रविवार, 1 सितंबर 2024

राधा काबर नइ जलही मुरली/मोबाइल से

 सुनो भाई उधो

-परमानंद वर्मा

राधा क्यों न जले मुरली से... वह जान गई थी, कान्हा की चाल को, मुरली की आड़ में वह क्या गुल खिला रहा है। चतुर सुजान औरतें भांप लेती हैं अपने मर्दों के हाव-भाव, चाल और रंगत को देखकर। दिन-रात मुरली को अधरों से लगाए रहना...। आशंका सही साबित हुई, इस मुरली ने उसके लिए नइ मुसीबत खड़ी कर दी थी, आखिर जिसकी आशंका थी, वह सच हुआ। एक दिन उसने उन्हें पटरानी बनाकर ला दिया, रुखमणि को आज वही संकट ला खड़ा किया है मोबाइल ने। क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या जवान, क्या बाल-बच्चे, बहू, बेटियां और दो-तीन बच्चों वाली युवतियां भी घरों को छोड़-छोड़कर भाग रही हैं अपने प्रेमियों के साथ। संकट चहुं ओर है, मान-मर्यादा, लाज-शरम, नाक-कान सब कटा डाल रहे हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह आलेख...

चाय, नाश्ता ला टेबल मं रख दीस, तहां ले आगू मं रखे खुरसी मं हमर इहां के मंडलीन सोनकुंवर फइसकरा के बइठगे। मुड़ी ला आज ओ का के सेती मुंड़मिंजनी माटी मं मिंजे रिहिसे, ओ बात ला बताय के लइक नइहे, ओला उही मन जानथे। 

अब आघू मं बइठे हे तब बने सोचत रेहेंव, कुछु खास बात होही, गोठियाही-बताही, फेर थोरकिन मं नागिन कस रूप धरत देखेंव तहां ले डर्रागेंव। सोचेंव, का होगे भगवान? ओ दिन भगवंतीन गउंटनीन संग गोठियावत-बतावत देख ले रिहिसे, तेकरे रीस ला तो आज नइ उतारही?

थोरकिन मं रिच्छिन बनगे, मइनता भड़कगे। तमतमावत पूछथे- कस जी, तंय ओ रात-रातभर मोबाइल चलावत रहिथस, का देखत रहिथस?

सोनकुंवर के बात ला सुन के सुकुरदुम हो गेंव,‌ ठाड़ सुखागेंव। लम्बा सांस भरत मने मन केहेंव- चल बाचगेंव, भगवंतीन गउंटनीन के लफड़ा ले। डर्रागे रेहेंव, आज ये मोर मुड़ी ऊपर पथरा तो नइ कचार के रइही?

चाय जुड़ावय झन कहिके ओला लकर-धकर पियेंव, नाश्ता ल पाछू कर लेहौं सोचके छोड़ देंव। 

केहेंव सोनकुंवर तोर बर चाय नइ लानेस?

चुंदी ला झटकारत अउ हलू-हलू ओकर ऊपर हाथ फेरत राहय। मोर सवाल के जवाब देना ओ गोसइन जरूरी नइ समझिस, अउ बिच्छी मारे असन फेर पूछथे- तोला पूछे हौं मोबाइल मं रात-रातभर का देखथस तेकर जवाब नइ देवत हस?

बताएंव- अरे भई समाचार देखथौं देश-दुनिया के, गीत-भजन अउ प्रवचन सुनथौं। अरे का जया किशोरी कइसन सुंदर हे ओकर रंग-रूप, मोहनी मूरत। ओ हांसथे ते अइसे लगथे ते अमरित झरत हे ओकर मुंह ले। 

ओला अउ बताथौं- अरे ओ प्रदीप मिश्रा हे ना, सिहोर वाले, कतेक सुग्घर शिवपुरान के कथा सुनाथे। चलबो का अभी भिलाई मं होवत हे। ओ पइत अमलेशर मं होइस ता बाप रे, पांच लाख के भीड़ जुरियाय रिहिसे प्रवचन सुने ला। अब तो कहां गय सुधांशु महाराज, ऋतंभरा अउ उमा भारती‌‌‍? ओकर मन के नांवे अब सुनब मं नइ आवय। 

सोनकुंवर फेर जोर से अपन गीला चुंदी ल झटकारथे तब पानी छरिया के अखबार, नाश्ता अउ मोरो कुरता मं पर जथे। खिसियायेंव- देख के चुंदी ला झटकार न।

खिसिया झन, गुर्रा झन कुकुर असन। जतका तैं जयाकिशोरी, प्रदीप मिश्रा, अउ काकर-काकर प्रवचन के बात लमियाय हस न तउन मन नोहय, मोर सवाल के जवाब। मोर सवाल हे, मोबाइल मं तैं रात-रात भर का देखत रहिथस?

माथा तो मोरो ठनकगे, एक मन होइस- एला बजेड़ दौं, दोहन दौं, हकन दौं का, एके घौं मं घुसड़ जही कतका मुंहबाज हे तउन हा? डौकी हे तब एमन ला डौकी असन रहना चाही। का मंथरा असन गुप्तचरी करही मरद मन के?

सोनकुंवर कहिथे- तैं का बताबे, मैं बतावत हौं तोला। ओ मोबाइल मं फेसबुक अउ यू-ट्यूब मं ओ बिगड़ैल वेश्या, छिनार, रांडी, सबखही मन ल देखथौ, ओकर सकल करम ला देखथौ। बेटी, बहिनी, बहू सब उकरे चरित्तर ला देख-देख के बिगड़त जात हे। 

ओहर बताथे- मोला तैं प्रवचन, भजन, गीता अउ समाचार सुनथौं कहिके भुलवारत हस, एकर आड़ मं ओ रांड़ मन के अनफभक अउ गंदा-गंदा फोटो ला देखथस। मैं मरगे हौं का तोर बर, तोर मन नइ बुतावत हे मोर से ते दूसर बाई बना के ले आ, तोला कुछु नइ कइहौं, फेर ये मोबाइल के रांडी, किरही मन ला झन देख। सब बेटी, बहिनी, बहू अउ गोसइन बिगड़त हे। दो-दो, तीन-तीन झन लइकोरी महतारी मन भाग-भाग के जाथे। घर-परिवार बिगाड़त हे ये मोबाइल हा। 

सोनकुंवर के सरलग फायरिंग ले घायल होय बिगन नइ रहि सकेंव। ओहर पूछथे- ये मोबाइल ला कोन नइ देखय। मंत्री, नेता, सन्यासी, महात्मा अऊ नौकरशाह, उद्योगपति, व्यापारी, जज, वकील, मास्टर, पटवारी, बहू-बेटा। का ककरो आंखी मं नइ दीखत होही कइसन अलकरहा-अलकरहा नइ देखे लेइक जउन चीज हे, गंदा-गंदा अंग प्रदर्शन देखाथे, सरकार एकर ऊपर प्रतिबंध काबर नइ लगावय। काबर अश्लीलता ला मोबाइल के जरिये समाज ला परोसत हे?

