अनंत गहराई, जमीं से सितारों की दूरी, जीवन की अंतिम साँसों तक आदि। ये सब सीमाएँ हैं। जीवन बहुत ही सरल और सहज है। इतना अधिक की उसे नापने के लिए हमारे पास कोई पैमाना नहीं है। भोथरे हो गए हैं हमारे पैमाने। हम केवल प्यार ही नहीं, बल्कि संवेदनाएँ और अनुभवों को भी मापने लगे हैं। एक कोशिश केवल एक कोशिश इंसानियत को मापने के लिए करो, तो समझ में आ जाएगा कि इसे मापने के लिए हमारा हर पैमाना काफी छोटा साबित होगा।
डॉ. महेश परिमल
गुरुवार, 10 नवंबर 2011
धार्मिक स्थलों में भगदड़ के पीछे है भक्तों की आतुरता
डॉ. महेश परिमल
हिंदू मंदिरों में होने वाली भगदड़ के लिए यदि कोई जवाबदार है, तो वह है भक्तों की आतुरता। कहा गया है कि भीड़ के पास ताकत होती है, पर विवेक नहीं होता। भीड़ कभी भी हिंसक हो सकती है। भीड़ कभी दूसरों का विचार नहीं करती। यही कारण है कि जब भी कहीं भीड़ होती है, उसे काबू करना बहुत मुश्किल होता है। भीड़ में जान गँवाने वाले भी कम नहीं होते। देश में हर साल ऐसा कोई न कोई हादसा होता ही है, जिसमें भीड़ के कारण लोग मौत के आगोश में समा जाते हैं। कुंभ मेले में भगदड़ के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि धार्मिक आयोजनों में किसी वीआईपी को नहीं जाना चाहिए। इससे वहाँ की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है।
गायत्री परिवार के स्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एक उच्च कोटि के विद्वान और समाज सुधारक थे। हरिद्वार में गायत्री परिवार ने जिस आध्यात्मिक चेतना केंद्र की स्थापना की है, उसका संचालन उत्तम रूप से किया जाता है। वैदिक धर्म के सिद्धांतों और उसके पीछे विज्ञान के संबंध में इस केंद्र द्वारा लगातार शोध किए जा रहे हैं। विश्व में फैले हुए गायत्री परिवार के केंद्र इस सात्विक विचारों का प्रचार निष्ठापूर्वक कर रहे हैं। ऐसे महापुरुष की जन्म शताब्दि के आयोजन में लोग जमा हों और उसमें धक्कामुक्की हो, जिसमें बीस लोगों की मौत हो जाए, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हरिद्वार में हुई इस दुर्घटना की प्रारंभिक जाँच रिपोर्ट में पता चला है कि यह दुर्घटना आयोजकों की लापरवाही के बजाए भक्तों की आतुरता ही अधिक जवाबदार है।
हमारे देश में कहीं भी धार्मिक महात्सव हो, तो हजारों नहीं लाखों की संख्या में भक्त उमड़ पड़ते हैं। यदि आयोजक सचेत न हों, तो भगदड़ की पूरी संभावना होती है। इसमें भीड़ का मनोविज्ञान काम करता है। इसमें लोग अपना विवेक खो बैठते हैं। दूसरों का खयाल ही नहीं रखते। इस वर्ष जनवरी माह में दक्षिण भारत के शबरीमाला मंदिर में भी भगदड़ हुई थी। इसमें सौ से अधिक लोग मारे गए थे। इतने ही घायल हुए थे। इस दुर्घटना में मारे गए लोग कर्नाटक, तमिलनाड़ु, केरल और आंध्रप्रदेश के थे। केरल सरकार ने मृतकों के लिए 5 लाख रुपए देने की घोषणा भी की थी। इसकी जाँच भी हुई थी, पर उसका क्या हुआ, किसी को नहीं पता। वैसे भी जाँच रिपोर्ट पर किसी प्रकार के अमल की परंपरा हमारे देश में है ही नहीं।
हिमाचल प्रदेश में स्थित नैना देवी की शक्तिपीठ में सन 2008 के श्रावण महीने में हुई भगदड़ में 162 लोगों की मौत हो गई थी। एक टेकरी पर स्थित शक्तिपीठ के दर्शन के लिए करीब 50 हजार भक्त जमा हुए थे। उस समय तेज बारिश हो रहीे थी। बारिश की रक्षा के लिए तैयार किया गया एक शेड अचानक टूट गया। लोगों ने यह समझ लिया कि शिलाप्रपात हुआ है। इससे लोगों में घबराहट फैल गई। लोग इधर-उधर भागने लगे। इस भगदड़ में 162 लोग मारे गए। भगदड़ के उस माहौल में पुलिस द्वारा तैयार की गई रेलिंग से बाहर जाने की कोशिशें होने लगी। पुलिस ने भक्तों को रोकने की काफी कोशिशें की, पर जिन्होंने रेलिंग तोड़ी, वे सभी गहरी खाई में गिरने लगे। इसी मंदिर में 1978 में भी भगदड़ मची थी। जिसमें 64 लोग मारे गए थे। इस घटना से मंदिर प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिया था। जहाँ भीड़ जमा होती है, वहाँ अव्यवस्था तो होती ही है। पर जो अफवाह फैलती है, उसे रोक पाना मुश्किल होता है। 2008 के सितम्बर माह में जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में मची भगदड़ में 249 लोग मारे गए थे और 400 लोग घायल हुए थे। नवरात्रि के पहले दिन जोधपुर केप्रसिद्ध मेहरामगढ़ किले में 24 हजार भक्तों की भीड़ उमड़ी थी। इस मंदिर में जाने की जगह बहुत ही सँकरी है, भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बेरीकेड्स भी नहीं लगाए गए थे। इतने में एक धमाका हुआ, लोगों ने समझा, यह बम विस्फोट की आवाज है। लोगों में डर बैठ गया, वे भागने लगे। इससे सैकड़ों लोग कुचले गए। इस मंदिर प्रशासन का दोष अधिक नजर आता है। मंदिर से भक्तों के निकलने के सारे दरवाजे सील कर दिए गए थे। लोगों के जान बचाकर भागने की जगह नहीं मिली, इसलिए कुचले गए। महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित मांढर देवी के मंदिर में 2004 में भगदड़ मची थी। इसमें करीब 300 भक्तों की मौत हो गई थी। यह मंदिर एक टेकरी पर स्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ी काफी सँकरी है। इस मंदिर में काली माता के दर्शन के लिए 25 जनवरी को करीब तीन लाख भक्त जमा हुए थे। भक्त जिस रास्ते से जा रहे थे, वहाँ नारियल के पानी के कारण फिसलन हो गई थी। इतने में करीब की एक दुकान में आग लग गई और गैस सिलेंडर फट गया। इस आवाज के कारण लोगों में घबराहट फैली और अनेक लोगोंे की मौत खाई में गिरने से हो गई।
सन 2010 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़ मचने से 63 भक्तों की मौत हो गई थी। करीब सौ लोग घायल हो गए थे। कृपालु महाराज की पत्नी की पहली पुण्यतिथि को आश्रम द्वारा वस्त्र और बरतन दान किए जाने थे। इस दान को पाने के लिए करीब दस हजार लोग जमा हुए थे। वहाँ ऐसी अफवाह फैली कि आश्रम में एक बिजली के तार से करंट लगने से किसी भक्त की मौत हो गई है। घबराए लोगों ने दरवाजे की तरफ दौड़ लगाई, इस दरवाजे का निर्माण कार्य पूरा भी नहीं हुआ था। लोगों के हुजूम के कारण दरवाजा टूट गया। अनेक लोग उसके नीचे कुचल गए। इसमें जो 63 लोग मारे गए थे, उसमें से 37 तो बच्चे और 25 महिलाएँ थीं। ये सभी मुफ्त में मिलने वाली चीजों के लालच में आए थे।
हरिद्वार में इसके पहले कई भगदड़ मची है। 1995 में आयोजित कुंभ मेले में धक्का-मुक्की से 39 लोगों की मौत हुई थी। 1954 में इलाहाबाद में आयोजित कुंभ मेले में जो भगदड़ मची, उसमें 800 लोग मारे गए थे। 200 लोग लापता हो गए। ये सभी गंगा नदी में डूब गए, ऐसी संभावना व्यक्त की गई। आजादी के बाद यह पहला कुंभ मेला था। इसमें करीब 40 लाख लोग जमा हुए थे। उस समय गंगा नदी का बहाव बदला गया था। इसलिए मेले की जगह में कमी आ गई थी। इस दौरान जब नागा बाबा शाही स्नान के लिए जा रहे थे, तब उनके दर्शनार्थ लोगों की भीड़ उमड़ी। इस मेले में कई नेता भी शामिल हुए थे। पुलिस उनकी सुरक्षा व्यवस्था में लग गई, इसलिए मेले की व्यवस्था में खामी रह गई। दुर्घटना के बाद पंडित नेहरु ने यह टिप्पणी की थी कि नेताओं को कुंभ मेले में जाने का मोह त्यागना होगा। जब दुर्घटना की जाँच द्वारा तैयार की गई समिति द्वारा की गई। इसकी जाँच रिपोर्ट से मेले की व्यवस्था में सुधार किया गया।
इन भगदड़ों में यही बात नजर आई कि जब कहीं हजारों-लाखों लोग जमा होते हैं, तो वहाँ पर मोब साइकोलॉजी काम करती है। विवेक काम नहीं करता। अनुशासन किसी काम का नहीं रह जाता। इंसान अपने होश-हवाश खो बैठता है। दूसरों की चिंता बिलकुल ही नहीं करता। भीड़ निर्भय हो जाती है। प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में गरीब जिस तरह से भगदड़ के शिकार हुए, उसके पीछे का भाव लालच और भय था। हरिद्वार में जो कुछ हुआ, उसके पीछे स्वार्थ और आतुरता थी। दुनिया के धार्मिक स्थल परोपकार करने का आदेश देते हैं और दूसरों की ¨चंता करना सिखाते हैं। किंतु इंसान भीड़ का हिस्सा बनते ही सब कुछ भूल जाता है। धार्मिक स्थलों पर आकर यदि लोग अपने साथ-साथ दूसरों की भी चिंता करने लगे, तो ऐसी दुर्घटनाओं पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। भीड़ को काबू करना मुश्किल है। पर कोई एक आवाज तो ऐसी होनी चाहिए, जिसे सुनकर लोग होश में आ जाएँ। भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, पर उसे बेकाबू करने के लिए एक छोटी सी अफवाह ही काफी
सोमवार, 7 नवंबर 2011
रविवार, 6 नवंबर 2011
यूँ ही चला जाना भूपेन दा का..
