सोमवार, 15 नवंबर 2010

फिर इसी रूप में जिंदा होना चाहते हैं देवानंद

ज्वेल थीफ, हम दोनों, हरे राम हरे कृष्णा और सैकड़ों दूसरी फिल्मों के अलग अलग किरदारों में सामने आ चुके देव आनंद खुद को इसी रूप में दोबारा जिंदा करना चाहते हैं। छह दशक लंबे फिल्मी करियर ने भी काम की भूख खत्म नहीं की। बॉलीवुड में देवानंद को सदाबहार यूं ही नहीं कहा जाता। 87 साल की उम्र में भी उनकी ऊर्जा नौजवानों को परेशान करती है। दुनिया को बताने के लिए उनके पास ढेरों किस्से हैं। उ.हें पता है कि बहुत कुछ करना अब शायद मुमकिन न हो पाए इसलिए दोबारा ज.म लेना चाहते हैं देवानंद बन कर ही। एक इंटरव्यू में देव आनंद ने कहा, मैं हमेशा जल्दबाजी में रहता हूं, क्योंकि वक्त बहुत तेजी से फिसलता जा रहा है और मैं उसके पीछे भाग रहा हूं। मेरे पास बताने को बहुत सी कहानियां हैं लेकिन वक्त नहीं। काश मैं एक बार फिर देव आनंद बन कर जन्म लेता और आप लोगों से 25 साल बाद एक युवा अभिनेता के रूप में मिलता। अपने खास अंदाज से लोगों के दिलों पर लंबे समय तक राज करने वाले देव 1961 में आई फिल्म हम दोनों का रंगीन संस्कर.ा जारी करने जा रहे हैं। 3 दिसंबर को यह फिल्म सिनेमास्कोप के साथ दुनिया भर में रिलीज होगी। इसके तीन हफ्ते बाद देव आनंद की नई फिल्म चार्जशीट रिलीज होगी। देव आनंद ने बताया, सिनेमास्कोप, डिजिटल साउंड और रंगीन प्रिंट के साथ यह फिल्म बिल्कुल नए रूप में सामने आएगी। ऐसा नहीं लगेगा कि हम कोई पुरानी फिल्म देख रहे हैं। यह फिल्म मेरे लिए बेहद खास है क्योंकि मेरी जिंदगी का फलसफा साहिर लुधियानवी के रचे गीत, मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया.. में ढल गया है। नई फिल्म चार्जशीट में देव आनंद ने भी भूमिका निभाई है। फिल्म में उनके अलावा नसीरुद्दीन शाह और जैकी श्रॉफ भी हैं। समाजवादी पार्टी के पूर्व महासचिव अमर सिंह ने भी फिल्म में काम किया है। चार्जशीट एक क्राइम थ्रिलर है। देव आनंद ने बताया, यह एक रहस्यमय ह.या की कहानी है जिसमें पुलिस महकमे में मौजूद भ्रष्टाचार को दिखाया गया है। हिंदी सिनेमा को गाइड और टैक्सी ड्राइवर जैसी बेहतरीन फिल्म देने वाला यह दि.गज फिल्मों की रीमेक बनाने के बारे में नहीं सोचता। उन्होंने कहा, मेरे पास छह फिल्मों की स्क्रि.ट तैयार है, जब मैं आज भी सोचने के काबिल हूं तो फिर पुरानी चीजों के पीछे क्यों भागूं? मैं अपनी पुरानी कहानियों को दोहराना नहीं चाहता। हां उन फिल्मों के कुछ- कुछ हिस्से मिलाकर एक फिल्म जरूर बनाना चाहता हूं जिसका नाम होगा, द ग्रोथ ऑफ देव आनंद एज एन एक्टर। देव को भरोसा है कि उनकी दोनों फिल्मों को लोग पसंद करेंगे। उ.होंने कहा, मैं सिर्फ बनाने के लिए फिल्म नहीं बना रहा, मैं उनसे बहुत .यादा जुड़ा हुआ हूं। मैं बूढ़ा हो रहा हूं लेकिन मैं ऐसा नहीं कहता, न ही खुद को बूढ़ा महसूस करता हूं। यह पूछने पर कि क्या ऐसा कुछ बच गया है जो वह अब भी करना चाहते हैं, देव आनंद ने कहा, बहुत कुछ। ऐसे अरबों काम हैं जो मैंने नहीं किए और जि.हें मैं करना चाहता हूं। हर लम्हा नया है और आगे बढ़ रहा है। अगर आप भी उसके साथ आगे बढ़ रहे हैं तो आप महान हैं और हां मैं देवानंद हूं।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