मंय निरुत्तर होगेंव सोनकुंवर के आगू मं। बात तो ओहर सोलह आना सही कहिस हे। अब देखे बर तो ओला सबो झन देखत हे, अब कानून अउ बेवस्था के सवाल हे। एला सरकारे हा कुछ कर सकत हे, अदालत घला संज्ञान लेके कानूनी कार्रवाई कर सकत हे, फेर अभी तक कोनो अइसन कदम नइ उठाय हे। सामाजिक संगठन, धार्मिक नेता मन घला कुछु कर सकत हे। फेर सबके मुंह काबर सिलाय हे भई, इही समझ नइ आवत हे। 

सोनकुंवर तो पथरा कचार के चल दीस, मुंह ला फुलाय-फुलाय। ओ जान डरे रिहिसे एहर का देखत रहिथे रात-रात भर कइके। एक दिन मौका पइस तब गुस्सा ला उछर दीस। अइसे लगिस, जइसे मोरो डौका तो नइ बिगड़ जही अउ कोनो रांड़ी ला धर के नइ भाग जाही?

नाश्ता टेबल मं रखे-रखे जुड़ागे रिहिसे। ओला हुदकरायेंव- ए सोनकुंवर, सुन तो ओ।

मरगे हे तोर सोनकुंवर आज ले, 

जा उही राड़ी मन करा तहू हा काहत चल दीस।


जाती बिराती 

सब मातगे हे मातगे हे मातगे हे रे,

भांग धतूरा खा पी के

सब मातगे मातगे हे मातगे रे,


सब टुरी टुरा अउ जवान,

का डौकी डौका ले बे,

ते का डोकरी अउ डोकरा,

सब मातगे हे मातगे हे मातगे रे,

का दुआपर के मुरली ला लेबे,

तब का कलजुग के मोबाइल,

राधा के जघा मं रुखमनि आगे,

तब कलजुग मं उढरिया लाने,

बात आंखी आंखी के खेल हे,

सब मातगे हे मातगे हे मातगे रे,

डौका पर के डौकी ले भागत हे,

त डौकी पर के डौका ले उडावत हे,

का समे आगे हे राम,

मातगे हे मातगे हे मातगे हे रे,

ये मुरली अउ मोबाइल, 

कोनो ला.कहूं के नइ रखिस राम,

ओ जुग मं राधा रोवत रहिगे,

कलजुग मं बारा हाल होवत हे राम,

सब मातगे हे मातगे हे मातगे हे रे।।

-डॉ. महेश परिमल, भोपाल

रविवार, 4 अगस्त 2024

अंधेर नगरी अउ चउपट राजा

-परमानंद वर्मा

क्या अंधे की औलाद अंधे ही होते हैं, यदि हां तब तो कुछ नहीं कहना और जब नहीं होते हैं तब इस कहावत को अनावश्यक रूप से क्यों गढ़ा गया है? कुछ तो इसका अर्थ निश्चित होगा ही। कहते हैं कलियुग में इसकी प्रचुरता है। यहां सब अंधे हो गए हैं, गलत तो गलत है ही, लेकिन सत्य को भी गलत करार साबित करने में यहां के लोगों ने महारत हासिल कर ली है। जिधर देखो उधर अनैतिक, अधार्मिक, असामाजिक और गैर कानूनी कार्य हो रहे हैं लेकिन इसे मानने को कोई तैयार नहीं। आतंक, अधर्म, अन्याय और पाखंड जिंदाबाद है, और इससे डरकर सत्य छिप गया है निर्जन स्थल जंगल में कहीं जाकर। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख...

पखरा ह कभू भगवान हो सकत हे, पीतल ह सोना हो सकत हे, दिन ह रात हो सकत हे, असत (झूठ) ह सत हो सकत हे, चांद ह सूरज हो सकत हे, इस्तीरी ह पुरुष हो सकत हे, नइ हो सकय ना, तीन जुग मं नइ हो सकय, चाहे लाख मुड़ी पटक-पटक के लहूलुहान कर डरौ, फेर कभू हो नइ सकय? 'अंधेर नगरी चउपट राजा, 'टका सेर भाजी-टका सेर खाजा' कस जमाना चलत हे। सच बोले के जउन तीर मनखे के हिम्मत नइ हो सकय, हार गे तउन तीर ओला मरे जान। भले जीव हे, दुनिया के सकल करम करत हे, फेर ओकर कोनो कीमत नइ होवय, मुरदा बरोबर। 

सच, सत लुकागे हे, असत के जमाना हे, पूरा संसार नकली होगे हे। सत ल पटक दे हे, अधमरा कर दे हे, हफरत हे, कांपत हे, डेर्रावत हे, कोनो दिन ओला मुरकेट के कोनो खेत-खार, घुरवा, नदिया, नरवा, तालाब कोती फेंक झन दैय। अतेक दुरदसा कइसे होगे, कभू ओहर सपना मं नइ सोचे रिहिस होही के एक दिन अइसन दिन ओला देखे ले परही? अपन ओ दिन, सतयुग के समे ल सुरता करत, आंसू ढारत रोवत रहिथे। 

सड़क के तीर मं झोपड़ी करा भिखारी कस रूप मं हाथ लमावत अवइया-जवइया मन करा भीख मांगत देख परेंव। जटर-बटर चूंदी, कोन जनी कभू तेल लगाय हे, चुपरे हे के नहीं, ओकर हालत ल देखेंव तब मोला दया आगे। ओकर तीर मं जाके खटारा साइकिल ल ब्रेक मारेंव। उतरेंव, ओला पहिली खीसा ले निकाल के दस ठन रुपिया ल देंव। लेये बर ओहर मना करत रिहिसे। जोजियाय ऊपर ले मुसकिल मं ओहर धरिस। 

सोचेंव पहिली बार अइसन भिखारी देखेंव जउन हा देवत रेहेंव तउन रुपया पइसा ल लेये बर मना करत रिहिसे। पूछेव-बबा, तैं हर ये रुपिया ल लेये बर काबर मना करत रेहे?

ओहर बहुत सरल अउ कोमल बानी मं कहिथे- बेटा, पहिली तैं ये बता के तैं कोन हस, अउ का समझ के मोला दस के नोट दे हस?

भिखारी के ये सवाल ल सुनके सकपका गेंव, सोचेंव- ये कइसन भिखारी हे भगवान, भिखारी हे ते कोनो पहुंचे हुए गियानी, मुनि अउ फकीर तो नोहे? हिम्मत करके पूछेंव- बबा, मंय तोरे सही एक झन मनखे हौं, इंसान हौं। तोर रूप-रंग, हालत ल देखेंव तब मन मं परेम, सरधा जाग गे, दया उमड़गे। अइसन हालत देखे नइ गिस ते रुकगेंव। कुछ गलती कर परे होहूं ते माफी देबे बबा। 

एमा माफी देये के कोनो बात नइहे बेटा, तोर कतेक नेक विचार हे, मन मं दया, करुणा लबालब भरे हे सागर सही। बबा, जब अइसन बात किहिसे तब मोर मन मं उथल-पुथल होये ले धर लिस। सोचेंव- कहां-कहां ये बबा के चक्कर मं तो नइ परगेंव, जात रेहेंव सीधा बजार कोती साग-सब्जी लेये बर अउ हपट परेंव त हर-हर गंगा कस ये बबा करा अभर गेंव। 

ओ भिखारी बबा फेर उलट के पूछथे- का सोचे ले धर लेस बेटा, तब ओला बात बनावत केहेंव, नहीं बबा, कांही नहीं। महूं पूछेंव उही पहिली वाले बात ल, तैंहर जउन मंय दस ठन रुपिया देवत रेहेंव तेन ला लेये बर काबर मना करत रेहें?