डॉ. महेश परिमल
लगता है ईश्वर अचानक संवेदनशील हो उठा है। पहले तो जगजीत सिंह की सुरमई आवाज को अपने पास बुला लिया, फिर वह हमारे बीच माटी की सोंधी महक की पहचान बने चिरंजीवी आवाज के धनी भूपेन हजारिका को भी अपने पास बुला लिया। अब तक हम उनके गीतों से भाव-विभोर हुआ करते थे, अब ईश्वर अकेला ही उनके गीतों का रसास्वादन करेगा! यहाँ आकर लगता है, सचमुच ईश्वर भी अब स्वार्थी हो गया है।
भूपेन दा, ये वही भूपेन दा थे, जिन्होंने पहली बार चुनाव में ऐसा प्रयोग किया, जैसा आज तक कभी नहीं हुआ। ‘गन’ का मुकाबला ‘गान’ से करने वाले भूपेन दा हमारे बीच अब नहीं हैं, पर दिल जब भी हूम हूम करता है, तो वे अनायास ही याद आ जाते हैं। भूपेन दा को सुनते हुए ऐसा लगता है मानों चिरंजीवी आवाज का धनी यह व्यक्ति की आवाज हृदय की गहराइयों को किस तरह से अनजाने में ही कैसे बाँध लेती है? गीत चाहे असमी हों, बंगला हों या फिर हिंदी, सभी गीत भावुक हृदय को बाँधकर रख देते हैं। उन्हें सुनना यानी असम के सुदूर गाँवों का भ्रमण करना। जहाँ संगीत का धारा दिल से बहती है। आवाज में इतनी मिठास कि लोग सुनते ही रह जाएँ। हिंदी में उनका परिचय हमें गुलजार साहब के माध्यम से मिलता है। उनके असमी गीत का हिंदी अनुवाद उन्होंने इतनी खूबसूरती से किया है लगता ही नहीं, ये मूल असमी से अनूदित हैं। ओ गंगा बहती हो क्यों, आमी एक जाजाबोर, एक कली दो पत्तियाँ, डोला हो डोला, आलसी सावन बदली चुराए आदि ऐसे गीत हैं, जिनका भाव न समझने के बाद भी ऐसा लगता है मानों यह हमारा ही गीत हमारे ही हृदय से निकल रहा है। गुलजार साहब के गीतों को जिस तरह से जगजीत ¨सह ने अपनी आवाज से अमर कर दिया, ठीक उसी तरह से भूपेन दा के गीतों को गुलजार साहब ने हिंदी के शब्द देकर अमर कर दिया। इन दोनों ने मिलकर हिंदी सिनेमा ही नहीं, बल्कि हिंदी जगत को ऐसे अमर गीत दिए हैं, जो देश ही नहीं, सात समुंदर पार भी बजते रहेंगे।
जिन्हें संगीत की थोड़ी सी भी समझ न हो, भूपेन दा ने ऐसे लोगों के लिए गीत रचे हैं, गाए हैं। उनके गीत संगीतमय कहानी बुनते हैं। कहीं डर से कँपा देने वाले, तो कहीं खुशी में झूमते हुए, कहीं देश-विदेश की यात्राएँ करवाने वाले, कहीं प्रेमी हृदय की तड़प बताते हुए, तो कहीं सिहरन पैदा करने वाले हैं। उन्हें सुनते हुए हम अपनी सारी पीड़ाएँ भूलकर एक ऐसे लोक में विचरण करने लगते हैं, जहाँ पीड़ा का सागर लहराता हो, अपनत्व की डोर में बँधे प्रेमी युगल हो, गंगा माता पर कटाक्ष करते हुए बोल हो। इन सभी को मिलाकर भूपेन दा का जो खाका तैयार होता है, वह उनकी मधुर आवाज में गुम हो जाता है, रह जाते हैं तो केवल गीत के बोल और हृदय को स्पंदित करता संगीत। अपने गीतों को बुनकर उन्होंने हमें जो संवेदनाएँ दी हैं, उसके लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। शब्द तो आज गुलजार साहब के पास भी नहीं होंगे। हमेशा उनकी भावनाओं को शब्द देते-देते वे आज शब्दविहीन हो गए हैं। भूपेन दा शब्द रचते रहे, शब्द बुनते रहे, शब्द गाते रहे, हृदय को मथते रहे। विश्वास है उनकी अंतिम साँसें भी संगीतमय ही रहीं होंगी।
छियासी साल के हजारिका को 1992 में सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया. इसके अलावा उन्हें नेशनल अवॉर्ड एज दि बेस्ट रीजनल फिल्म (1975), पद्म भूषण (2011), असोम रत्न (2009) और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड (2009) जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। यही नहीं, ‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म में महात्मा गांधी के प्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जन’ को उन्होंने ही अपनी आवाज दी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भूपने हजारिका ने केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा तेजपुर से की और आगे की पढ़ाई के लिए गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में दाखिला लिया. यहां उन्होंने अपने मामा के घर में रह कर पढ़ाई की. इसके बाद 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से इंटरमीडिएट किया और फिर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. वहां से उन्होंने 1946 में राजनीति विज्ञान में एम ए किया. इसके बाद उन्होंने न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से कम्युनिकेशन पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की. 1993 में असोम साहित्य सभा के अध्यक्ष भी रहे. उन्हें कई उपाधियों से नवाजा गया, जिनमें से प्रमुख हैं:- सुधाकण्ठ, पद्मश्री, संगीत सूर्य, सुर के जादूगर, कलारत्न, धरती के गन्धर्व, असम गन्धर्व, गंधर्व कुंवर, कला-काण्डारी, शिल्पी शिरोमणि, बीसवीं सदी के संस्कृतिदूत, यायावर शिल्पी, विश्वबंधु और विश्वकण्ठ ।
जीवन चलता रहता है, भूपेन दा भी हमेशा अपने सुमधुर गीतों के साथ हमारे साथ चलते रहेंगे। गीतों में जब भी माटी के सोंधेपन की बात होगी, भूपेन दा का नाम सबसे आगे होगा। जगजीत अपनी सुरमई आवाज के साथ चले गए, तो भूपेन हजारिका अपनी चिरंजीवी आवाज को लेकर चले गए। संगीत की दुनिया में ये दोनों ही एक बेजोड़ गायक रहे, जिनका स्थान कभी कोई नहीं ले सकता। भूपेन दा को भावभीनी श्रद्धांजलि।
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
मारन बंधुओं पर लटकती तलवार
डॉ. महेश परिमल
देश के लिए शर्मनाक 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला न जाने कितनों की बलि लेगा। जैसे-जैसे इसकी परतें खुलती जा रही हैं, वैसे-वैसे नए-नए घोटालेबाज चेहरे सामने आते जा रहे हैं। अब एक नया तथ्य सामने आया है कि इस घोटाले की शुरुआत ए. राजा ने नहीं, बल्कि दयानिधि मारन ने की थी। केंद्र में दयानिधि मारन का कद आज की तारीख में इतना है कि इस घोटाले में सहभागिता के कारण उन्हें अपने पद से इस्तीफा देने के चार महीने बाद उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई। अभी तक उनकी धरपकड़ नहीं हुई है। जब इस मामले में सुप्रीमकोर्ट ने लाल आँखें दिखाई, तब सीबीआई सक्रिय हुई और उनके खिलाफ सबूत इकट्ठे करने लगी। अभी भी लगता यही है कि सीबीआई मारन बंधुओं की गिरफ्तारी का मुहूर्त ही देख रही है। हाल में मारन बंधुओं के कार्यालय में मारे गए छापे में कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली हैं। वास्तव में यूपीए शासन के दौरान टेलीकॉम घोटाले की शुरुआत ए. राजा से पहले दयानिधि मारन ने की थी। 14 दिसम्बर 2005 में दयानिधि टेलीकॉम मिनिस्टर थे, तब उन्होंने ट्राई की मंजूरी के बिना नए लायसेंस देने के लिए गाइड लाइन तैयार की। अपने कार्यकाल में दयानिधि नीलाम किए बिना ही 27 लायसेंस जारी किए। दयानिधि ने टाटा समूह के आवेदन को भी नामंजूर कर उन्हें नाराज कर दिया। टाटा से उन्होंने तब हाथ मिलाया, जब सी. शिवशंकर ने एयर सेल कंपनी बेच दी। दयानिधि के बाद ए. राजा ने जब अपना कार्यभार संभाला,तब उन्होंने टाटा समूह को भी लाभ दिलाया। दयानिधि मारन फोब्र्स की महत्वपूर्ण हस्तियों की सूची में शामिल हैं। इतनी बेशुमार दौलत मारन बंधुओं ने गलत तरीके से कमाई है, ऐसा सीबीआई का मानना है। देश के 15 वें नम्बर के इस धनाढच्य व्यक्ति ने मलेशिया की कंपनी मेक्सीस से 700 करोड़ रुपए का लाभ लिया था। यदि मारन बंधु गिरफ्तार हो जाते हैं, तो ऐसा पहली बार होगा कि फोब्र्स की सूची में शामिल होने वाली हस्तियों को जेल जाना पड़े। गलत कार्यो से जो लगातार कमाई कर रहे हैं, उन्हें मारन बंधुओं की हालत से सबक लेना चाहिए।
