बुधवार, 1 नवंबर 2023

ये दे फेर आगे ललकारत रावन

 सुनो भाई उधो

पूरे संसार में रावण का साम्राज्य फैला हुआ है।  श्रीलंका से निकलकर यूक्रेन, रूस, कनाडा, ईरान, इराक, इजरायल, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान सहित सभी देशों में अपना पांव पसार लिया है। कहीं युद्ध, कहीं मारकाट और खून-खराबा... सब इससे आतंकित, दुखी और परेशान हैं। भारत भर में इसका बूत बनाकर मारा-पीटा, जलाया। लेकिन दूसरे दिन फिर वहां जिंदा होकर आ गया और उधम मचाने लगा है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख...। 

कोनो ल मारना, दुचरना, ओकर जान लेना आसान नइ होवय। ओला तैं एक झापड़ मारबे, लात-घूसा लगाबे तब अपन आप ल बचाव खातिर कुछु तो उहू हा उदिम करही अउ करथे घला। फेर भीड़ के मारे ककरो कांही नइ चलय। बोहावत गंगा मं सबो झन ल हर्रा लागय न फिटकरी तइसन कस सबो झन सोचथे वइसने कस हाल होगे। अस मारिन रावन ल, दुचरिन, लात-घूसा लगइन, जेकर जइसन मन लगिस तइसने लइका-सियान सबो एक-दू थपरा मार ले नइ छोडिऩ। 

महूं सब झन के देखा-सिखी, आरुग काबर राहौं, कोनो अइसे झन सोचय एहर रावन के आदमी हे, संगवारी हे, तेकर सेती चिनहारी काबर बनौ, सोच के दू-चार हाथ जमा देंव, मार के मारे सिहरगे रिहिसे, कल्हरत रिहिसे। सोग तो लगिस, गारी घला देंव मरइया मन ल मने-मन, फेर सबके नजर मोर ऊपर रिहिसे, एहर मारथे के नहीं, बजेड़ेंव गारी देवत, साले अंखफुट्टा, सबके बहू-बेटी ऊपर नीयत खराब करथस, लूटपाट, आतंक, भ्रष्टाचार, अत्याचार करथस। गांव, शहर, देश ल कोन काहय, पूरा विदेश मं दाउद इब्राहिम, लादेन, हमास, हिजबुल सही आतंक फइलाके रखे हस। पूरा जनता बियाकुल हे तोर मारे। 

ये रावन के परिवार संसार भर मं बगरगे हे। यूक्रेन, रूस, अमेरिका, इजराइल, फिलिस्तीन, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान अउ भारत तक ल नइ छोड़े हे। गलत काम, धंधा करना एकर पेशा हे। कतेक सइही कोनो। डर के मारे कोनो कांही नइ काहय एकर मतलब ये तो नइ होवय के छानही मं चढक़े होरा भूंजना चाही। अति के घला एक दिन अंत आथे। लादेन ल देखेव नहीं, कइसे पताल के चटनी असन सील लोड़हा मं पीसागे। बहुत पदनीपाद पदोवत रिहिसे। रायपुर मंं काली सप्पड़ मं आगे, कप्तान ल जइसे सूचना मिलिस के रावन ओकर शहर मं आ धमके हे, ओकर कान खड़ा होगे। सायरन बजावत तीन-चार लारी (बस) समेत कप्तान पुलिस दल-बल के संग रामलीला मैदान मं पहुंचगे। मैदान मं कटाकट भीड़, सब रावन ल मारते राहय। कप्तान रावन के तीर मं पहुंचतिस तेकर पहिली ओकर ऊपर केरोसिन छिडक़ के आगी छोड़ दीन। भांय-भांय करके जले लगिस। 

नंदकुमार बघेल ल कोन कोती ले सूचना मिलिस ते उहू हर यहा सियानी उमर मं लुड़बुड़-लुड़बुड़ करत भीड़ ल काहत रिहिसे- ‘अरे मत मारौ रे ब्राम्हण कुमार रावन ल’ तुमन ल ब्रम्ह हत्या के पाप लग जही। अब भीड़ मं ओकर बात के कोन सुनइया। जब ये सुनिस के रावन तो भांय.. भांय.. करके जलत हे, मार डरिन ओला। ओ छाती पीटे ल धर लिस अउ किहिस- हत् रे हत्यारा हो। कोनो ओकर बात ल नइ सुनिन अउ रावन मरे के खुशी मं सब फटाखा फोरे लगिन। 

रावन मरे के खुशी तो महूं ल होइस, काबर ओकर परसादे कतको मोरो काम सधत रिहिसे। फेर रिहिसे बदमाश, जेकर घर जातिस तेकरे बहू-बेटी अउ बाई ल आरुग नइ छोड़तिस। ओकर आतंक के देखे सब मुंह मं पैरा बोज लंय। पउर साल वइसने रामसागरपारा मं बड़े परिवार के बेटी ल तलवार के बल मं खीचं के लेगे। मजाल कोनो रोक लय। शेर संग कोन बैर ठानही, जान गंवाही। कोनो सेठ, साहूकार अउ उद्योगपति ल फोन मं धमकी देके लाखों, करोड़ों रुपया मंगा लय, कोनो अनाकानी करतीन तब बहू-बेटी नइते छोटे-छोटे लइका मन के अपहरन करे के धमकी दे देवय। ओकर डर के मारे पुलिस मं कोनो रिपोट घला नइ लिखावयं।

बड़े-बड़े नेता, मंत्री, नौकरशाह, ठेकेदार मन ल तो ये रावन अपन लंगू-झंगू असन समझय। कोन ल चुनाव जितवाना हे, मंत्री बनवाना हे, ओ सब एक इशारा मं पलक झपकते करवा दय। पूरा देश का विदेश मं एकर डंका बाजत रिहिस हे तउन हा कइसे जब कुकुर के मौत आथे तब शहर कोती झपाथे कहिथे नहीं तइसे कस हाल होगे। शहर के जनता मन ओला दुचर-दुचर के मार डरिन, अउ आगी छोड़ दीन, भांय.. भांंय.. करके ओकर काया पंचतत्व मं मिलगे। सब कुछ होगे तब कप्तान पहुंचथे अपन पुलिस बल लेके। हमर देश के पुलिस अइसने होथे, हवा मं फायर करना भर जानथे अउ बहादुरी के बड़े-बड़े तमगा लेये मं कभू पीछू नइ राहय। 

बिलासपुर, दुरुग, भिलाई अउ राजनांदगांव ले मोर करा फोन आथे, कहिथे- हमन सुने हन, रायपुर वाले मन रावन ल मार डरेव, बड़ा बहादुरी के काम करेव। जेकर नांव ल सुन माईलोगिन के गरभ गिर जथे, रोवत लइका चुप हो जथे तउन परतापी रावन ल तुमन मार डरेव? मैं केहेंव- हां... हां... भई, मार डरेन, तुंहर मन असन गीदड़ नइ हन। रायपुर वाले मन डालडा घी नहीं बाबा रामदेव के कम्पनी पतंजलि के बने घी खाथन, समझेव। मोर जुआब ल सुनके ओकर मन के बोलती बंद होगे। 

रावन मरे के खुशी मं बने घर मं खीर-पुड़ी हकन के खायेन। बेफिकर होके रात मं लात-तान के सोयेन। बिहनिया ‘मार्निंग वाकिंग’ मं निकलिहौं सोच के दरवाजा करा पहुंचथौ तब देखथौं, उही रावन जउन ल काली दुचर-दुचर के मारे रेहेन, आगी मं लेसे रेहेन तउन ह संउहत अड़दंग खड़े राहय, मेंछा मं ताव देवत। ओला देखते साठ मोर चड्डी पेंट खराब होगे, केहेंव- अरे बाप रे, अब का होही, परान नइ बाचय ददा। दउड़े-दउड़े बाथ रूम मं आयेंव। अब का बतावौं, मोर ‘बी.पी.’ हाई होगे। मन मोला ललकारथे- शेर बनत रेहे बेटा, अब कइसे घुसडग़े तोर सबो होशियारी?

डर के मारे कांपे ले धर लेंव। हाथ तो छोड़े रेहेंव। एक झन महिला संगवारी ल फोन करथौं- मइया मोर संग अइसन-अइसन घटना होगे हे, आठ दस दिन बर तोर घर मं एकाध कमरा खाली होही ते दे देते। ओहर समझावत कहिथे- भइया, जउन रावन ल मारे हन कहाथौ ओ असली रावन नोहे, ओकर छाया ल देखे के डेर्रावत हस। असली रावन तो तोर हिरदे मं बसे हे, उही ल मार। उही ल जउन दिन मार लेबे तउन दिन तोर मन, हिरदय अउ घर मं रामराज आ जही। ओ दिन ओ मइया मोर आंखी ल खोल दीस, सोचेंव- रावन कोनो मनखे नोहय, हमरे मन के मन-चित्त मं रचे-बसे विकार हे, काम, क्रोध, मोह, लोभ अउ अहंकार हर हे, इही ल जउन दिन मारबो, विजय पाबो ओकर ऊपर तभे सबो कोती सुख, शांति अउ संतोष उजियारा बगर जही। 

-परमानंद वर्मा

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

बाऊजी की थाली

 


बाऊजी के लिये खाने की थाली लगाना आसान काम नहीं था।

उनकी थाली लगाने का मतलब था-थाली को विभिन्न पकवानों से इस तरह सजाना मानो ये खाने के लिए नहीं बल्कि किसी प्रदर्शनी में दिखाने के लिए रखी जानी हो।

सब्ज़ी,रोटी,दाल सब चीज़ व्यवस्थित तरीके से रखी जाती।

घर मे एक ही किनारे वाली थाली थी और वो थाली बाऊजी की थी।खाने की हर सामग्री की अपनी एक जगह थी बाऊजी की थाली में।

मजाल है कोई चीज़ इधर से उधर रख दी जाये।

दो रोटी, उसके एक तरफ दाल, फिर कोई भी सब्ज़ी, थोड़े से चावल और उसके साथ कोई भी मीठी चीज़।

मीठे के बिना बाऊजी का खाना पूरा नहीं होता था।

पहले घर में कुछ ना कुछ मीठा बना ही रहता था और यदि न हो तो शक्कर , घी बूरा मलाई कुछ भी हो लेकिन मीठा बाऊजी की थाली की सबसे अहम चीज थी और दूसरी अहम चीज़ थी पापड़। पापड़ का स्थान रोटी के ठीक बगल में होता था जो कि लंबे समय तक नहीं बदला।

बस घर के बने पापड़ की जगह बाजार के पापड़ ने ले ली थी। अचार का बाऊजी को शौक नहीं था।

हाँ, कभी कभार धनिया पुदीने की चटनी जरूर ले लिया करते थे। दही बाबूजी को पसंद नहीं थी लेकिन रायता तो उनकी जान थी फिर चाहे वह बूंदी का हो या घीया का और रायता थाली में पापड़ के ठीक साथ विराजमान रहता था।

मणि को तो शुरु शुरु में बहुत दिक्कतें आई।काफी समय तक तो नई बहू को यह जिम्मेदारी दी ही नही गई लेकिन फिर जब-जब सासू माँ बीमार रहती थी या घर पर नहीं होती थी तो बाऊजी को खाना खिलाने की जिम्मेदारी मणि पर आ जाती।

खाना बनाने में तो मणि ने महारथ हासिल कर रखी थी लेकिन बाऊजी के लिए खाने की थाली लगाने में उसके पसीने छूटने लगते।कभी कुछ भूल जाती तो कभी कुछ और कभी-कभी तो हड़बड़ाहट में कुछ न कुछ गिरा ही देती। एक बार तो थाली लगाकर जैसे तैसे बाऊजी के सामने रखी।

बाऊजी कुछ सेकंड थाली को देखते रहे फिर समझ गए कि आज उनकी धर्मपत्नी घर पर नहीं है। फिर चुपचाप खाना खाकर चले गए।

"माँ जी, यह कैसी आदत डाल रखी है आपने बाऊजी को। इतना समय खाना बनाने में नहीं लगता है जितना समय उनकी थाली लगाने में लगता है" उस दिन झल्ला सी गई थी मणि।

"मैं क्यूँ आदत डालूंगी मैं तो खुद इतने साल से इनकी इस आदत को झेल रही हूँ।" सासू माँ ने मुस्कुराकर जवाब दिया।

"तो बाऊजी हमेशा से ऐसे थे?"

"हाँ, बचपन से ही। सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। माँ के लाडले थे।

  खाना सही से नहीं खाते थे तो मेरी सास थाली में अलग अलग तरह के पकवान रखकर लाती थी कि कुछ तो खा ही लेंगे और फिर धीरे-धीरे तेरे बाऊजी को ऐसी ही आदत पड़ गई।उसके बाद मैं आई।

पहले पहल मुझे भी बहुत परेशानी हुई।

थाली में कुछ भी उल्टा-पुल्टा होता था तो तुम्हारे बाऊजी गुस्सा हो जाया करते थे। वैसे स्वभाव के बहुत नरम थे लेकिन शायद खुद ही अपनी इस आदत से मजबूर थे।

अव्यवस्थित थाली उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। शुरू-शुरू का डर मेरी भी आदत में ही बदल गया और बाद में तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता था।

हाथों को हर चीज अपनी जगह पर रखने की आदत पड़ गई थी।

मणि भी अपनी सासू माँ की तरह धीरे-धीरे आदी हो गई। अपने पूरे जीवन काल में बाऊजी ने कभी किसी चीज की अधिक चाह नहीं की थी। संतोषी स्वभाव के थे लेकिन भोजन के मामले में समझौता नहीं करते थे।

बहुत अधिक खुराक नहीं थी।

 थाली में प्रत्येक चीज़ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही होती थी। मणि तो कई बार  हँसकर बोल दिया करती थी कि बाऊजी को खाने में क्वांटिटी(quantity) नहीं वैरायटी(variety) चाहिए।बचपन में बेटे के प्रति लाड दिखाती माँ से लेकर बुढ़ापे में अपनी जिम्मेदारी निभाती बहु तक के सफर ने थाली के अस्तित्व को बरकरार रखा।

समय बीतता गया। अब मणि खुद सास बन चुकी थी। सासू माँ का देहांत हो गया था।बाऊजी भी काफी बूढ़े हो चले थे। ज्यादा खा-पी भी नहीं पाते थे।

समय के साथ थाली की वस्तुएं व आकार दोनों ही घटते गए। अपने अंतिम दिनों में अक्सर बाऊजी भाव विह्वल होकर मणि के सिर पर हाथ रख कर बोल पड़ते कि अब मेरी आत्मा तृप्त हो चुकी है।

बाऊजी का स्वर्गवास हुए पाँच साल हो गए थे।

आज भी श्राद्ध पक्ष की अमावस्या पर उनके लिए थाली लगाई जाती जिसमें पहले की तरह सभी चीजें व्यवस्थित तरीके से होती हैं। बाऊजी की आत्मा का तो पता नहीं लेकिन मणि का मन जरूर तृप्त हो जाया करता है।

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हमसे आगे हम -- 

टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।

सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।

प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।

सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।

मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।

चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।

उनके भी बाद वाले बच्चे, इनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।

शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।

पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "

" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।

" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "

" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।

" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "

थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "

" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "

" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।

" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "

" क्यों ? "

" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "

" ऐंसा हो सकता है पापा ? "

" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "

" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।

" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "

पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "

" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।

तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "

क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये।

सोमवार, 25 सितंबर 2023

मया मइके के संग तीजा पोरा

-परमानंद वर्मा

छत्तीसगढ़ का एक महान पर्व है तीज पोरा। बेटी, बहन, बहुएं औऱ माताओं को मातृ शक्ति के रूप में पूजन किया जाता है। साल में एक बार ससुराल से मायका आती हैं, लायी जाती हैं और यथायोग्य राशि, कपड़े, जेवर आदि भेंट कर आदरपूर्वक सम्मान किया जाता है। किसी कारणवश नहीं आ पातीं हैं तब मायके न आने के गम में सिसकती रहती हैं। एक कहावत भी है मइके के कुकुर नोहर। इसी संदर्भ में पढ़िए यह छत्तीसगढ़ी आलेख।