ओहर बताथे- बेटा, मैं भिखारी नो हौं, सतजुग हौं, सतजुग। ओ जुग मं राजा, महाराजा रेहेंव। फेर धीरे-धीरे खसलत-खसलत कलजुग मं ढकलागेंव। होगे अइसे उलटा-सुलटा, कोनो करम होगे रिहिस होही तेकर सेती आज अइसन हाल मं आगे हौं। 

भिखारी बताथे- ये कलजुग ल देख के मंय अकबकागे हौं बेटा, बाप रे... याहा का अंधेर जमाना हे, अधरम के राज चलत हे। पखरा ल भगवान मान के रात-दिन पूजा-आरती करत हे, संझा-बिहनिया जल चढ़ावत हें। अतेक अगियानी अउ मूरख बसे हे ये कलजुग मं। देखौ पापाचार, भ्रष्टाचार के राज चलत हे। इही कलजुग हे, जउन जतके गलत, भ्रष्ट अउ पाप करम कर हे तेकर बरकत होवत हे, सच बोलत हे तौन कांप जावत हे, डेर्रावत हें, कहूं जेल झन चल दौं, फांसी मं झन टांग देय। 

ओला पूछेंव- तहूं अइसने तो नइ डेर्रावत होबे बबा, के कभू ये कलजुग के सपड़ मं झन आ जांव, कोनो हटकार के ये तीर ले भगा झन दय, झोपड़ी ल तोड़फोड़ झन दय?

एकर कांही बेला-बिचार नइहे बेटा, के कब का कर दिही, जमराज बनगे हे ये कलजुग हा। इहां बड़े-बड़े मन के कुकुर गति होवत हे तउन ल तो देखबे करत हस? तहूं सावधान, सचेत होके रहिबे, अधरम, अनीति अउ कुमारग के रस्दा ले बचके रहिबे ना, तब भगवान हा हितवा होके तोर रक्छा करत रइही। 

अतके बेर सायरन बजावत पुलिस के गाड़ी आवत रिहिस तउन ल सुनके कहिथे- जा बेटा, वहि दे जमराज के गाड़ी आवत हे, जा भाग ये मेर ले। बबा के बात ल मान के धरेंव खटारा साइकिल अउ बाजार के रस्दा धर लेंव।

परमानंद वर्मा

सोमवार, 15 जुलाई 2024

'आंखी झन देखा, तंय मोर का कर लेबे ' ?

सुनो भाई उधो

परमानंद वर्मा

अरे गरमी, तू अपनी इतनी गरमी, अहंकार, आतंक और अभिमान मत दिखा। पारा चालीस, पैंतालिस और पचास तक बढ़ा लेने की धमकी देकर धरती  वासियों को न डरा-धमका! तू जानता नहीं, एक पल में तुझे दबोच न लूं, पानी  न पिला दूं तो मेरा भी नाम बदली नहीं? एक आदेश पर मेरे सारे गण और सैनिक हवा, आंधी, तूफान, बिजली और बादल,पानी एक साथ टूट पड़ेंगे, 'बम बर्डिंग ' कर देंगे जैसे अभी-अभी रूस ने यूक्रेन, इजराइल ने हमास और ईरान पर किया है। क्या हाल हुआ है इनका। इतिहास और पुराणों के पन्ने पलटकर देख लीजिए- अहंकारी सदैव धूल धूसरित हुए हैं। इसलिए ये गरमी अपनी सीमा में रहना सीख, आतंक छोड़ दे। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख...

देखत हौ एकर चाल ल, गरमी ल आतंक ल चालीस, चवालिस ले ऊपर भागत हे एकर पारा ह, कोन जनी पचास तक ले जाके भु'ज डरही, लेस डरही चिंगरी मछरी कस, ककरो परान नइ बाचही तइसे लागत हे? मउका मिलगे हे, मिल जथे तब कोनो ल छानही मं चढ़के होरा नइ भुंजना चाही। फेर अप्पत मन ल कोन समझावया। पद, पइसा, सत्ता, सुंदरी कस रूप कहूं एक घौं पा लेथे तहां ले अंधरा होय बरोबर कोनो ला कांही नइ समझंय तइसे लागथे। बस एक झन महीच हौं कहिथे। 

उधो के मइन्ता आज बड़े बिहनिया ले कोन जनी कइसे हे ते गड़बड़ागे हे। न कोनो एक पाव ओ का कहिथे नहीं सलफी, धन महुआ के उतारे दारू मारे हे, के भांग, अफीम, गांजा अउ हेरोइन दबाय हे। तब फेर अइसे का कारन हे के बिना नशा पानी के घला माते बरोबर ओकर हाथ-गोड़ डोलत हे, गोठियावत बतावत हे। अइसे तो नहीं के कोनो टेडग़ी या फेर घोड़ा करायत के अभेड़ा मं परगे होही? बात के जहर घला जबर होथे, सहे नइ जाय अउ का ले का नइ कर डरय? कोनो फांसी लगा लेथे, तब कोनो रेल मं मर-कट जाथे, जहर खाके अपन जीवन ला होम देथे। 

भाठा खार ले आमा टोर के आवत राहय माधो तेकर नजर गसतिहा खार मं गुमसुम थोथना उतारे सांप सूघे असन कलेचुप लरघियाय बइठे  उधो ऊपर परगे। ओला कहिथे- अरे भाई उधो, ये दे आम ले जा घर अउ बहू ला कहिबे बने नूनचरा चटनी बना डरही अउ गुराम घला बना लेही। बने खाहौ सुरपुट-सुरपुट। 

भाड़ मं जाय तोर नूनचरा आम के चटनी अउ गुराम, तुंही मन खाव चटनी अउ गुराम, बड़काहा मनखे मन के बहुत चोचला, नाज नखरा होथे? मोला नइ चाही तोर आमा। उधो के खखुवाय कस बोली ल सुनके माधो हड़बड़ागे अउ सोचथे- अइसे का होगे एला, एहर तो कभू अइसन बानी के बोलइया नोहय?

माधो सोचथे- जा, जरूर 'घर मं दूनो परानी के बीच मं कुछु बात ल लेके कहा-सुनी होगे होही, तेकर रंज ल मोर ऊपर उतारत हे ?

कोंवर लेवना कस बोली मं सुलहारत माधो कहिथे- उधो भइया, का बात हे संगवारी मोर, गोइसन बिच्छी के डंक मारे सही कुछू बोल दीस का अउ ओतके ओकरे बात ल धर के बगिया गेस। आज तोला पहिली बार देखथौं कइसे तोर चेहरा तमतमाय असन दीखत हे, आगी बरे सही। 

उधो मुंह खोलिस अउ किहिस- बात ल सही पकड़े भाई बइद हस ना। नाड़ी ल टमड़ के जइसे बइद मन शरीर के रोग ल जान जथे तइसे तहूं मोर बात ल, चेहरा के हाव-भाव ल देख के रोग ल जान डरे। 

माधो पूछथे- त हां, का बात हे तउन ल बता। कोनो मोर संगवारी अउ अइसन सुंदर सखा के मन मं  पथरा फेंके हे के समुंदर के लहरा असन चारो मुंड़ा बियाकुल नागिन बरोबर भटकत हे?