2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा और कनिमोझी के बाद अब तिहाड़ जेल के मेहमान बनने वाले हैं दो भाई, दयानिधि मारन और कलानिधि मारन। दयानिधि की उम्र केवल 38 वर्ष की थी, तब वे यूपीए वन के कार्यकाल में मंत्री पद प्राप्त कर लिया था। दयानिधि और कलानिधि पर भ्रष्टाचार के आरोप में सीबीआई ने उनके कार्यालयों में छापा मारा। वहाँ मिले दस्तावेज के आधार पर उनसे अब पूछताछ की जाएगी। उसके बाद उनकी गिरफ्तारी तय है। मारन बंधुओं का शुमार देश के अमीर लोगों में होता है। इनके सन टीवी समूह में 20 टीवी चैनल और 45 एफ.एम. चैनल हैं। तमिलनाड़ु के अलावा विश्व में दस करोड़ परिवार उनके चैनलों के मजे लेते हैं। उनके हाथ में तमिलनाड़ु के दो महत्वपूर्ण अखबार और चार पत्रिकाएँ हैं। उनकी एक फिल्म प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी के अलावा एयरलाइंस भी है। फोब्र्स मैगजीन द्वारा 2011 में सबसे अमीर भारतीयों की जो सूची प्रकाशित की, उसमें दयानिधि मारन 3.5 अरब डॉलर की सम्पत्ति के साथ 16 वें नम्बर पर रखा है। 2005 में उन्होनें एसएसबीसी बैंक से 42 करोड़ रुपए में जमीन का एक टुकड़ा खरीदा था, दूसरे वर्ष उन्होंने चेन्नई के पॉश इलाके में 80 करोड़ का एक प्लाट खरीदा। चेन्नई के इतिहास में अब तक का यह सबसे बड़ा जमीन का सौदा था।
दयानिधि और कलानिधि के पिता का नाम त्यागराज सुंदरम था। वे तांजोर जिले के एक छोटे से गाँव में रहते थे। चेन्नई के पचैअप्पा कॉलेज में पढ़कर उन्होंने एम.ए. कर पत्रकार बने। उस समय उनके चाचा करुणानिधि तमिलनाड़ु की राजनीति में सक्रिय हो रहे थे। करुणानिधि के ब्राrाण विरोधी राजनीति में स्थापित होन के लिए उन्होंने अपने नाम से त्यागराज जैसा उपनाम हटाकर मारन रख लिया। जब करुणानिधि ने अपने दैनिक अखबार ‘मुरासोली’ का संपादक बनाया, तब से त्यागराज सुंदरम मुरासोली मारन के नाम से पहचाने जाने लगे। इसके बाद वे अपने चाचा की ऊँगली थामकर राजनीति का ककहरा समझने लगे।सन 1967 द्रमुक के स्थापक अन्नादुराई तमिलनाड़ु के गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने दक्षिण मद्रास की लोकसभा सीट खाली की थी। करुणानिधि के कहने से यह सीट मुरासोली मारन को दी गई। वे सांसद बन गए। मुरासोली मारन 36 साल तक दिल्ली की राजनीति में रहे। इस दौरान उत्तर भारत के नेताओं से उन्होंने प्रगाढ़ संबंध बनाए। उसके बाद तो हालत यह हो गई कि केंद्र में किसी की भी सरकार हो, मुरासोली उसमें अवश्य होते। 1988 में वीपी सिंह सरकार में वे मंत्री रहे, 1995 में यूनाइटेड फंट्र की सरकार में भी उनकी उपस्थिति रही, उसके बाद 1999 में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए में भी वे मंत्री बने। 2003 में मुरासोली मारन का देहांत हो गया। इससे करुणानिधि को बहुत सदमा लगा। तब उन्होंने मारन के छोटे पुत्र कलानिधि को केंद्रीय मंत्री पद का ऑफर दिया। कलानिधि को राजनीति से अधिक अपने काम-धंधे में अधिक दिलचस्पी थी। इसलिए करुणानिधि ने 38 वर्षीय दयानिधि को दिल्ली की राजनीति से जोड़ दिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में दयानिधि को द्रमुक की टिकिट मिली और वे सांसद बनकर युपीए एक की सरकार में दूरसंचार मंत्री बने। कलानिधि मारन ने अमेरिका यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था। तमिलनाड़ु में उन्होंने पहले निजी टीवी चैनल सन टीवी नेटवर्क की स्थापना की। उसका तेजी से विकास किया। सन 1991 में जब जयललिता पहली बार तमिलनाड़ु की मुख्यमंत्री बनी, तब सन टीवी उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गया था।
इधर दिल्ली और तमिलनाड़ु में मारन बंधुओं का कद लगातार बढ़ता गया। इसके साथ-साथ उनका काम-काज भी बढ़ने लगा। सन टीवी के माध्यम से उन्होंने अपना राजनैतिक दबदबा बढ़ाया। 2007 में उनके अखबार दिनकरण में एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ, जिसमें बताया गया कि तमिलनाड़ु की 70 प्रतिशत जनता करुणानिधि के वारिस के रूप में उनके छोटे पुत्र स्टालिन को चाहती है। जबकि उनके बड़े बेटे अजागिरी को मात्र दो प्रतिशत लोग ही चाहते हैं। इस खबर के प्रकाशन के बाद अजागिरी के समर्थक क्रोधित हुए और दिनकरण के मदुराई स्थित कार्यालय को आग लगा दी, जिसमें तीन कर्मचारी मारे गए। इस घटना की प्रतिक्रिया में दिल्ली में दयानिधि को मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। उनके स्थान पर ए. राजा को भेजा गया। 2009 में यूपीए 2 की सरकार में दयानिधि को कपड़ा मंत्री बनाया गया। 2004 और 2007 के दौरान 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सहभागिता होने के कारण उन्हें यह पद भी छोड़ना पड़ा था।
जब 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया, तब न तो दयानिधि और न ही कलानिधि का नाम इसमें जोड़ा गया। एयरसेल कंपनी के भूतपूर्व मालिक सी. शिवशंकर ने जब यह आक्षेप किया कि दयानिधि मारन ने उन्हें लायसेंस के लिए काफी परेशान किया। न चाहते हुए भी मुझे अपनी मलेशिया स्थित कंपनी को मेक्सीस कम्युनिकेशन को बेचनी पड़ी। इसके बाद तो दयानिधि की कृपा से उन्हें 2 जी का लायसेंस मिल गया। इस लाभ के बदले में मेक्सीस की साथी कंपनी ‘एस्ट्रो’ ने कलानिधि मारन की कंपनी सन डायरेक्ट के शेयर 550 करोड़ रुपए में खरीद लिए। सीबीआई की एफआईआर के अनुसार यह रकम मारन बंधुओं को रिश्वत के बतौर दी गई थी। एयरसेल कंपनी ने 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए दिसम्बर 2004 में आवेदन किया, तब दयानिधि मारन दूरसंचार मंत्री थे। दयानिधि ने ही इस फाइल पर टिप्पणी लिखी कि इस आवेदन के समाधान में बेवजह उतावलापन दिखाया जा रहा है। इस दौरान मलेशिया की मेक्सीस कंपनी ने एयरसेल को खरीदने का ऑफर दिया। अक्टूबर 2005 में एयरसेल के मालिक सी. शिवशंकरन और मेक्सीस के एक्जिक्यूटिव राल्फ मार्शल के बीच मंत्रणा हुई। मार्शल ने स्पष्ट कहा कि यदि वे एयरसेल कंपनी बेच देंगे, तो उन्हें तुरंत ही 2 जी का लायसेंस मिल जाएगा। मीटिंग के तुरंत बाद शिवशंकरन के पास दयानिधि का फोन आया। दयानिधि ने साफ तौर पर कहा कि उसे एयरसेल कंपनी को बेच देना चाहिए। उनकी बात मान ली गई। 2005 में जब एयरसेल कंपनी मेक्सीस को बेच दी गई, उसके तुरंत बाद उन्हें 2 जी का लायसेंस मिल गया। इसके एवज में मारन बंधुओं को 700 करोड़ रुपए का लाभ हुआ।
डॉ. महेश परिमल
शनिवार, 29 अक्तूबर 2011
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
सोमवार, 17 अक्तूबर 2011
क्या बोल गया अन्ना का मौन?