बियारी करके सुखराम गुड़ी मेर सकलाय राहय तेन संगवारी मन करा जाके बइठ जथे। इहां गांव भर के गोठ  बात ल लेके देश अउ परदेश भर के राजनीति, खेती-बाड़ी, घर-परिवार, बहू-बेटी के ऊपर चरचा होथे। कोनो तमाखू, गांजा मलत रहिथे तब कोनो चोंगी-बीड़ी के चस्का ले के जुगाड़ मं लगे रहिथे। 
सुखराम ला देखते साठ खेलावन दाऊ कहिथे- कस रे सुखराम, तैं कइसे लरघीयाय असन कोंटा मं सपटे हस, का गोसइन संग लड़ झगड़ के आय हस?
- 'नहीं दाऊ, वइसन बात नइहे गा, आज थोकन खेत मं जादा काम होगे रिहिसे। बियासी निंदई-कोड़ई अउ कोपर घला चलत रिहिसे न, बुता थोकन जादा होगे रिहिसे तेकर सेती थकासी लागत हे।
सुखराम के ये बात ल सुनके खेलावन दाऊ कहिथे- अरे थकासी लागत हे काहत हस, शरीर हा रसरसाय असन लागत होही तब एकाध अद्धी मार ले नइ रहिते रे? 
- अरे काकर नांव लेथस गौंटिया, ओ दिन अइसने ले परे रेहेंव तब तोर बहू हा नंगत ले भड़के रिहिसे अउ केहे रिहिसे अब कभू अइसन पीबे पियाबे तब ठीक नइ बनही ?
सुखराम के बात ल सुनके गौंटिया ओला चुलकावत कहिथे- तब अपन गोसइन ला अतेक डर्राथस रे। घर के मालिक तैंहर हस ते तोर गोसइन?
- कइसे करबे गौंटिया, बड़ तेज हे तोर बहू हा। कुछु एती-तेती करबे, उलटा-सुलटा कर परबे, ककरो कभू मुंह तो आय लपर-लिपिर गोठिया परेंव अउ ओहर कहूं सुन डरिस के फलाना के बेटी, बहू, बहिनी अउ गोसइन संग तोर गोसइया गोठियावत-बतावत रिहिस हे कहिके, तहां ले तो ओ दिन घर मं रंगझाझर मात जथे, मोर बुढ़ना ल झर्रा देथे, तीन पुरखा ल पानी पिया देथे। ते पायके नहीं गोंटिया ओहर जभे कहूं कोनो गांव या मइके जाय रहिथे तभे हरहिंछा, मेछराथव्  गोठियाथौं, बताथौं।
- हत रे कहां के डरपोकना नइतो, अइसने गोसइन ल कोनो डर्राही रे। गोंटिया ओला सीख देथे- छांद के रखना चाही ओकर मन के हाथ, गोड़ अउ मुंह ला..। जादा एती-ओती लपर-लिपिर, तीन-पांच करिस, मुंह फुलइस अउ शेर बने के कोशिश करिस तब देकर दू-चार राहपट। तैं ओला बिहा के लाय हस, ओ तोला नइ लाय हे, समझे। जादा हुसियारी करिस अउ मुंह चलाय के कोशिश करिस तब देखा दे ओकर मइके के रस्दा। एक घौं मं सोझ हो जाहय। 
खेलावन गौंटिया के बात ल सुनके सुखराम कहिथे, बात तो तैं सोलह आना सही काहत हस मालिक, फेर मैंहर तोर सही नइहौं ना, मैं तो ओकर बोली ल सुनके ओतके मं कुकुर ल देखथे साठ बिलई असन सपट जथौं। ऊंच भाखा मं जउन दिन बोल परिहौं न तब ओ दिन मोर का हालत करही तउन ला मैं जानत हौं। 
गोंटिया हांसथे अउ समझावत कहिथे- डर्राय के कोनो बात नइहे सुखराम। एक काम कर, ये दे मैं रखें हौं अद्धी, दूनो झन चल आधा-आधा मार लेथन। अउ घर मं जाबे न तब कुछु मत करबे, चुपचाप खटिया मं ढलंग जाबे। कुछु कइही, करही न तब एती ओती करके टरका देबे। 
सुखराम झांसा मं आगे गौंटिया के, आधा-आधा मारिन तहां ले सुखराम बइठ नइ सकिस, अउ घर आगे। 
- अई, आज कइसन जल्दी आगेस छितकी के कका, बइठक आज जल्दी उसलगे का? सुखराम अपन गोसइन रामकली के बात ल सुनिस तहां ले सकपकागे, अउ सोचे लगिस, ये कहूं जान डरही, ढरका के आय हे दारू ल कइके तहां ले मोर बारा ल बजा डरही भगवान। अब येला का जवाब देवौं, देवौं ते नइ देवौं?
अई कइसे कांही नइ बोलत हौ छितकी के कका? गोसइन तीर मेर आ जथे अउ सुखराम के धुकधुकी बाढ़ जथे। 
रामकली कहिथे- ये हो, सुनव ना, एक ठन बात हे, मान जतेव ते बने रहितिस। 
सुखराम सोचथे- मउका बढ़िया हे, कइसे ओहर बघनीन ले आज सरु गऊ बने ले जाथे, का बात हे, जरूर कोनो राज हे? अब दारू के नशा थोकन चढ़त हे तब लहसाय बरोबर ओहर पूछथे- का बात हे मोर परान पियारी रामकली?
गोसइन ल समझत देरी नइ लगिस के आज एहा दारू पीके आय हे, फेर उहू ल अपन काम सिध करवाना रिहिसे तहां ले ओकर तीर मं ओध के कहिथे- तीजा-पोरा आवत हे, मइके जाय के साध लागत हे। मोर बहिनी, संगी-सहेली मन आही, दाई हा घला रस्दा जोहत होही। ओला कहि परे रेहेंव एसो आहूं दाई, खतम आहूं। तब अरजी हे जान देना चार-आठ दिन बर। अतका काहत सुखराम के नाक, कान, गाल ल चूमा देये ले धर लेथे। 
मने मन अपन गोसइन ल गारी देवत कहिथे- आन पइत कइसे दारू के गंध ल पावय तहां ले कुकुर-बिलई असन गुर्राय ले धर लय, आज का मोर मुंह ले सेंट के सुगंध निकलत हे तब धरे-पोटारे कस करत हे। कइसे पासा पलटत हे। घुरुआ के दिन बहुरथे कहिथे तउन इही ल कहिथे। 
खेलावन दाऊ के बात सुरता आगे, बने गुरु मंत्र देये हस भइया। नशा मं तो रहिबे करे रेहेंव, केहेंव- कोनो जरूरत नइहे, मइके जाय के, भाड़ मं जाय तोर संगी-सहेली अउ दाई-काकी, तीजा-पोरा। खेत ल कोन देखही तोर बाप, तोर भाई-दाई। निंदई-कोड़ई परे हे, कोप्पर चलत हे, मैं अक्केला मरिहौं का? रांध के खाना कोन दिही?
अइसे दबकारिस सुखराम अपन गोसइन ल ते ओहर सकपकागे। अइसन टांठ भाखा मं कभू नइ बोले रिहिसे, ससुराल आय ऊपर ले पहिली बार आज जउन अइसन बगियाइस हे। जान तो डरे रिहिसे के दारू के नशा मं एहर बोलत हे अउ उतरही नशा तहं ले भीगी बिलई असन हो जही। कहूं एला रुतबा देखावत हौं, अपन ताव बतावत हौं तब दूर-चार गफ्फा देये मं कोनो देरी नइ करही। 
रामकली घला खिलाड़ी कोनो कम नइहे, अपन काम निकाले के तरकीब जानथे। सुखराम के हाथ-गोड़ ल मालिस करे असन, सुलहारे कस गुरतुर बोली मं बोलथे- जादा नहीं, दू-चार दिन बर जान देना छितकी के कका, जादा दिन नइ लगावौं। गऊकिन काहथौं, मैं जल्दी आ जाहौं। मैं जानथौं- मोर बिगन तैं रेहे नइ सकस, छटपटाथस रात भर। गोसइन हौं तोर, मरद के आदत-सुभाव ल नइ जानिहौं। 
सुखराम मने-मन गदकथे, अउ सोचथे ये डौकी-परानी के चाल ल तो देख, मइके जाना हे तब सरी खेल, दांव-पेंच खेलही। अउ बरज देथौं- नइ जाना हे तब कइसे थोथना फूल जही, कैकेयी बन जही, मोर खाना-पीना ल हराम कर दिही। 
कहिथे- वाह खेलावन दाऊ, टिरिक तो बढ़िया बताय भइया, इही ल कहिथे अइस न ऊंट पहाड़ के नीचे। बहुत अकड़त रिहिसे, महीच आंव काहय। मइके जा हौं... मइके जाहौं... कइके सुलहारत हे, बरजेंव नइ जाना तब कइसे लेवना कस बनगे ?
मोरो पारी आहे, केहेंव- का रखे हे मइके मं तेमा मइके... मइके... तीजा-पोरा... तीजा-पोरा के रटन धर ले हस? कोनो हे का तोर उहां लगवार तेमा मइके जाहौं काहत हस?
टेड़गा भाखा ल सुनिस तहां ले बोमफार के रोय ले धर लिस, अउ पांव तरी गिर के किहिस- मोला जतका मारना, पीटना हे मारपीट ले, फेर अतेक बड़े बद्दी झन लगा, मोर इज्जत मं कलंक झन लगा। जेकर नहीं तेकर कसम खवा ले तोर छोड़ ककरो संग करे होहूं ते। 
रतिहा के बेरा, गोसइन के रोवई ल सुनिस तहां ले आसपास के दूर-चार झन परोसिन मन आगे, का बात होगे ? बात बनाएंव, समझायेंव, केहेंव- तीजा-पोरा माने बर मइके जाहूं किहिस तब मैं मना करत केहेंव- खेती-किसानी के काम बगरे हे, बाद मं चल देबे। बस मोर माय-मइके ल तेहा छोड़ावत हस, अतके बात ल लेके एहर रोय-गाये ले धर लिस।
परोसिन मन किहिन- हमन समझेन कांही अउ कुछु दूसर बात, घटना तो नइ होगे, सोचके आ परेन भइया सुखराम, माफी देबे। 
सुखराम सोचथे- माय मइके के मया अड़बड़ होथे, अउ साल मं एके बार तो ये मउका मिलथे जेमा चारों डाहर के बेटी, बहिनी, सहेली जउन अपन-अपन ससुराल जाय रहिथे, मिलथे- जुलुथे। महूं तो जाहूं मोर बहिनी, दीदी ल लाय बर, नइ आही, तेकर बर लुगरा-कपड़ा धर के जाय ले परही। 
रामकली के दुख ल जानगेंव, समझगेंव, गजब मया पल-पलाय बरोबर रोवत रिहिसे तउन ल समझायेंव अउ केहेंव- जा रे मोर अनारकली मइके... छुट्टी देवत हौं, फेर झटकिन आबे, दिन्नी झन करबे। अतका काहत ओला पोटार लेंव। नशा तो चढ़े रिहिसे, ओकर चेहरा ल देखेंव तब बिहनिया तरिया मं खिले कमल फूल असन छतराय रिहिसे हे। गदकत रिहिसे। केहेंव- वाह रे मइके... वाह रे मया.. अउ वाह रे तीजा पोरा... तोर जादू...। 
जाती-बिराती-
काबर सुरता हर आ आ के 
हिरदय ल मोर निचोरत हे
कोन फूल फूले हे
कोन गंध मोहत हे
मुरझावत बिरवा ल
कोन ह उल्होवत हे। 
                         -  हरि ठाकुर

रविवार, 10 सितंबर 2023

रविवार एक कहानी - पेंशन

" सुनो, आज चार तारीख हो गई,पेंशन लेने का समय आ गया है।बैंक जा रहा हूँ,आने में देर हो जाए तो परेशान मत होना।युवाओं को समय की कद्र कहाँ, छोटे-छोटे काम में भी घंटों लगा देते हैं।" पत्नी को कहकर रामनिवास जी बाहर जाने लगे तो पत्नी ने पीछे से कहा, " आपके इतने सारे विद्यार्थी हैं, उन्हीं में से किसी को क्यों नहीं कह देते?" 

 " ज़माना बदल गया है।पहले जैसे विद्यार्थी अब कहाँ जो अपने गुरु का मान करें।उन्हें तो मेरा नाम भी याद नहीं   होगा।" पत्नी को जवाब देकर वे बैंक चले गये।

 महीने का पहला सप्ताह होने के कारण बैंक में भीड़ थी।एक खाली कुर्सी देखकर वे बैठ गये और फार्म भरकर  कैशियर वाले डेस्क के सामने खड़े हो ही रहें थें कि एक स्टाफ़ ने उन्हें आदर-सहित कुरसी पर बैठा दिया और स्वयं फ़ार्म लेकर कैशियर के केबिन में चले गये।वे कुछ समझ पाते तब तक में बैंक का चपरासी उनके लिए चाय ले आया।उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वे बिना चीनी के चाय पीते हैं।चपरासी बोला, " साहब ने बिना चीनी वाली का ही आर्डर दिया है।" कहकर उसने रामनिवास जी के हाथ में चाय की प्याली थमा दी।

 रामनिवास जी ने घड़ी देखी, दस बजकर पाँच मिनट हो रहें थे।सोचने लगे, चाय पिलाया है,लगता है दो घंटे से पहले मेरा काम न होगा।तभी एक बत्तीस वर्षीय सज्जन ने आकर उनके पैर छुए और विड्राॅ की गई राशि उनके हाथ पर रख दिया।इतनी जल्दी काम पूरा होते देख रामनिवास जी चकित रह गए।उन्होंने उन सज्जन को धन्यवाद देते हुए परिचय पूछा तो उन्होंने कहा, " सर, मैं इस बैंक का नया मैनेजर हूँ, एक सप्ताह पहले ही मैंने ज्वाॅइन किया है लेकिन उससे पहले मैं आपका विद्यार्थी हूँ।" 

 " विद्यार्थी! " रामनिवास जी ने आश्चर्य से पूछा।उन्होंने कहा, "जी सर, सन् 2004 में आप सहारनपुर के उच्च माध्यमिक विद्यालय में नौवीं कक्षा के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाते थें।मैं भी उन्हीं में से एक था।गणित मुझे समझ नहीं आती थी।परीक्षा में पास होने के लिए मैंने नकल करना चाहा और पकड़ा गया।प्रिंसिपल सर मुझे रेस्टीकेट कर रहें थें तब आपने उनसे कहा था कि नासमझी में विद्यार्थी तो गलती करते ही हैं।हम शिक्षक हैं, हमारा काम उन्हें शिक्षा देने के साथ-साथ सही राह दिखाना भी है।संजीव की यह पहली गलती है,रेस्टीकेट कर देने से तो इसका पूरा साल बर्बाद हो जाएगा जो मेरे विचार से उचित नहीं है।आपने उनसे विनती की थी कि मुझे माफ़ी देकर अगली परीक्षा में बैठने दिया जाए।प्रिंसिपल सर ने आपकी बात मान ली थी,आपने अलग से मुझे ट्यूशन पढ़ाया और मैं परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर आज आपके सामने खड़ा हूँ।आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर!" हाथ जोड़कर मैनेजर साहब ने अपने गुरु को धन्यवाद दिया और ससम्मान उन्हें बाहर तक छोड़ने भी गए।

घर लौटते वक्त रामनिवास जी सोचने लगे, ज़माना चाहे कितना भी बदल जाए, जीवन भले ही मशीनी हो जाए लेकिन विद्यार्थियों के दिलों में शिक्षक का सम्मान हमेशा रहेगा,यह आज बैंक मैनेजर संजीव ने दिखा दिया।

वाट्स एप से साभार

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

बिन डोंगहार के डोंगा

 सुनो भाई उधो

परमानंद वर्मा

फिर मन गया बिना गोसइया के

 छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का स्थापना दिवस ।आते हैं इस  मे प्रदेश भर से छत्तीसगढ़ी  साहित्यकार, लेखक, कवि, भाषाविद्, संस्कृति कर्मी। मुख्य अतिथि के उद्घाटन के बाद निर्धारित विषयों पर वक्ता अपने विचार रखते हैं, कवि गण अपनी कविताओं के पाठ करते हैं, लोक कलाकार संगीतमय प्रस्तुति से आगंतुकों को भाव-विभोर कर देते हैं, और अंत में भोजन प्रसादी पाकर अपने-अपने ठिकाने लौट जाते हैं। विगत पांच सालों से ऐसा ही चल रहा है। सचिव के भरोसे नैया आगे सरक रही है । हालाकि उन्होंने किसी को ऐसा आभास नहीं होने दिया कि अध्यक्ष नहीं है लेकिन सबको इस बात का मलाल है कि जब सभी आयोगों, मंडलों में अध्यक्षों व अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रमुखता से की गई है तब छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग की उपेक्षा क्यों? इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख।