दीप पर्व दीपावली पर आपको लख-लख वधाइयां

 
कई लोगों का मानना हो सकता है कि दीपावली के पर्व को धमाकेदार रहना ही चाहिए। पर आजकल भारी आतिशबाजी से प्रदूषण होने लगा है। और अब इन धमाकों से खुशियां या शुभकामनाएं नहीं मिल रही हैं। मेरे परिवार में दो लोगों को अस्थमा की समस्या है। वो कई दिनों तक अनिद्रा, श्वांस फूलने और उल्टी की टेन्डेंसी से परेशान रहते हैं। इन्हीं तरह के शिकायतों के आधार पर तंग आकर सर्वोच्च न्यायालय ने पटाखों पर रात दस बजे से सुबह छह बजे तक का प्रतिबंध लगाया है। दिल्ली में तो दिल्ली पर्यावरण विभाग को इस निर्देश का पालन सुनिश्चित करने को कहा गया है। आदमी ने तो अपनी सेहत को नापने के लिए कई तरह के यंत्र बना लिए हैं। मेरे छज्जे पर गमले में लगी तुलसी को क्या परेशानी हुई, हमारे पास जानने का इसके लिए कोई यंत्र है क्या? जरा से भी शोर से डर जाने वाली गौरैया के दो-तीन दिन तक चलने वाले अनवरत शोर और धमाकों में रात-दिन कैसे कटते होंगे, कभी सोचा है क्या?दरअसल हम अंदर से खोखले होते जा रहे हैं। खाली होते हमारे अंदर को भरने के लिए हम बाहर के शोर में उमंग, खुशी, ग्लैमर खोजते रहते हैं। अंदर को भरने के किए गये लाख जतन क्या हमें सही खुशी दे पाने में सक्षम हुए हैं। पर्व-त्योहारों को हम सिर्फ धूम-धड़ाका और पूजा-पाठ के कर्मकान्ड के रूप में समझने लगे हैं। जिस अंधकार को दूर करने के लिएदीपक जलाने’ के कर्मकान्ड करते हैं। दीपक तो बचारे एक कोने में दुबक गये हैं। महंगी हजारों रुपये की इलेक्ट्रानिक लड़ियां जिस बिजली से रोशन हो रही हैं। क्या कभी सोचा है कि उसमें रोशनी भरने के लिए कितने लोगों की जिंदगी अंधेरे में डुबो दी जाती है। नर्मदा बांध के उजड़े, टिहरी के विस्थापित, भाखड़ा-नांगल के उजड़े आधी सदी से भटक रहे लोगों और उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश में बन रहे 500 से ज्यादा बांध हजारों-लाखों की जिंदगी को अंधेरे में धकेल देने के बाद ही आपको रोशनी देने में सक्षम हुए हैं। दीपावली पूजा- "तमसो मा ज्योतिर्गमय"- अंधकार से प्रकाश की ओर चलो; अज्ञान से ज्ञान, असत्य से सत्य की ओर तथा जन्म और मृत्यु के चक्र से अमरत्व की ओर चलो; का संदेश देती है। पूजा क्या है? जो हमें ईश्वर से प्राप्त है, उसके प्रति अहसास और कृतज्ञता व्यक्त करना। प्रकाश का देवता सूर्य, हमारे ऋतु-मौसम चक्र का सहभागी चन्द्रमा और लालन-पालनकर्ता पृथ्वी के प्रति समय-समय पर हम कृतज्ञता व्यक्त करते रहते हैं। इन समयों पर पर्व-उत्सव करते हैं, पूजा, अपनी कृतज्ञता और सम्मान दर्शाने का सब से स्वाभाविक तरीका है। वेद के सूत्रों में कहा गया है- 'पृथ्वी, जिसमें बसे हैं सागर-नदी और अन्य जल भंडार, जिसमें अन्न और धान्य के खेत हैं, जिसमें जीते हैं चराचर सभी, वही भूमि हमको दे अपने अपूर्व फल। पृथ्वी जो जाए हैं तुम्हारे- वे हों रोगमुक्त और शोकमुक्त' अगर कर सकें तो सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी को प्रति कृतज्ञ होवें। अंदर के अंधकार को इलेक्ट्रानिक लड़ियों के प्रकाश से नहीं प्रेम और ज्ञान के प्रकाश से भरें। कबीर साहब की वाणीएक नूर से सब जग उपज्या, कौन भले कौन मन्दे।’ हम सब प्रकाश से ही पैदा हुए हैं। आइंस्टीन ने भी यही कहा है कि द्रव्यमान-ऊर्जा के बीच एक समीकरण है। प्रकाश द्रव्यमान की रचना करता रहता है। हम भूल क्या कर रहे हैं? कबीर कहते हैं "रामहिं थोडा जाणिं करि, दुनिया आगै दीन। जीवां कौं राजा कहैं, माया के आधीन।।" प्रकाश को, प्रकृति को तुच्छ समझ कर इस संसार और इसकी माया को महत्व दे दिया है, तभी तो आदमी अपने को राजा तथा स्वामी समझने की भूल कर बैठा है जो कि वैभव से रहता है और माया के अधीन है।
किसी भी तरह की गुलामी से मुक्ति प्रकाश पर्व पर करने का एक बड़ा काम है। अपने पेड़, पशु-पक्षी और आस-पास के जीवन में प्रकाश कैसे आए, सोचेंगे। प्रेम और ज्ञान का प्रकाश जीवन में आए, इसके लिए मन और सोच के किस-किस अंधेरे की गंठरी फेंकनी है, यह प्रकाश पर्व का एक प्रोग्राम हो सकता है, देखना, निश्चय ही ज्यादा मजा, ज्यादा उमंग आएगा।
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सिराज केसर
TREE (ट्री), ब्लू-ग्रीन मीडिया
47 प्रताप नगर, इंडियन बैंक के पीछे
कीड्स होम के ऊपर, मयूर विहार फेज 1, दिल्ली - 91
मो- 9211530510