डॉ. महेश परिमल
आखिर हिसार से कुलदीप विश्वोई जीत गए। यहाँ कांग्रेस तीसरे क्रम पर रही। कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश एक कमजोर प्रत्याशी थे। उनकी हार से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। एक लहर यह चली कि शायद अन्ना की अपील काम कर गई। पर अब अपनी इस अपील पर शायद अन्ना को ही मलाल है। अब उन्होंने मौन साध लिया है। उनका मौन इसलिए आवश्यक भी था कि इन दिनों जो नए सवाल उपजे हैं, उसके जवाब उनके पास नहीं हैं। एक तो उन्होंने अनजाने में भाजपा की जिस तरह से सहायता की है, उससे उन पर संघ से प्रभावित होने का आरोप लग रहा है। इसके बाद जब आडवाणी जी रथयात्रा सतना पहुँची, तब उसके कवरेज के लिए पत्रकारों को जिस तरह से धन दिया गया, उससे यही साबित होता है कि जिस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए उन्होंने रथयात्रा शुरू की है, उसके कवरेज के लिए भी भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ रहा है। तीसरी बात येद्दियुरप्पा का जेल जाना भी इस बात का परिचायक है कि यदि ये वास्तव में दोषी थे, तो फिर इन्हें भाजपा ने ही इतने लम्बे समय तक संरक्षण क्यों दिया? इन सवालों का जवाब अन्ना के पास नहीं है। यही नहीं, आडवाणी भी इन सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं। भोपाल में उन्होंने इस तरह के सवालों से बचने की भरसक कोशिश की। कई बार तो उन्होंने खामोशी का सहारा लिया। आखिर कब तक वे और अन्ना खामोशी की चादर ओढ़े रखेंगे। कुछ तो जवाब देना ही होगा।
इसके अलावा अन्ना अपनों से ही परेशान हैं। उनके साथियों की हरकतें ही ऐसी हो गई हैं कि अन्ना को भी जवाब नहीं सूझ रहा है। स्वामी अग्निवेश की कपिल सिब्बल से बातचीत की सीडी बाहर आने के बाद अन्ना को जो झटका लगा, वह तो उनके आंदोलन को मिले जनसमर्थन से कम हो गया। पर कश्मीर पर प्रशांत भूषण ने जो बयान दिया, उसकी प्रतिक्रिया के एवज में उनकी जिस तरह से धुलाई हुई, वह भले ही एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक है, पर नाराजगी को बाहर आने के लिए कोई रास्ता तो चाहिए। जो प्रशांत भूषण ने कहा, वही तो पाकिस्तान लम्बे समय से कह रहा है। उनके बयान से पाकिस्तान को ही बल मिला। वह तो इसी ताक में है कि कश्मीर में किसी तरह से जनमत संग्रह हो, ताकि वह अपनी चालाकी से लोगों को भरमा सके। अपनों के दर्द से परेशान अन्ना का अब खामोश रहना ही ठीक है। हिसार चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी भले ही न जीत पाया हो, पर अन्ना जीत गए, यह कहना मुनासिब नहीं होगा। जिस तरह से वहाँ कांग्रेस की हार तय थी, ठीक उसी तरह अन्ना की अपील कोई असर नहीं छोड़ेगी, यह भी तय था। अब भले ही कितना भी कह लिया जाए कि हिसार में कांग्रेस अन्ना के प्रभाव के कारण हारी, तो यह गलत ही होगा।
हिसार में कांग्रेस की हार कोई अर्थ नहीं रखती। लेकिन अन्ना की सीडी जिस तरह से वहाँ लोगों को सुनाई गई, उससे यही लगता है कि अन्ना को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया। जनलोकपाल विधेयक के लिए अन्ना के आंदोलन को भले ही अपार जनसमूह का साथ मिला हो, पर अब सरकार की लेटलतीफी से उनकी छवि लगातार धूमिल होती जा रही है। उस पर उनके साथियों के बयानों ने इस छवि को काफी नुकसान पहुँचाया है। अपनी लेटलतीफी के लिए पहचानी जाने वाले मनमोहन सरकार यही चाहती है कि अन्ना को मिल रहे जनसमर्थन का ग्राफ लगातार कम हो। यही हो रहा है। हिसार चुनाव के पहले अन्ना ने जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ हवा चलाई थी, उसके जवाब में कांग्रेस ने कहा कि अगर अन्ना में हिम्मत है, तो वे हिसार में अपना प्रत्याशी खड़ा करके दिखाएँ, केवल प्रत्याशी खड़ा करना महत्वपूर्ण नहीं, उसे जीतना भी आवश्यक होता। तभी यह माना जाता कि अन्ना की अपील में दम है। ऐसा केवल लोकनायक जयप्रकाश ही कर सकते थे। जबलपुर में उन्होंने जिस तरह से कांग्रेस के गढ़ पर धावा बोला और एकदम नए नेता शरद यादव को जिताया, इससे उनके कद का पता चलता है।
लोकसभा चुनाव में जिस प्रत्याशी की जीत का संभावनाएँ प्रबल हो और वह चुनाव हार जाए, तो यह आश्चर्यजनक हो सकता है। हाँ यदि कमजोर प्रत्याशी जीत जाए, तो वह इसका पूरा श्रेय लेने से नहीं चूकता। हिसार में तो कांग्रेस के उम्मीदवार जयप्रकाश तीसरी पोजीशन में है। उनकी हार का श्रेय अन्ना को नहीं मिलेगा। इसे दूसरे नजरिए से देखें तो जयप्रकाश की हार के लिए कोशिश करने का मतलब यही है कि अन्य प्रत्याशियों को जिताने के लिए रास्ता साफ करना। ये दोनों प्रत्याशी भ्रष्ट हैं, यह तो सभी को पता है। पर शायद अन्ना को यह पता नहीं कि उन्होंने अनजाने में ही भ्रष्ट लोगों की सहायता ही की । भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले जब भ्रष्ट लोगों के संरक्षक बन जाए, तो इसे क्या कहा जाए?
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अन्ना अब रास्ते से भटक रहे हैं। उनकी अपनी सोच सीमित है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तक उनकी सोच में साफगोई थी, पर अब वे अपनों से ही संचालित होने लगे हैं। उनकी टीम आंदोलन करने में सक्षम हो सकती है, पर चुनावी मैदान में उतरकर लोगों को रिझाने में नाकामयाब है, यह तय है। अन्ना की टीम को अपने आप पर ही विश्वास नहीं है। टीम के अंतर्कलह भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं। ऐसे में आखिर वे कब तक खींच पाएँगे, विभिन्न विचारधाराओं की इस नाव को? भाजपा यदि भ्रष्ट न होती और अन्ना उनके प्रत्याशियों का समर्थन करते, तो संभव है, लोग उन्हें गंभीरता से लेते। पर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इससे साफ है कि वे न तो अंतर्कलह को ही रोक पा रहे हैं और न ही चुनाव लड़ने के लिए हिम्मत ही बटोर पा रहे हैं। ऐसे में उनकी स्वच्छ छवि को उज्ज्वल बनाए रखना एक दुष्कर कार्य है। आज भले ही वे मौनधारण किए हुए हों, पर सच तो यह है कि इस मौन ने ही काफी कुछ कह दिया, पर इसे समझा कितनों ने?
डॉ. महेश परिमल
सोमवार, 10 अक्तूबर 2011
माँ पर पी-एच.डी. और पी-एच.डी. पर माँ
बहुत ही अनजाना-सा नाम है, सिंधुताई सपकाल का। उनका संघर्ष भले ही किसी के लिए महत्वपूर्ण हो न हो, पर उनके बेटे के लिए अवश्य है। इन दिनों सिंधुताई का बेटा उन पर पी-एच.डी. कर रहा है। लोग अपने आदर्शो पर अनुभवों की किताबें लिखते हैं, पर पी-एच.डी. करना अलग बात है। पी-एच.डी. का एक अलग ही आधार होता है। माँ को अध्यायों में विभाजित करना होता है। उनके संघर्षो और कड़वे अनुभवों को अक्षरों का रूप देते हुए एक-एक पन्नों पर बाँटना होता है। जहाँ हर पूर्ण विराम एक वेदना को आँसू का रूप देता है। बूँद-बूँद आँसूओं से लिखी इबारत माँ के संघर्ष को एक नई ऊँचाई देगी, ऐसा विश्वास किया जा सकता है। सिंधुताई के बेटे की पी-एच.डी. का आधार भी शायद यह हो सकता है। माँ चिंदी के रूप में, दसवें वर्ष में शादी अर्थात बालिका वधू के रूप में, बदचलनी का आरोप झेलनेवाली एक बेबस माँ के रूप में, समाज से निष्कासित नारी के रूप में, भीख माँगनेवाली एक लाचार माँ के रूप में, श्मशान में रहनेवाली एक नि:सहाय माँ के रूप में, चिता की आँच में रोटी सेंकने वाली एक बेचारी माँ के रूप में और अंत में स्नेह लुटाने वाली हÊार बच्चों एक स्नेहमयी माँ के रूप में। सिंधुताई पर केन्द्रित शोधप्रबंध के उक्त अध्याय हो सकते हैं। माँ पर महाकाव्य तो लिखा जा सकता है, पर उन पर शोधप्रबंध तैयार करना मुश्किल है, क्योंकि शोधप्रबंध में ईमानदारी के अवयव होते हैं। जो कुछ पर माँ पर बीता, उसे शब्दों की माला पहनाना एक अलग ही अनुभव होता है।
भाषाविज्ञान में पी-एच.डी. पर माँ को लेकर मेरा अलग ही तरह का अनुभव है। जब मैं अपना शोधप्रबंध लेकर अनपढ़ माँ के पास पहुँचा, तो हमारे बीच जो संवाद हुआ, वह कुछ इस तरह था -
- बेटा ! इसे तूने लिखा है ?
- हाँ , माँ।
- क्या तू लेखक है ?
- नहीं, माँ।
- तो फिर इत्ता सारा कैसे लिख लिया ?
- इतना तो सबको लिखना ही पड़ता है माँ।
- पर तू तो विद्यार्थी है, लेखक नहीं।
- सभी विद्यार्थी को इतना लिखना ही होता है माँ।
- तब तो तुझे बहुत तकलीफ हुई होगी ?
- लिखने में कैसी तकलीफ माँ ?