सीहोर वाले महाराज पंडित प्रदीप   मिश्रा ओ दिन गोढियारी म शिवपुराण के कथा बाचत रिहिसे तब ओ कथा ल सुने बर डोंगा(नाव) घला पहुंचे राहय। उही बेरा हाथ उठा के ओहर हर हर महादेव काहत महराज सो बिनती करत पूछ-थे, सब के दुख, करलेस ल टारत आवत हस महाराज, मोरो एक ठन जबर करलेस हे, टार देते ते बने होतिस।

महाराज ह पूछ-थे,का करलेस है दाई बता ना। डोंगा हाथ जोर के आँखि कोती ले आंसू ढारत गोहरा-थे, मोर गोंसिइया डोंगहार पांच साल होए ले जावत हे, कहां चल देहे। अतेक खोजत हौं, पता लगावत हौं फेर कांही सोर नई मिलत हे। तुंहर आसन महाराज मन करा बिचरवा घला डरे हौं फेर कुछु नई पता लगिस। कोनो कोनो बताईन, सीयम हाउस कोती जात देखे हन। अब भगवान जानय ओहर कहां हे।

डोंगा के सबो बात ल सुने के बाद सीहोर वाले महाराज ओला बताथे- एक उपाय बतावत हौं धियान देके सुन। कोनो मेर के शिव मंदिर म जाके रोज एक लोटा पानी, एक ठन बेल पत्ती अउ कनेर, धतूरा, गुलाब के फूल हो सकय ते शिवजी म अर्पन करना शुरू कर दे। एक न एक तोर गोसइया जरूर लहुट के घर आ जही। ये उपाय ल करके देख तो भला। अउ  हां श्री शिवाय नमस्तुभ्यम ये मन्त्र के जाप पांच घो जरूर करे करबे। अब दुनों हाथ ल उठा के बोल, हर हर महादेव। अइसने कस हाल छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के सध होवत हे। खोजत फिरत भटकत हे अपन गोसइया(अध्यक्ष) के फिराक मे ।

सोचथौं बिना किसान के खेती, बिना डॉक्टर के अस्पताल, बिना जज के कोर्ट, बिना परानी के गिरहस्थी, बिना डोंगहार के डोंगा (नाव), बिना पायलट के हवाई जहाज अउ बिन राजा के राज्य कइसे चलत होही, चलेच नइ सकय, अउ अइसने कतको अकन बात हे जेकर बिना अधूरा के अधूरा रहि जाथे. विधवा, रांड़ी-अनाथिन कस रोवत-धोवत जिनगी गुजर जथे। तइसने कस हाल छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के हे। पांच साल गुजरे ले जात हे, छत्तीसगढ़ के मुखिया कइसे आंखी-कान ला लोरमा दे हे ते  ये आयोग के अध्यक्ष के नियुक्ति नइ करिस। अउ सब मंडल, आयोग के अध्यक्ष, सचिव अउ पदाधिकारी मन  के नियुक्ति कर डरिस, फेर एती हीरक के नइ निहारिस। कतको सुख-सुविधा दे-दे, ददा (मुखिया) बिना घर सुन्ना लगथे, नइ सुंदरावय। लक्ष्मण मस्तुरिया, श्यामलाल चतुर्वेदी, दानेश्वर शर्मा अउ डॉ. विनय पाठक जइसे बड़े-बड़े गुनिक मन ये आयोग के अध्यक्ष बने रिहिन हे जेकर से ये आयोग के शोभा बढ़े रिहिसे। अइसे बात नइहे के कोनो अध्यक्ष पद के लइक नइहे, एक ले बढ़के एक सुजानिक चेहरा ये पद के काबिल हे। ओकर से छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के मान-शान मंं बरकत हो सकत रिहिसे। उपेक्षा के शिकार काबर होइस ये बात के सवाल सब साहित्यकार, कला, संस्कृति, भाषा, बोली के समझ रखइया मन उठाथे, उठावत हें। 'छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया' के नारा के ढिंढोरा पीटे भर ले छत्तीसगढ़िया के विकास नइ होना हे। विकास होही ओकर मातृभाषा ल पंदोली देके, ऊपर उठायले, प्राथमिक कक्षा ले पढ़ई शुरू करे ले। जइसने किसानी के रकम ल किसान ले बने दूसर कोनो जान नइ सकय, वइसने शिक्षा के विकास के रकम शिक्षा के विद्वान ले दूसर कोनो नइ जानय। राजा करा तो दुनिया भर के काम रहिथे, रात-दिन राज-काज मं बूड़े रहिथे। अइसन काम के नेत-घात जउन जानथे तेला सौंपना चाही। नहीं ते फेर बिन मांझी के डोंगा हवा के झोंका में कोन कोती के रसदा रेंग दिही, भगवाने मालिक हे। 

अभी ओ दिन 14 अगस्त के छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के स्थापना दिवस मनाये गिस, जेमा प्रदेश भर के साहित्यकार, कलाकार, संस्कृति कर्मी, कवि, विद्यार्थी मन सकलाय रिहिन हे। माई पहुना संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत दीया बार के कार्यक्रम के उद्घाटन करिस, जेकर पगरइत रिहिन हे संसदीय सचिव कुंवरसिंह निषाद। ये मौका मं गीत-संगीत के प्रस्तुति राज गान के बाद होइस। ये बेरा मं फिल्म डायरेक्टर मनोज वर्मा अउ टीवी के उद्घोषक श्रीमती मधुलिका पाल अपन-अपन विचार रखिन। 

महंत सर्वेश्वर दास सभा भवन में आयोजित ये समारोह मं प्रदेशभर ले आये छत्तीसगढ़ी साहित्य प्रेमी के मन मं इही बात के जादा चरचा अउ दुख होवत रिहिसे के प्रदेश के मुखिया ये आयोग ल काबर अनदेखी करत हे, काबर अध्यक्ष नइ नियुक्त करत हे। कोनो खुसुर-फुसुर गोठियावय तब कोनो टांठ भाखा मं। फेर कोनो ये बात, ये मुद्दा ल लेके सोझ मुखिया मेर जाके हिम्मत नइ जुटा सकत रिहिन हे। 

कार्यक्रम के दूसर सत्र मं श्रीमती धनेश्वरी सोनी, टिकेश्वर सिंह, अरविन्द मिश्र, नवलदास मानिकपुरी, कपिलनाथ कश्यप, दुर्गाप्रसाद पारकर, अशोक पटेल आशु अउ हितेश कुमार के लिखे पुस्तक मन के मुख्य अतिथि संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत अउ दूसर अ्तिथि मन के हाथों विमोचन होइस। ये पुस्तक मन के प्रकाशन राजभाषा आयोग करे हे। युहू मं एक ठन बड़े विडम्बना  ये हे के लेखक मन ल सिरिफ पुस्तक के 20-20 प्रति देके भुलवार दे हे। इही ये आयोग के योजना हे। मर-खप के लिखबे, गरीब, दीन-हीन साहित्यकार मन, ओमन ल मिलथे का... फुसका। कुछ तो  बीस पच्चीस  हजार देतीन ओकर मेहताना, जउन लिखत-पढ़त हे तेकर जुगाड़ करना चाही। हो सकत अउ ये लिखे हे तेकर ले बढ़िया कोनो पुस्तक, ग्रंथ, महाकाव्य लिख परही? अउ दूसर बाहिर के मन बर सरकार के खजाना खुले हे, हजारों, लाखों लुटा देवत हे अउ इहाके  बुद्धिजीवी, कलाकार, संस्कृति कर्मी मन बर फुसका परे हे। बस्तर, सरगुजा, बिलासपुर, रायगढ़, राजनांदगांव मं अइसन कतको बुद्धिजीवी कलाकार  भरे परे हे, पढ़े-लिखे नइहे फेर कला, संस्कृति, बोली भाखा मं शहरी क्षेत्र ले तो गंवई क्षेत्र मं जादा हे कोनो ओकर हियाब करइया नइ हे । ये बात के जानकारी संसदीय सचिव कुंवर सिंह निषाद के मारफत मिलिस। 

तीसर सत्र के चरचा गोष्ठी मं डॉ. परदेशी राम वर्मा, डॉ. सविता मिश्रा अउ सेवक राम बांधे  अपन-अपन विचार रखिन। एकर बाद कवि सम्मेलन मं प्रदेशभर ले आए कवि मन अपन-अपन कविता पाठ करिन, कार्यक्रम के समापन राजभाषा आयोग के अनुवादक सुषमा गौराहा के आभार प्रदर्शन  ले होइस।

जाती बिराती

बाग बगइचा दीखे ले हरियर 

हां...हां... दीखे ले हरियर,

मोर डोगहार नइ दीखत हे

बदे हां नरियर हां...हां...होरे।

सामाजिक ठहराव का चित्रण छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह-तोर सुरता

- डुमन लाल ध्रुव

हिन्दी साहित्य में कहानी को एक आधार देने का काम कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने किया। मुंशी प्रेमचंद कहानी को जिस मुकाम पर लेकर आए, समय के साथ उसमें और कड़ियां जुड़ती गईं। प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र, यशपाल, अज्ञेय आदि आए। प्रेमचंद की कहानी को सामान्यतः सामाजिक कहानी कहा गया। जैनेंद्र और अज्ञेय उसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर लेकर गए। वहीं यशपाल ने कहानी को क्रांति के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया। कहानी में बुनियादी बदलाव आजादी के बाद आया। ठीक यही बदलाव छत्तीसगढ़ में कहानीकार श्री परमानंद वर्मा जी की छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह ’’तोर सुरता’’ में देखने को मिलती है। जहां ग्रामीण समाज अपनी पूरी विद्रूपता, असमानता और शोषण में अभिव्यक्त होता है। जीवन चरित्रों और घटित घटनाओं सहित नारी की वेदना, अकाल, नाचा-गम्मत की संवादों के कारण उपजे सामाजिक ठहराव का चित्रण है। दूसरी ओर नाटक के कलाकारों की चरित्र और संवाद बदलते रहते हैं जो असल जिंदगी की नाटक है। वैसे कलाकारों के जीवन में जटिलता हमेशा उभर कर सामने आती है। छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह ’’तोर सुरता” में नौ कहानियां हैं । ’’टोड़ा’’ कहानी में वृहत्तर समय की मौजूदगी दर्ज होती है। टोड़ा,पइरी,पुतरी अतीत का वैभव है। आज कठिन समय का दौर है। जालसाजी, मक्कारी, घपलेबाज, बदनियत, असामाजिक तत्वों का हावी होना, असुरक्षा और भय का माहौल तैयार करना, मेहनतकश व्यक्ति भूखा मर रहा है। हमारी प्रतिबद्धता और सोच से संवेदना का भले ही पुनर्जागरण हो सकता है। बदल रहे हैं लोग और बदल रहे हैं कर्तव्य-अकाल परे मं गांव मं सब के हालत खराब होगे हे।  गहना बेचागे त का होगे, समय सुकाल आही तहां ओ सबो अऊ लेवा जाही दुबारा ? फेर दाई, भउजी तोर अपन सबो गहना ल पहिने हे ओकर ला काबर नइ बेचिस भइया हा ? फूलचंद के मुंह ले अइसन दुकलहिन ओला समझाथे, ये तोर-मोर के भेद करना अच्छा नइ होवय बेटा, ये गुन तो मं कहां ले अइस ? जब मैं अइसन भेद नइ करौं अउ ना वो ददा कभी जानिस तब का शहर ले भेद नीति, सीख के आय हस ? गुरूजी मन अइसने शिक्षा देथे, अइसने पढ़ाथे ? फूलचंद के मुंह लाडू़ बोजाय असन चुप होगे। एकर आघू फेर एक अक्षर नइ बोल सकिस। फेर ओला रहि-रहि के गुस्सा आवत रिहिस हे। तब भउजी के भड़काय मं कइसे भइया उतरवा ले रिहिस हे ? अपन गोसइन के एक ठन जेवर बर ओला कतेक मया होगे अउ दाई के सबो जेवर ला उतरवा के बेच दिस तेकर बर थोरको ओकर जीव नइ कसकिस ? अपन सग दाई होतिस तब अइसने मांगतिस, बेचतिस का ? ओ अकाल ला देख ले अउ आज तक दाई के शरीर मं एको ठन जेवर नइ चढ़ सकिस। अब तो ददा के घलो इंतकाल होगे। जियत हे बपरी गरीबिन हा कइसना करके। फूलचंद कइथे - मैं काला दोष दौं अकाल ला, ददा अउ भइया ला के अपन ला जौन ओला पहली जइसन सिंगार नइ सकेंव। ओ टोड़ा .... ओ पइरी .... ओ पाटी .... ओ पुतरी ... ओ तितरी पहिने दाई के रूप के सुरता आथे तब आंखी मं आंसू भर जथे अउ रो परथे ...।

         नाच शैली के माध्यम से पारिवारिक-सामाजिक मानवीय मूल्यों को ’’तरिया मं रुपिया पर’’ की तर्ज पर कहानी को मजबूत करना चाहती है। नाचा की तरह कहानियां काल्पनिक हैं  पर किस्सागोई शैली में कथ्य-कल्पना की जो संगति बैठाई गई है वह पाठक वर्ग को और अधिक रोचक बना देती है। प्रयोजन भले ही बड़े हों पर कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ने लोक शब्दों को तरासने में कभी कमी नहीं की है। तोला मोर गीत उपर भरोसा नइ हे ना, मोला तैं अतेक उज्बक अउ बइहा समथस, के चार दाई-माई, भाई-बहिनी अउ गौंटिया मालिक बन बइठे हें तेखर आगू मं मैं आंय बांय बर दुहूं ? इंहा मैं कोनो फाग अउ कविता गाये ले तो नई आय हौं ? ओ जौंन मन आंय हे तब सब झन मोर दाई-ददा अउ भाई बहिनी बरोबर हें। जहर अउ अमरित के अंतर ला जानत हौं संगी। अतेक पान अंधरा नई होगे हौं। फेर मोर बात तोर मगज मं नइ बइठत हे तौंन ला मैं का करौं ?

छै महिना बीते के बाद एक दिन संझा कन तरिया मं जइसे कमल के फूल फूले रहिथे, तइसे कस चारों कोती दस, बीस, पचास अउ सौ रूपया के नोट उफले कोन्हों देख परिन, छिन मं बात बस्ती भर म ं बगरगे। लइका सियान सबो तरिया कोती दंउड़े लागिन। जेकर ले जतका बनिस ओतका नोट धर के घर लहुटिन। गोठियावत रिहिन के कोनों कोनों नोट आधा चिराय रिहिस हे, तब कोनों-कोनों निमगा साफ सुथरा रिहिसे। ये तो ओ सउत मन ला पीछू पता चलिस के ओ खुंसट मरद ह पेंशन और ग्रेच्युटी के सबो रूपया ल धर के तरिया मं जाके मरगे। चुचवावत ले रहिगे दुनो सउत। ये कथा ला ओ जोक्कड़ मन गम्मत के रूप मं गूंथे रहिथे। आखिरी मं पहिली वाला जोक्कड़ दूसर वाले ल पूछथे पता चलिस जी, के ये कोन कांड के कथा हे ? जा घर मं बने आंखी धो के रामायन ला पढ़बे, तहां ले तोला सब पता चल जाही। ये तरिया मं रूपिया फरे कांड के कथा हे बेटा।

           पुरुष प्रधान समाज में चमक-दमक और रसूखदार लोगों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। सकारात्मक सोच को समाज में लाने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कुछ ’’खटकायेर’’ जैसे लोग भी मिलते हैं। आधी-अधूरी जानकारी के चलते सकारात्मक विचारों को ओझल कर देती है।

          दू एकड़ जमीन नहीं अउ ऐकर डींग ल देख कहां के गररेता बेइमानी करके चीज बटोरिस सब जेती के माल तेती रेंग दिस। हमर आगू मं दूसर के सउंज लगै तौने हमला पाठ पढ़ावत रहिसे। फेर ओ दिन के फैसला मं पंच सरपंच मन एकर जतका हेकड़ी रहिस हे तेकर बुढ़ना झर्रा दिन। आज तो ओकर बोलती बंद हो गेहे। ओकरे टूरा मन अब विही ल सोझ भाखा नइ दैं। जादा के अजलइत अउ जादा के सेखी घला कोनों काम के नोहय।

           फूलकुंवर और बाबूलाल छत्तीसगढ़ी कहानी ’’भरम के भूत’’ रचना संसार के लिए एक तरह की उपलब्धि है जो अरसे बाद महतारी बेटा की तरह मुलाकात होती है और अपनी रचनात्मकता को समेटती है। भरम के भूत को नापने का कोई यंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। सबके दायरे अलग अलग है। एक बाबूलाल है जो लज्जा के भय से जीवनलीला समाप्त कर जाते हैं वहीं फूलकुंवर अपनी गरीबी को स्त्री की तरह जीती है।

             बाबूलाल पांव तरी गिरे भौजी ल उठा के छाती मं लगा लेथे। देवर भौजी-दुनो लिपट के रोवथे जइसे जनम जनम के बिछड़े महतारी बेटा के आज मिलन होवथे। गंगा जमुना कस धार दुनो झन के आँखी ले बोहावत हे। लइका मन समझ नइ पावत हे। फुसुर-फुसुर गोठियावत हे। ये दाई ला का होगे आज बही जकही बन गेहे, कका ला तो देख कइसे लेड़गा बन गेहे। कोनो लइका के कांही हिम्मत नई होवत हे। ओकर मन के तीर म जाय के ? ओमन सोचथे कोनो आ जाही तब तो जंउहर हो जाय, का समझहीं ? थारको एमन ला लाज शरम नइहे, नाक-कान ला कटा डारे हे तइसे लागथे। फेर बाबूलाल फूलकंुवर एक दूसर ला पोटारे अभी अइसे रोवत हे जनामना जनम-जनम के प्रेमी हे। ओमन ला अतको सुध नइहे के हमन कोन हन, घर गोसइया आ जही तब का समझहीं ?