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

रेलवे ड्राइवर बनना चाहते थे ओमपुरी

भारतीय सिनेमा जगत में अपने दमदार अभिनय और संवाद अदायगी से ओमपुरी ने लगभग तीन दशक से दर्शको को अपना दीवाना बनाया है लेकिन बहुत कम लोगो को पता होगा कि वह अभिनेता नही बल्कि रेलवे ड्राइवर बनना चाहते थे।  ओम पुरी का जन्म 18 अक्तूबर 1950 को हरियाणा के अंबाला में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। ओमपुरी का बचपन काफी कष्टों में बीता। परिवार की जरुरतों को पूरा करने के लिए उन्हें एक ढाबें में नौकरी तक करनी पड़ी थी। लेकिन कुछ दिनों बाद ढाबे के मालिक ने उन्हें चोरी का आरोप लगाकर हटा दिया। बचपन में ओमपुरी जिस मकान में रहते थे उससे पीछे एक रेलेवे यार्ड था। रात के समय ओमपुरी अक्सर ज्वर से भागकर रेलवे यार्ड में जाकर किसी ट्रेन में सोने चले जाते थे7 उन दिनों उन्हें ट्रेन से काफी लगाव था और वह सोंचा करते कि बड़े होने पर वह रेलवे ड्राइवर बनेगे।  कुछ समय के बाद ओमपुरी अपने ननिहाल पंजाब के पटियाला चले आए जहां उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की7  इस दौरान उनका रुझान अभिनय की ओर हो गया और वह नाटकों में हिस्सा लेने लगे। इसके बाद ओम पुरी ने खालसा कॉलेज में दाखिला ले लिया। इस दौरान ओमपुरी एक वकील के यहां बतौर मुंशी काम करने लगे। इस बीच एक बार नाटक में हिस्सा लेने के कारण वह वकील के यहां काम पर नहीं गए।  बाद में वकील ने नाराज होकर उन्हें नौकरी से हटा दिया। जब इस बात का पता कॉलेज के प्राचार्य को चला तो उन्होंने ओमपुरी को केमिस्ट्री लैब में सहायक की नौकरी दे दी। इस दौरान ओमपुरी कॉलेज में हो रहे नाटकों में हिस्सा लेते रहे। यहां उनकी मुलाकात हरपाल और नीना तिवाना से हुई, जिनके सहयोग से वह पंजाब कला मंच नामक नाटच्य संस्था से जुड़ गए।
 लगभग तीन वर्ष तक पंजाब कला मंच से जुड़े रहने के बाद ओमपुरी ने दिल्ली में राष्ट्रीय नाटच्य विद्यालय में दाखिला ले लिया। इसके बाद अभिनेता बनने का सपना लेकर उन्होंने पुणे फिल्म संस्थान में दाखिला ले लिया। वर्ष 1976 में पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ओमपुरी ने लगभग डेढ़ वर्ष तक एक स्टूडियो में अभिनय की शिक्षा भी दी। बाद में ओमपुरी ने अपने निजी थिएटर ग्रुप मजमा की स्थापना की।  ओमपुरी ने अपने सिने करियर की शुरुआत वर्ष 1976 में प्रदíशत फिल्म ,घासीराम कोतवाल से की। मराठी नाटक पर बनी इस फिल्म में ओमपुरी ने घासीराम का किरदार निभाया था। इसके बाद ओमपुरी ने गोधूलि ,भूमिका ,भूख ,शायद ,सांच को आंच नहीं जैसी कला फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन इससे उन्हें कोई खास फायदा नही पहुंचा। वर्ष 1980 में प्रदíशत फिल्म आक्रोश ओम पुरी के सिने करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। गोविन्द निहलानी निर्देशित इस फिल्म में ओम पुरी ने एक ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया जिस पर पत्नी की हत्या का आरोप लगाया जाता है। फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए ओमपुरी सर्वŸोष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए।  वर्ष 1983 में प्रदíशत फिल्म  अर्धसत्य ओमपुरी के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में गिनी जाती है। फिल्म में ओमपुरी ने एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभाई थी। फिल्म में अपने विद्रोही तेवर के कारण ओमपुरी दर्शकों के बीच काफी सराहे गए। फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए वह सर्वŸोष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए।  वर्ष 1983 में प्रदíशत फिल्म जाने भी दो यारों ओम पुरी के सिने करियर की अहम फिल्मों में गिनी जाती है। इस फिल्म के जरिए उन्होंने यह साबित कर दिया कि उनकी अभिनय क्षमता सिर्फ विद्रोही या गुस्सैल इंसान की भूमिकाओं तक सीमित नहीं है। हास्य से भरपूर इस फिल्म में ओमपुरी ने जबदस्त हास्य अभिनय से दर्शकों को रोमांचित कर दिया।
अस्सी के दशक के आखिरी वषरे में ओमपुरी ने व्यावसायिक सिनेमा की ओर भी अपना रुख कर लिया। इस दौरान उन्हें न्यू दिल्ली टाइम्स, मरते दम तक ,इलाका ,घायल ,नरसिम्हा जैसी फिल्मों में काम करने का अवसर मिला जिसकी सफलता ने ओम पुरी को व्यावसायिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया।  ¨हदी फिल्मों के अलावा ओमपुरी ने पंजाबी फिल्मों में भी अभिनय किया है। इनमें चान परदेसी, लांग दा लश्कारा, बागी और यारियां जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल है। दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखते हुए नब्बे के दशक में ओमपुरी ने छोटे पर्दे की ओर भी रुख किया और, कक्काजी कहिन में अपने हास्य अभिनय से दर्शकों को दीवाना बना दिया।  ओमपुरी ने अपने करियर में कई हॉलीवुड फिल्मों में भी अभिनय किया है। इन फिल्मों में, ईस्ट इज ईस्ट, माई सन द फैनेटिक, द पैरोल ऑफिसर, सिटी ऑफ जॉय, वोल्फ, ,द घोस्ट एंड द डार्कनेस, चार्ली विल्सन वार जैसी फिल्में शामिल है।  ओमपुरी को अपने सिने करियर में कई सम्मान भी मिले। वर्ष 1982 में प्रदíशत आरोहन और वर्ष 1983 में फिल्म अर्धसत्य के लिए उन्हें सर्वŸोष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए 1990 में उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया गया। वर्ष 2009 में ओमपुरी फिल्म फेयर के लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए।  ओमपुरी ने अपने चार दशक लंबे सिने करियर में लगभग 200 फिल्मों में अभिनय किया। उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ है- अल्बर्ट ¨पटो को गुस्सा क्यों आता है, स्पर्श, कलयुग, विजेता,  गांधी मंडी, डिस्को डांसर, गिद्ध, होली, पार्टी, मिर्च मसाला, कर्मयोद्धा, द्रोहकाल, कृष्णा, माचिस, घातक, गुप्त, आस्था, चाची 420, चाइना गेट पुकार,  हेराफेरी, कुरुक्षेत्न, पिता, देव, युवा, हंगामा, मालामाल वीकली,  ¨सह इज ¨कग,  बोलो राम आदि।

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

अनेकता में एकता का प्रतीक, बस्तर का दशहरा

छत्तीसगढ़ के दण्डकारण्य के आदिवासी बाहुल्य बस्तर अंचल का 75 दिन चलने वाला बस्तर दशहरा मात्न एक पर्व और धाíमक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यहाँ रहने वाले विभिन्न वर्गो को एकता के सूत्र में बांधने वाला एक ऐसा अभियान है, जिसकी मिसाल विश्व के किसी भी राजवंश के इतिहास में देखने को नहीं मिलती है। बस्तर अंचल में जहां पर जाति व्यवस्था की जड़ंे बहुत गहरे तक जमीं हैं, जिससे कई जातियां आज भी परंपरागत रूढियों तथा छूआछूत तथा अंधविश्वासों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाई है। बस्तर के चालुक्य वंश के नरेशो ने इस समाज की कुल देवी मां मणिकश्वरी देवी को मां दंतेश्वरी के रूप में प्रतिष्ठापित किया और इन्हें श्रद्धा भक्ति एवं माई के वाíषकोत्सव बस्तर दशहरा से जोड़कर जातीय समभाव की एक ऐसी आदर्श परंपरा के रूप में स्थापित किया। जो गत 598 वषरे से भाई चारे और एकता की धारा के रूप में अबाध गति से निरंतर प्रवाहित हो रही है।
बस्तर के चालुक्य नरेशो के 624 वषरे के इतिहास में कोई ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक उपलब्धि माई दंतेश्वरी के दंतेवाडा और जगदलपुर स्थित मंदिरों के अलावा कुछ भी नहीं है, लेकिन अपनी कुल देवी के वाíषकोत्सव को जिस तरह से सूझ-बूझ के साथ जन जन की आंतरिक श्रद्धा और सहभागिता की भावना से संयोजित किया वह अदभुत है।