- बेटा, मैं अनपढ़ जरूर हूँ, पर तुझे मिलाकर ग्यारह पढ़े-लिखे बच्चो की माँ भी हूँ। मुझे मालूम है, पढ़ने-लिखने में कितनी तकलीफ होती है।
- मैं खामोश!
- बेटे, अपने हाथों को जरा इधर ला, मैं उसे चूम लेती हूँ, ताकि तेरे हाथों की पीड़ा कुछ कम हो सके।
माँ मेरे हाथों को चूम रही थी। मैं गीली आँखों से उनका ममत्व रूप देख रहा था। मुझे तो उसी दिन पी-एच.डी. मिल गई थी। यह मैंने उसी दिन मान लिया था। यह बात 18 वर्ष पहले की है। माँ अब इस दुनिया में नहीं है। अभी दो अक्टूबर को उनकी दसवीं पुण्यतिथि थी। मैं आज भी पीड़ा के क्षणों में अपने हाथों पर माँ के चुम्बन को महसूस करता हूँ। हममें से कितने ऐसे हैं, जो माँ को इस रूप में याद करते हैं ?
माँ स्नेह की निर्झरिणी है, जो सतत प्रवाहमान है। इसकी हर बूँद में ममत्व का अहसास है, जो एक शिशु को जीवन जीने की प्रेरणा देता है। जब इसी माँ को वृद्धाश्रम में दिन बिताते हुए देखता हूँ तो माँ के प्रति हमारे दृष्टिकोण बदलते हुए दिखाई देते हैं। बदनसीब हैं वे जिनके माता-पिता वृद्धाश्रमों में कैद हैं और खुशनसीब है सिंधुताई का वह बेटा जो केवल अपनी माँ पर ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज में सिंधुताई की तरह जीवन व्यतीत करती माँओं पर पी-एच.डी. कर रहा है।
डॉ. महेश परिमल
शनिवार, 24 सितंबर 2011
मौलवी, पादरी, आरएसएस और प्रजा सभी शामिल हैं उस आंदोलन में
डॉ. महेश परिमल
अगस्त में जिस तरह से अन्ना ने अपना आंदोलन चलाया और उसे देशव्यापी ख्याति मिली। इसी तरह का एक आंदोलन इन दिनों तमिलनाड़ु के कुंदनकुलम में चल रहा है, जिसमें क्या विद्यार्थी, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, महिलाएँ सभी इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं। यह आंदोलन है रुस के सहयोग से करीब 15 सौ करोड़ की लागत से बनने वाले परमाणु संयंत्र के खिलाफ। यह आंदोलन तब शुरू हुआ है, जब इसका 99 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है। दिसम्बर में इसका उद्घाटन होना था। स्थानीय जनता इसका विरोध कर रही है। उनके इस आंदोलन में सभी वगोर्ं का साथ मिल रहा है। मुख्यमंत्री जयललिता के लिए एक नई परेशानी खड़ी हो गई है। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने राज्य की जनता से यह अपील की थी कि परमाणु संयंत्र की तरफ से आपको कोई नुकसान नहीं होगा, आप सुरक्षित रहेंगे। पर उनकी इस अपील का नागरिकों पर कोई असर नहीं हुआ। नागरिक जापान के फुकुशिमा और हाल ही में फ्रांस के परमाणु संयंत्र में हुई दुर्घटना के मद्देनजर परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे हैं।
परमाणु संयंत्रों में होने वाली दुर्घटनाओं को देखते हुए अब भारतीय जनता भी इसके प्रति सचेत हो गई है। नागरिक यह मान रहे हैं कि परमाणु संयंत्रों के आसपास रहने वाले लोग सुरक्षित नहीं है। संयंत्र कितने भी मजबूत हों, पर वह नागरिकों की जान की हिफाजत नहीं कर सकते। यही धारणा अब लगातार बलवती होती जा रही है। तमिलनाड़ु के कुंदनकुलम में परमाणु संयंत्र के निर्माझा के संबंध में सन् 1988 में रुस के साथ समझौता हुआ था। इसका निर्माण कार्य पिछले 20 वर्षो से चल रहा था। पहले तो नागरिकों ने यह समझा कि इस संयंत्र से उन्हें रोजगार मिलेगा, पर जापान और फ्रांस में हुई दुर्घटना के बाद नागरिको को अपनी सुरक्षा का भय सताने लगा है। अब जाकर यह पूरा होने को है, तो स्थानीय नागरिक उसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं।
तमिलनाड़ु के तिरुनलवेल्ली जिले के समुद्र किनारे एक हजार मेगावाट की क्षमता के दो परमाणु बिजली संयंत्र रुस के सहयोग से बन रहे थे। इसका काम दस वर्ष पहले शुरू हुआ था। राज्य सरकार की योजना है कि इससे 1200 मेगावॉट की क्षमता वाले चार और संयंत्र स्थापित किए जाएँ। इस प्लांट का काम शुरू हुआ, तब कुंदनकुलम करीब-करीब उजाड़ था। आबदी मात्र दस हजार रह गई थी। यहाँ रोजगार के अवसर बिलकुल भी न थे। इसलिए लोग रोजी रोटी की तलाश में मेंगलोर, मैसूर, मुम्बई और दुबई चले गए। धीरे-धीरे प्लांट की ख्याति बढ़ने लगी। इससे लोगों को लगा कि अब यहाँ हमें रोजगार मिल जाएगा, तो वे अपने घरों की ओर लौटने लगे। वे सभी लौट तो आए, पर उलझन यह थी कि वे परमाणु संयंत्र से होने वाली समृद्धि की ओर देखें कि उससे होने वाले नुकसान और असुरक्षा पर ध्यान दें। इसी बीच फुकुशिमा में होने वाली दुर्घटना से उन्हें यह सोचने को विवश कर दिया कि समृद्धि से अधिक महत्वपूर्ण है सुरक्षा। बस शुरू हो गया विरोध।
परमाणु संयंत्रों का विरोध केवल तमिलनाड़ु में ही हो रहा है, ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र के जैतापुर और गुजरात के मीठी वीरडी गाँव में भी परमाणु संयंत्रों का विरोध किया जा रहा है। इस विरोध और तमिलनाड़ु के विरोध में एक बड़ा अंतर यही है कि तमिलनाड़ु में परमाणु संयंत्रों का काम 99 प्रतिशत पूरा हो चुका है, जबकि इन दोनों का काम अभी शुरू ही नहीं हुआ है। विरोध करने वाले यही कह रहे हैं कि जब परमाणु संयंत्रों का काम शुरू हुआ, तब हम इनके दुष्परिणामों से अवगत नहीं थे, पर जापान के फुकुशिमा की हालत देखकर हम सचेत हो गए हैं। कुंदनकुलम में अभी 127 परिवार संयंत्र के सामने आमरण अनशन पर बैठे हैं। इनमें वरिष्ठ नागरिक, विद्यार्थी, पादरी, संघ परिवार के कार्यकत्र्ता और विकलांग नागरिक भी शामिल हैं। इस पूरे भू-भाग में करीब एक लाख लोग परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे हैं, इसलिए जयललिता सरकार भी मुश्किल में है। इस संयंत्र के लए न्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन ऑफ इंडिया द्वारा अभी तक करीब 15 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। 2003 में जब यहाँ सुनामी का कहर बरपा था, तब बेघर हुए लोगों को नए सिरे से बसाया गया था। बसाहट के दौरान बहुत से लोग आ गए, कोई अंकुश न होने के कारण अब यहाँ एक लाख लोग रह रहे हैं।
परमाणु संयंत्र के विरोध के पीछे एक रोचक तथ्य यह भी है कि न्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन के अधिकारियों द्वारा स्थानीय नागरिकों को परमाणु संयंत्र की सुरक्षा के बारे में जब प्रशिक्षण दिया गया, तब इसकी मोक ड्रील की गई। इस दौरान अधिकारियों ने नागरिकों से कहा कि आप जितना अधिक तेज दौड़कर इस संयंत्र से दूर हो सकते हो, हो जाओ। इससे नागरिक इतने अधिक दहशत में आ गए कि उन्होंने संयंत्र का विरोध करने का निर्णय ले लिया। इनके साथ तमिलनाडु के सभी धर्मो के लोग और राजनेता, स्थानीय नेता भी संगठित हो गए हैं। इसके पहले इस तरह की एकता कभी देखी नहीं गई। इसका केंद्र बिंदु कुंदनकुलम में स्थित सेंट मेरी चर्च है। आरएसएस के कार्यकर्ता भी इस विरोध में पादरियों के साथ खड़े हैं। यही नहीं इन्हें स्थानीय मौलवियों का भी पूरा सहयोग मिल रहा है। कई पर्यावरणविदों को भी यहाँ देखा जा सकता है। ग्रीनपीस जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था भी इंटरनेट का उपयोग करते हुए इस विरोध को विश्वव्यापी बना रही है। पहले तो राज्य के नेताओं ने इस विरोध की उपेक्षा की, पर जब उन्होंने देखा कि पूरा प्रदेश इस मामले में एकजुट है, तो वे भी विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गए।
मजबूत संयंत्रन्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन ऑफ इंडिया के अधिकारी कहते हैं कि इस प्लांट को सुरक्षित बनाने के हरसंभव उपाय किए गए हैं। उनके अनुसार अणु रिएक्टरों को 1.20 मीटर मोटे सीमेंट के कांक्रीट से ढाँका गया है। उसकी सतह लीकप्रूफ लोहे की प्लेटों से बनाई गई है। इस प्लांट को समुद्र की सतह से 7.50 मीटर ऊँचे प्लेटफार्म पर बनाया गया है। ताकि सुनामी की आक्रामक लहरों से उसकी रक्षा की जा सके। सुनामी के दौरान इस संयंत्र की बिजली बंद हो जाए, तो रिएक्टरों को ठंडा रखने के लिए एक डीजल जेनेरेटर की आवश्यकता होती है, लेकिन यहाँ 4 जेरेरेटर रखे गए हैं। यदि ये जेनेरेटर भी फेल हो जाएँ, तो गर्मी कम करने के लिए भी वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। दूसरी ओर संयंत्र का विरोध करने वाले यही कह रहे हैं कि ये सारी व्यवस्थाएँ जापान के फुकुशिमा में भी थीं। जापान विज्ञान एवं बेहतर प्रबंधन की दृष्टि से एक प्रगतिशील देश है, उसके बाद भी वहाँ दुर्घटना हो गई। प्रकृति के कोप के आगे उसने घुटने टेक दिए। यह सब होते हुए हम भारत के वैज्ञानिक, सरकारी अधिकारियों और प्रबंधन पर कैसे भरोसा करें? प्रकृति का कोप जब भी बरसता है, तो वह पहले से अधिक आक्रामक होता है। इसलिए हम कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। उधर तमिलनाड़ु सरकार उलझन में है। मुख्यमंत्री जयललिता ने कुछ दिनों पहले ही इस संबंध में कुंदनकुलम की जनता के नाम एक अपील जारी कर यह विश्वास दिलाया था कि इस संयंत्र से उन्हें कोई खतरा नहीं है। लेकिन जनता इस सरकारी आश्वासन पर भरोसा करना ही नहीं चाहती। उसका कहना है कि वे क्या इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि सुनामी की लहरे 7.5 मीटर से ऊँची नहीं होंगी। इसका जवाब किसी के पास नहीं था।