             समाज और समय किसी न किसी रूप में साहित्य के माध्यम से अपने को प्रतिबिंबित करते हुए चलता है। बदलते समय के साथ कहानी का स्वरूप भी बदलता रहा है। विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव कहानी पर पड़ता रहा है। श्री परमानंद वर्मा अपनी छत्तीसगढ़ी कहानियों के माध्यम से छत्तीसगढ़ी के कथा परिदृश्य को समृद्ध किया है। आंचलिक कहानियों के कारण ही ’’तोर सुरता’’ श्री परमानंद वर्मा जी को साहित्यिक परिदृश्य में एक अलग आयाम देती है।

      मरे बिहान हे बिसाहिन के। ओहर घर -परिवार अउ जतका सपना देखे रिहिस हे तौन सब टूट के चूर-चूर होगे। इही ला कहिथे चोरी अउ सीना जोरी।

             ’’गोदनावाली’’ कहानी में कहानीकार श्री परमानंद वर्मा की छत्तीसगढ़ी संस्कृति के प्रति सजग दृष्टि है। गोदना पुरखों की चिन्हा को पुख्ता कर रही है लेकिन आधुनिकता की दौड़ में महिलाओं की अंगों में उकेरे जाने वाली गोदना भी पीछे छुटते जा रहे हैं। वहीं टैटू समयानुसार मानवीयता की उपस्थिति को रेखांकित कर रही है। सभ्यता, संस्कृति और शुचिता की बदलती हुई परिभाषाओं के इस दौर में अपने समय को दर्ज करना गोदना के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण काम हो रहा है।

          देख बेटी ये संसार मं जेवर, गहना, पूंजी हे, रूपिया पइसा, जमीन-जायजाद हे। समय के संग-संग खिरावत चले जाथे, संग छोड़त चले जाथे, इहां तक परिवार, रिश्तेदार सब एक-एक करके एक दिन संग ला छोड़ देथे। फेर ये गोदना ऐसे जेवर हे जेला ना कोनो नंगा सकय, चोर चोरी कर सकय, न कोनो एकर बंटवारा कर सकय। मरत दम तक तोर शरीर के संग रइही। आदमी कहूं मरगे हे तभो कहंू ओकर नाव के या कोनो चिन्हारी गोदवाय रहिथे तब एहा संग रेहे के सुरता देवावत रहिथे। इही पायके माई लोगिन बर गोदना हा जरूरी हे बेटी। फेर आज समय बदलत जाथे तेकर संग गोदना घला नंदावत जात हे। अब का जानय आज-कल के नवा बेटी बहुरिया मन, नवा जमाना के नवा-नवा फैशन अउ सिंगार निकल गेहे, चमक-दमक मं सब मरे जाथे। गोदना के नांव सुन के घिनाथे, दुरिहा भागे ले धर लेथे।

            ’’घर मं कारगिल’’ रचना की पाठनीयता की शर्त को पूरी करती है। मध्यम वर्गीय परिवार की मनोदशा और परिस्थितियों का दुकलहिन प्रतिनिधित्व करती है। घर-गृहस्थी, जेठ- जेठानी के अवसाद को झेलती है लेकिन अंत में शहीद की पत्नी होने के नाते दुकलहिन की डूबती जिंदगी को सहारा मिलता है। यह सच है कि घटनाओं की सपाट-बयानी कहानी अभिव्यक्ति का द्वार खोलती है। किहिन धन के लालच मं आदमी आज कतेक गिरगे हे अंधरा होगे हे के रिश्ता, परिवार ल घलो कांही नई देख पावत हे। अरे दुकलहिन तो ओकर भाई बहू रिहिस हे। ओखर कोख ले बलिदानी बेटा के अंश अभिमन्यु पलत रिहिस हे तेला मारे के खातिर नीच काम करे बर उतरगे रिहिस हे। हत रे चंडाल जा तोर कभू भला नई होय, कुकुर कस मौत मरबे, कीरा परके मरबे।

         ’’बेटा तोर नोहय’’ कहानी में सुखवंतीन स्पष्ट कर देती है कि बेटा किसका है। कहानी के भाव क्या हैं और इसके माध्यम से वह क्या कहना चाहता है। कहानी का अंत संवेदना के स्तर पर पाठक को अपने साथ जोड़ लेता है। कहानी की मार्मिकता सुखवंतीन के लिए कही गई शब्द ’’बेटा तोर नोहय’’ विस्मित और स्तब्ध कर देती है और अंत में यही कहानी पात्र को साकार करती है।

           ये बेटा मोर हे सुखवंतीन लड़े रिहिस हे ओला अउ केहे रिहिस हे बेटा तोर कइसे हो सकत हे,बेटा मोर हे। नौ महीना ले मैं अपन ओदर मं राखे हौं, एक खोची जामन भर दे ला मटका भर के दही परोसी के हो जाही? सेठ तब सकपकागे रिहिस हे,कांही उत्तर नइ दे पाय रिहिस हे,तभो ले मन मं डर बने राहय के सेठ बीच मं कभू अड़ंगा मत डाल दै। फेर शिवपरसाद आज सुखवंतीन के सब संकट अउ दुख ला भगवान बरोबर हर लिस। बिहान भर सुरहुती के तिहार रिहिस हे। दूनो परानी तिहार के तइयारी मं जुटगे। संझौती होइस तहां ले घर मं दिया जलइन। चारों कोती जगमग-जगमग करे ले धर लिस।

          जीवन के हर कदम पर तुम्हारी याद आती है। कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ’’तोर सुरता’’ में सहजता से अपनी बात पाठकों के समक्ष रखने में विश्वास करते हैं। जीवन में हुई प्रेम को कभी प्रतिशोध का हिस्सा बनाया और न ही जीवन में, समाज में छीनने की प्रवृत्ति बढ़ी। कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ने पूरी सच्चाई के साथ आंखों में आंखें डाल कर सच बोलने की क्षमता जुटाते हैं ’’तोर सुरता’’ में-इही जिंदगी के नाटक हे। ये नाटक के कलाकार के चरित्र अउ संवाद बदलत रहिथे। हास-परिहास, करुणा अउ रौद्र रूप के आनंद दर्शक उठावत रहिथें। अउ आखिरी के नाटक खतम हो जाथे। वइसने कस ये नाटक के एक कलाकार महूं रहेंव।

   छत्तीसगढ़ी कहानी ’’तोर सुरता’’ की संरचना बहुत ही सीधी और सपाट बयानी है। संग्रह की सभी कहानियां सहज संवेदना के साथ पठनीय है। कहानी में संवेदना नवीनता का आगाज कराती है। शायद यही कारण कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ’’तोर सुरता’’ के अधिक निकट हैं।

डुमन लाल ध्रुव

मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)

पिन 493773

सोमवार, 14 अगस्त 2023

कलजुगी सूर्पनखा मन के छतरंगी चाल

 सुनो भाई उधो .....

 छोटे बच्चे जब भूख से छटपटाते हैं, तिलमिलाते हैं और रोते-गाते हैं तब मां-बहनें दौड़कर आती हैं उनके पास। पूछती है -भूख लगी है ? तब दूध पिलाती हैं, खाना खिलाती हैं तब बच्चे शांत हो जाते हैं, मंद-मंद मुस्कुराने लगते हैं धीरे से झपकी आने के बाद सो भी जाते हैं। लेकिन इन माताओं की कौन-सी ऐसी भूख है जो उनके सिर चढ़कर सताने व परेशान करने लगी है, शैतानों की तरह वे भरा-पूरा परिवार छोड़कर 'पर पुरुष प्यारा लगे के तर्ज पर पंछियों की भांति उड़-उड़कर उनके घोंसले में जाकर चोंच लड़ाने लगी है। उनके बांहों में समा जाने के लिए बेताब हो रही हैं। इधर पति महोदय गण 'दो हंसों का जोड़ा बिछुड़ गयो रे, गजब भयो राम जुलूम भयो रे गाना गा-गाकर पत्नियों की याद में आंसू बहा रहे हैं और 'सारी-सारी रातें तेरी याद सताए गाना गुन-गुनाकर करवटें बदल रहे हैं। अब इन पंछियों का भी भरोसा नहीं, मर्दों का विश्वास उठने लगा है। पंछियां भी गुनगुनाने लगी है- 'चल उड़ जा रहे पंछी के अब ये देश हुआ बेगाना। 

अभी-अभी टेलीविजन अउ इंटरनेट मं खबर आवत हे के जब ले सावन लगे हे पेड़ मं राहय तउन पंछी मन भर-भरले उड़ा-उड़ा के ये  देश ले वो देश, ये शहर ले ओ शहर, ये गांव ले ओ गांव जा-जा के खुसरत (घुसना) जात हे। पता चले हे के ओ पंछी मन ला एक ठन कोरोना जइसे दूसर किसम के भयंकर रोग लग गे हे। ओ मन छटपटावत हे, जी-मिचलावत हे। ओ पंछी कोनो दूसर नहीं हमरे बहिनी-बेटी, बहू, गोसइन अउ दाई-महतारी हे। सब अपन घर गोसइयां, बेटा-बेटी, दाई-ददा, सास-ससुर ल छोड़-छोड़ के भागत हें अउ दूसर मरद संग रंगरेली मनावत हे। सबके नाक-कान काटत हें अउ खुदे नकटी बनत जात हे। 

पांच लइका के महतारी सेठइन ओं दिन सोना, चांदी, रुपया-पइसा ल धरके एक झन टरक वाले संग बेंगलूर भाग गे। मुंबई के डॉक्टरीन कुली संग बिहाव कर लिस। दिल्ली, कलकत्ता, लखनऊ, पटना, भोपाल अउ रायपुर में कोनो जगह नइ बांचे हे जिहां दस-दस, बीस-बीस साल पति संग जीवन गुजारे बेटी, बहू, बहिनी, अउ गोसइन मन ला का अइसे चांटी चाबत हे, कीरा काटत हे के उढ़रिया भागे असन पर मरद के बांह पकड़त हे। जब तरिया के पानी मतलाहा  (गंदा) हो जथे, तब मछरी मन उफला जथे, उमिहा जथे, जेने-पाय तेने कोतो रेंगे ले धर लेथे उही हाल अब होगे हे एकर मन के। 

इही सब बात ल एक दिन समारू अपन कका ल बतावत कहिथे- समय के धार तलवार ले घला जादा घातक होथे कका, एके बार मं सामने वाला के घेंच (गला) भुइयां मं गिरत देरी नइ लगय, पानी नइ मांग सकय, वारा-न्यारा हो जथे। 

भगेला पूछथे- सुने तो हौं बेटा फेर अइसन मउका के अभेडा  मन नइ परै हौं न तेकर सेती ओकर रस-कस ल नइ पाय हौं।

समारू अपन कका भगेला ला कहिथे- ठउका काहत हस कका, 'अपन मरे बिगन सरग नइ दीखय। जइसे अंधियार मं डोरी ल सांप समझथन फेर ओहर सांप नहीं डोरी होथे, सांप के अभेडा मं कहूं कोनो परही तब ओकर तीर मं कोनो ठहर सकत हे का?

तोर बात ल समझ नइ सकत हौं बेटा, तैं जउन कथा सुनाय ले जाथस तेकर कुछु ओर-छोर ल बताबे  के बाते-बात मं बेंझा के रख देबे?

अब तोला का बतावौं भगेला कका, जउन कथा तोला बताये बर जाथौं न, ओहर न शिव पुराण मं हे, न पद्म पुराण मं हे अउ गरुड़ पुराण मं। काग भुसुंडी, भारद्वाज, तुलसीदास, वैशम्पायन मुनि अउ न भगवान किसन घला अरजुन ल नइ सुनाय हे तइसन कथा तोला आज सुनाय ले जाथौं। 

भगेला पूछथे- तब कस रे समारू, तैं जउन कथा सुनाय ले जाथस तउन कथा ल कोन पुराण मं पढ़, सुन डरे हस रे?

हांसत समारू ह कहिथे- अभी-अभी ताजा अउ नवा पुराण सीता प्रेस जोधपुर ले छप के आय हे। एक लाख प्रति छपे हे। सब शहर मन के बुक स्टाल मं धड़ाधड़ बिकत हे। उदूक ले मोरो हाथ लग गे, एक ले बढ़के एक सुंदर कथा हे। ओला पढ़बे न, तब तहूं ह काकी ल सुनाय बिगन नइ रहि सकबे। 

अनेक सुंदर कथा हे ओ पुराण मं? तब भगेला कका पूछथे- तब ओ पुराण के का नांव हे बेटा समारू?

-ओकर नांव 'कलियुग पुराणÓ हे कका। समारू बताथे- काहत तो हौं न जइसे पहिली गुलशन नंदा के उपन्यास छपय तइसे ये 'कलियुग पुराणÓ बताथे, हाथों हाथ बिक गे। ओकर दूसर संस्करण छपे के तइयारी चलत हे। 

भगेला पूछथे- तब ये पुराण के कथा मन तो लगथे गजबे के सुंदर होही, तब एहा नोनी, बहू-बेटी अउ गोसइन मन के लइक हे के नहीं?

अरे काला कहिबे कका, उही मन तो जादा खरीदत हें, ओमन जादा कथा परेमी हे न। समारू कहिथे- देखस नहीं का शिव पुराण, भागवत पुराण, गरुड़ पुराण अउ जइसनों पुराण होवय तिहा उही माई लोगिन मन के संख्या जादा रहिथे, रहिथे के नहीं?