चालुक्य वंश के नरेशों ने क्षेत्रीय एकता की भावना का तिरोहण आदिदेवी मां दंतेश्वरी के प्रति श्रद्धा व भक्ति को इस रूप में किया कि जो मात्न राजा की भावना तक सीमित न रहकर जन जन की भावनाओं से जुड़ गया। इस वंश के नरेशों ने अपनी कुल देवी के वाíषक उत्सव में इस प्रकार के पूजा विधानों और अनुष्ठानों की व्यवस्था की, जिसमें बस्तर अंचल की समस्त जातियों के सम्मान की व्यवस्था है। प्रत्येक जाति और समाज के लोगों को इस वाíषकोत्सव में विभिन्न उत्तरदायित्वों को अधिकृत रूप से सौंपा गया है। जो संबंधित जाति के लिए जातीय गौरव सम्मान और प्रतिष्ठा का कारण बन गई है। बस्तर दशहरा मूल रूप से माई दंतेश्वरी आदि शक्ति की उपासना का वाíषकोत्सव है। उसका कोई भी सीधा संबंध राम कथा से नहीं है । इसलिए बस्तर दशहरा में रावण वध का कोई विधान नहीं है। बस्तरवासियों के लिए दशहरा शक्ति पूजा का माध्यम है। बस्तर दशहरा पर्व को संचालित करने और विशालकाय रथ की परिक्रमा के लिए समग्र व्यवस्था पूर्व नरेशों ने की थी। जिसके तहत रथ की लकडी ् निर्माण रस्सी बुनने रथ खींचने  सजावट भोजन ् स्वागत सत्कार बलि के बकरों की लाढी बाज गाजे परिक्रमा का संयोजन अनुष्ठान करने वाले जोगी आयोजन की अनुमति और काछनगादी व रैला पूजा किस क्षेत्न किन लोगों द्वारा की जाएगी कि व्यवस्था की गई है। लाखों लोगों की श्रध्दा से जुडे इस महापर्व की सुव्यवस्था भव्य स्वरूप और गरीमा पूर्ण संचालन के मूल में जातीय समभाव का ऐसा अद्भुत और आर्दश स्वरूप देखा जा सकता है जिसकी अन्य कोई मिसाल शायद ही अन्यत्र कहीं देखने को मिले। वषरे से इस जातीय समागम की जिस अनूठी परम्परा का सूत्रपात चालुक्य वंश के नरेशों ने बस्तर दशहरा के रूप में किया था, उसका संचालन आज भी प्रशासनिक स्तर पर उसकी सम्पूर्ण गरिमा भव्यता और आदर्श भावनाओं के साथ सतत रूप से किया जा रहा है। जिसकी अनुगूँज राष्ट की सीमा से परे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी सुनी जाने लगी है। इस महापर्व का अदभूत आकर्षण विदेशी सैलानियों, इतिहासकारों, पुरातात्विक विषेषज्ञों और समाजशाियों को बरबस बस्तर तक खींच लाता है। जो बस्तर दशहरा के महत्व को दर्शाने वाला ज्वंलत प्रतीक है।





बुधवार, 29 सितंबर 2010

निराशा में भी छिपी होती है आशा

 
 
जीत या हार, रहो तैयार रितु ने स्कूल से आकर बस्ते को एक तरफ फेंका और तेजी से अपने बेडरूम में चली गई। उसके चेहरे से गहरी उदासी साफ झलक रही थी। पापा ने कारण पूछा, तो रितु ने कहा-आई एम द लूजर पापा, मैं मैथ में कभी अच्छे अंक नहीं ला सकती। क्यों? पापा ने सवाल किया। ..क्योंकि इस बार भी मेरे गणित में कम नंबर आए, जाहिर है मैं मैथ में हमेशा जीरो रहूंगी। तुम्हें क्या लगता है, रितु को खुद को लूजर कहना चाहिए? अब तनु को ही लो, वह अक्सर इस बात से अपसेट हो जाती है कि उसे उसके दोस्त मोटी कहते हैं। और जानते हो, केवल इस बात से उसने अपनी पूरी लाइफ ही बेकार मान ली। दोस्तो, हर चीज हमारी सोच के मुताबिक नहीं होती। ऐसे में जाहिर है दुख तो होगा ही, लेकिन केवल टेंशन लेने या खुद को कमजोर मान लेने से तो हमारा ही नुकसान होगा। हम ऐसी प्रॉब्लम्स को कैसे मैनेज करें? ऐसा मैनेजमेंट जिसकी बदौलत हमारा आत्मविश्वास बरकरार रहे और हमें इस बात का पक्का भरोसा हो कि किसी भी समस्या के आगे हम घुटने नहीं टेकेंगे। यदि इस बारे में तुम्हारे मन में हैं ढेरों सवाल, तो हाजिर हैं वे खास टिप्स, जिन्हें अमल में लाने पर तुम्हारी टेंशन हो जाएगी छू-मंतर..
कम्युनिकेशन जरूरी
किसी ने तुम्हारा दिल दुखाया हो या तुम्हें लगा हो कि अमुक व्यक्ति की वजह से तुम्हारा जरूरी काम बिगड गया, तो उन्हें बता दो न। क्या सोचते हो? इससे उनका दिल दुखा दोगे तुम और बात बिगड जाएगी? बिल्कुल गलत। दरअसल, तुम अपनी बात कैसे कहते हो, यह तरीका जानना सबसे जरूरी है। वह चाहे बोलकर हो या लिखकर। पत्र या ईमेल के माध्यम से, फोन पर या सामने, तुम्हें अपनी बात का टोन धीमा रखना चाहिए। किसी ने जो बात कही, उस पर फोकस करने की बजाय, तुम्हें उससे क्या तकलीफ पहुंची और क्यों, यह साफ करना जरूरी है। सावधान, बॉडी-लैंग्वेज से कभी यह मत शो करो कि गलती किसकी है। इसके बाद जब तुम्हें लगे कि बात असर कर रही है, तो एक प्यार भरी झप्पी या मीठे स्वर में थैंक्यू कहना काफी है। फिर देखो, कमाल होता है या नहीं।
सेल्फ टॉक जरूरी
हम किसी भी घटना या समस्या को किस तरह से लेते हैं, क्या अर्थ निकालते हैं? उसी सवाल पर टिकी होती है उस घटना पर आधारित हमारी फीलिंग्स। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह हमारा स्वभाव होता है कि प्रॉब्लम सामने आते ही हम अक्सर निगेटिव सोचने लगते हैं। ऐसे में हर किसी को सेल्फ-टॉक यानी खुद से बात करनी चाहिए। यदि गंभीरतापूर्वक ऐसा करें, तो हम खुद देखते हैं कि प्रॉब्लम का एक बढिया सॉल्यूशन निकल आता है।
शेयर करो
निराशा हावी होने पर तुम्हारे सारे काम प्रभावित हो सकते हैं। ऐसे में बेहतर यही होगा, जिनसे मिलकर अच्छा लगे, उनसे अपनी प्रॉब्लम शेयर करो। वे तुम्हारे पैरेंट्स हो सकते हैं, दोस्त अथवा भाई-बहन भी या कोई और। हो सकता है कि इनके पास हो तुम्हारी परेशानी का बेस्ट सॉल्यूशन। ऐसा सॉल्यूशन, जिसके बारे तुमने कभी विचार ही न किया हो! हां, यदि तुम प्रोफेशनल हेल्प लेना चाहते हो, तो इसमें कोई बुराई नहीं। 
घटना का क्या अर्थ निकालते हैं, यह बात घटना से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
अच्छी बुक्स, प्रेरक व्यक्ति से बातचीत है जरूरी।
प्रोफेशनल हेल्प लेने में कोई बुराई नहीं।
योगा और मेडिटेशन दिनचर्या में हो शामिल।
बचना एकरसता से
इन दिनों ज्यादातर टीनएजर्स की जीवन-शैली स्कूल से घर, फिर कम्प्यूटर, वीडियो-गेम और टेलीविजन तक सीमित हो गई है। यदि तुम्हारी दिनचर्या भी ऐसी ही है, तो प्लीज आज ही इसे बदल डालो। जिस गेम में रुचि हो, मसलन, क्रिकेट, फुटबॉल, बॉस्केटबॉल जमकर खेलो। यदि एक्सरसाइज और योगा में दिलचस्पी है, तो तुम्हें इन्हें एक बार आजमा कर जरूर देखना चाहिए। हां, पास-पडोस में होने वाले आयोजनों व समारोहों में भाग लेने और लोगों से मिलने-जुलने से भी तुम्हें काफी अच्छा लगेगा।
आज हमारी लाइफ जरूर बहुत फास्ट हो गई है, लेकिन क्या तुम्हें नहीं लगता कि इसे तुम अपने अंदाज में जी सकते हो? तो फिर देर किस बात की, आज ही यह संकल्प लो कि टेंशन को कहोगे बाय और हर परिस्थिति के लिए रहोगे हरदम तैयार..।
सीमा झा

शनिवार, 25 सितंबर 2010

मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में ..