रुस सरकार की रोसेटम कंपनी द्वारा पश्चिम बंगाल के हरिपुर में एक हजार मेगावॉट की क्षमता वाले परमाणु संयंत्र के निर्माण की केंद्र सरकार की योजना थी। इस प्लांट के लिए समझौता 1988 में हुआ था। किंतु पश्चिम बंगाल की जनता द्वारा इसका विरोध किए जाने पर अभी तक इस प्लांट का काम शुरू ही नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल की कमान जब ममता बनर्जी ने सँभाली, तब इस प्लांट के निर्माण की आशा जागी थी, पर ममता बनर्जी ने एक बार में यह कहकर इस पर पानी फेर दिया कि मेरे रहते राज्य में कहीं भी परमाणु संयंत्र स्थापित करने की अनुमति नहीं मिलेगी। अब केंद्र सरकार इस प्लांट को और कहीं स्थापित करने की सोच रही है। फ्रांस के एटामिक पॉवर प्लांट में जो विस्फोट हुआ, उसे अरेवा कंपनी ने तयार किया था। यही नहीं उसका संचालन भी यही कंपनी कर रही थी। महाराष्ट्र के जैतापुर और गुजरात के मीठी वीरडी में जो परमाणु संयंत्र स्थापित होने हैं, उसका काम भी अरेवा कंपनी को ही करना है। साफ बात है जो कंपनी अपने ही देश में स्थापित परमाणु संयंत्र को सुरक्षित नहीं रख पाई, वह भारत में किस तरह से सुरक्षित रख सकती है? अब तो जब तक देश में स्थापित होने वाले परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के बारे में समग्र चर्चा नहीं हो जाती, तब तक इन परमाणु संयंत्रों का काम स्थगित कर दिया जाना चाहिए। क्या आपको ऐसा नहीं लगता?
डॉ. महेश परिमल
बुधवार, 7 सितंबर 2011
रविवार, 7 अगस्त 2011
नहीं मानेंगे अन्ना, प्रशासन है चौकन्ना
डॉ. महेश परिमल
भ्रष्टाचार इस देश की रग-रग में समा गया है। भ्रष्टाचार के बिना इस देश का पत्ता तक नहीं हिलता। इसके बिना तो बच्चे को स्कूल में एडमिशन तक नहीं मिलता। भ्रष्टाचार से ही थाने में किसी के खिलाफ एफआईआर लिखाई जा सकती है। भ्रष्टाचार के बिना चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। भ्रष्टाचार के बिना रोड बनाने के लिए ठेकेदार नही मिलता। इसके बिना न तो नौकरी मिलती है और न ही राशनकार्ड, और तो और बिना लेन-देन के आप अपना ड्राइविंग लायसेंस बनवाकर देख लें। भ्रष्टाचार से केवल हमारा ही देश नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ही इससे ग्रस्त है। सभी के लिए यह एक महारोग है। यह अच्छी बात है कि अन्ना हजारे ने देश में फैेले भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सरकार के खिलाफ लड़ाई शुरू की है। परन्तु सोचो, क्या एक लोकपाल की नियुक्ति हो जाने से गाँवों में होने वाले पुलिस अत्याचार कम हो जाएँगे? पटवारी ग्रामीणों से रिश्वत लेना बंद कर देंगे। सरकारी कार्यालयों में बाबू बिना दाम के लोगों का काम करना शुरू कर देंगे? एक लोकपाल की नियुक्ति से ही क्या पूरे देश में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? यह सोचना एक दिवास्वप्न ही है। देश में भ्रष्टाचार एक श्सिस्टम यानी व्यवस्था्य से पैदा हुआ है। जब तक सिस्टम नहीं बदला जाएगा, तब तक देश से भ्रष्टाचार को दूर नहीं किया जा सकता।
अन्ना साहब से यही कहना है कि भ्रष्टाचार ही इस देश की सबसे बड़ी समस्या नहीं है। गरीबी और भुखमरी इस देश की उससे बड़ी समस्या है। इसी देश में हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या करता है। इसकी वजह यही है कि उसकी फसल जब तक तैयार होती है, तब तक उसके बाजार भाव गिर जाते हैं। ओड़ीशा के जंगलों में एक विदेशी कंपनी को आदिवासियों की जमीन दी जा रही है। उमुम्बई के उपनगर धारावी की झोपड़पट्टी पर रहने वाले नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश में रोज एक दर्जन से अधिक किशोरियों से बलात्कार होता है। विरोध करने वाली किशोरी की आँखें भी निकाली जाने लगी है। मुम्बई में सरकार का नहीं, पर अंडरवल्र्ड का शासन चल रहा है। देश की राशन दुकानों का माल सीधे बाजार पहुँच रहा है। वायदा बाजार से व्यापारी खूब कमा रहे हैं। गरीबों का लगातार शोषण हो रहा है। खुलेआम नफरत की आग फैलाई जा रही है। अनशन के पहले जिसे चार मंत्री मनाने जाते हों, अनशन करने पर उसे डंडे से मार कर भगा दिया जाता हो। उसके बाद उस पर तमाम कानूनों का इस्तेमाल किया जाता हो, ऐसा केवल इस देश में ही हो सकता है। इस तरह की बहुत सी समस्याएँ हैं, जिनको लेकर अन्ना अनशन कर सकते थे। ये नहीं हो सकता, तो कम से कम केरोसीन, पेट्रोल और डीजल के दाम कम करने के लिए तो अनशन कर ही सकते थे।
जब अन्ना ने देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर अनशन करने की घोषणा की है, तब से उनके साथ कुछ समझदारों लोगों की एक टीम भी शामिल हो गई है। आज अन्ना के हर साथी का अपना अलग एजेंडा है। जब तक वे उपवास कर रहे थे, तब तक सब ठीक था, जैसे ही सरकार ने उनकी बात मान ली, सभी अपना-अपना राग अलापने लगे। अन्ना ने जब सरकार की बात को मानते हुए लोकपाल विधेयक तैयार करने के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी बनाई, उसमें जिन्हें शामिल किया गया, उन पर कई तरह के आरोप लगने लगे। प्रशांत भूषण और शांतिभूषण पर आरोप लगे, स्वामी अग्निवेश पर नक्सलियों से सांठगाँठ के आरोप लगे, किरण बेदी पर अपनी लड़की का प्रवेश मेडिकल कॉलेज में कराने के लिए गलत तरीके का इस्तेमाल करने का आरोप लगा। मल्लिका पर कबूतरबाजी का आरोप लगा। उधर बाबा रामदेव ने भी अनशन किया, टीवी ने खूब टीआरपी बढ़ाई, हश्र यही हुआ कि पुलिस के डर से बाबा को महिला के वेश धारण कर भागना पड़ा। अब अन्ना ने तय कर ही लिया है कि 16 अगस्त स अनशन पर बैठना ही है। जो मानवीयता की थोड़ी सी भी समझ रखते हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि अन्ना कहीं न कहीं बच्चों से भी अधिक जिद्दी हैं। वे सरकार को हर बात बंदूक की नोक पर मनवाना चाहते हैं। एक आशंका यह है कि उन पर किसका वरदहस्त है। कहीं वे किसी गुप्त संगठन के इशारे पर तो काम नहीं कर रहे हैं? संभवतरू यह संगठन चाहता है कि हमारा देश आंदोलन, उपवास से अराजकता की स्थिति में पहुँच जाए। ताकि 1914 में होने वाले चुनावों में अपनी ताकत सिद्ध कर सकें। अन्ना की टीम में जो लोग हैं, उनमें इतनी कूब्बत नहीं है कि किसी गाँव में जाकर सरपंच का चुनाव जीत सकें। ये सभी फेसबुक पर सक्रिय दिखाई देेते हैं। धन इनके पास अपार है, लेकिन इनमें प्रचार की भूख है, इसी कारण लाइट में आने के लिए ये छटपटाते रहते हैं।
लगता है अन्ना इतिहास में अपनानाम जयप्रकाश की तरह अमर करना चाहते हैं। वे गांधीवादी हैं, इसमें कोई शक नहीं, पर वे इतने अधिक पढ़े लिखे नहीं है कि एक प्रजातांत्रिक देश के कानून को अच्छी तरह से समझ सकें। कंप्यूटर की भाषा में कहें, तो अन्ना हार्डवेयर हैं और सिविल सोसायटी उनका साफ्टवेयर। अपने उपवास से अधिक वे उसकी पब्लिसिटी में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। वे कांगे्रसाध्यक्ष को चुपचाप पत्र लिखते हैं और जब उसका जवाब आता है, तो उसे तुरंत मीडिया को दे देते हैं। ताकि सोनिया जी को पता चल जाए कि उन्होंने अन्ना के पत्र का जो उत्तर दिया था, वह उनके पास पहुँच गया है। एक बात तो है कि अगर अन्ना के पीछे से मीडिया हट जाए, तो न तो उनका अनशन चल पाएगा और न ही उनकी पब्लिसिटी हो पाएगी, क्योंकि उनका आंदोलन मीडिया को लक्ष्य करने वाला है। अन्ना सड़क की राजनीति कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि लोकपाल विधेयक के दायरे में प्रधानमंत्री और सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों एवं सांसदों का भी समावेश हो। इस बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि उन्हें तो कोई गुरेज नहीं है। परंतु अन्ना सड़क पर बैठकर सरकार को अपनी तरह से चलाना चाहते हैं। किसी भी प्रस्ताव को कानून बनाना हो,तो उसकी एक प्रक्रिया होती है। छोटे से छोटे प्रस्ताव को लाना होता है, तो प्रजा का अभिप्राय जानना होता है। इसके अलावा अन्य राजनैतिक दलों से बातचीत करनी होती है। लोगों से इस पर आपत्ति मँगानी होती है। लोकसभा में सांसद इस पर बहस करते हैं। इन सारी प्रक्रियाओं को दरकिनार रखते हुए अन्ना की टीम, जिसमें पिता-पुत्र वकील, स्वामी का वेश धारण करने वाले एक एक्टिविस्ट कहते हैं कि जैसा हम कह रहे हैं वैसा ही करो, नहीं तो अनशन। यह तो सीधा-सीधा भयादोहन यानी ब्लेकमेलिंग है। नागरिकों की भावनाओं को उकसाकर अनुशासित लोकतंत्र की सारी प्रक्रियाओं को ताक पर रखने वाली बात है। देश की 121 करोड़ की आबादी में से 98 प्रतिशत लोगों को यही नहीं मालूम कि ये सिविल सोसायटी आखिर क्या हे? देश में अनेक बुद्धिशाली कानूनविद हैं, पर अन्ना ने पिता-पुत्र की जोड़ी को ही आखिर क्यों पसंद किया?
अन्ना शायद यह भूल जाते हैं कि लोकपाल के रूप में जो व्यक्ति आएगा, वह भी तो एक इंसान ही होगा। ईश्वर तो नहीं होगा? मान लो कि भ्रष्टाचार विरोधी जाँच के लिए सेंट्रल विजिलेंस कमिशन के चेयरमेन के रूप में थामस जैसा कोई विवादास्पद व्यक्ति का चयन हो गया? ऐसी स्थिति में क्या वह सबके साथ न्याय कर पाएगा? लोकपाल स्वयं भ्रष्ट नही होगा, इसकी गारंटी देने वाला कौन होगा? क्या अन्ना बता सकते हैं कि इस देश मे कौन ईमानदार है? भूतकाल में सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों पर भी आरोप लगे हैं। ऐसे में एक ईमानदार लोकपाल की कल्पना कैसे की जा सकती है? अन्ना कहीं समानांतर सरकार चलाने की चाहत रखने वाले कथित चरमपंथियों से तो नहीं मिल गए? भारत के प्रधानमंत्री कानूनी रूप से एक श्संस्था ्य हैं, व्यक्ति नहीं। उस पद की गरिमा का भी हमें खयाल रखना होगा। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री के सर पर लटकती तलवार हो, तो वे देश का संचालन नहीं कर पाएँगे। यदि उनके द्वारा कोई गलत काम होता है, तो वे सजा के हकदार हैं, पर जब तक वे एक सरकार को अनुशासित रूप से चला रहे हैं, तो उन्हें सरकार चलाने देना चाहिए।
क्या अन्ना को इतना भी नहीं पता कि भारत में प्रजातंत्र होने के बाद भी वह जातिवाद के दायरे से आज तक बाहर नहीं निकल पाया है। मायावती खुलेआम सवर्णों को मनुवादी कहकर उन्हें भला-बुरा कहती रहती हैं। कांगे्रस मुस्लिमों को रिझा रही है। उधर भाजपा हिंदुओं को रिझाने में लगी है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे बिहारियों से नफरत करते हैं। उधर कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों से नफरत करते हैं। क्या लोकपाल इन सबसे अलग होगा? ये सभी अत्यंत नाजुक और संवेदनशील मुद्दे हैं। इन सब पर पूरी चर्चा होनी चाहिए। लोकपाल बिल पर समग्र चर्चा के बाद ही इस पर विचार किया जाना चाहिए। हमारे देश का एक-एक सांसद अपने क्षेत्र के करीब दस से बीस लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। आखिर सांसदों अपने मतदाताओं के प्रति भी कुछ जवाबदार हैं। अब अगर अन्ना सड़क पर बैठकर सरकार को तारीख दे दें, कि इस तारीख तक उनका बनाया हुआ लोकपाल विधेयक पारित कर दिया जाए, नहीं तो अनशन। एक प्रजातांत्रिक देश में इस प्रकार से कोई असंवैधानिक कार्य करे, तो सरकार अपना बचाव तो करेगी ही। बिना चुनाव लड़े अन्ना गांधीजी के नाम पर तानाशाह बनना चाहते हैं, ऐसा कभी हो सकता है। कानून बनाने का काम सड़क पर बैठे कुछ लोगों का नहीं है। वह काम पार्लियामेंट का है। अन्ना का गर्व कुछ दिनों पहले टीवी के एक साक्षात्कार के दौरान दिखा- मैं एक मंदिर में 10 बाय 8 फीट के एक कमरे मे ं रहता हूँ, पर मैंने महाराष्ट्र के 6 मंत्रियों का विकेट गिराया है। इस प्रकार की भाषा उनके भीतर बैठे किसी दंभी व्यक्ति की लगती है। इसके अलावा जब वे कहते हैं कि ये सरकार तो अब जाने वाली है, तो क्या यह भाषा किसी गांधीवादी की लगती है आपको?
अब यदि अन्ना पेट्रोल-डीजल की भारी कीमतों को कम करने के लिए उपवास करते हैं आंदोलन करते हैं, तो इस देश का बच्चा-बच्चा उनके साथ होगा। पर किसी के इशारे पर सरकार को परेशान करने की बात करते हैं, तो उनकी ईमानदारी पर शक होता है। मात्र कुछ लोग अन्ना को चला रहे हैं और अन्ना इनसे पूरा देश चलाना चाहते हैं? यदि उनकी नीयत साफ होती, तो उनका यह आंदोलन तो बहुत पहले शुरू हो जाना था। भ्रष्टाचार के अलावा इस देश में ऐसी बहुत सी समस्याएँ हैं, जिन पर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराना आवश्यक है।
डॉ. महेश परिमल
बुधवार, 27 जुलाई 2011
मन में है विश्वास की घड़ी
आत्मविश्वास आपकी आंतरिक शक्ति होती है। आपकी प्राथमिकता अपनी आंतरिक शक्तियों के आकलन की होनी चाहिए। अगर आपके पास ऐसा करने की क्षमता नहीं है, तो आपका हर काम अधूरा ही रह जाएगा। खुद पर दृढ़ विश्वास करने से आप अपने लक्ष्य को ९० फीसदी तक वैसे ही हासिल कर लेते हैं...
मन में अगर लक्ष्य पाने का विश्वास पक्का है, तो आपकी विजय लगभग तय हो जाती है। बस १० फीसदी अतिरिक्त मेहनत की आवश्यकता होती है, जो कि आपका तकनीकी ज्ञान होता है।यह तकनीकी ज्ञान अनुभव से आता है।लेकिन अगर आपको तकनीकी ज्ञान होने के बावजूद खुद पर संदेह है, तो हो सकता है कि आप अपना लक्ष्य हासिल न कर पाएं।दुनिया में ज्यादातर असफल अपनी योग्यताओं और क्षमता पर किए गए संदेह का शिकार हो रहे हैं।वे इसलिए असफल हुए, क्योंकि उनमें आत्मविश्वास नहीं था।दुनिया में जितने भी महान आविष्कार हुए हैं, सबने पहले खुद पर विश्वास किया।फिर अपनी उपलब्धियों को हासिल करने पर। अगर उन्होंने अपनी क्षमता पर संदेह किया होता, तो वे कतई अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते।
युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे। वे एक सत्यवादी इंसान थे और महज एक बार अपवादस्वरूप छोड़कर उन्होंने कभी भी झूठ नहीं बोला।महाभारत में उनका एक प्रतिष्ठित दर्जा है।मकुर नामक उनका एक पालतू कुत्ता था।वह हमेशा उनके साथरहता था।युधिष्ठिर जब भी कोई फैसला लेते, तो उसकी सलाह जरूर लेते थे।मृत्यु के बाद युधिष्ठिर को स्वर्ग में आने का आमंत्रण मिला।वे स्वर्ग के द्वार तक पहुंच गए।मकुर भी उनके साथ ही गया था।स्वर्ग के द्वार पर खड़े द्वारपाल ने युधिष्ठिर से कहा कि आपके साथ यह कुत्ता स्वर्ग नहीं जा सकता।नियमानुसार कुत्ते का स्वर्ग में जाना मना है।युधिष्ठिर ने कुत्ते के बिना स्वर्ग में जाने से मना कर दिया। स्वर्ग के संरक्षक इंद्र के लिए बड़ी समस्या पैदा हो गई।उन्होंने मंत्रीमंडल में बैठक आयोजित की और मामले पर चर्चा की गई।युधिष्ठिर को नियमों के बारे में समझाया गया, पर वे नहीं माने।अंतत: नियमों में संशोधन करते हुए युधिष्ठिर को मकुर के साथ स्वर्ग में जाने दिया गया।लेकिन यह भी तय किया गया कि ऐसा भविष्य में कोई नियम नहीं बनेगा।यह केवल एक बार के लिए ही मान्य है। दूसरों के साथ ऐसा नहीं लागू होगा।
युधिष्ठिर अपने व्यवहार से अपनी बात मनवाने में सफल रहे, क्योंकि उन्हें खुद पर विश्वास था कि वे गलत नहीं हैं।युधिष्ठिर को अपने विश्वास पर गर्व था और ऐसा करके वे अपना स्वाभिमान कायम रख सके।मुसीबत के दौरान अपने अनुसरण करने वालों को खो देना एक अच्छे नेता का गुण नहीं, ऐसे में एक समय के बाद नेता अकेला पड़ जाएगा।ऐसा खुद के स्वाभिमान को कायम न रखपाने की वजह से होगा।इस तरह के ढेरों उदाहरण पौराणिक ग्रंथों में मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने स्वाभिमान के बल पर मनचाही मंजिल पाई है।(डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक खुद बदलें अपनी किस्मत से साभार)
युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे। वे एक सत्यवादी इंसान थे और महज एक बार अपवादस्वरूप छोड़कर उन्होंने कभी भी झूठ नहीं बोला।महाभारत में उनका एक प्रतिष्ठित दर्जा है।मकुर नामक उनका एक पालतू कुत्ता था।वह हमेशा उनके साथरहता था।युधिष्ठिर जब भी कोई फैसला लेते, तो उसकी सलाह जरूर लेते थे।मृत्यु के बाद युधिष्ठिर को स्वर्ग में आने का आमंत्रण मिला।वे स्वर्ग के द्वार तक पहुंच गए।मकुर भी उनके साथ ही गया था।स्वर्ग के द्वार पर खड़े द्वारपाल ने युधिष्ठिर से कहा कि आपके साथ यह कुत्ता स्वर्ग नहीं जा सकता।नियमानुसार कुत्ते का स्वर्ग में जाना मना है।युधिष्ठिर ने कुत्ते के बिना स्वर्ग में जाने से मना कर दिया। स्वर्ग के संरक्षक इंद्र के लिए बड़ी समस्या पैदा हो गई।उन्होंने मंत्रीमंडल में बैठक आयोजित की और मामले पर चर्चा की गई।युधिष्ठिर को नियमों के बारे में समझाया गया, पर वे नहीं माने।अंतत: नियमों में संशोधन करते हुए युधिष्ठिर को मकुर के साथ स्वर्ग में जाने दिया गया।लेकिन यह भी तय किया गया कि ऐसा भविष्य में कोई नियम नहीं बनेगा।यह केवल एक बार के लिए ही मान्य है। दूसरों के साथ ऐसा नहीं लागू होगा।
युधिष्ठिर अपने व्यवहार से अपनी बात मनवाने में सफल रहे, क्योंकि उन्हें खुद पर विश्वास था कि वे गलत नहीं हैं।युधिष्ठिर को अपने विश्वास पर गर्व था और ऐसा करके वे अपना स्वाभिमान कायम रख सके।मुसीबत के दौरान अपने अनुसरण करने वालों को खो देना एक अच्छे नेता का गुण नहीं, ऐसे में एक समय के बाद नेता अकेला पड़ जाएगा।ऐसा खुद के स्वाभिमान को कायम न रखपाने की वजह से होगा।इस तरह के ढेरों उदाहरण पौराणिक ग्रंथों में मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने स्वाभिमान के बल पर मनचाही मंजिल पाई है।(डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक खुद बदलें अपनी किस्मत से साभार)
मंगलवार, 21 जून 2011
दूसरों की खुशियां अपनाएं
सभी लोग अपने जीवन में न जाने क्या-क्या ढूंढ़ते हैं और पाने की आशा रखते हैं।मन में हमेशा एक खयाल रहता है कि अगर फलां चीज हासिल हो गई, तो जीवन-भर सुखी रहेंगे।लेकिन इस चक्कर में छोटी-छोटी खुशियां मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाती हंै। अगर आप अपनी सोच को बदल लें और यहां बताए जा रहे सुझावों को अपनाएं, तो हमेशा प्रसन्न रह सकते हैं...
१- अपने आपसे प्रेम करें और स्वयं को महत्वपूर्ण समझें। आईने में अपने को देखकर मुस्कुराएं और खुद को पसंद करें।
२- दूसरों से कोई अपेक्षा न करें कि कोई आपके काम की तारीफ करे। ज्यादा अपेक्षाएं रखने से आपको दुख के सिवाय कुछ हासिल नहीं होगा।
३- खुद को सराहें।अपने काम की मन ही मन सराहना करें। इससे आत्मविश्वास बढ़ेगा।
४- विनम्र बनें।सदैव सौम्य और शांत हो वार्ता करें। उच्च स्वर या कटु शब्दों का प्रयोग न करें।
५- जरूरी है निजी खुशी। जब भी समय मिले, तो दिन-भर में एक बार वह काम जरूर करें जो आपको सबसे अच्छा लगता है।
६- अपने साथियों और बॉस की कमियां न निकालें, बल्कि अपनी कमियों की तलाश कर उन्हें दूर करने की कोशिश करें।
७- क्रोध को नियंत्रित करना सीखें। जब ज्यादा गुस्सा आए, तो तुरंत उस माहौल से दूर होकर किसी अन्य काम में लग जाएं।
८- सकारात्मक सोच के महत्व को समझें।जो कुछ सोचें, उसे सकारात्मक रूप में लें।कोई काम अगर पूरा नहीं होता या बात नहीं बनती, तो उदास न हों।
९- अपनी पसंद को महत्वपूर्ण मानें। दूसरों को यह बताने का मौका न दें कि आप पर क्या अच्छा लगता है।
१०- दूसरों के साथ वही व्यवहार करें, जो आप अपने लिए चाहते हैं।
१- अपने आपसे प्रेम करें और स्वयं को महत्वपूर्ण समझें। आईने में अपने को देखकर मुस्कुराएं और खुद को पसंद करें।
२- दूसरों से कोई अपेक्षा न करें कि कोई आपके काम की तारीफ करे। ज्यादा अपेक्षाएं रखने से आपको दुख के सिवाय कुछ हासिल नहीं होगा।
३- खुद को सराहें।अपने काम की मन ही मन सराहना करें। इससे आत्मविश्वास बढ़ेगा।
४- विनम्र बनें।सदैव सौम्य और शांत हो वार्ता करें। उच्च स्वर या कटु शब्दों का प्रयोग न करें।
५- जरूरी है निजी खुशी। जब भी समय मिले, तो दिन-भर में एक बार वह काम जरूर करें जो आपको सबसे अच्छा लगता है।
६- अपने साथियों और बॉस की कमियां न निकालें, बल्कि अपनी कमियों की तलाश कर उन्हें दूर करने की कोशिश करें।
७- क्रोध को नियंत्रित करना सीखें। जब ज्यादा गुस्सा आए, तो तुरंत उस माहौल से दूर होकर किसी अन्य काम में लग जाएं।
८- सकारात्मक सोच के महत्व को समझें।जो कुछ सोचें, उसे सकारात्मक रूप में लें।कोई काम अगर पूरा नहीं होता या बात नहीं बनती, तो उदास न हों।
९- अपनी पसंद को महत्वपूर्ण मानें। दूसरों को यह बताने का मौका न दें कि आप पर क्या अच्छा लगता है।
१०- दूसरों के साथ वही व्यवहार करें, जो आप अपने लिए चाहते हैं।
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दौडऩे वाले घोड़ों का पालन
कई उद्योगपति तो इतने कार्यनिष्ठहोते हैं कि छुट्टी वगैरह उनके लिए एक बेहूदगी होती है।अमेरिकन स्टैंडर्ड इंकॉर्पोरेटेड के अध्यक्ष विलियम माक्र्वाड लंबी छुिट्टयों की बजाय लंबे वीक एंड्स को पसंद करते हैं।वे कहते हैं- चौथा दिन बीतते-बीतते मुझे अकुलाहट होने लगती है।अटलांटा के फूक्वा इंडस्ट्रीज के संस्थापक जॉन लुक्स फूक्वा एक बार दो सप्ताह की छुट्टी मनाने स्विट्जरलैंड गए, मगर तीन दिन बाद ही दफ्तर लौट आए।वे बोले- महल सारे-एक से होते हैं।एक देखा तो समझो, सभी देख लिए।विलक्षण कार्य के लिए असाधारण ऊर्जा की जरूरत होती है।बहुत से होनहार, युवा उद्यमी केवल इसलिए सफल नहीं हुए कि उनके कस-बल जुदा किस्म के थे।जेरॉक्स के पीटर मैककोलो कहते हैं- जल्दी पता चल जाता है कि कौन दौड़ में पिछड़ जाएगा। यही बात लिटन इंडस्ट्रीज के टैक्स थर्मन ने कही है- दौडऩे वाले घोड़ों का पालन-पोषण दौड़ के लिए किया जाता है।
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