तोला का बतावौं माधो- यहा का अतियाचार हे, सुरुज नरायन के, ओला मउका मिले हे ते आगी बरसावत हे। पारा चालीस, पैंतालिस ल छुअत पचास ले छुए ले धर ले हे। अइसने तपही कोनो? जेन ल देखबे तउन पद, परतिष्ठा, धन, सत्ता, रूप अउ विद्या  ल पाके कोनो जीव ल तपही? अइसन अहंकार, घमंड नइ करना चाही। अरे इहां अतेक बड़े-बड़े परतापी राजा, महाराजा, सेना, सुंदरी, विद्वान, धनपति होय हे, सबके गरब माटी मं मिलगे हे। 

उधो बतावत कहिथे- मैं तोर अतका पढ़े-लिखे अउ कढ़े नइहौं माधो भइया फेर जतका संत समागम करे हौं, गुरु गुसाई अउ ददा-दाई, बबा के मुंह ले जइसन सुने हौं ओला बतावत हौं। कहां गय हिरण्यकश्यप के अहंकार जउन भगवान ले बढ़के समझत रिहिसे अउ जब नरसिंह अवतार रूप धरे भगवान के अभेड़ा मं परिस तब कइसे दांत ल निपोर दीस। कांही ले झन मरौं के वरदान पाके शेर बरोबर गरजत रिहिसे। कंस जउन अपन बाप उग्रेसन ला बंदी बनाके  कारागार मं धांध दे रिहिसे, बहिनी देवकी, दमाद वसुदेव के घला लिहाज नइ रखिस। ओकर लइका मन ल मार डरिस। फेर एक झन भांचा बाचगे कृष्ण तउन हे मतुर के राज दरबार मं कचार दीस, ओकर परान पखेरू उडग़े। रावन के का हाल-बेहाल होइस, ये कथा ल सब जानत हौ। 

तैं कहना का चाहत हस उधो, तेला साफ-साफ बता, तब ओहर 'अहंकार पुराण' के कथा ला लमियावत बताथे- अब तोला जादा बताय-सुनाय के का मतलब हे। माधो, देश दुनिया के चरित्तर ल तो तैं जानत हस, का होवत हे, का होवइया हे। पूरा छल-कपट बेइमानी, झूठ, धोखाधड़ी, मुंह मं राम-बगल मं छुरी कस हाल हे? जेती देखबे तेती पाखंड अउ पापाचार के खेती लहलहावत हे। जउन कभू मंदिर, मसजिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारा के डेहरी मं नइ चढ़े होही, पांव नइ धरे होही तेकर मन के वेशभूषा बदलगे हे, संझा-बिहिनियां धुनी रमाय रामनाम के गटरमाला जपत हे पोथी पुरान पढ़थे। अइसे लगथे- कलजुग नहीं सतजुग मं हम सब जीयत हन। फेर अतेक अनीति, दुख के पहाड़ काबर बरसत हे, सब कोती हाहाकार काबर हे?

सुरुज नरायन घला राम नाम के माला जपे ले धर ले हे माधो, एकर भक्ति तो अउ नइ देखे जात हे। कहां तीस-पैंतीस के पारा मं एहर भजन-गीत गावय, तेकर तमूरा के ताल चालीस-पैंतालिस ले ऊपर चलत हे। 

एकर भक्ति के गरमी ल तो देख माधो, एक घौं मं बादर एला घपट के दबोच लेथे ते एकर हक्का-बक्का बंद हो जथे। चारो मुड़ा अंधियार छा जाथे। अतेक अहंकारी सुरुज नरायन तेकर चाल बादल के आघू मं घुसड़ जथे। मोला न कोनो टेडग़ी डसे हे, न घोड़ा करायत। ये अहंकारी मन के चाल ल देखथौं तब मगज छरिया जथे।

परमानंद वर्मा

रविवार, 3 मार्च 2024

सुनो भाई उधो ....सपना सरकस के

 सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो, जब सर्कस के पिंजरे से शेर निकल कर भाग जाए तब क्या हालत होती होगी दर्शकों की, शहर वालों की? ऐसा ही हो रहा है आज। देहली सर्कस एण्ड  कंपनी का एक खूंखार चीता रिंग मास्टर के हंटर से चमक कर सुरक्षा घेरे से बाहर आ गया है। फिर क्या था अपने आक्रामक तेवर का प्रदर्शन करते हुए बड़े-बड़ों को ऐसे लहूलुहान कर रहा है जिसकी किसी को कल्पना नहीं थी। उस चीते को सभी प्यार से 'ईडी' कहकर पुकारते हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख-

- अरे भागव रे, भागव, जी परान बचाना हे तब ए तीर ले भागव।

 - काबर भागबो जी ए तीर ले, का होगे हे तेमा भागबो?

- नइ भागव तब जाव मरव रे सारे हो, तुंहर मन के रई आगे हे तेला कोनो नइ बचा सकय?

- अरे का बात होगे हे तेला बताबे ते बस कुकुर मांस खाय बरोबर बड़बड़ावत रहिबे? 

-नइ मानव न मोर बात ल, सारी दुनिया जानगे हे, देशभर के अउ गांव भर के मनखे जानगे हे फेर तुंहर असन मूर्ख मनखे मैं कहूं नइ देखे हौं, अतेक अंधरा, अतेक अड़ानी होके नइ रहना चाही?

- अरे परलोखिहा सारे नइ तो हो जइसे रावन, कंस, दुरजोधन, दुशासन अऊ बड़े-बड़े राक्षस मन के नांव ल सुन के रिसि-मुनि, गियानी अउ आम आदमी कांपय तइसने कस अभू होवत हे। 

ये मेहतरु जकहा-बकहा के मुंह ले अइसन बात सुन के दइहान मं सकलाय राहय तउन मन कहिथे, तुंहर मन के समझ मं आथे गा, एकर बात हा? 

परसादी कहिथे- कोन जनी बुजा हा का कहिथे, का बकथे ते कुछु समझ नइ परय? 

समारु, चिंता, रामनाथ, गोविंद, ईश्वर अउ कन्हैया घला परसादी के बात के समरथन करत कहिथे- कोन जनी ओहर का देख परे हे, सुन डरे हे ते झझके असन बड़बड़ावत हे। 

उही तीर सरपंच जगमोहन रिहिसे तउन कहिथे- राहौ तो गा राहौ,एकदम से हड़बावौ झन। उहू लइका, हा कुछु देखे, सुने, पढ़े होही, कोनो मेर तभे अइसन झझखे हे, डरे हे, तभे तो काहत हे भागव... भागव...। ओला तीर के बला लौ अउ पूछव का बात हे बेटा, काबर, का जिनिस हे तेला देखके तैं झझक गे स?