भगेला कहिथे- बात तो  सोलह आना सही बतावत हस बेटा 'फेर ले ना, ये कलियुग पुराण के एकाद ठन  कथा सुना न, घर जाहूं त तोर काकी ल घला सुनाहूं। अउ बनही ते एक ठन 'कलियुग पुराण मोरो बर बिसा के ले आनबे बेटा। 

समारू कलियुग पुराण सुनाय के पहिली गुरु वंदना करत ये दे इसलोक के उच्चारण करथे- 'गुरु ब्रम्हा, गुरु बिसनु, गुरु देवो महेश्वरा, गुरु: साक्षात पर ब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नम: ओकर बाद गनेश जी अउ सरसती देवी के वंदना करत उकरो मन के इसलोक के पाठ घला करथे। 

कका पूछथे- वाह बेटा, गजब के गियानी, धियानी लगथस रे, तैं हो न, अपन ददा ऊपर गेहस तइसे लगथे? समारू कहिथे- तुंहरे असन सियानहा मन के आशीर्वाद ल पाय हौं कका।

अब मेंहर जया किशोरी, पंडित प्रदीप मिश्रा अउ बागेश्वर धाम के धीरेन्द्रकृष्ण शास्त्री  के स्टाइल में तो नइ सुना सकौं कका, मोला ओ हाथ मटका-मटका के, मुसकुरा-गुरकुरा के नचकाहा, जोकर मन असन पल्लू ल मुंह मं ढाक के हे 'नइ आवय जइसे मुरारी बापू अउ सुधांशु सादा सरबदा कहिथे न तुलसी दास, काग भुसुंडी, भरद्वाज असन उही स्टाइल मं सुनावत हौं, बने धियान देके सुन

एक घौं के बात हे कका, वैशम्पायन मुनि राजा जन्मेजय ल कलियुग पुराण के कथा सुनावत बताय रिहिसे के कलिजुग कइसे, कोन डहर ले अउ काकर ऊपर पहिली आइस हे।

वैशम्पायन मुनि बताइस- राजा सबसे पहिली कलिजुग भारत देश मं तोर ददा (पिता- परीक्षित) के मुड़ी ऊपर आइस, एकरे बाद पूरा संसार मं ओहर पांव पसार डरिस। अब तो ओहर कालिया नाग बनके सब ल डसत हे। 

भगेला पूछथे- बेटा समारू, कालिया नाग तो जमुना नदी के रिहिसे, देश अउ संसार मं कइसे ओकर  आतंक बगरगे, बने फोर के के बता ना। 

सुन कका, अब असली कथा ला, सुन समारू भगेला ल बतावत कहिथे- अरे कका- कलियुग तो अब घर-घर मंं खुसरगे हे, बेटी-बहू, बहिनी- दाई-माई सबके मति ला भरमावत हे, छारियावत हे। 

कइसे तोर केहे के का मतलब हे, तैं कहना का चाहत हस? समारू अपन कका भगेला ल धीरज बंधावत कहिथे- सुन, इही कथा ल तो अब शुरूआत करे ले जाथौं।

ओहर बताथे- एला तो तैं जानत हस के नहीं, पहिली के राजा-महाराजा, नवाब, पूंजीपति, मालगुजार  मन कइसे दूसर के बहू, बेटी, मन ल भगा के लानय, गोसइन बना लै, रखैल राख ले, एक नहीं दस-दस...।

सही काहत हौं नहीं? भगेला जवाब देवत कहिथे- बात तो तोर सोलह आना सही हे बेटा। 

समारू बताथे- अब पासा पलटगे हे, जमाना बदलगे हे अउ तेजी से बदलत जात हे। 

एकर तोर करा कोनो परमान हे, के बस हवा मं सांय... सांय... तीर मारत हस? भगेला पूछथे।

समारू कहिथे- 'हाथ कंगन ल आरसी का, एक नई दू ठो परमान देवत हव कका 'अभी ओ दिन पाकिस्तान के सीमा हैदर नांव के एक झन मोटियारी, चार-चार लइका के महतारी तउन ल अपन देश अउ लइका मन ल छोड़ के सात समुंदर पार करके अपन परेमी करा आके बिहाव कर डरिस। मुसलिम औरत हिन्दू बनगे, मांग मं सिंदूर, हाथ मं चूड़ी अउ बने साड़ी, पोलका पहिन के राहत हे। बाद मं मीडिया वाले मन जानिन तब ओकर पीछू परगे हे।

कलियुग पुराण के दूसर अध्याय ले कथा सुनावत हौं, भारत के अंजू नांव के बाई अपन बिहाता ल छोड़के पाकिस्तान जाके नसरूल्लाह संग निकाह कर लिस। अउ सुन कका- ये तोरे शहर के बात सुनावत हौं- एक झन बंगाली बाई हा घला अइसने एक झन बेटा ला छोड़ के दूसर संग रेहे ले चल दीस। ओकर सास-ससुर अब बहुत परेशान हे। 

ये तो अड़बड़, गड़बड़ झाला हे बेटा, ए सब कइसे होवत हे। समारू बताथे- ये सब तो कलजुग पुराण मं लिखाय हे कका। ओ दिन एक गांव के बेटी, शादी-शुदा हे, जगदलपुर मं ओकर नौकरी लगे हे, उहां दूसर संग शादी कर लिस। जब ओकर दाई-ददा मन जाके देखिन तब घर मं शराब के बोतल, सिगरेट पीयत देखके सब दंग रहिगे। 

अउ सुन कका- जया किशोरी के कथा अउ गुलशन  नंदा के उपन्यास घला एकर आगू मं फीका हे। एक गांव के मस्टरीन, बने खाता-पीता घर के बेटी अउ बहू, कोनो चीज-बस, रुपया कौड़ी के कोनो कमी नइहे तेकर मसमोटी ल देख, चार बेटी-बेटा ला छोड़ के आन जात के पियार मं पागल होगे, तलाक ले लिस, अइसने कस दसो ठन मामला रोज सुने मं आवत हे। 

समारू बताथे- अइसन हाल अपने गांव, अपने देश भर मं नइ होवत हे पूरा संसार भर के होवत हे लगथे, बहिनी, बेटी, बहू, दाई-माई मन चरस, हेरोइन, धतूरा, नइते भांग खा-पी ले हे तइसे लगथे। 

समारू कहिथे- अरे कका, पढ़े-लिखे, नौकरी लगे, लिव इन रिलेशनशिप, टीवी सीरियल, मॉल, होटल, क्लब और फिलिम के कमाल हे। सब पुराण फेल हे ये कलियुग पुराण के आघू मं। 

भगेला कहिथे- अंधेर होवत हे बेटा, झन सुना अब अइसन कथा, मोर माथा चकरावत हे। 

सुन कका, एक ठन आखिरी कथा सुनके कलिजुग पुराण के पुरनाहुति करत हौं।

तब सुन- एक झन चीनी महिला हे, अपन ब्वायफ्रेंड ऊपर अतेक मोहागे होगे के जउन बैंक मं ओहर काम करत रिहिसे हे तिहां ले पांच करोड़ रुपिया चोरा लिस सिरिफ एकर सेती के ओकर ऊपर काला जादू करके ओला अपन वश में करके रखिहौं। ओ परेमी थोकन नखरा देखावत रिहिसे। तंत्र-मंत्र, गुरु बाबा सब करा ले आन लाइन सेवा लेवत रिहिसे। 

कका कहिथे- बस... बंद कर बेटा, ये पुराण ल सुनके तो मैं पागल हौं जाहौं। 

समारू कहिथे- तै का पूरा घर परिवार, समाज, देश अउ संसार पागल होवत हे कका, ये महारोग झपागे हे, ये तो कोरोना ले अउ बढ़के बड़े रोग आगे हे। ए रोग ह कइसे ठीक होही तेला सुप्रीम कोर्ट के जज मन जाने, डॉक्टर मन जानय। 

आखिर मं टिमोली (मजाक) लगावत समारू कहिथे- सुन कका, तोला ये नकटी-नकटा मन के ऊपर एक ठन गाना सुनावत हौं, मजेदार हे-

मैं बिलासपुरहिन अउ तैं रायगढ़िया। 

तोर मोर जोड़ी फभे हे कतेक बढ़िया।।

-परमानंद वर्मा


छत्तीसगढ़ी लघुव्यंग्य-'कार्यकर्ता'

कइसे बेटा ? अठुरिया होगे। तोला एक ठन नानचुन काम जोंगे रेहेंव,तेला तो करवाय नइ अस ,उल्टा उही दिन ले घर मं रोवत बइठे रथस। तोर ओथरे मुंह,ओरमे गाल ये सबला देखके तो मोला संसो धर लेहे। कुछु फोर के बतावस घला निहि ??? दाई हा अपन मया पलावत गुरतुर भाखा मं बेसरम फुल कस मुरझुराय टूरा ला कांस के पुरखौती  थरकुलिया मं लाल चाहा अमरत किहीस।मन के बात गड़रिया जाने कथें तइसने बात तो आय दाई। जेन दिन ले मोला काम जोंगे हस न,तेने दिन ले ये संसो संचरे हे। इही काम कोनो दूसर के होतिस तब मोर कुछ कमई हो जतिस। ये मोर दाई के काम आय। एमा मोला का मिलना हे। जरुवत परही तब सौ-पचास अपन जेब ले लगाय बर परही। दाई ला पईसा कइसे मागंव? दाई के  काम आय,कइसे करवांव ? बस इही सब बात मियार के घूना कस मोला खावत हे दाई ऽ... ऽ ..ऽ..!अरे बेटा ,अतकी नानकुन बात बर अतेक बड़ संसो करत हस ? थूंके थूंक मं बरा नइ चुरय,येला महुं जानथों।अपन अंछरा के छोर मं बंधाय अलमारी के कुंची ला अपन टूरा कोती फेंकत दाई हा किहीस-जतका लागही,लगा लेबे। फेर एक बात महुं जानना चाहत हौं बेटा....? एकर पहिली तो अइसे कभू नइ काहत रेहेस। ये बखत अइसे का बात होगे तेमा...?

अब मैं पार्टी कार्यकर्ता बनगे हौं दाई। हाँ....,पार्टी कार्यकर्ता । दिल्ली के चाँदनी चंऊक के चौपाटी मं नावा नावा बिसाय नेहरु जाकिट के तरी मं पहिरे बंगाली के आस्तिन ला बांहा कोती चघावत टूरा हा अपन बात ला लमावत केहे लागिस।हमन ला पार्टी लाईन मं रहिके काम करना,करवाना परथे। 

अपन पार्टी गमछा ला डेरी खांध ले माई खांध में डारत फेर केहे लागिस।अब तोर हमर महतारी-बेटा, सोदर,हित-पिरीत,दोस्त-यार सब सिरिफ़ लेन-देन के नता-गोता रहिगे दाई।

पार्टी कार्यकर्ता...? यहा का पार्टी  कार्यकर्ता होथे रे ....? ऊपर संस्सु मारत ओकर दाई हा ठाढ़ चितियागे। ओला चन्दर धरलीस। देखो देखो होगे। सकलाय लोगन के बीच ओ बेटा हा अपन दाई ला पांचो-अमरित पियावत अपन मरे दाई के बहाना दू पईसा कमाय के उदीम सोंचत राहय....! अउ लोगन ओकर दाई के काठी-पानी के जोखा मं लगे राहंय।राम नाम सत्त हे ....!!

आस्तिन-बांही

बहाना- के नांव मं पढ़ें

बन्धु राजेश्वर राव खरे

'लक्ष्मण कुंज'

शिव मंदिर के पास,अयोध्यानगर

महासमुन्द (छ. ग.)

रविवार, 6 अगस्त 2023

बदलते समय की ऐतिहासिक कृति छत्तीसगढ़ी उपन्यास ’’करौंदा’’

-डुमन लाल ध्रुव 

बहुमुखी प्रतिभा के लेखक उपन्यासकार श्री परमानंद वर्मा ने ’’करौंदा’’ की महत्ता और प्रेरक भूमिका को खुले दिल से स्वीकार करते हुए उनके साहसिक योगदान को छत्तीसगढ़ी उपन्यास के रूप में प्रस्तुत की है। छत्तीसगढ़ी उपन्यास में करौंदा नारी चरित्र का ऐतिहासिक दृष्टिकोण है। उसका इंटरप्रेटेशन लेखक ने उसी तरह से किया है जैसे इतिहास और वर्तमान का। श्री परमानंद वर्मा जी का उद्देश्य हमेशा इतिहास से वर्तमान की ओर आना है। इसीलिए करौंदा का चरित्र समाज के लिए रेलीवेंट बने हुए हैं। लेखक ने करौंदा उपन्यास में जो सामाजिक द्वंद दिखाया है, उस समय के दबंग, गुंडा- बदमाश को सामने लाती है। उपन्यास को गहराई से देखें तो मिलेगा कि कितनी बड़ी संत्रास और द्वंद छुपा हुआ है। एक ओर समाज की विद्रूपता, समानता और शोषण की अभिव्यक्ति है और उन्हीं नीतियों के कारण करौंदा के मन में उपजे सामाजिक ठहराव का चित्रण है। स्थानीय गौंटिया द्वारा शोषण किये जाने व शराबबंदी से उत्पन्न होती है करौंदा की कहानी। वहीं दूसरी ओर बदलते समाज में रह रहे लोगों के जीवन की जटिलताएं उभरकर सामने आती हैं। उपन्यास में करौंदा शोषण के विरुद्ध संघर्ष करती रही हैं।

यहां श्री परमानंद वर्मा द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा की लेखन-प्रक्रिया की निर्माणकारी स्थितियों को भी जान लेना बेहतर होगा। प्रारंभिक जीवन में मिले अप्रत्याशित आघातों ने उनकी मनोभूमि को आत्मसजग, कुछ अंतर्मुखी, कुछ जिज्ञासु बना दिया। परमानंद वर्मा जी छत्तीसगढ़ी के गंभीर लेखक होने के नाते उपन्यास लेखन में उनका मनीषी पक्ष बढ़ता गया और दृष्टि तात्विक  होती गई। क्योंकि करौंदा एक ऐसी पात्र है जो व्यक्ति और समाज का परिसंस्कार करने के लिए आगे आयी हैं।

करौंदा के तरेरे आंखी के सुरता ला भला पुरुषोत्तम कइसे भुला सकत हे। सजा कहौ चाहे दुख होय आखिर मं भुगते बर तो उही ल परथे। करौंदा हा अपन गोसइया ला बतावत कहिथे-परिवार मं सुख-शांति रखे बर एके लइका होना चाही।चाहे बेटी होय चाहे बेटा, फरक नइ मानना चाही, मोला बहुत नीक लागिस हे। सपरहिन दीदी ला पूछेंव तब उहू किहिस-हौ रे करौंदा, बेटी-बेटा मं कांही भेद नइ करना चाही। उही मन तो लछमी हे,धन हे घर के।जतका हो सकय,बन सकय पढ़ा-लिखा देना चाही।नइते हमर कमई- धमई अउ खेत- खार तो छुटय नइ बहिनी,इही तो हमन लिखा के आय हन भगवान करा ले। तब मेहनत करे ले काबर जीव ला चुराबो। बस कमाबो तब खाबो,पहिनबो अउ ओढ़बो। आंखी फूटय अनदेखना मन के।

करौंदा के अनुसार देखा जाए तो छत्तीसगढ़ की नारी संक्रमण की स्थिति से गुजर रही है। उसका एक पैर घर से बाहर है तो दूसरा अभी भी रसोई की चौखट के अंदर है। शिक्षण एवं उसके क्षितिज को विस्तार दिया, पर घर-परिवार की लक्ष्मण रेखा अब भी उसे घेरे हुए हैं ।परिवार और शिक्षा आज भी उसकी प्राथमिकता में है। प्रगतिशीलता की कितनी ही बातें कर लें आज भी बेटी- बेटा में अंतर स्पष्ट दिखाई देता है। समाज में सामंती सोच लिए बैठे पुरुष के कारण ही शुरू होती है औरत के संत्रास और शोषण की कहानी। कहने को हालात बदले हैं। पर क्या सचमुच बदले हैं? कई परिवारों में अभी भी स्त्रियां बेटी-बेटा की शिकार हैं। जो मानसिक यंत्रणा शारीरिक यंत्रणा से अधिक त्रासदी होती है।

तैं कइसे गोठियाथस मितान,ओ तो देवी हे देवी ? अइसे तो नइ हो सकय, मैं तोर बात ला पतियावौं नहीं? ओतेक बड़े घर के बेटी,अउ मंडल घर के बहू अइसन कुलछनीन हो नइ सकय? मैं जानत हौं ओला।ओकर असन रुप रंग,गुन-बेवहार कंडिल धर के खोजबे तभो नइ मिलय ये गांव में,तेकर ऊपर तैंहर अइसन बद्दी लगावत हस ? ’’मितान के बात ला सुनके पुरुषोत्तम दंग रहि जथे?’’