स्टेज से अपने कैरियर की शुरुआत करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने वाले वॉलीवुड के प्रसिद्ध पाश्र्वगायक कुमार शानू आज भी अपने कर्णप्रिय गानों से श्रोताओं के दिलों पर राज करते हैं । कुमार शानू मूल नाम  केदारनाथ भटृाचार्य  का जन्म २२ सितंबर १९५७ को कोलकाता में हुआ। उनके पिता पशुपति भटृाचार्य वादक और संगीतकार थे। बचपन से ही कुमार शानू का रूझान संगीत की ओर था और वह पाश्र्वगायक बनने का सपना देखा करते थे। उनके पिता ने संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को देखते हुए पुत्न को तबला और गायन सीखने की अनुमति दे दी। कुमार शानू ने अपनी स्नातक की पढ़ाई कोलकाता यूनिवíसटी से पूरी की ।इसके बाद उन्हें कोलकाता के कई कार्यक्रमों में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला। किशोर कुमार से प्रभावित रहने के कारण कुमार शानू उनकी आवाज में ही कार्यक्रमों में गीत गाया करते थे। अस्सी के दशक में बतौर पाश्र्वगायक बनने का सपना लेकर वह मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद कुमार शानू को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आश्वासन तो कई देते लेकिन फिल्म में काम करने का अवसर नही मिल पाता ।इस दौरान उनकी मुलाकात जाने माने गजल गायक और संगीतकार जगजीत ¨सह से हुई जिनकी सिफारिश पर उन्हें फिल्म .आ¨धया .में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला ।
 वर्ष १९८९ में प्रदíशत फिल्म .आंधिया .की असफलता से कुमार शानू को गहरा सदमा पहुंचा । इस बीच उनकी मुलाकात संगीतकार कल्याणजी आनंद जी से हुई । कल्याण जी.आनंद जी ने उनका नाम केदारनाथ भटृाचार्य से बदलकर कुमार शानू दिया और उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्म जादूगर में पार्श्‍वगायन करने का अवसर दिया । हालांकि दुर्भाग्य से यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर असफल साबित कुमार शानू की किस्मत का सितारा वर्ष 1991 में प्रदíशत फिल्म .आशिकी .से चमका। बेहतरीन गीत.संगीत से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने न सिर्फ अभिनेता राहुल राय .गीतकार समीर और संगीतकार नदीम.श्रवण को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया बल्कि पाश्र्वगायक कुमार शानू को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया । फिल्म के सदाबहार गीत आज भी दर्शकों और श्रोताओं को मंत्नमुग्ध कर देते हैं । नदीम श्रवण के संगीत निर्देशन में कुमार शानू की आवाज में रचा बसा सांसो की जरूरत हो जैसे .नजर के सामने जिगर के पार .अब तेरे बिन जी लेंगे हम .धीरे धीरे से मेरी ¨जदगी में आना .मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में .श्रोताओ के बीच काफी लोकप्रिय हुए जिन्होंने फिल्म को सुपरहिट बनाने में अहम भूमिका निभाई ।
 फिल्म आशिकी की सफलता के बाद कुमार शानू को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए .सड़क .साजन .दीवाना .बाजीगर .जैसी बड़े बजट की फिल्में शामिल थी। इन फिल्मों की सफलता के बाद कुमार शानू ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढक़र एक गीत गाकर श्रोताओं को मंत्नमुंग्ध कर दिया । फिल्म .आशिकी .की सफलता के बाद संगीतकार नदीम.श्रवण कुमार शानू के प्रिय संगीतकार बन गए। इसके बाद कई फिल्मों में उनकी जोड़ी ने अपने गीत संगीत के जरिए श्रोताओं को मंत्नमुग्ध किया । उनकी जोड़ी वाली गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा दिल भी कितना पागल है .जीये तो जीये कैसे .साजन .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .दिल नजर जिगर क्या है .दिल का क्या कसूर .घँूघट की आड़ में दिलबर का दीदार अधूरा रहता है .हम है राही प्यार के .दो दिल मिल रहे है .परदेस .जबसे तुमको देखा है सनम .दामिनी.सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .दीवाना .परदेसी परदेसी जाना नही .राजा ¨हदुस्तानी .दिल है कि मानता नही .दिल है कि मानता नही .जब जब %यार पे पहरा हुआ है .सड़क .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .चेहरा क्या देखते हो दिल में उतरकर देखो ना .सलामी .जैसे कई सुपरहिट गीत शामिल ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में लगातार पांच बार सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के तौर पर फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीíतमान कुमार शानू के नाम दर्ज है । उन्हें सबसे पहले वर्ष १९९क् में प्रदíशत फिल्म.आशिकी., के गीत .अब तेरे बिन जी लेगें हम .के लिए यह अवार्ड दिया गया था। इसके बाद वर्ष १९९१ .साजन .मेरा दिल भी कितना पागल है .वर्ष १९९२ .दीवाना .सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .वर्ष १९९३ .बाजीगर .ये काली काली आंखे .वर्ष १९९४ .१९४२ ए लव स्टोरी .एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा .के लिए भी कुमार शानू सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए । वर्ष १९९३ में एक दिन मे २८ गाने रिकार्ड करने का कीíतमान भी कुमार शानू बना चुके है। इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज किया गया ।भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए २क्क्९ में उन्हें देश के चौथे सबसे बडे नागरिक सम्मान पदमश्री से अलंकृत किया गया। आमिर खान .शाहरूख खान जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले कुमार शानू ने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कैरियर में लगभग ८क्क्क् फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये हैं। उन्होंनें हिन्दी के अलावा बंगला फिल्मों के गीतों को भी अपना स्वर दिया है । कुमार शानू ने अपने करियर में लगभग ४क्क् फिल्मों में पाश्र्वगायन किया है । उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में .बहार आने तक .साथी .फूल और कांटे .खिलाड़ी .बोल राधा बोल.सर .दलाल .ये दिल्लगी , मोहरा.बरसात.अग्निसाक्षी.जीत.विरासत.जुड़वा.गुप्त, इश्क .गुलाम .सोल्जर .दिलवाले दुल्हिनियां ले जाएगे .कुछ कुछ होता है .आ अब लौट चले .सरफरोश .बीवी नंबर वन .हम दिल दे चुके सनम .हसीना मान जाएगी .वास्तव .हम साथ साथ है .कहो ना %यार है .दुल्हन हम ले जाएगे .धड़कन .कुरूक्षेत्न .कसूर .अजनबी .देवदास .अंदाज .फिदा और .वेवफा .आदि शामिल है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में ..