सरपंच जगमोहन ओ लइका ल तीर मं बलइस, ओकर बर पानी मंगइस। एक गिलास पानी ल गटागट ओहर पीगे। 

सरपंच पूछथे- हां, बता बेटा, का बात हे, काबर सब झन ल भागव... भागव... भागव... काहत हस?

ये बेटा के नांव हे मेहतरु, बने हट्टा-कट्टा, नौजवान हे कोनो जोजवा-भोकवा नइहे। ओहर सरपंच ल बताथे- का बतावौं मालिक, रात के एक ठन भयंकर सपना देख परे हौं।

- का सपना रे, सरपंच हा पूछथे। अब ओ तीर सुनइया मन के मजमा लग जथे अउ सब कान देके ओकर बात ल सुने ले धर लिन जइसे कोनो रहस्य-रोमांच के बात सुनावत हे?

- हां, त बता बेटा मेहतरु का अइसे भयंकर सपना देख डरे के अतेक हड़बड़ागे हस?

- हड़बड़ाय के लइक सपना रिहिस हे, तैं नइ पतियाबे, गउकिन काहत हौं गा, ओ भयंकर सपना ल देखत-देखत डर के मारे मूत (पेशाब) घला कर डरेंव। 

सुनत राहय तउन चंगू-मंगू मन जोर से खिलखिला के हांस भरथे, कठल जथे। कोनो-कोनो कहिथे- ये सारे मेहतरु हा लबारी मारत हे, चुतिया बनावत हे, नइ देखे हे अइसन कोनो सपना, एकर बात मं कोनो झन आहौ। लफंगा हे, झूठ-मूठ के बात बनावत, बेंझावत हे। 

सरपंच कहिथे- राहौ तो गा, थोकन चुप तो राहौ। का काहत हे एहर तउन ल सुन तो लौ?

-हां त बता बेटा मेहतरु, का देखे भयंकर सपना मं?

 -मेहतरु- अरे बाप रे, का बतावौं मालिक, दिल्ली मं सरकस होवत हे तिहां के रिंग मास्टर के हंटर खाके चीता अतेक बौखला गे, सब पंडाल मन ल टोरटार के ऐती-ओती जिहां पावत हे जात हे राड़ छड़ावत हे। सब जी परान दे के एती-ओती भागत हे।

रामनाथ पूछथे- तोर ये सपना सही हे के अइसन डेर्रावत हस?

मेहतरु बताथे- मोला का लेना-देना हे भइया ककरो से। बिहनिया मोर नींद खुलिस तब देखथौं, ओ चीता नोहय, ओ ईडी हे। आईटी, सीबीआई पुलिस घला हे ओकर संग मं। जेन मोटहा आसामी हे, जनता के धन ल लूट-लूट के खाय हे, भोभस मं भरे हे तेकर इहां घुसर-घुसर के छापा मारत हे। कोनो नेता, कोनेा मंतरी, कोनो उद्योगपति, व्यापारी, कलाकार एक ला नइ छोड़त हे। 

मैंहर देखे हौं- गिंधोल कस मोटाय ओ बेईमान, गरकट्टा, दोगला, पाखंडी मन ल अइसन ठठावत हे, धुर्रा छड़ावत हे के ओकर मन के हौसडा बंद होगे हे। सब ल जेल मं धांधत हे। एक नइ सुनत हे ककरो। एक झन नइ बता सकत हे के अतेक रुपिया, सोना-चांदी, जमीन-जायदाद, महल-अटारी, घोड़ा-गाड़ी कहां ले अउ कइसे अतेक जल्दी बटोर डरे हे?

ओहर बताथे- मैं सपना मं देखेंव, रिंग मास्टर जब ओला निरदेस देवत रिहिसे तब कनमटक नइ देवत रिहिसे फेर जब एक हंटर परिस ना तब हां जी मेरे आका काहत पंडाल (ऑफिस) ले बाहिर निकलिन अउ फाइल खोल-खोल के देखिन तब बड़े-बड़े भुंडा के नांव दिखिस। बिहानभर तड़ातड़ छापा कार्रवाई शुरू होगे। 

सरपंच ल बतावत कहिथे साल भर ले ऊपर होगे हे मालिक, तुमन कइसे नइ जानन, सुने हन कहिथौ- बड़े-बड़े सरकार कांपत हे, सरकस के चीता के नांव ल सुन के। सांड बरोबर खुल्ला ढिलाय हे जिहे पावत हे तिहे ल थुथरत हे दोरदिर ले ओइलाय हे। अतेक अखबार, टीवी चैनल मं फोटो सहित ओ सबो जिनिस ल देखावत हे जउन पकड़ावत जात हे।

सरपचं कहिथे- वाह बेटा मेहतरु, तब ये आय तोर सपना सरकस के। इही ला देख के तैं डर्रागेस रे?

- डर्राय के लइक बात हे मालिक। 

दूसर दिन ओकर गांव मं विधायक अउ मंतरी रहिथे तेकर घर ईडी के छापा परगे। पांच किलो सोना, कीमती जेवर, फर्जी लेनदेन, जमीन जायदाद के जांच शुरू होगे। एक झन नेता के घर मं करोड़ों के नगदी मिलिस। 

सब केहे ले धरलिन, मेहतरु किहिस तउन बात सहिच निकलगे। इही पाके ओहर चेतावत रिहिसे- भागव... भागव... भागव... फेर ओकर बात ऊपर कोनो धियान नइ देवत रिहिन हे। बइहा, पगला काहत रिहिन हे। वाजिब मं सपना घला कभू-कभू सच हो जथे भइया...।

परमानंद वर्मा

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

तोला का भइगे लेडग़ी..?

 'सुनो भाई उधो'

समाज में अनेक तरह की विसंगतियां, बुराइयां होती है जिसको लेकर आपस में कहा-सुनी हो जाया करती है। दो के झगड़े में तीसरे को नफा अथवा नुकसान तो उठाना ही पड़ता है, इसलिए समझदारी इसी में होती है कि कोई भी इस तरह के मामलो में न पड़ें। लेकिन कुछ मामले ऐसे होते हैं जो भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं, और उससे बच पाना असंभव होता है। इसी तरह के मामले से संबंधित एक प्रेम कहानी है। प्रेमी-प्रेमिका किसी बात को लेकर झगड़ पड़ते हैं और उसका खामियाजा प्रेमिका की बेटी को उठाना पड़ता है। पढिय़े छत्तीसगढ़ी कहानी- ''तोला का भइगे लेडग़ी..?"

तैं काकर भभकी मं आगेस, अइसने कोनो करही, खाय बर देहस तउन थारी ल कोनो नंगाही, झटक के लेगही? का होगे तोला आज, अइसन तो नइ करत रेहे?