उपन्यास लेखक श्री परमानंद वर्मा की शैली, भाषा और अभिव्यक्ति की कौशल ऐसा है कि शुरू करने के बाद उपन्यास को अधूरी छोड़ पाना संभव नहीं होता। अनुभव की पूंजी और कल्पनाशीलता से वे ऐसा ताना बाना बुनते हैं कि हाथ में आ जाने के बाद सिरे को छोड़ पाना संभव नहीं होता। परमानंद जी के अनुसार कथानक से करौंदा का उद्देश्य और अभ्यांतरिक अर्थ स्पष्ट होता है। इस भाषा से लेखक के व्यक्तित्व का भी बोध होता है।

बहुत चतुर सुजान कस लगथस रे पुरुषोत्तम तैंहर, कोनो अनजान लइका मन कस कड़हार-कड़हार के पूछथस,का बात हे तेमा? हड़बड़ाय असन हो जथे तब ओहर कहिथे- ’’नहीं मालिक, नइ जानत हौं तेकर सेती पूछथौं। मनखे अतेक मर-मर के कमाथे तभो ले ओकर पेट नइ भरय,उन्ना के उन्ना रहिथे अउ जौंन नइ कमावय, बेईमानी करथे,परके गर ला रेतथे, ओमन मजा मारथे।अइसन काबर होथे। का ओकर मन के करम मं अइसन लिखाय रहिथे? ’’

श्री परमानंद वर्मा की उपन्यास करौंदा में समय और समाज बहुत कुछ कहती है। मध्यमवर्गीय जीवन की दारूण कथा, समय और समाज के नैतिक संकट बहुत कुछ प्रमाणिक रूप से दर्ज है। मध्यमवर्गीय समाज हमेशा ही नैतिक संकट से घिरा होता है, एक ओर आत्मा को धुंधलके में छोड़कर मान और सम्मान पाने की सीढ़ी है तो दूसरी ओर अभाव और उपेक्षा का अंतहीन संघर्ष जिसमें मालिक के बीच में पुरुषोत्तम को वेदना और यातना को सहना पड़ रहा है।

मैं जानथों मालिक ये देश मं,परदेश मं कलाकार मन के कतेक कदर हे तौंन ला? जइसे मजदूर के किसान के अउ जतका कमजोरहा बनिहार-मजदूर के सोसन होथे तइसने कलाकार, साहित्यकार मन तो घलो सोसन के शिकार होवत हे। बड़े-बड़े दलाल कलाकार मन के आड़ मं देश -विदेश मं नाम अउ पइसा कमावत हे। फेर कलाकार ला का मिलथे, फोकला। अपन बर एक ठन कुरिया घला नइ बना सकय। गरीबी मं जीथे अउ मर खप जथे। हम जानथन एक दिन हमरो उही गति होवइया हे।’’

श्री परमानंद वर्मा जी ने छत्तीसगढ़िया कलाकारों की त्रासद भरी जिंदगी को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है जहां अव्यवस्थित जीवन है। एक कलाकार ही हैं जो ताउम्र कलाकारी पेशे में जीवन जीने के साधन ढूंढते हैं। वैश्वीकरण का प्रभाव तो है ही आज हर कलाकार अपने परिवार के लिए बेहतर जीवन की लालसा को पाले हुए हैं। कलाकारों का काम सिर्फ कला दिखाना ही नहीं, कला से ज्यादा संघर्ष को मांजना पड़ता है। ’’करौंदा’’ उपन्यास में कलाकारों की सृजन यात्रा मन को बेहद प्रभावित करता है। गहरी समझ के साथ छत्तीसगढ़िया कलाकारों की बड़ी विशेषता को प्रदर्शित करता है।

करौंदा के बेवहार अउ बात ला सुनके गांव भर के मन ओकरे कोती होगे हे। गांव मं कुछु होही, बुढ़वा गउंटिया अउ सरपंच ला एक कोती छोड़ दिही, जौंने शरन देन तौंने हर तो नइ हमर अउ ये गांव के मालिक बन जाही ?

 लेखक श्री परमानंद वर्मा समाज के गरीब, पिछड़े, मजदूर और महिला वर्ग की चिंताओं और तकलीफों के चितेरे उपन्यासकार हैं। करौंदा का व्यवहार गांव और समाज के लिए प्रासंगिक है। गांव के बुढ़वा गउंटिया और सरपंच के अस्तित्व का संघर्ष गांव में ही देखने को मिलता है। यहां करौंदा अपने समय और परिवेश की भावों को व्यक्त करती है। समय को दुख को निकटता से देखते हैं और समाज के लिए नई बुनियाद का सूत्रपात करते हैं। वहीं करौंदा समाज में मानवीय मूल्यों का आदर्श चित्रण प्रस्तुत करती है।

करौंदा कहिथे- ’सरकार के चाल ला तो देख, कतेक गियानी मन कस जनता ला उपदेश देथे। शराब से सामाजिक बुराई फैलत हे ऐला रोके खातिर ओमन ला खुदे आगू आना चाही। ये तो वइसने कस बात होगे, कचरा गंदगी फैलावय कोनो दूसर अउ साफ सफाई करय जनता ? लगथे भगवान हर तो अक्कल उही मन ला दे है,  उही मन अपन दाई के दूध पिये हे।’

श्री परमानंद वर्मा के लेखन में विस्तार और व्यापकता दिखाई देती है। उनके लेखन का कैनवास विस्तृत है। एक ओर उनका लेखन सामाजिक सरोकारों को जोड़ती है साथ ही राजनीतिक पराभाव को भी प्रदर्शित करती है। ’’उही मन अपन दाई के दूध पिये हे’’ ये आवाज सिर्फ श्री परमानंद वर्मा की आवाज नहीं है। ये पूरी छत्तीसगढ़िया लोगों की आवाज है।

जेकर मन अउ हिरदय साफ हे तेकर कांही रोका-छेका नइहे ? जाके देख बाहिर मं माईलोगिन मन आज कहां ले कहां नइ पहंुच गे हे ? काला अंतरिक्ष कइबे, राजनीति, उद्योग, कला, संगीत, खेल, साहित्य, मं सब जगह ओमन बढ़-चढ़ के भाग लेवत हे अउ तुमन घर में गाय छेरी असन बांध के रखबो कइथौ। सियनहा मन समझावत कहिथे- ’अब ओ दिन नई रहिगे बाबू हो, अब बराबरी के दिन आ गे हे। तुमन मन के कुभाव ला मिटा दौ। ओ बपरी मन तो तुंहर संगवारी हे। मिल जुलके सुनता-सलाह काम करौ तब कोनो मेर बात नइ बिगड़य। असल में ओकर मन के बढ़ती ला तुमन देखे अउ सहे नइ सहत हौ। तेखर सेती छटपटावत हौं।

छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा बहुत से सवालों के बीच हमें ला छोड़ता है। पहले तो वह कथा के सुथरे विन्यास की अपेक्षाओं को ध्वस्त करती है। करौंदा प्रेमचंद की कथा विन्यास की तरह प्राचीन कथा-कहन की जकड़नों से भरा हुआ है। कुछ मौलिक किस्म के प्रश्नों से घिरे जरूर है परंतु भाषाई विमर्श जरूर करते हैं। एक ओर विमर्शों का परिज्ञान होता है तो दूसरी ओर स्थूल रूप से संस्कृति और समानांतर सृजनधाराओं का परिचयात्मक स्वरूप स्पष्ट होने लगता है और कई अर्थों में यह प्रवृत्ति पारंपरिक तुलनात्मक विवेक की निर्माणधारा का आद्य रुप लगती है।

करौंदा कहिथे-’ले अभी तो बात ला छोड़व, ओ बदमाश मन के मैं परवाह नई करौं। जौंन दिन के बात तौंन दिन देखे जाही। अभी थाना के बात गोठियात रेहेव तेकर बर का करना हे तौंन ला बतावौ ?

जो व्यक्ति समाज को अच्छे-बुरे चश्मे से देखते हैं, यह भूल जाते हैं कि अच्छे और बुरे के अंतर्गत आने वाली चीजों को स्पष्ट रूप से प्रगतिशील और पतनशील रूपों के ढांचे में फिट नहीं किया जा सकता। हमें समाज के विभिन्न रूपों को परिवर्तन के उस निर्धारक तत्व को टोहना पड़ेगा जो ऐसी परिस्थितियों के जन्म के मूल कारक हैं। मसलन गुंडे और बदमाशों की खुलेपन की आमद का अर्थ केवल एकतरफा स्वतंत्रता ही नहीं है इसलिए अराजकता और स्वतंत्रता में अंतर करना ही पड़ेगा, कहना ही पड़ेगा कि अराजकता की हिमायत नहीं की जा सकती। प्रजातांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से देखें तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह इतनी बलवती है कि वह कहीं भी अराजकता की सीमाओं पर खड़ी दिखाई देती है।

 नदी नरवा मं पूरा आय कस पानी जइसे उफनत, लहरावत दिखते तइसे कस सेठानी के मन उबुक-चुबुक होवत रिहिस। का होगे ओहर चार-पांच लइका के महतारी हे, बहू-बेटी वाली हे फेर रूप रंग उमर अभी ले अटल कुंवारी कस दिखथे। अइसन लंदर-फंदर के फांदा मं कभू नई फंसे रहिसे। फेर आज रामू के रूप ओकर पांव म अइसने कांटे गड़े कस गड़गे ते न आह कर सकत हे न उह....। निकाल हे तब जीवरा अइसे तड़पत हे जइसे कोनो घायल सिपाही के शरीर ले तलवार के घांव लगे मं होथे। कइसनो करके खाना बनाइस। ओखर सेठ एक बजे बाहर आथे अउ खाना खा के मुंह पोंछत फेर निकल जथे धंधा पानी मं।

उपन्यास लेखक श्री परमानंद वर्मा की जीवन दृष्टि मनुष्य जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को परखती है। जीवन का गहरा अनुभव उपन्यास की विकास यात्रा को पूरी करते हैं।


’तोर मोर बोली हर लगे हे तन मं,

कोन जादू ला मारे फिरत हौं बन मं।’

जब ये ददरिया ला ओ शांति देवारिन गाइस तब जौंन रंगरेलिहा हा ओला सीटी पार के बलाय रिहिस हे तौंन तो सिरतोन मं जादू मारे कस ओकर रंग रूप ला देखके बइहागे। जब ओकर तीर मं आके ओहर ठुमक-ठुमके के सिनेमा के हिरोइन कस नाचे ले धरित तब ओला पोटार लिस। शांति ला पोटारना का होइस भीड़ ओकर ऊपर उम्हियागे। हुड़दंग मचगे। ओ रंगरेलिहा ला अइसे मरत ले मारिन ते ओकर जतका मस्ती रिहिस हे तौंन घुसड़गे। भीड़ चिल्लाये ले धर लिस। देखव-देखव..... मारव-मारव.... पीटव-पीटव...। नाचा करइया गांव के मुखिया मन शांति ला पंडाल मेर लाइन। नाचा रूकगे रिहिस हे। माइक ले काहत रिहिन हे शांत रहव... फेर भीड़ के हो-हल्ला मं कोन का काहत हे, कोन कहां जात हे, तेन ककरो समझ मं नइ आवत रिहिस हे।

उपन्यास करौंदा में छत्तीसगढ़ में कला और संस्कृति का दर्जा ऊंचा है। लेखक श्री परमानंद वर्मा ने ददरिया शैली का अविष्कार करके संवाद के सहारे कथा की बहुत सी अदृश्य परतों को उघाड़ कर आधुनिक विन्यास संबंधी नई शैली का प्रणयन किया है।

 संझाकुन के बस मं दूनो झन घूम-फिर के आथे। अउ उही घर म रहिथे जिहां के बेवस्था करे के बात केहे रहिथे। हफ्ता के बीते ले अपन घर जाथे तब गोसइन मुंह फुलाय, कैकई कस न हुकिस न भुकिस। लइका मन गोठियाइन-बतइन। संझाकन घूमत-फिरत फेर शांति मेर आगे। अब तो दूनो के मजा हे। गउंटनीन बनगे शांति। रात-दिन के नचई-कुदई ले बाचगे। कुसुम घला अब दीदी-भाटो करा आय-जाय ले धर लिस। सुनब मं आय हे के शांति के पुतरी असन एक झन बेटी घलो हो गे। शांति ओकर नाव हरनारायन ला पूछके शीतल रखे हे। कुसुम मुस्कावत कहिथे-अच्छा संुदर नांव हे दीदी।

श्री परमानंद वर्मा छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा में जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को एक नई दृष्टि से देखने और विकसित करने का प्रयास किया है। रिश्तों की संजीदगी मन को आकर्षित करती है।


गांव मं दीदी बैंक, रामायन मंडली अउ महिला मजदूर संगठन बनाके करौंदा तो ताकत बना लिस जइसना चुनाव लड़े बर नेता मन बनाथे। अब तो गांव के छोटे-बड़े सब ओकर आदर करथे,  कोनो अइसने मनखे नई होही जेन ओकर दुआरी मं आगे तेकर काम नइ बनत होगी। दे दे, देवा दे नइते रस्दा बता दे महामंत्र ओकर अइसे पंचाक्षरी ताकत हे के छिन मं लोगन के काम बन जाथे। रात बारह बजे ककरो घर मं बीमार परे हे, अस्तपाल ले जाना हे कोनो सकरी ला खटखटा दिस ओकर घर के मन तब कइसनों नींद मं रइही करौंदा उठ जथे। लुगरा बदलिस अउ ओकर मन संग चले बर तइयार हो जथे। पटवारी, आरआई, तहसीलदार, बुलाक आफिस, थाना जिहां का हौं चौबीसो घंटा तइयार। घर के काम ला सास संभाल लेथे तेकर सेती अउ जादा चिंता नइ राहय। जनपद अध्यक्ष, विधायक अउ थानादार सब जानथे, पहिचानथे तेकर सेती काम घला ओकर फटाफट हो जथे।

 छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा बदलते समय की ऐतिहासिक कृति है। हकीकत बयानी के आधार पर कही गई कहानी हमारे समाज के बदलते परिवेश की एक झलक को प्रस्तुत करती है। करौंदा समाज में समस्याओं का अंत करके समाधान की दिशा में उठाए जाने वाले पहलुओं का महत्वपूर्ण हिस्सा है। समाज में अच्छाई को साधने का प्रयास करती है। नई पीढ़ी के बदलते सोच की प्रति ध्वनि को मुखरित करती है। उपन्यासकार श्री परमानंद वर्मा ने करौंदा की प्रतिबद्धता को औपन्यासिक रुप से उजागर किया है।

करौंदा के सास ला जौंने बात के डर रिहिस आखिर उही होइस। ओ तो पहिली ले जान डारे रिहिस हे के ये बहू नोहय कोनो कंकालीन अउ चुड़ेलिन आय जौंन ला ओहर अपन बेटा बर बिहा के लानिस। का जानय बहू के आड़ मं कुलछनीन घर मं समा गे हे। बहू होतिस त बहू असन नइ रहितिस जइसन दूसर मन के रहिथे। चले हे बड़े-बड़े के नाक मारे ले अउ घर ला इंहा देखव तब माहकत परे हे।

इस उपन्यास में करौंदा की सास की भाषा हमेशा ही ग्रामीण भाषा का रूप लेती है।कंकालिन,चुड़ेलिन,कुलकछीन ठेठ ग्रामीण की भाषा के रूप में हमारे सामने आती है। इस भाषा के अनेक रूप व अर्थ हैं। श्री परमानंद वर्मा ने चमत्कारिक और कलात्मक भाषा के प्रयोग से पूरी औपन्यासिक शैली को अद्वितीय ढंग से विश्वसनीय और जीवंत बनाए रखते हैं ।


करौंदा बिहान भर नहा-धोके तइयार होके सबले पहिली महामाया मंदिर जाथे अउ उहां जीत के खुशी मं चढ़ावा चढ़ाथे। उहा ले निकल के अपन गोसइया पुरूषोत्तम संग अपन गांव के भइया भवानी परसाद जौंन ये शहर मं बड़े साहेब हे तेकर घर मिठाई धर के जाथे। घर मं जाके भइया-भउजी के पांव-परत रो डरथे। अउ कहिथे-तुमन मोर लाज बचा लेव। मैं तो उही करौंदा हौं, गांव के बनिहारिन तौंन ला आज कुरसी मं बइठार देव। तोर ये करजा ला मैं कइसे छुटहौं भइया ? 

’’तुमन मोर लाज बचा लेव’’ करौंदा की एक सहज समझदारी थी। महामाया माई के समक्ष अपनों के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक परिवेश के कारण आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास को बनाए रखने में सोचने की शक्ति देता है। करौंदा लोगों की मर्म को भेदता है। उपन्यासकार श्री परमानंद वर्मा के लिए ’’करौंदा’’ जैसी छत्तीसगढ़ी उपन्यास लिखना बेहद जरूरी था क्योंकि करौंदा का इतिहास करौंदा को पहले से अधिक और विकसित करेगी।



डुमन लाल ध्रुव

मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)

पिनकोड-493773

मो. नं.- 9424210208

कोनो ल चांटी चाबत हे तब मैं का करौं?

कुछ लोगों की आदत होती है, चुपचाप नहीं बैठ सकते। हर क्षेत्र में इस तरह के लोग होते हैं। आड़े-तिरछे काम, बात, व्यवहार, आचरण करते रहते हैं जो पीड़ादायक होते हैं, असहनीय और अशोभनीय होते हैं। समाज, परिवार और देश की संस्कृति, सभ्यता, भाषा, बोली और धर्म के विरुद्ध होते हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख-। 

आजकल बइठे-ठाले लोगन मन ल बरपेली चांटी चाबत हे, तब बिछियावत ओकर झार ले सुसुवात हे, कोनो-कोनो ल कांटा गड़त हे तब ओमन करलावत हे, कोनो ल बात के तीर लगत हे, तब जहर खाये कस मरत हे, छटपटावत हें, का करन कइसे करन? सब अपन-अपन ले अपने आप मरत हे। अपने खुद के बुने जाला मं जइसे मकड़ी फंस जथे अउ उबरे के कोनो चारा या जुगाड़ नइ दीखय तहां ले फंस के मर जथे, तइसने कस आज हाल मनखे मन के होवत जात हे। कोनो थिरथार, चुपचाप रेहे नइ सकत हे। एक-दूसर ल कोचकत रहिथें, हुदरत रहिथे। सहत ले सहिथे अउ जहां मुड़ी ले ऊपर पानी चढ़े ले धरथे, अकबकाय असन लगथे तहां ले उबरे बर, परान बचाय बर तो हाथ-गोड़ मारे ले परथे। आज समाज के वइसने कस हालत होगे हे। इही सब बात ल गुनत उधो गुड़ी चवरा  कोती जात रहिथे, तब बीच रस्दा मं माधो के मुख्तियार मिलगे। ओहर पूचथे- या उधो, कहां जाथस जी?

राम... राम... ददा, राम... राम..., अरे माधो करा जाथौं रे भई, थोकन काम हे। सियनहा अकन राहय मुख्तियार तउन ला राम रमउआ करे के बाद उधो, ओला बताथे। 

- कइसे कुछु काम हे गा, मुख्तियार उधो ल पूछथे ? 

- का, कामेच रइही, तब कोनो ककरो दुआरी मं जाही गा, अइसे बिन काम के नइ जा सकय? उधो

मुख्तियार ल अइसन लगिथे के उधो ओकर सवाल जउन करिस तेला रिस मानगे। ओहर कहिथे- अइसे बात नइहे उधो, तोर तो ओहर संगवारी हे, मितान हे गा अउ तैं तो ओकर भक्त घला हस। तैं तो कभू आ-जा सकथस। तोर बर तो सदा ओकर दरवाजा खुले हे। 

उधो कहिथे- जब सबो बात ल तैं जानत हस तब तिखारे के का जरूरत?

मुख्तियार चेथी ल खजुवावत अउ बात मं ओला अइसे लगथे के अरझगेंव, तब कोरमावत उधो ल कहिथे- अइसे बात नइहे, बात दरअसल ये हे के तोर चेहरा मं थोकन चिंता के लकीर देखत हौं तब पूछ परेंव।

अरे इही तो बात हे, इकरे समाधान करे खातिर तो माधो करा जात हौं। मुख्तियार ल उधो  ह जउन सोचत-विचारत आवत रिहिसे रस्दा भर तउन बात ल ओकर करा उछर (उगल) दिस। 

मुख्तियार कहिथे- ले चल, महूं जाथौं ओकरे करा। 

दूनो गोठियावत-बतावत माधो के दरबार मं हाजिर हो जथे। देखते साठ माधो ओला पूछथे- अरे उधो, तैं कहां  गे रेहे अतेक दिन ले, तोर अता-पता नइ चलत रिहिसे। 

अब तोला का बतावौं माधो, मैं तोरे असन ठेलहा तो नइहौं। मैं देश-दुनिया, ये गांव ले ओ गांव, ये शहर  ले ओ शहर, ये मंदिर ले ओ मसजिद, ये गियानी, ओ धियानी। सब जघा घूमत-फिरत रहिथौं। 

माधो पूछथे- तब सब जघा के हाल-चाल बने-बने हे न?

का बने-बने ल कहिथस माधो, मणिपुर बरत हे, जरत हे, पूरा सतियानास होगे हे परदेस हा, कानून बेवस्था सब छर्री-दर्री होगे हे, परदेश अउ केन्द्र सरकार दांत ल निपोर दे हे, पुलिस अउ सेना घला हथियार डार दे हे, कुकी अउ मैतेयी दू समुदाय के झगरा अतेक बाड़गे हे के कौरव-पांडव के लड़ई बरोबर महाभारत मचे हे। 

उधो के बात ल सुनके माधो के माथा चकरागे, का अतेक गदर मात गेहे मणिपुर मं? तब केन्द्र अउ राज्य सरकार का करत हे, योगी महराज जइसे बुलडोजर नइ चला देतिस? सब के होश ठिकाना आ जतिस?

उधो कहिथे- काला का कहिबे माधो- ओमन तो बने घर के घर के उझरइया हे, बने सरकार के तोड़फोड़ करके, गुना-भाग करके अपने पारटी के सरकार बनाय मं लगे हे। दूसर ल खात-पीयत नइ देख सकय तउन का अइसन समस्या ल देखही ?

अउ हां एक ठन बात हे मितान, बइठे-ठाले ए मन ल घलो कइसे चांटी चाबत रहिथे? उधो के बात ल सुनके माधो पूछथे- कइसे का बात होगे तेमा ?

अब तोला का बात ल बतावौं माधो- ओ दिन आसरम मं परवचन सुने ले जा परेंव। उहां दुवारी मं पोस्टर लगे हे तेमा लिखे हे के आसरम जउन परवचन सुने बर आवत हौ, तउन मन कपड़ा बने ढंग के पहिर के आय करौ। इशारा सीधा बेटी, बहू अउ गोसइन जवान बेटा मन ऊपर जादा रिहिसे। 

मोर कहना ये हे माधो के इही पहिनावा-ओढ़ावा के बात ल लेके कई घौं महिला मन हंगामा कर चुके हे, देश के कतको विद्यालय अउ स्कूल मं पढ़इया बेटी मन घला सड़क मं उतरगे हे। एक समुदाय विशेष मन तो धर्म के मुद्दा बनाके बवाल घला खड़ा कर दिन हे, अइसन गंभीर मुद्दा ऊपर हाथ नइ डारना चाही, नइते नागराज मन फुफकारबे करही, डसबे करही। 

देख उधो, तैं बतावत हस तउन सबो बात सही हे, माधो कहिथे- ये सब समस्या के समाधान शांति हे। बिन पानी छिड़के आगी बुतावय नहीं। ये देश के समस्या विकराल होगे हे। सब सुवारथी, लोभी, दंभी अउ अहंकारी होगे हे। पद प्रतिष्ठा अउ सत्ता कईसे मिलय इकरे सेती सब छटपटावत हे। कोनो ल चांटी चाबत हे, कोनो ल सांप डसत हे तब कोनो ल बात के तीर मारके अइसे घायल करत हे के ओहर पानी नइ मांग सकत हे। 

उधो पूछथे- तब अइसे मं कइसे होही माधो, का करे ले परही?

माधो कहिथे- कुछु करे ले नइ परय, बस चुपचाप देखते राह, आघू... आघू होवत हे का?

परमानंद वर्मा


रविवार, 28 मई 2023

मर जा... मर जा..., मत जा... मत जा...!

 सुनो भाई उधो\]

'मर जा... मर जा..., मत जा... मत जा... प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आजकल हरेक जनसभा में यह जुमला प्राय: उच्चारित करते रहते हैं। यह किसी चन्द्रास्वामी जैसे विख्यात तांत्रिकों, गुरुओं अथवा बाबाओं  से हासिल किया गया मंत्र-तंत्र है अथवा जनता को प्र्रभावित करने का कोई कोड वर्ड। इसके उच्चारण मात्र से ही विरोधी दलों के हौसले पस्त हो जाएंगे और जनता की तालियों की गडग़ड़ाहट से सत्तारुढ़ दल की सफलता उसकी झोली में होगी। इसी तरह का प्रयोग कभी अली बाबा चालीस चोर, राजाओं  व नवाबों खजानों को लूटने  में किया करते थे। बस 'खुल जा सिम-सिम, सिम-सिम, सिम-सिम उच्चारित करते थे। खजाने का दरवाजा खुल जाता था। एटीएम से नोटों की गड्डियां निकालने के लिए भी इसी तरह का ‘कोड वर्ड’ प्रयोग में लाया जाता है। यहाँ पेश है 'मर जा... मर जा..., मत जा... मत जा...  नामक छत्तीसगढ़ी आलेख।  

हमर देश के परधान मंतरी नरेन्द्र मोदी जिहां जाथे तिहां के आमसभा म जनता मन ला संबोधित करत एक ठन अलकरहा बात कहिथे माधो, मोला अच्छा नइ लगय। दुख लगथे। अतेक बड़े नेता अउ अइसन बात?

फेर का बात होगे उधो, माधो ओला पूछत कहिथे- जब कभू मोर करा तैं आथस तब सादा-सरबदा विचार, भाव अउ हिरदय लेके नइ आवस। उटपुटांग अउ अलकरहा बात ल धर के आथस अउ हर्रस ले पथरा कचारे असन मोर आघू मं पटक देथस। हां, बता का बाते तउन ला?

माधो बताथे- परधान मंतरी हा कहिथे- ये देश के विरोधी दल वाले मन मोला, मोर सरकार के रीति-नीति, कामकाज ल पसंद नइ करयं। मोला सरकार ले बेदखल करे के नाना परकार के षड़यंत्र करथे अउ कहिथे- मोदी मर जा... मर जा... फेर तुंहर मन के आसिरवाद अउ पियार हा मोर ताकत हे अउ एकरे सेती तुमन कहिथौ- मोदी मत जा... मत जा... मत जा...  इही बात ल ओहर सभा मंच ले दू-तीन घौं दुहराथे। एला सुन के जनता खुश हो जथे अउ ओकर मन के ताली के गडग़ड़ाहट ले आकास गूंजे ले धर लेथे।  

उधो पूछथे- अब तहीं बता माधो, ओला अइसन मर जा... मर जा..., मत जा... मत जा... कहना चाही? 

माधो कहिथे- तोला का लगथे?

उधो बताथे- मोदी जरूर कोनो सिद्ध साधु-महात्मा करा ले संजीवनी बूटी कस ये तंत्र मंत्र 'मर जा... मर जा..., मत जा... मत जा... दक्षिणा मं पाय होही। उही ला जनसभा मं पाठ करे बरोबर पढ़थे। मोला तो दाल मं काला लगथे माधो। 

उधो के बात ल सुन के माधो हांस परथे तब ओहर कहिथे- ये हांसे के बात नइहे माधो, ये जतका बड़े पद मं रहिथे न तउन मन अइसने सिद्ध जोगी बबा अउ तांत्रिक मन ल पाल के रखथे। 

माधो ल बतावत उधो कहिथे हमर देश मं चंद्रास्वामी नांव के बहुत बड़े तांत्रिक होगे हे। पूर्व परधान मंतरी इंदिरा गांधी ल ओहर बड़े-बड़े मंत्र दे रिहिसे। तभे अतेक साल ले ओहर देश मं अकंटक राज करे रिहिसे। मोला तो भुस-भुस जाथे कहूं वइसने कस नरेन्द्र मोदी घला हा तो नइ कोनो तांत्रिक अउ सिद्ध बबा करा ले जादू के तंत्र मंत्र पागे होही?

माधो कहिथे- तैं बइहागे हस, तोर मन के भरम हे। वइसन कुछ नइहे मोदी हा। साफ-सुथरा नेता हे। ओकर सफलता देख के विराधी दल के नेता मन के आंखी फूटत हे। 

ओ दिन के बाद उधो लहुट के चल दिस अपन घर। चार-आठ दिन बाद फेर बीरबल कस विनोदी सुभाव के परिचय देवत राज दरबार कोती पहुंचथे। 

एक पचरंगा डोले डोल

दुई पंचरंगा डोले डोल

तीन पचरंगा डोले डोल

चार पचरंग डोले डोल। 

'ये का पचरंगा  डोले डोल, लगा देहत, ये हाथ मं का खंजेरी धरे बजावत किंजरत हस अउ चूंदी कइसे जटर-बटर साधु बैरागी कस बगरा डरे हस। कोनो देखही त पूछही, ये कहां के झुलपाहा आय हे, ये गली ओ खोर भटकत हे।

माधो, उधो ल पूछथे, तब ओहर बताथे, अब तोला का बताओं माधो- अब तोर ओ जमाना नइ रहिगे जब कदम तरी बइठ के बंसरी बजावस तब सब गोप-गुवालिन सब काम-बुता ल छोड़ के तोर करा पहुंच जाय। का जादू मंतर डारे रेहे तोर बंसुरी म, ओ बात आज तक मोर समझ मं नइ परिस?

तब ओला समझ के, जान के का करबे उधो, तैं तो साधु, जोगी, गियानी, तोला जादू-मंतर ले का लेना-देना?

उधो कहिथे- मोला लेड़हार झन माधो, महूं हा कुछु सीखना, जानना अउ समझना चाहत हौं। 

ओ चक्कर मं झन पर, ये माया के खेल हे, राजनीति, कूटनीति अउ धरम नीति के बात हे। तैं तो परम गियानी हस, तैं तो ये सबो बात जानत हस, फेर मोर करा पूछे के का जरूरत?

माधो के बात ल सुनके माधो कहिथे- अइसने तो कहि के नारद ल भुलवार दे रेहे, कतेक सुंदर सपना देखे रिहिसे। 

अच्छा... अच्छा... अब धीरे-धीरे तोर बात समझ मं आवत हे उधो के तोर मनसा का हे, काबर तैं खंजेरी धर के बजावत अउ गावत ये गली ले ओ गली गिंजरत हस ? 

अउ हां... माधो पूछथे- ये 'एक पंचरंगा डोले, डोल, दुई पंचरंगा डोले डोल कोन फिलिम के गाना हे। आजकल तोर छत्तीसगढ़ मं किसम-किसम नांव के फिलिम बनथे कइके सुने हौं। जइसे- जिमी कांदा, शुरू होगे परेम कहानी...

अउ हां... माधो फेर पूछथे- अरे ओ एक झन छत्तीसगढ़ी गायिका हे सीमा कौशिक, ओला तैं जानथस का?

वाह, ओला कइसे नइ जानिहौं, माधो, मोर खियाल से, सलाह हे के राज दरबार के गायिका बनाय मं कोनो हरजा नइहे। ओकर एके गाना अइसे हिट होगे के पूरा छत्तीसगढ़ ल कोन काहय मुंबई के बड़े-बड़े संगीतकार मन ओकर आवाज के दीवाना होगे। 

माधो पूछथे- अच्छा तब का सुर सम्राज्ञी लता मंगेश्कर, आशा भोसले, नूरजहां मन ले घला सुंदर आवाज हे?

उधो कहिथे- तैं एक घौं सुनबे न माधो तब बंसुरी ल एक कोती तिरिया देबे। ओकर सुर मं ओं जादू हे के जब ओहर गीत गाये ले धरथे तब शमा ल देख के जइसे परवाना मन झपाय परथे ओकर ऊपर वइसने छत्तीसगड़ के जतेक गीत-संगीत के रसिक परेमी हे  तउन मन छपाए परथे। 

अतेक जादू हे, ताकत हे। तब वइसने कस तहूं बनिहौं, कहिके सोचत हस का? उधो कहिथे- नहीं माधो, मोर चिंता फिकर दूसर हे। 

भला बताबे माधो- का गांव, का शहर, का देश, का राजनीति, कूटनीति, धरम नीति, आरथिक नीति सब जघा जादू मंतर चलत हे। 

फोरके बता न साफ-साफ का जादू मंतर चलत हे? माधो के सवाल ल सुनके उधो बताथे- तैं मोर बात लन नइ पतियाबे, फेर बात सोलह आना सही हे। हमर देश के परधान मंतरी ल कोनो सिद्ध महात्मा एक ठन मंत्र देहे अउ केहे के, ए मंत्र ल जनसभा होही तिंहा बोले करबे, पूरा जनता तोर पक्ष मं हो जही। ओ मंत्र का हे उधो , बता तो मोर मन अकुलावत हे ओला जाने बर? 

उधो बताथे- 'मर जा... मर जा..., मत जा... मत जा...

माधो खिलखिला के हांस परथे अउ कहिथे- ये कोनो मंत्र हे उधो, मही मिलेंव तोला एक झन मुरख बनाय बर?

ये मंत्र तोला  छोटे दीखत हे, फेर हे भारी ताकत हे एमा। जब सभा मं ए मंत्र ल पढ़थे तब ताली के गडग़ड़ाहट अइसे लगथे जैसे आकाश मं बिजली गरजत हे। वइसने कस ताकत मोर एक पचरंगा डोले-डोल कस मंत्र मं हे। अतके बेर सीबीआई अउ इ.डी. के पुलिस गाड़ी आथे तहां ले उधो अउ माधो ओ तिर ले दफा हो जथे।

-परमानंद वर्मा

रविवार, 23 अप्रैल 2023

सुनो भाई उधो .....तै ठाढे राह मै आवत हौ .......

परमानंद वर्मा

भारत देश की दुर्दशा पर भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव के बीच एक रोचक संवाद  होता है। देश में अनीति , अन्याय, आतंक, अराजकता, भ्रष्टाचार, अत्याचार धर्म के आड़ में पाखंड, राजनीति से नीति गायब और राज (सत्ता) हथियाने के लिए धमाचौकड़ी, यही हाल अर्थ तंत्र और न्याय तंत्र में भी परिलक्षित हो रहा है। महंगाई में जनता पीस रही है। सर्वत्र त्राहि-त्राहि और हाहाकार मचा हुआ है। भगवान उद्धव से कह रहे हैं- उद्धव जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तभी मैं अवतार लेता हूं और वो समय आ गया है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख। 

भगवान श्रीकृष्णचंद्र मथुरा मं राज दरबार मं बइठे हे। चेहरा मं उदासी के भाव, चिंता फिकर के रेखा मस्तक मं साफ झलकत राहय। कोनो कोती ले उधो (उद्धव) दरबार मं जब पहुंचथे तब महाराज हाथ जोर के जोहार करथे। आज भगवान के चेहरा, मस्तक मं ओ खुशी अउ मुस्कुराहट नइ दीखत रिहिसे जइसन कभू दीखय। 

उधो सोचथे का बात हे, मुरली मनोहर के   होंठ मुस्कुराहट  ल छोड़के कोनो बाग-बगीचा मं फूल के मकरंद कोती तो नइ चल देहे किंजरे बर? नहीं... नहीं... अतेक बड़े अपराध तो नइ कर सकय। मान लो भगवान ल मुरली के तान छोड़े के सुध आगे त बिना होंठ के कइसे तान छेड़ही। 

उधो सोचथे, जरूर कुछ न कुछ बात जरूर हे, एकर पता लगाय ले परही। अइसन उदासी, खामोशी अउ मुरझावत चेहरा मैं नइ देख सकौं। कहूं राधा, रुखमणि अउ सत्यभामा मिलगे अउ भगवान के कुशलक्षेम पूछ परिस तब ओमन ल मैं का बताहौं?

उधो सोचथे- बड़ा मुसीबत हे। मुड़ी ल खजुवावत, सोचत-विचारत रहिथे। का करौं, कहां जांव, काकर से ये बात के दरियाप करौं के भगवान आज उदास काबर हे? अइसे तो नहीं के कोनो पटरानी मन कुछु उल्टा-पुल्टा गोठिया परिस होही, जइसन बात नइ कहना चाही?

फेर सोचथे- नहीं, कोनो अइसन वइसन बात नइ केहे सकय भगवान से अउ मने मन कहिथे- अरे का भरोसा नारी परानी मन के छेरी असन मुंह तो चलत रहिथे। ये जीभ तो आय, कहूं फिसल गिस होही, द्रौपदी सही। का कहना रिहिसे अउ का कहि परिस, उठेंवा मारे असन कांही बोल परिस होही, जउन बात ल भगवान धर लिस होही। 

गोसइन मन के बात वइसने तो होथे। बने गोठियावत हन कहिके फेर तरी-तरी अइसे बिच्छी मारे असन बात के तीर चला देथे के ओ तीर वइसने छाती मां जाके चुभ जथे, जइसे महारानी कैकेयी के मारे बात के बान राजा दसरथ ल लग गे। उबर नइ सकिस बपरा गरीब राजा दसरथ। सहे नइ सकिस ओ तीर के दरद ला, अउ एक दिन तियाग दिस अपन तन ला। 

उधो के पांव न भगवान कोती आघू बढ़ सकत हे, न पाछू घुंच सकत हे। का करौं, का नइ करौं इही सोचत-विचारत माधो जेने-मेर के तेने मेर डोमी सांप जइसे मुढ़ी मार के एक तीर रुक रहिथे, वइसने हाल ओकर होगे राहय। भगवान से नजर तक नइ मिला सकत रिहिसे। ओहर देखही अउ पूछही तब का बताहौं, का गोठियाहौं, का जवाब देहौं, इही संसो धर खात रिहिसे। 


लीलाधारी भगवान श्री कृष्ण उहू तो बड़ा नटखट हे। देखत रिहिसे मन मं तमाशा, के उधो कइसे आघू बढ़त हे न पाछू घुंचत हे। बोलत-बतावत घला नइहे। मुक्का कठपुतली असन खड़े हे। उहू मने-मन सोचत हे, राह उधो तैं कतेक बेर ले अइसने मुक्का रहिबे?

भक्त वत्सल भगवान, ओकर मन के भाव ल जानगे के एकर मन मं का विचार चलत हे। सिंहासन ले उठ के ओकर तीर आथे, छाती लगाके पूछथे- हे सखा उधो, कहां, कोन सोच विचार मं खो गे रेहे। अइसन हाल तो मैं तोर पहिली बार देखे हौं।

भगवान मुरली मनोहर ल मुसकुरावत जब उधो ओला देखिस तब ओकर आंखी कोती ले परेम के आंसू बोहाय ले धर लिस। ओकर ये दशा ल देख के नंद नंदन पूछथे- का बात हे सखा?

उधो सब बात ल पलट देथे अउ उलट के पूछथे- भगवान तैं मोला पुछत हस मोर दशा? तैं अपन ल बता- तैं कइसे आज उदास, परेशान अउ बेचैन दीखत हस? तोर इही दशा ल देखके मैं सुकुरदुम होगेंव। सदा गुलाब, कमल फूल सही खिले अउ मुसकुरावत चेहरा संझाती के बेरा मुरझाय फूल असन कइसे दीखत हे?

उधो कहिथे- अइसे तो नहीं के भगवान ला गोकुल के अपन ब्रजभूमि के सुरता आगिस होही, नंद बाबा अउ जसोदा मइका के सुरता आगिस होही, गोप-गुवालिन मन के सुरता आगिस होही, गउ माता, जमुना के घाट अउ बचपन मं कदम के पेड़ तरी जउन खेलकूद, चुहउल, डंडा नाच, अउ दही लूट, मटकी फोर, माखन चोरी सब एक-एक करके सुरता आगिस होही। उहू सुरता आवत होही ये सबो झन ला मैं जल्दी मुथरा ले लहूट के आहूं केहे रेहेंव, अउ नइ गेंव। लबारी मार दिस, भुलवार दिस लइका मन सही, इही सब सोचत होही। इस सोच मं भगवान बुड़े रिहिस होही?

अंतरयामी भगवान उधो के मन के सबो बात जानगे। ओला राज दरबार मं लाके ओकर जउन आसन हे तेमा बइठारथे। तेकर बाद कहिथे तोर सबो बात सही हे, फेर आज जउन बात मैं सोचत रेहेंव ओ अलग हे। 

उधो पूछथे- ओ चिंता अउ फिकर के अइसे कोन से बात हे भगवान जउन तोला धर खाथे? थोरकिन ओ बात ल साफ-साफ बताते। 

सुन उधो- मोला भारी चिंता सतावत हे, मोर भारत देश के। उहां अधरम बाढ़गे हे। पापाचार, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार अतेक बढ़गे हे अउ बढ़ते जात हे, दिन दूनी रात चौगुनी। जेकर हाथ मं राज सत्ता होय, धर्म सत्ता हे, अर्थ सत्ता, नियाव के सत्ता हे, ये चारों पाया देश, समाज अउ जनता के सुरक्षा के नींव होथे। ओ चारों पाया आज डगमगाय ले धर ले हे। एमन अतेक मनमानी करत हे- 'करही अनीति जाय नहीं बरनी कस। 

उधो ला कहिथे भगवान हा- तैं तो जानत हस, मोर काम ला। जब-जब होय धरम के हानि, बाढ़ही असुर अधम अभिमानी, तब-तब मैं का करथौं ?

भगवान कहिथे- उधो, मोर देश मं आज पाखंड होवत हे, धरम के नांव ले के, ओकर आड़ लेके सब अपन-अपन रोटी सेंकत हें। कोनो सत्ता मं आय के जुगाड़ करथे, तब कोनो करोड़पति, अरब-खरबपति बने के सपना देखत हे। नकली साधू-साध्वी के बाढ़ आगे हे मोर देश मं। कोनो ककरो बहू, बेटी, बहिनी अउ गोसइन ला सूर्पणखा काहत हे, तब कोनो शिखंडी। सब के जबान बेलगाम होगे हे, कैंची असन कच-कच चलत हे। मरयादा तार-तार होगे हे। धरम के रक्षक मन जब भक्षक होगे हे तब जनता ला कोन बचाही। सब त्राहि-त्राहि करत हे। 

उधो पूछथे- तब एकर का उपाय हे भगवान, भारत के बूड़त बेड़ा ला कोन बचाही, पार लगाही। चिंता मत कर उधो- मोर देश के अइसन दुरदशा नइ देख सकौं, बहुत जल्दी मैं अवतार लेवइया हौं, अउ पापी, दुराचारी, अधरमी, भ्रष्टाचारी मन के नाश करके धरम के इस्थापना करिहौं। सबके के दुख-पीरा ल हरिहौं। अउ हां, तै जा, ये बात के सब जघा ढिंढोरा पिटवा दे, तै ठाढे राह मै आवत है। सत्यमेव जयते, सत्यम् शिवम् सुंदरम् अउ अहिंसा परमो धर्म: के रखवार ये धरती मं जल्दी अवइया हे।

परमानंद वर्मा

मंगलवार, 21 मार्च 2023

टेढ़े-मेढ़े रास्ते



कांटा जब पैर में चुभता है तब दर्द तो होता ही है, बिछुआ जब डंक मारे अथवा सर्प डस जाय तब तन, बदन व्याकुल हो जाता है। अचेतावस्था की स्थिति भी आ जाती है और कभी-कभी तो ऐसे व्यक्ति की मौत भी हो जाती है। दवाइयां और डॉक्टर के प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। 

मनुष्य का जीवन भी सरल और सपाट होता है। युवावस्था तक निश्छल मन से समय गुजर जाता है। राग-द्वेष, न छलकपट, न काम और क्रोध की स्थिति। लेकिन इसके बाद ैजसे-जैसे जीवन उत्तरोत्तर पायदान तय करता है तब स्थिति और परिस्थिति वह सब सबक सिखाने लगता है जिससे वह लगभग अनभिज्ञ रहता है। समाज, देश, काल में घट रहे वारदात व वातावरण भी मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालने लगता है। जो बातें व ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में नहीं मिलता वह सब धीरे-धीरे समाज, घर-परिवार के सदस्यों के व्यवहार सिखा देता है और यहीं से वह सीख-समझकर अपना आचरण व व्यवहार का निर्माण करता है। 

अब यदि परिवार का कोई सदस्य भ्रष्टाचारी है, कदाचरण करता है, मां अथवा बहनों का आचरण व व्यवहार ठीक नहीं है, तब इसका व्यवहार बेटे अथवा बेटियों पर क्या पड़ेगा ? समाज व देश में अनैतिक कार्य हो रहे हैं सत्ता के लिए राजनीतिकों द्वारा दूसरे दलों के प्रतिनिधियों की खरीददारी, तोडफ़ोड़, इसका भी प्रभाव शुद्ध व सात्विक जीवन जीने का सपना संजोये युवकों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यही हथकंडा तो आगे चलकर वह अपनाएगा। राजनैतिक शुचिता की जगह तोडफ़ोड़ कर सत्ता हथियाने की होड़ ने देश, समाज व काल को कलुषित करने पर आमादा कर दिया है। सत्ताधारी दल के सदस्यों को धन का लालच देकर या यों कहें उन्हें खरीदकर निर्वाचित सरकारों को गिराकर स्वयं सत्तासीन होने पर षडयंत्र, किसी के भी मन पर प्रभाव डाले बिना कैसे रह सकता है। सब कहते हैं यह गलत हो रहा है, घिनौना कार्य है, प्रजातंत्र के माथे पर धब्बा है, कलंक है लेकिन कौन सुनता है? यह भी एक तरह का राजनैतिक आतंकवाद है, सत्तासीन दल का। निर्वाचित सरकारों को गिराने का षडयंत्र एक तरह से पाप नहीं है तो और क्या है? 

इसी तरह की कुटिल और घिनौनी चालें औद्योगिक प्रतिष्ठानों में भी देखी जा सकती है कि किस तरह दूसरे उद्योग को कमजोर करने की प्रतिस्पर्धा और एकाधिकार प्राप्त करने की होड़ ने अर्थजगत में भी कोहराम मचाया हुआ है। इस गलाकाट स्पर्धा से देश व समाज को भी नुकसान होता है। आर्थिक आतंकवाद भी देश व समाज में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। जिन उद्योगपतियों की सरकारों से मिलीभगत होती है, दोस्ती होती है उसका उद्योग, व्यवसाय चांदी काटने लगता है। दिन दूनी, रात चौगुनी मुनाफा कमाने लगता है और देखते ही देखते ऐसे उद्योगपति रातों-रात अरबपतियों की श्रेणी में आ जाते हैं। देश-विदेश में इनका औद्योगिक  प्रतिष्ठानों का जाल फैल हो जाता है। कैसे इनके पास इतना धन आ जाता है, हर कोई जानता है। इन लोगों के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि देखते ही देखते धन कुबेर बन जाए। बैकों का घोटाला सरकारी संसाधनों का दोहन करने वाले, बेनामी संपत्ति के मालिक बनने वाले ऐसे लोगों पर सरकार का वरदहस्त होता है। बिचौलिये और दलाली में इनके कारिंदों का ही हाथ होता है। 

आज स्थिति यह है कि सीधे रास्ते से कोई सफर नहीं कर सकता और करने की कोशिश करता है तो उसे डंडी मारकर गिरा दिया जाता है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जो साफ-सुथरा हो। हर क्षेत्र चाहे वह प्रशासनिक हो अथवा शैक्षणिक, न्यायिक व धार्मिक, वहां कदम रखते ही अव्यवस्था, अराजकता व पाखंड की बू आती है। काजल की कोठरी की तरह बन गया है पूरा देश-विदेश। इस दम घोटू परिवेश में आज का नौनिहाल जब कदम रखने को सोचता है तो उसे समझ में ही नहीं आता कि कौन सा रास्ता अख्तियार करे। जब घर-परिवार का ही परिवेश साफ-सुथरा नहीं है और उसकी नजर सब कुछ कलुषित दिखता है तब समाज व देश-विदेश के बारे में उनके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह विचारणीय है। इस तरह के टेढ़े-मेढ़े रास्ते को देखकर आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित नहीं होगी, उसके लिए जिम्मेदार कौन? सर्प जब रेंगता है तो सीधा ही टेढ़े-मेढ़े रेंगना उसे पसंद नहीं। क्या हम और हमारा समाज व सरकार सर्पों से भी गए गुजरे हो गए हैं? 

जिंदगी का सफर इतना आसान नहीं है कि राह चलते मंजिल मिल जाए। बड़ी-बड़ी बाधाएं, रुकावटें, पहाड़ सी समस्याएं, दुर्गम व टेढ़ी-मेढ़ी रास्ते से गुजरना पड़ता है। बड़े लोगों की तो बड़ी बातें होती है वे चौसर और शतरंज की बाजियां जानते हैं, उनकी बाधाओं को दूर करने के लिए अनेक मददगार सामने आ जाते हैं लेकिन जिन लोगों ने अभी-अभी अपना कैरियर बनाना शुरू किया है, उनके कोई गाड फादर नहीं होते, कोई मित्र और मददगार नहीं होते, ऐसे लोग उदास, निराश हो जाते हैं। अनेक क्षेत्रों से इस तरह की खबरें आती हैं। वे डिप्रेशन में चले जाते हैं। और तो औार अपने लोग ही धोखेबाज और ठग की भूमिका में आ जाते हैं। कैरियर बर्बाद होने की स्थिति आ जाती है तब दुखी मन में ऐसे लोगों को आत्महत्या जैसे घृणित कार्य के लिए विवश हो जाना पड़ता है। इतना सुंदर सुखमय जीवन जिसको जीना चाहिए, निर्माण करना चाहिए, वह नरक बन जाता है। यह सिलसिला जारी है, कब थमेगा, रुकेगा, बंद होगा किसी को नहीं पता ?

परमानंद वर्मा