स्टेज से अपने कैरियर की शुरुआत करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने वाले वॉलीवुड के प्रसिद्ध पाश्र्वगायक कुमार शानू आज भी अपने कर्णप्रिय गानों से श्रोताओं के दिलों पर राज करते हैं । कुमार शानू मूल नाम  केदारनाथ भटृाचार्य  का जन्म २२ सितंबर १९५७ को कोलकाता में हुआ। उनके पिता पशुपति भटृाचार्य वादक और संगीतकार थे। बचपन से ही कुमार शानू का रूझान संगीत की ओर था और वह पाश्र्वगायक बनने का सपना देखा करते थे। उनके पिता ने संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को देखते हुए पुत्न को तबला और गायन सीखने की अनुमति दे दी। कुमार शानू ने अपनी स्नातक की पढ़ाई कोलकाता यूनिवíसटी से पूरी की ।इसके बाद उन्हें कोलकाता के कई कार्यक्रमों में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला। किशोर कुमार से प्रभावित रहने के कारण कुमार शानू उनकी आवाज में ही कार्यक्रमों में गीत गाया करते थे। अस्सी के दशक में बतौर पाश्र्वगायक बनने का सपना लेकर वह मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद कुमार शानू को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आश्वासन तो कई देते लेकिन फिल्म में काम करने का अवसर नही मिल पाता ।इस दौरान उनकी मुलाकात जाने माने गजल गायक और संगीतकार जगजीत ¨सह से हुई जिनकी सिफारिश पर उन्हें फिल्म .आ¨धया .में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला ।
 वर्ष १९८९ में प्रदíशत फिल्म .आंधिया .की असफलता से कुमार शानू को गहरा सदमा पहुंचा । इस बीच उनकी मुलाकात संगीतकार कल्याणजी आनंद जी से हुई । कल्याण जी.आनंद जी ने उनका नाम केदारनाथ भटृाचार्य से बदलकर कुमार शानू दिया और उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्म जादूगर में पार्श्‍वगायन करने का अवसर दिया । हालांकि दुर्भाग्य से यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर असफल साबित कुमार शानू की किस्मत का सितारा वर्ष 1991 में प्रदíशत फिल्म .आशिकी .से चमका। बेहतरीन गीत.संगीत से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने न सिर्फ अभिनेता राहुल राय .गीतकार समीर और संगीतकार नदीम.श्रवण को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया बल्कि पाश्र्वगायक कुमार शानू को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया । फिल्म के सदाबहार गीत आज भी दर्शकों और श्रोताओं को मंत्नमुग्ध कर देते हैं । नदीम श्रवण के संगीत निर्देशन में कुमार शानू की आवाज में रचा बसा सांसो की जरूरत हो जैसे .नजर के सामने जिगर के पार .अब तेरे बिन जी लेंगे हम .धीरे धीरे से मेरी ¨जदगी में आना .मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में .श्रोताओ के बीच काफी लोकप्रिय हुए जिन्होंने फिल्म को सुपरहिट बनाने में अहम भूमिका निभाई ।
 फिल्म आशिकी की सफलता के बाद कुमार शानू को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए .सड़क .साजन .दीवाना .बाजीगर .जैसी बड़े बजट की फिल्में शामिल थी। इन फिल्मों की सफलता के बाद कुमार शानू ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढक़र एक गीत गाकर श्रोताओं को मंत्नमुंग्ध कर दिया । फिल्म .आशिकी .की सफलता के बाद संगीतकार नदीम.श्रवण कुमार शानू के प्रिय संगीतकार बन गए। इसके बाद कई फिल्मों में उनकी जोड़ी ने अपने गीत संगीत के जरिए श्रोताओं को मंत्नमुग्ध किया । उनकी जोड़ी वाली गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा दिल भी कितना पागल है .जीये तो जीये कैसे .साजन .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .दिल नजर जिगर क्या है .दिल का क्या कसूर .घँूघट की आड़ में दिलबर का दीदार अधूरा रहता है .हम है राही प्यार के .दो दिल मिल रहे है .परदेस .जबसे तुमको देखा है सनम .दामिनी.सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .दीवाना .परदेसी परदेसी जाना नही .राजा ¨हदुस्तानी .दिल है कि मानता नही .दिल है कि मानता नही .जब जब %यार पे पहरा हुआ है .सड़क .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .चेहरा क्या देखते हो दिल में उतरकर देखो ना .सलामी .जैसे कई सुपरहिट गीत शामिल ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में लगातार पांच बार सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के तौर पर फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीíतमान कुमार शानू के नाम दर्ज है । उन्हें सबसे पहले वर्ष १९९क् में प्रदíशत फिल्म.आशिकी., के गीत .अब तेरे बिन जी लेगें हम .के लिए यह अवार्ड दिया गया था। इसके बाद वर्ष १९९१ .साजन .मेरा दिल भी कितना पागल है .वर्ष १९९२ .दीवाना .सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .वर्ष १९९३ .बाजीगर .ये काली काली आंखे .वर्ष १९९४ .१९४२ ए लव स्टोरी .एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा .के लिए भी कुमार शानू सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए । वर्ष १९९३ में एक दिन मे २८ गाने रिकार्ड करने का कीíतमान भी कुमार शानू बना चुके है। इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज किया गया ।भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए २क्क्९ में उन्हें देश के चौथे सबसे बडे नागरिक सम्मान पदमश्री से अलंकृत किया गया। आमिर खान .शाहरूख खान जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले कुमार शानू ने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कैरियर में लगभग ८क्क्क् फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये हैं। उन्होंनें हिन्दी के अलावा बंगला फिल्मों के गीतों को भी अपना स्वर दिया है । कुमार शानू ने अपने करियर में लगभग ४क्क् फिल्मों में पाश्र्वगायन किया है । उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में .बहार आने तक .साथी .फूल और कांटे .खिलाड़ी .बोल राधा बोल.सर .दलाल .ये दिल्लगी , मोहरा.बरसात.अग्निसाक्षी.जीत.विरासत.जुड़वा.गुप्त, इश्क .गुलाम .सोल्जर .दिलवाले दुल्हिनियां ले जाएगे .कुछ कुछ होता है .आ अब लौट चले .सरफरोश .बीवी नंबर वन .हम दिल दे चुके सनम .हसीना मान जाएगी .वास्तव .हम साथ साथ है .कहो ना %यार है .दुल्हन हम ले जाएगे .धड़कन .कुरूक्षेत्न .कसूर .अजनबी .देवदास .अंदाज .फिदा और .वेवफा .आदि शामिल है।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

क्या आप जानते हैं?

 
·        क्या आपने कभी यह समाचार पढ़ा कि किसी मुस्लिम राष्ट्र का कोई प्रधानमंत्री या बड़ा नेता तोकियो की यात्रा पर गया हो?
·        क्या आपने कभी किसी अखबार में यह भी पढ़ा कि ईरान अथवा सऊदी अरब के राजा ने जापान की यात्रा की हो?
 
कारण
·        दुनिया में केवल जापान ही एक ऐसा देश है जो मुसलमानों को जापानी नागरिकता नहीं देता है।
·        जापान में अब किसी भी मुसलमान को स्थायी रूप से रहने की इजाजत नहीं दी जाती है।
·        जापान में इस्लाम के प्रचार-प्रसार पर कड़ा प्रतिबंध है।
·        जापान के विश्वविद्यालयों में अरबी या अन्य इस्लामी राष्ट्रों की भाषाएं नहीं पढ़ायी जातीं।
·        जापान में अरबी भाषा में प्रकाशित कुरान आयात नहीं की जा सकती है।
 
इस्लाम से दूरी
·        सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जापान में केवल दो लाख मुसलमान हैं।
·        और ये भी वही हैं जिन्हें जापान सरकार ने नागरिकता प्रदान की है।
·        सभी मुस्लिम नागरिक जापानी बोलते हैं और जापानी भाषा में ही अपने सभी मजहबी व्यवहार करते हैं।
·        जापान विश्व का ऐसा देश है जहां मुस्लिम देशों के दूतावास न के बराबर हैं।
·        जापानी इस्लाम के प्रति कोई रुचि नहीं रखते हैं।
·        आज वहां जितने भी मुसलमान हैं वे ज्यादातर विदेशी कम्पनियों के कर्मचारी ही हैं।
·        परन्तु आज कोई बाहरी कम्पनी अपने यहां से मुसलमान डाक्टर, इंजीनियर या प्रबंधक आदि को वहां भेजती है तो जापान सरकार उन्हें जापान में प्रवेश की अनुमति नहीं देती है।
·        अधिकतर जापानी कम्पनियों ने अपने नियमों में यह स्पष्ट लिख दिया है कि कोई भी मुसलमान उनके यहां नौकरी के लिए आवेदन न करे।
·        जापान सरकार यह मानती है कि मुसलमान कट्टरवाद के पर्याय हैं इसलिए आज के इस वैश्विक दौर में भी वे अपने पुराने नियम नहीं बदलना चाहते हैं।
·        जापान में किराए पर किसी मुस्लिम को घर मिलेगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
·        यदि किसी जापानी को उसके पड़ोस के मकान में अमुक मुस्लिम के किराये पर रहने की खबर मिले तो सारा मोहल्ला सतर्क हो जाता है।
·        जापान में कोई इस्लामी या अरबी मदरसा नहीं खोल सकता है।
 
मतांतरण पर रोक
·        जापान में मतान्तरण पर सख्त पाबंदी है।
·        किसी जापानी ने अपना पंथ किसी कारणवश बदल लिया है तो उसे और साथ ही मतान्तरण कराने वाले को सख्त सजा दी जाती है।
·        यदि किसी विदेशी ने यह हरकत की होती है उसे सरकार कुछ ही घंटों में जापान छोड़कर चले जाने का सख्त आदेश देती है।
·        यहां तक कि जिन ईसाई मिशनरियों का हर जगह असर है, वे जापान में दिखाई नहीं देतीं।
·        वेटिकन के पोप को दो बातों का बड़ा अफसोस होता है। एक तो यह कि वे 20वीं शताब्दी समाप्त होने के बावजूद भारत को यूनान की तरह ईसाई देश नहीं बना सके। दूसरा यह कि जापान में ईसाइयों की संख्या में वृध्दि नहीं हो सकी।
·        जापानी चंद सिक्कों के लालच में अपने पंथ का सौदा नहीं करते। बड़ी से बड़ी सुविधा का लालच दिया जाए तब भी वे अपने पंथ के साथ धोखा नहीं करते हैं।
·        जापान में 'पर्सनल ला' जैसा कोई शगूफा नहीं है।
·        यदि कोई जापानी महिला किसी मुस्लिम से विवाह कर लेती है तो उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है।
·        जापानियों को इसकी तनिक भी चिंता नहीं है कि कोई उनके बारे में क्या सोचता है।
·        तोकियो विश्वविद्यालय के विदेशी अध्ययन विभाग के अध्यक्ष कोमिको यागी के अनुसार, इस्लाम के प्रति जापान में हमेशा यही मान्यता रही है कि वह एक संकीर्ण सोच का मजहब है। उसमें समन्वय की गुंजाइश नहीं है।
·        स्वतंत्र पत्रकार मोहम्मद जुबेर ने 9/11 की घटना के पश्चात अनेक देशों की यात्रा की थी। वह जापान भी गए, लेकिन वहां जाकर उन्होंने देखा कि जापानियों को इस बात पर पूरा भरोसा है कि कोई आतंकवादी उनके यहां पर भी नहीं मार सकता।
 
सन्दर्भ
·        जापान सम्बंधी इस चौंका देने वाली जानकारी के स्रोत हैं शरणार्थी मामले देखने वाली संस्था 'सॉलीडेरिटी नेटवर्क' के महासचिव जनरल मनामी यातु।
·        मुजफ्फर हुसैन द्वारा लिखित लेख के कुछ मुख्य बिन्दु जो कि पांचजन्य, के 30 मई, 2010 के अंक से लिए गए हैं।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

हिंसा की आग में धधकता मणिपुरी बच्चों का कल

 

 
शिरीष खरे
 
मणिपुर में उग्रवाद और उग्रवाद के विरोध में जारी हिंसक गतिविधियों के चलते बीते कई दशकों से बच्चे हिंसा की कीमत चुके रहे हैं. यह सीधे तौर से हिंसक गतिविधियों तो कहीं-कहीं गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण की तरफ धकेले जा रहे हैं. राज्य में स्थितियां तनावपूर्ण होते हुए भी कई बार नियंत्रण में तो बनी रह जाती हैं, मगर स्कूल और स्वस्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी ढ़ांचे कुछ इस तरह से चरमराए हुए हैं कि लोगों का विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है.

बच्चों के हकों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई हिंसा से सबसे ज्य़ादा प्रभावित तीन जिलों चन्देल, थौंबल और चुराचांदपुर में सक्रिय है. इसके द्वारा जगह-जगह बच्चों के सुरक्षा समूह बनाये जा रहे हैं. यहां की आदिवासी दुनिया के भीतर मौजूद अलग-अलग समुदायों में आपसी तनाव बहुत ज्यादा हैं, ऐसे बहु जातीय समूहों में रहने वाले बच्चों के बीच से डर और भेदभाव दूर करने और उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है. क्राई से असीम घोष ने बताया कि ‘‘यहां के बच्चे डर, अनहोनी, अनिश्चिता और हिंसा के साए में लगातार जी रहे हैं, यहां जो माहौल है उसमें बच्चे अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं. इसलिए कार्यशालाओं के पहले स्तर में हमारी कोशिश बच्चों के लिए सुरक्षित महौल बनाने की रहती है, जहां वह बेझिझक होकर अपनी बात कह सकें और दूसरे आदिवासी समुदायों के बच्चों के साथ घुल-मिल पाएं. इन कार्यशालाओं को पूरे प्रदेश भर में फैले हिंसा और उसके चलते होने वाले तनावों से उभरने के लिए एक शांतिपूर्ण प्रक्रिया के रुप में भी देखा जा सकता है.’’

मणिपुर में बच्चों के हिंसा के प्रभाव से बचाने के लिए नागरिक समूहों के आगे आने की संभावनाएं प्रबल हो रही है. इन दबाव समूहों ने बीते लंबे अरसे से राष्ट्रीय स्तर पर जैसे कि बच्चों के अधिकारों के सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग और संबंधित मंत्रालयों पर इस बात के लिए दबाव बढ़ाया है कि वह मणिपुर में हिंसा से प्रभावित बच्चों की समस्याओं और जरूरतों को वरीयता दें. अहम मांगों में यह भी शामिल है कि अतिरिक्त न्यायिक शक्ति प्राप्त सेना यह सुनिश्चित करे कि हिंसा और आघातों के बीच किसी भी कीमत पर बच्चों को निशाना नहीं बनाया जाएगा. इसी के साथ राज्य में किशोर अधिनियम से प्रावधानों (Juvenile Justice Care and Protection Act, 2000 and its amendments enacted in 2006) के अनुसार किशोर न्याय प्रणाली को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जाएगा. इसके अलावा यहां राज्य के अधिकारियों पर सार्वजनिक सुविधाओं पर निवेश बढ़ाने, योजनाओं के क्रियान्वयन को सुदृढ़ बनाने और अधिकारों से संबंधित सेवाओं जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, बच्चों के लिए ART यानी एंटी रेट्रोविरल थेरेपी और स्कूल की व्यवस्थाओं को दुरुस्त बनाने के लिए भी दबाव बढ़ाया जा रहा है. असल में यहां प्राथमिकता के स्तर पर अधिकारों से संबंधित सेवाओं को दुरुस्त बनाने के दृष्टिकोण को सैन्य आधारित दृष्टिकोण से ऊपर रखे जाने की जरूरत है.

मणिपुर में आंतकवाद से संबंधित घातक परिणामों के चलते 1992-2006 तक 4383 लोग भेट चढ़ गए हैं. जम्मू-काश्मीर और असम के बाद मणिपुर देश के सबसे हिंसक संघर्ष का इलाका बन चुका है. अन्तर जातीय संघर्ष और विद्रोह की वजह से 1950 को भारत सरकार ने इस राज्य में (Armed Forces Special Power Act) यानी सशक्त्र बलों के विशेष शक्ति अधिनियम लागू किया. इस अधिनियम ने विशेष बलों को पहली बार नागरिकों पर सीधे-सीधे हमले की शक्ति दी गई, जो कि सुरक्षा बलों के लिए प्रभावी ढंग से व्यापक शक्तियों में रूपान्तरित हो गईं. यहां जो सामाजिक सेवाएं हैं, वह भी फिलहाल अपनी बहाली के इन्तजार में हैं, जहां स्कूल और आंगनबाड़ियां सही ढ़ंग से काम नहीं कर पा रही हैं, वहीं जो थोड़े बहुत स्वास्थ्य केन्द्र हैं वह भी संसाधनों से विहीन हैं. प्रसव के दौरान चिकित्सा व्यवस्था का अकाल पड़ा रहता है. न जन्म पंजीकरण हो रहा है और न जन्म प्रमाण पत्र बन रहा है. अनाथ बच्चों की संख्या में बेहताशा बढ़ोतरी हो रही है, बाल श्रम और तस्करी को नए पंख लग गए हैं और बर्बादी की कगार तक पहुंच गए परिवारों के बच्चे वर्तमान हिंसक संघर्षों का हिस्सा बन रहे हैं. जबकि बच्चों के लिए खेलने और सार्वजनिक तौर पर आपस में मिलने के सुरक्षित स्थानों का पता तो बहुत पहले ही खो चुका था.

गैर सरकारी संगठनों के अनुमान के मुताबिक मणिपुर में व्याप्त हिंसा के चलते 5000 से ज्यादा महिलाएं विधवा हुई हैं, और 10000 से ज्यादा बच्चे अनाथ हुए हैं. अकेले जनवरी- दिसम्बर 2009 के आकड़े देखें जाए तो सुरक्षा बलों द्वारा 305 लोगों को कथित तौर पर मुठभेड़ में मार गिराए जाने का रिकार्ड दर्ज है. बंदूकी मगर गैर राजकीय हिंसक गतिविधि में 139 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है. विभिन्न हथियारबन्द वारदातों के दौरान 444 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है. जबकि नवम्बर 2009 तक कुल 3348 मामले दर्ज किए गए हैं. लड़कियों के खिलाफ अपराध के मामले देखें तो 2007 से 2009 तक कुल 635 मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें 24 हत्याओं और 86 बलात्कार के मामले हैं. बाल तस्करी का हाल यह है कि जनवरी 2007 से जनवरी 2009 तक अखबारों में प्रकाशित रिपोर्ट आधार पर 198 बच्चे तस्करी का शिकार हुए हैं. बाल श्रम के आकड़ों पर नज़र डाले तो 2007 को श्रम विभाग, मणिपुर द्वारा कराये गए सर्वे में 10329 बाल श्रमिक पाए गए हैं. जहां तक स्कूली शिक्षा की बात है तो सितम्बर 2009 से जनवरी 2010 तक 4 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूलों में हाजिर नहीं हो सके हैं. दरअसल लंबे अरसे से यहां हिंसा को रोकने और राजकीय सेवाओं के दोबारा बहाल किये जाने के लिए सरकार पर गैर सैन्य उपायों पर सोचने के लिए दबाब बनाया जा रहा है.

मणिपुर सेना से मुक्त कब होगा इस बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता है मगर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राज्य में तैनात सेना को स्कूल खाली करने का आदेश जरूर दिया है. गौर करने लायक बात यह है कि मणिपुर के असंख्य स्कूलों का उपयोग सेना द्वारा सराय के रुप में किया जा रहा है. अगर सेना सुप्रीम कोर्ट के दिये गए आदेश को ही माने तो भी यहां के बहुत सारे बच्चों के लिए कम से कम पढ़ने-लिखने की जगह तो खाली होगी.
 
शिरीष खरे