सतनारायन अकबका जथे, अंजनी के अइसन चाल ल देखके। ओहर कहिथे- तीन-चार दिन ले ताड़त हौं, तोला कइसे का बात होगे हे ते थोकन अनमने ढंग ले राहत हस। न पहिली जइसे हांस के, परेम के बोली-बात करत हस, सांप-डेडू, बिच्छी तो नइ काट दे हे। 

अंजनी न चिट करत हे न पोट, सतनारायण कुकुर असन अपने अपन हांव-हांव करत भूकत हे। पहिली तो देख, खाना दीस, तहां ले बाहिर पार, खोर दुआरी मं चल दीस अउ परोसिन संग लपर-लिपिर मारे ल धर लीस। पानी घला नइ दीस। जबकि खाना दे के पहिली हमर इहां रिवाज हे पानी पिढ़वा लगाथें। 

परोसिन करा ले कोन जनी का पाठ पढ़के अइस ते ओला पढ़ा दे गिस, आते साठ खाना खाय बर शुरू करत रेहेंव तउन थारी ल उठा के लेगे। 

सतनारायन हड़बड़ागे। ओकर कांही समझ नइ आवत हे कि माजरा का हे? ओहर कहिथे- अंजनी! 

ओहर टेडगा बानी मं कहिथे- झन काह मोला अंजनी, मरगे तोर बर ये अंजनी हा। नइ करत हौं तोला प्यार, हमर-तोर पिंयार  के नाटक इही तीर ले खतम। 

गंज करा धोवन के बरतन मं हाथ-मुंह धोके सतनारायन ओकर तीर मं आथे अउ कहिथे- अंजनी, तोर घर मैं बरपेली नइ आय हौं, ते बलाय रेहे, अमुक तारीख-तिथि, घड़ी मं आबे, मोर गोसइयां बिलासपुर गे हे। बने हांसबो, गोठियाबो, छेहेल्ला मारबो। अब जब तोर बलाय ऊपर ले आगेंव तब तोला का शनिच्चर धर लीस, बही-भुतही कस होगेस?

हां... हां... मैं बही-भूतही होगे हौं, शनिच्चर मोर ऊपर खपलागे हे, बस अतकेच ना, ते अउ कुछु केहे बर बांचे हे? 

सतनारायण ल वाजिब मं कुछु बात समझे नइ परत हे के आखिर एला हो कागे?

ओकर तीर मं जाके ओले पोटारे कस करथे तब घोड़ी हा जइसे घोड़ा ल छटारा मार के अपन तीर ले भगा देथे वइसने कस खेल अंजनी जब करिस तब सतनारायन सुकुरदुम होगे। एकर पहिली तो कभू अइसन नइ होय रिहिस हे? बने रासलीला में मगन हो जावत रिहिस हे दुनो झन। 

अंजनी अउ सतनारायन के बीच तो तीस-पैंतीस बछर ले ये परेम अउ रासलीला चलत आवत हे फेर कोनो अइसे आज तक नइ जान सके हे के ये दूनो झन के बीच मं कोनो खो-खो, फुगड़ी के खेल चलत आवत हे। दूनो झन लोग-लइका वाले हे, उमर खसल के अ्धिया गे हे फेर ओ खेल नइ छूटे हे। 

पहिली चिट्ठी-पतरी अउ फोन के जमाना रिहिसे, उही मं अपन गोठ-बात, मिलना-जुलना, होटल जाना, फिलिम देखा सब हो जात रिहिसे। जब ले इंटरनेट आय हे, मोबाइल आय हे तउन तो अउ सब सुविधा ल परोस दीस। रायपुर मं बइठे हे अउ लंदन, अमरीका, मुंबई, कोलकाता बात कर लेथे, फोटो समेत हांस-गोठिया लेथे आनी-बानी के। जइसन चरित्तर नहीं तइसन ये इंटरनेट अउ मोबाइल हा देखावत सुनावत हे। धुर्रा छोड़ावत हे। 

ओ दिन के घटना, सतनारायन ल बने नइ लगिस, जोरदार ठेस लगिस ओकर दिल मं, अंतस के पीरा ला उही जानही। तीस-पैंतीस साल के पिंयार का ला कहिथे?ओ दिन, ओ बात, ओ हंसी, ओ रात कइसे कोनो भुला जही?

का मन होइस ते सतनारायण के मन उचटगे अउ अंजनी ल ये काहत, तोर दर, तोर दिल अउ तोर घर ले मैं सदा दिन ले निकलके जाथौं, कभू मोर सुरता झन करबे, समझबे- कोनो आवारा, बदमाश, राहू-केतू जीवन मं आय रिहिसे तेकर ले मुक्ति पागेंव। 

सात-आठ महीना गुजरे ऊपर ले ससुराल ले अंजनी के बेटी मइके आय रहिथे तब अपन दाई ल पूछथे- सतनारायन कका के का हालचाल हे, पंदरही होगे मोला आये, एको दिन नजर नइ आइस, कहूं बाहिर गे हे का?

सतनारायन के नांव ल सुनिस तहां ले अंजनी के आंखी डहर ले आंसू झरे ले धर लेथे। बेटी पूछथे- का होगे दाई कका ला, गुजरगे का?

का बतावय अंजनी अपन बेटी ल सतनारायन के बारे मं के ओला का होगे? बताथे- कुछु नइ होय हे बेटी!

तब काबर नइ आवत हे, ओला आरो नइ करे हस का, के सतरूपा आय हे?

अंजनी अब चुप अउ खामोश, बक्का नइ फूटत हे के का काहय अउ नइ काहय?

सतरूपा कहिथे- नहीं दाई आज जाहूं ओकर घर अउ ओला बला के लाहूं, चल कका तोला दाई बलाय हे।

अंजनी समझाथे- नहीं सतरूपा, झन जाबे ओकर घर। 

-काबर, सतरूपा पूछथे?

अंजनी कुछु नइ बोलय, तब सतरूपा समझ जथे जरूर दाई अउ कका के बीच मं कांही बात ल लेके रंगझाझर माते होही, अनबन होगे होही?

सतरूप लम्बा सांस लेवत कहिथे- वाह कका, सतनारायन। तोर गोदी मं खेलेव, बढ़ेंव, तोर पिंयार-दुलार पायेंव, अब कोन हमला बाम्बे के मिठाई अउ बनारस के पेड़ा लान के खवाही?

परमानंद वर्मा

बुधवार, 1 नवंबर 2023

ये दे फेर आगे ललकारत रावन

 सुनो भाई उधो

पूरे संसार में रावण का साम्राज्य फैला हुआ है।  श्रीलंका से निकलकर यूक्रेन, रूस, कनाडा, ईरान, इराक, इजरायल, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान सहित सभी देशों में अपना पांव पसार लिया है। कहीं युद्ध, कहीं मारकाट और खून-खराबा... सब इससे आतंकित, दुखी और परेशान हैं। भारत भर में इसका बूत बनाकर मारा-पीटा, जलाया। लेकिन दूसरे दिन फिर वहां जिंदा होकर आ गया और उधम मचाने लगा है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख...। 

कोनो ल मारना, दुचरना, ओकर जान लेना आसान नइ होवय। ओला तैं एक झापड़ मारबे, लात-घूसा लगाबे तब अपन आप ल बचाव खातिर कुछु तो उहू हा उदिम करही अउ करथे घला। फेर भीड़ के मारे ककरो कांही नइ चलय। बोहावत गंगा मं सबो झन ल हर्रा लागय न फिटकरी तइसन कस सबो झन सोचथे वइसने कस हाल होगे। अस मारिन रावन ल, दुचरिन, लात-घूसा लगइन, जेकर जइसन मन लगिस तइसने लइका-सियान सबो एक-दू थपरा मार ले नइ छोडिऩ। 

महूं सब झन के देखा-सिखी, आरुग काबर राहौं, कोनो अइसे झन सोचय एहर रावन के आदमी हे, संगवारी हे, तेकर सेती चिनहारी काबर बनौ, सोच के दू-चार हाथ जमा देंव, मार के मारे सिहरगे रिहिसे, कल्हरत रिहिसे। सोग तो लगिस, गारी घला देंव मरइया मन ल मने-मन, फेर सबके नजर मोर ऊपर रिहिसे, एहर मारथे के नहीं, बजेड़ेंव गारी देवत, साले अंखफुट्टा, सबके बहू-बेटी ऊपर नीयत खराब करथस, लूटपाट, आतंक, भ्रष्टाचार, अत्याचार करथस। गांव, शहर, देश ल कोन काहय, पूरा विदेश मं दाउद इब्राहिम, लादेन, हमास, हिजबुल सही आतंक फइलाके रखे हस। पूरा जनता बियाकुल हे तोर मारे। 

ये रावन के परिवार संसार भर मं बगरगे हे। यूक्रेन, रूस, अमेरिका, इजराइल, फिलिस्तीन, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान अउ भारत तक ल नइ छोड़े हे। गलत काम, धंधा करना एकर पेशा हे। कतेक सइही कोनो। डर के मारे कोनो कांही नइ काहय एकर मतलब ये तो नइ होवय के छानही मं चढक़े होरा भूंजना चाही। अति के घला एक दिन अंत आथे। लादेन ल देखेव नहीं, कइसे पताल के चटनी असन सील लोड़हा मं पीसागे। बहुत पदनीपाद पदोवत रिहिसे। रायपुर मंं काली सप्पड़ मं आगे, कप्तान ल जइसे सूचना मिलिस के रावन ओकर शहर मं आ धमके हे, ओकर कान खड़ा होगे। सायरन बजावत तीन-चार लारी (बस) समेत कप्तान पुलिस दल-बल के संग रामलीला मैदान मं पहुंचगे। मैदान मं कटाकट भीड़, सब रावन ल मारते राहय। कप्तान रावन के तीर मं पहुंचतिस तेकर पहिली ओकर ऊपर केरोसिन छिडक़ के आगी छोड़ दीन। भांय-भांय करके जले लगिस। 

नंदकुमार बघेल ल कोन कोती ले सूचना मिलिस ते उहू हर यहा सियानी उमर मं लुड़बुड़-लुड़बुड़ करत भीड़ ल काहत रिहिसे- ‘अरे मत मारौ रे ब्राम्हण कुमार रावन ल’ तुमन ल ब्रम्ह हत्या के पाप लग जही। अब भीड़ मं ओकर बात के कोन सुनइया। जब ये सुनिस के रावन तो भांय.. भांय.. करके जलत हे, मार डरिन ओला। ओ छाती पीटे ल धर लिस अउ किहिस- हत् रे हत्यारा हो। कोनो ओकर बात ल नइ सुनिन अउ रावन मरे के खुशी मं सब फटाखा फोरे लगिन। 

रावन मरे के खुशी तो महूं ल होइस, काबर ओकर परसादे कतको मोरो काम सधत रिहिसे। फेर रिहिसे बदमाश, जेकर घर जातिस तेकरे बहू-बेटी अउ बाई ल आरुग नइ छोड़तिस। ओकर आतंक के देखे सब मुंह मं पैरा बोज लंय। पउर साल वइसने रामसागरपारा मं बड़े परिवार के बेटी ल तलवार के बल मं खीचं के लेगे। मजाल कोनो रोक लय। शेर संग कोन बैर ठानही, जान गंवाही। कोनो सेठ, साहूकार अउ उद्योगपति ल फोन मं धमकी देके लाखों, करोड़ों रुपया मंगा लय, कोनो अनाकानी करतीन तब बहू-बेटी नइते छोटे-छोटे लइका मन के अपहरन करे के धमकी दे देवय। ओकर डर के मारे पुलिस मं कोनो रिपोट घला नइ लिखावयं।

बड़े-बड़े नेता, मंत्री, नौकरशाह, ठेकेदार मन ल तो ये रावन अपन लंगू-झंगू असन समझय। कोन ल चुनाव जितवाना हे, मंत्री बनवाना हे, ओ सब एक इशारा मं पलक झपकते करवा दय। पूरा देश का विदेश मं एकर डंका बाजत रिहिस हे तउन हा कइसे जब कुकुर के मौत आथे तब शहर कोती झपाथे कहिथे नहीं तइसे कस हाल होगे। शहर के जनता मन ओला दुचर-दुचर के मार डरिन, अउ आगी छोड़ दीन, भांय.. भांंय.. करके ओकर काया पंचतत्व मं मिलगे। सब कुछ होगे तब कप्तान पहुंचथे अपन पुलिस बल लेके। हमर देश के पुलिस अइसने होथे, हवा मं फायर करना भर जानथे अउ बहादुरी के बड़े-बड़े तमगा लेये मं कभू पीछू नइ राहय। 

बिलासपुर, दुरुग, भिलाई अउ राजनांदगांव ले मोर करा फोन आथे, कहिथे- हमन सुने हन, रायपुर वाले मन रावन ल मार डरेव, बड़ा बहादुरी के काम करेव। जेकर नांव ल सुन माईलोगिन के गरभ गिर जथे, रोवत लइका चुप हो जथे तउन परतापी रावन ल तुमन मार डरेव? मैं केहेंव- हां... हां... भई, मार डरेन, तुंहर मन असन गीदड़ नइ हन। रायपुर वाले मन डालडा घी नहीं बाबा रामदेव के कम्पनी पतंजलि के बने घी खाथन, समझेव। मोर जुआब ल सुनके ओकर मन के बोलती बंद होगे। 

रावन मरे के खुशी मं बने घर मं खीर-पुड़ी हकन के खायेन। बेफिकर होके रात मं लात-तान के सोयेन। बिहनिया ‘मार्निंग वाकिंग’ मं निकलिहौं सोच के दरवाजा करा पहुंचथौ तब देखथौं, उही रावन जउन ल काली दुचर-दुचर के मारे रेहेन, आगी मं लेसे रेहेन तउन ह संउहत अड़दंग खड़े राहय, मेंछा मं ताव देवत। ओला देखते साठ मोर चड्डी पेंट खराब होगे, केहेंव- अरे बाप रे, अब का होही, परान नइ बाचय ददा। दउड़े-दउड़े बाथ रूम मं आयेंव। अब का बतावौं, मोर ‘बी.पी.’ हाई होगे। मन मोला ललकारथे- शेर बनत रेहे बेटा, अब कइसे घुसडग़े तोर सबो होशियारी?

डर के मारे कांपे ले धर लेंव। हाथ तो छोड़े रेहेंव। एक झन महिला संगवारी ल फोन करथौं- मइया मोर संग अइसन-अइसन घटना होगे हे, आठ दस दिन बर तोर घर मं एकाध कमरा खाली होही ते दे देते। ओहर समझावत कहिथे- भइया, जउन रावन ल मारे हन कहाथौ ओ असली रावन नोहे, ओकर छाया ल देखे के डेर्रावत हस। असली रावन तो तोर हिरदे मं बसे हे, उही ल मार। उही ल जउन दिन मार लेबे तउन दिन तोर मन, हिरदय अउ घर मं रामराज आ जही। ओ दिन ओ मइया मोर आंखी ल खोल दीस, सोचेंव- रावन कोनो मनखे नोहय, हमरे मन के मन-चित्त मं रचे-बसे विकार हे, काम, क्रोध, मोह, लोभ अउ अहंकार हर हे, इही ल जउन दिन मारबो, विजय पाबो ओकर ऊपर तभे सबो कोती सुख, शांति अउ संतोष उजियारा बगर जही। 

-परमानंद वर्मा

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

बाऊजी की थाली

 


बाऊजी के लिये खाने की थाली लगाना आसान काम नहीं था।

उनकी थाली लगाने का मतलब था-थाली को विभिन्न पकवानों से इस तरह सजाना मानो ये खाने के लिए नहीं बल्कि किसी प्रदर्शनी में दिखाने के लिए रखी जानी हो।

सब्ज़ी,रोटी,दाल सब चीज़ व्यवस्थित तरीके से रखी जाती।

घर मे एक ही किनारे वाली थाली थी और वो थाली बाऊजी की थी।खाने की हर सामग्री की अपनी एक जगह थी बाऊजी की थाली में।

मजाल है कोई चीज़ इधर से उधर रख दी जाये।

दो रोटी, उसके एक तरफ दाल, फिर कोई भी सब्ज़ी, थोड़े से चावल और उसके साथ कोई भी मीठी चीज़।

मीठे के बिना बाऊजी का खाना पूरा नहीं होता था।

पहले घर में कुछ ना कुछ मीठा बना ही रहता था और यदि न हो तो शक्कर , घी बूरा मलाई कुछ भी हो लेकिन मीठा बाऊजी की थाली की सबसे अहम चीज थी और दूसरी अहम चीज़ थी पापड़। पापड़ का स्थान रोटी के ठीक बगल में होता था जो कि लंबे समय तक नहीं बदला।

बस घर के बने पापड़ की जगह बाजार के पापड़ ने ले ली थी। अचार का बाऊजी को शौक नहीं था।

हाँ, कभी कभार धनिया पुदीने की चटनी जरूर ले लिया करते थे। दही बाबूजी को पसंद नहीं थी लेकिन रायता तो उनकी जान थी फिर चाहे वह बूंदी का हो या घीया का और रायता थाली में पापड़ के ठीक साथ विराजमान रहता था।

मणि को तो शुरु शुरु में बहुत दिक्कतें आई।काफी समय तक तो नई बहू को यह जिम्मेदारी दी ही नही गई लेकिन फिर जब-जब सासू माँ बीमार रहती थी या घर पर नहीं होती थी तो बाऊजी को खाना खिलाने की जिम्मेदारी मणि पर आ जाती।

खाना बनाने में तो मणि ने महारथ हासिल कर रखी थी लेकिन बाऊजी के लिए खाने की थाली लगाने में उसके पसीने छूटने लगते।कभी कुछ भूल जाती तो कभी कुछ और कभी-कभी तो हड़बड़ाहट में कुछ न कुछ गिरा ही देती। एक बार तो थाली लगाकर जैसे तैसे बाऊजी के सामने रखी।

बाऊजी कुछ सेकंड थाली को देखते रहे फिर समझ गए कि आज उनकी धर्मपत्नी घर पर नहीं है। फिर चुपचाप खाना खाकर चले गए।

"माँ जी, यह कैसी आदत डाल रखी है आपने बाऊजी को। इतना समय खाना बनाने में नहीं लगता है जितना समय उनकी थाली लगाने में लगता है" उस दिन झल्ला सी गई थी मणि।

"मैं क्यूँ आदत डालूंगी मैं तो खुद इतने साल से इनकी इस आदत को झेल रही हूँ।" सासू माँ ने मुस्कुराकर जवाब दिया।

"तो बाऊजी हमेशा से ऐसे थे?"

"हाँ, बचपन से ही। सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। माँ के लाडले थे।

  खाना सही से नहीं खाते थे तो मेरी सास थाली में अलग अलग तरह के पकवान रखकर लाती थी कि कुछ तो खा ही लेंगे और फिर धीरे-धीरे तेरे बाऊजी को ऐसी ही आदत पड़ गई।उसके बाद मैं आई।

पहले पहल मुझे भी बहुत परेशानी हुई।

थाली में कुछ भी उल्टा-पुल्टा होता था तो तुम्हारे बाऊजी गुस्सा हो जाया करते थे। वैसे स्वभाव के बहुत नरम थे लेकिन शायद खुद ही अपनी इस आदत से मजबूर थे।

अव्यवस्थित थाली उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। शुरू-शुरू का डर मेरी भी आदत में ही बदल गया और बाद में तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता था।

हाथों को हर चीज अपनी जगह पर रखने की आदत पड़ गई थी।

मणि भी अपनी सासू माँ की तरह धीरे-धीरे आदी हो गई। अपने पूरे जीवन काल में बाऊजी ने कभी किसी चीज की अधिक चाह नहीं की थी। संतोषी स्वभाव के थे लेकिन भोजन के मामले में समझौता नहीं करते थे।

बहुत अधिक खुराक नहीं थी।

 थाली में प्रत्येक चीज़ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही होती थी। मणि तो कई बार  हँसकर बोल दिया करती थी कि बाऊजी को खाने में क्वांटिटी(quantity) नहीं वैरायटी(variety) चाहिए।बचपन में बेटे के प्रति लाड दिखाती माँ से लेकर बुढ़ापे में अपनी जिम्मेदारी निभाती बहु तक के सफर ने थाली के अस्तित्व को बरकरार रखा।

समय बीतता गया। अब मणि खुद सास बन चुकी थी। सासू माँ का देहांत हो गया था।बाऊजी भी काफी बूढ़े हो चले थे। ज्यादा खा-पी भी नहीं पाते थे।

समय के साथ थाली की वस्तुएं व आकार दोनों ही घटते गए। अपने अंतिम दिनों में अक्सर बाऊजी भाव विह्वल होकर मणि के सिर पर हाथ रख कर बोल पड़ते कि अब मेरी आत्मा तृप्त हो चुकी है।

बाऊजी का स्वर्गवास हुए पाँच साल हो गए थे।

आज भी श्राद्ध पक्ष की अमावस्या पर उनके लिए थाली लगाई जाती जिसमें पहले की तरह सभी चीजें व्यवस्थित तरीके से होती हैं। बाऊजी की आत्मा का तो पता नहीं लेकिन मणि का मन जरूर तृप्त हो जाया करता है।

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हमसे आगे हम -- 

टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।

सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।

प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।

सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।

मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।

चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।

उनके भी बाद वाले बच्चे, इनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।

शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।

पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "

" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।

" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "

" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।

" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "

थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "

" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "

" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।

" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "

" क्यों ? "

" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "

" ऐंसा हो सकता है पापा ? "

" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "

" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।

" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "

पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "

" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।

तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "

क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये।