रविवार, 3 मार्च 2024

सुनो भाई उधो ....सपना सरकस के

 सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो, जब सर्कस के पिंजरे से शेर निकल कर भाग जाए तब क्या हालत होती होगी दर्शकों की, शहर वालों की? ऐसा ही हो रहा है आज। देहली सर्कस एण्ड  कंपनी का एक खूंखार चीता रिंग मास्टर के हंटर से चमक कर सुरक्षा घेरे से बाहर आ गया है। फिर क्या था अपने आक्रामक तेवर का प्रदर्शन करते हुए बड़े-बड़ों को ऐसे लहूलुहान कर रहा है जिसकी किसी को कल्पना नहीं थी। उस चीते को सभी प्यार से 'ईडी' कहकर पुकारते हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख-

- अरे भागव रे, भागव, जी परान बचाना हे तब ए तीर ले भागव।

 - काबर भागबो जी ए तीर ले, का होगे हे तेमा भागबो?

- नइ भागव तब जाव मरव रे सारे हो, तुंहर मन के रई आगे हे तेला कोनो नइ बचा सकय?

- अरे का बात होगे हे तेला बताबे ते बस कुकुर मांस खाय बरोबर बड़बड़ावत रहिबे? 

-नइ मानव न मोर बात ल, सारी दुनिया जानगे हे, देशभर के अउ गांव भर के मनखे जानगे हे फेर तुंहर असन मूर्ख मनखे मैं कहूं नइ देखे हौं, अतेक अंधरा, अतेक अड़ानी होके नइ रहना चाही?

- अरे परलोखिहा सारे नइ तो हो जइसे रावन, कंस, दुरजोधन, दुशासन अऊ बड़े-बड़े राक्षस मन के नांव ल सुन के रिसि-मुनि, गियानी अउ आम आदमी कांपय तइसने कस अभू होवत हे। 

ये मेहतरु जकहा-बकहा के मुंह ले अइसन बात सुन के दइहान मं सकलाय राहय तउन मन कहिथे, तुंहर मन के समझ मं आथे गा, एकर बात हा? 

परसादी कहिथे- कोन जनी बुजा हा का कहिथे, का बकथे ते कुछु समझ नइ परय? 

समारु, चिंता, रामनाथ, गोविंद, ईश्वर अउ कन्हैया घला परसादी के बात के समरथन करत कहिथे- कोन जनी ओहर का देख परे हे, सुन डरे हे ते झझके असन बड़बड़ावत हे। 

उही तीर सरपंच जगमोहन रिहिसे तउन कहिथे- राहौ तो गा राहौ,एकदम से हड़बावौ झन। उहू लइका, हा कुछु देखे, सुने, पढ़े होही, कोनो मेर तभे अइसन झझखे हे, डरे हे, तभे तो काहत हे भागव... भागव...। ओला तीर के बला लौ अउ पूछव का बात हे बेटा, काबर, का जिनिस हे तेला देखके तैं झझक गे स?

सरपंच जगमोहन ओ लइका ल तीर मं बलइस, ओकर बर पानी मंगइस। एक गिलास पानी ल गटागट ओहर पीगे। 

सरपंच पूछथे- हां, बता बेटा, का बात हे, काबर सब झन ल भागव... भागव... भागव... काहत हस?

ये बेटा के नांव हे मेहतरु, बने हट्टा-कट्टा, नौजवान हे कोनो जोजवा-भोकवा नइहे। ओहर सरपंच ल बताथे- का बतावौं मालिक, रात के एक ठन भयंकर सपना देख परे हौं।

- का सपना रे, सरपंच हा पूछथे। अब ओ तीर सुनइया मन के मजमा लग जथे अउ सब कान देके ओकर बात ल सुने ले धर लिन जइसे कोनो रहस्य-रोमांच के बात सुनावत हे?

- हां, त बता बेटा मेहतरु का अइसे भयंकर सपना देख डरे के अतेक हड़बड़ागे हस?

- हड़बड़ाय के लइक सपना रिहिस हे, तैं नइ पतियाबे, गउकिन काहत हौं गा, ओ भयंकर सपना ल देखत-देखत डर के मारे मूत (पेशाब) घला कर डरेंव। 

सुनत राहय तउन चंगू-मंगू मन जोर से खिलखिला के हांस भरथे, कठल जथे। कोनो-कोनो कहिथे- ये सारे मेहतरु हा लबारी मारत हे, चुतिया बनावत हे, नइ देखे हे अइसन कोनो सपना, एकर बात मं कोनो झन आहौ। लफंगा हे, झूठ-मूठ के बात बनावत, बेंझावत हे। 

सरपंच कहिथे- राहौ तो गा, थोकन चुप तो राहौ। का काहत हे एहर तउन ल सुन तो लौ?

-हां त बता बेटा मेहतरु, का देखे भयंकर सपना मं?

 -मेहतरु- अरे बाप रे, का बतावौं मालिक, दिल्ली मं सरकस होवत हे तिहां के रिंग मास्टर के हंटर खाके चीता अतेक बौखला गे, सब पंडाल मन ल टोरटार के ऐती-ओती जिहां पावत हे जात हे राड़ छड़ावत हे। सब जी परान दे के एती-ओती भागत हे।

रामनाथ पूछथे- तोर ये सपना सही हे के अइसन डेर्रावत हस?

मेहतरु बताथे- मोला का लेना-देना हे भइया ककरो से। बिहनिया मोर नींद खुलिस तब देखथौं, ओ चीता नोहय, ओ ईडी हे। आईटी, सीबीआई पुलिस घला हे ओकर संग मं। जेन मोटहा आसामी हे, जनता के धन ल लूट-लूट के खाय हे, भोभस मं भरे हे तेकर इहां घुसर-घुसर के छापा मारत हे। कोनो नेता, कोनेा मंतरी, कोनो उद्योगपति, व्यापारी, कलाकार एक ला नइ छोड़त हे। 

मैंहर देखे हौं- गिंधोल कस मोटाय ओ बेईमान, गरकट्टा, दोगला, पाखंडी मन ल अइसन ठठावत हे, धुर्रा छड़ावत हे के ओकर मन के हौसडा बंद होगे हे। सब ल जेल मं धांधत हे। एक नइ सुनत हे ककरो। एक झन नइ बता सकत हे के अतेक रुपिया, सोना-चांदी, जमीन-जायदाद, महल-अटारी, घोड़ा-गाड़ी कहां ले अउ कइसे अतेक जल्दी बटोर डरे हे?

ओहर बताथे- मैं सपना मं देखेंव, रिंग मास्टर जब ओला निरदेस देवत रिहिसे तब कनमटक नइ देवत रिहिसे फेर जब एक हंटर परिस ना तब हां जी मेरे आका काहत पंडाल (ऑफिस) ले बाहिर निकलिन अउ फाइल खोल-खोल के देखिन तब बड़े-बड़े भुंडा के नांव दिखिस। बिहानभर तड़ातड़ छापा कार्रवाई शुरू होगे। 

सरपंच ल बतावत कहिथे साल भर ले ऊपर होगे हे मालिक, तुमन कइसे नइ जानन, सुने हन कहिथौ- बड़े-बड़े सरकार कांपत हे, सरकस के चीता के नांव ल सुन के। सांड बरोबर खुल्ला ढिलाय हे जिहे पावत हे तिहे ल थुथरत हे दोरदिर ले ओइलाय हे। अतेक अखबार, टीवी चैनल मं फोटो सहित ओ सबो जिनिस ल देखावत हे जउन पकड़ावत जात हे।

सरपचं कहिथे- वाह बेटा मेहतरु, तब ये आय तोर सपना सरकस के। इही ला देख के तैं डर्रागेस रे?

- डर्राय के लइक बात हे मालिक। 

दूसर दिन ओकर गांव मं विधायक अउ मंतरी रहिथे तेकर घर ईडी के छापा परगे। पांच किलो सोना, कीमती जेवर, फर्जी लेनदेन, जमीन जायदाद के जांच शुरू होगे। एक झन नेता के घर मं करोड़ों के नगदी मिलिस। 

सब केहे ले धरलिन, मेहतरु किहिस तउन बात सहिच निकलगे। इही पाके ओहर चेतावत रिहिसे- भागव... भागव... भागव... फेर ओकर बात ऊपर कोनो धियान नइ देवत रिहिन हे। बइहा, पगला काहत रिहिन हे। वाजिब मं सपना घला कभू-कभू सच हो जथे भइया...।

परमानंद वर्मा

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

तोला का भइगे लेडग़ी..?

 'सुनो भाई उधो'

समाज में अनेक तरह की विसंगतियां, बुराइयां होती है जिसको लेकर आपस में कहा-सुनी हो जाया करती है। दो के झगड़े में तीसरे को नफा अथवा नुकसान तो उठाना ही पड़ता है, इसलिए समझदारी इसी में होती है कि कोई भी इस तरह के मामलो में न पड़ें। लेकिन कुछ मामले ऐसे होते हैं जो भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं, और उससे बच पाना असंभव होता है। इसी तरह के मामले से संबंधित एक प्रेम कहानी है। प्रेमी-प्रेमिका किसी बात को लेकर झगड़ पड़ते हैं और उसका खामियाजा प्रेमिका की बेटी को उठाना पड़ता है। पढिय़े छत्तीसगढ़ी कहानी- ''तोला का भइगे लेडग़ी..?"

तैं काकर भभकी मं आगेस, अइसने कोनो करही, खाय बर देहस तउन थारी ल कोनो नंगाही, झटक के लेगही? का होगे तोला आज, अइसन तो नइ करत रेहे?

सतनारायन अकबका जथे, अंजनी के अइसन चाल ल देखके। ओहर कहिथे- तीन-चार दिन ले ताड़त हौं, तोला कइसे का बात होगे हे ते थोकन अनमने ढंग ले राहत हस। न पहिली जइसे हांस के, परेम के बोली-बात करत हस, सांप-डेडू, बिच्छी तो नइ काट दे हे। 

अंजनी न चिट करत हे न पोट, सतनारायण कुकुर असन अपने अपन हांव-हांव करत भूकत हे। पहिली तो देख, खाना दीस, तहां ले बाहिर पार, खोर दुआरी मं चल दीस अउ परोसिन संग लपर-लिपिर मारे ल धर लीस। पानी घला नइ दीस। जबकि खाना दे के पहिली हमर इहां रिवाज हे पानी पिढ़वा लगाथें। 

परोसिन करा ले कोन जनी का पाठ पढ़के अइस ते ओला पढ़ा दे गिस, आते साठ खाना खाय बर शुरू करत रेहेंव तउन थारी ल उठा के लेगे। 

सतनारायन हड़बड़ागे। ओकर कांही समझ नइ आवत हे कि माजरा का हे? ओहर कहिथे- अंजनी! 

ओहर टेडगा बानी मं कहिथे- झन काह मोला अंजनी, मरगे तोर बर ये अंजनी हा। नइ करत हौं तोला प्यार, हमर-तोर पिंयार  के नाटक इही तीर ले खतम। 

गंज करा धोवन के बरतन मं हाथ-मुंह धोके सतनारायन ओकर तीर मं आथे अउ कहिथे- अंजनी, तोर घर मैं बरपेली नइ आय हौं, ते बलाय रेहे, अमुक तारीख-तिथि, घड़ी मं आबे, मोर गोसइयां बिलासपुर गे हे। बने हांसबो, गोठियाबो, छेहेल्ला मारबो। अब जब तोर बलाय ऊपर ले आगेंव तब तोला का शनिच्चर धर लीस, बही-भुतही कस होगेस?

हां... हां... मैं बही-भूतही होगे हौं, शनिच्चर मोर ऊपर खपलागे हे, बस अतकेच ना, ते अउ कुछु केहे बर बांचे हे? 

सतनारायण ल वाजिब मं कुछु बात समझे नइ परत हे के आखिर एला हो कागे?

ओकर तीर मं जाके ओले पोटारे कस करथे तब घोड़ी हा जइसे घोड़ा ल छटारा मार के अपन तीर ले भगा देथे वइसने कस खेल अंजनी जब करिस तब सतनारायन सुकुरदुम होगे। एकर पहिली तो कभू अइसन नइ होय रिहिस हे? बने रासलीला में मगन हो जावत रिहिस हे दुनो झन। 

अंजनी अउ सतनारायन के बीच तो तीस-पैंतीस बछर ले ये परेम अउ रासलीला चलत आवत हे फेर कोनो अइसे आज तक नइ जान सके हे के ये दूनो झन के बीच मं कोनो खो-खो, फुगड़ी के खेल चलत आवत हे। दूनो झन लोग-लइका वाले हे, उमर खसल के अ्धिया गे हे फेर ओ खेल नइ छूटे हे। 

पहिली चिट्ठी-पतरी अउ फोन के जमाना रिहिसे, उही मं अपन गोठ-बात, मिलना-जुलना, होटल जाना, फिलिम देखा सब हो जात रिहिसे। जब ले इंटरनेट आय हे, मोबाइल आय हे तउन तो अउ सब सुविधा ल परोस दीस। रायपुर मं बइठे हे अउ लंदन, अमरीका, मुंबई, कोलकाता बात कर लेथे, फोटो समेत हांस-गोठिया लेथे आनी-बानी के। जइसन चरित्तर नहीं तइसन ये इंटरनेट अउ मोबाइल हा देखावत सुनावत हे। धुर्रा छोड़ावत हे। 

ओ दिन के घटना, सतनारायन ल बने नइ लगिस, जोरदार ठेस लगिस ओकर दिल मं, अंतस के पीरा ला उही जानही। तीस-पैंतीस साल के पिंयार का ला कहिथे?ओ दिन, ओ बात, ओ हंसी, ओ रात कइसे कोनो भुला जही?

का मन होइस ते सतनारायण के मन उचटगे अउ अंजनी ल ये काहत, तोर दर, तोर दिल अउ तोर घर ले मैं सदा दिन ले निकलके जाथौं, कभू मोर सुरता झन करबे, समझबे- कोनो आवारा, बदमाश, राहू-केतू जीवन मं आय रिहिसे तेकर ले मुक्ति पागेंव। 

सात-आठ महीना गुजरे ऊपर ले ससुराल ले अंजनी के बेटी मइके आय रहिथे तब अपन दाई ल पूछथे- सतनारायन कका के का हालचाल हे, पंदरही होगे मोला आये, एको दिन नजर नइ आइस, कहूं बाहिर गे हे का?

सतनारायन के नांव ल सुनिस तहां ले अंजनी के आंखी डहर ले आंसू झरे ले धर लेथे। बेटी पूछथे- का होगे दाई कका ला, गुजरगे का?

का बतावय अंजनी अपन बेटी ल सतनारायन के बारे मं के ओला का होगे? बताथे- कुछु नइ होय हे बेटी!

तब काबर नइ आवत हे, ओला आरो नइ करे हस का, के सतरूपा आय हे?

अंजनी अब चुप अउ खामोश, बक्का नइ फूटत हे के का काहय अउ नइ काहय?

सतरूपा कहिथे- नहीं दाई आज जाहूं ओकर घर अउ ओला बला के लाहूं, चल कका तोला दाई बलाय हे।

अंजनी समझाथे- नहीं सतरूपा, झन जाबे ओकर घर। 

-काबर, सतरूपा पूछथे?

अंजनी कुछु नइ बोलय, तब सतरूपा समझ जथे जरूर दाई अउ कका के बीच मं कांही बात ल लेके रंगझाझर माते होही, अनबन होगे होही?

सतरूप लम्बा सांस लेवत कहिथे- वाह कका, सतनारायन। तोर गोदी मं खेलेव, बढ़ेंव, तोर पिंयार-दुलार पायेंव, अब कोन हमला बाम्बे के मिठाई अउ बनारस के पेड़ा लान के खवाही?

परमानंद वर्मा

बुधवार, 1 नवंबर 2023

ये दे फेर आगे ललकारत रावन

 सुनो भाई उधो

पूरे संसार में रावण का साम्राज्य फैला हुआ है।  श्रीलंका से निकलकर यूक्रेन, रूस, कनाडा, ईरान, इराक, इजरायल, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान सहित सभी देशों में अपना पांव पसार लिया है। कहीं युद्ध, कहीं मारकाट और खून-खराबा... सब इससे आतंकित, दुखी और परेशान हैं। भारत भर में इसका बूत बनाकर मारा-पीटा, जलाया। लेकिन दूसरे दिन फिर वहां जिंदा होकर आ गया और उधम मचाने लगा है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख...। 

कोनो ल मारना, दुचरना, ओकर जान लेना आसान नइ होवय। ओला तैं एक झापड़ मारबे, लात-घूसा लगाबे तब अपन आप ल बचाव खातिर कुछु तो उहू हा उदिम करही अउ करथे घला। फेर भीड़ के मारे ककरो कांही नइ चलय। बोहावत गंगा मं सबो झन ल हर्रा लागय न फिटकरी तइसन कस सबो झन सोचथे वइसने कस हाल होगे। अस मारिन रावन ल, दुचरिन, लात-घूसा लगइन, जेकर जइसन मन लगिस तइसने लइका-सियान सबो एक-दू थपरा मार ले नइ छोडिऩ। 

महूं सब झन के देखा-सिखी, आरुग काबर राहौं, कोनो अइसे झन सोचय एहर रावन के आदमी हे, संगवारी हे, तेकर सेती चिनहारी काबर बनौ, सोच के दू-चार हाथ जमा देंव, मार के मारे सिहरगे रिहिसे, कल्हरत रिहिसे। सोग तो लगिस, गारी घला देंव मरइया मन ल मने-मन, फेर सबके नजर मोर ऊपर रिहिसे, एहर मारथे के नहीं, बजेड़ेंव गारी देवत, साले अंखफुट्टा, सबके बहू-बेटी ऊपर नीयत खराब करथस, लूटपाट, आतंक, भ्रष्टाचार, अत्याचार करथस। गांव, शहर, देश ल कोन काहय, पूरा विदेश मं दाउद इब्राहिम, लादेन, हमास, हिजबुल सही आतंक फइलाके रखे हस। पूरा जनता बियाकुल हे तोर मारे। 

ये रावन के परिवार संसार भर मं बगरगे हे। यूक्रेन, रूस, अमेरिका, इजराइल, फिलिस्तीन, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान अउ भारत तक ल नइ छोड़े हे। गलत काम, धंधा करना एकर पेशा हे। कतेक सइही कोनो। डर के मारे कोनो कांही नइ काहय एकर मतलब ये तो नइ होवय के छानही मं चढक़े होरा भूंजना चाही। अति के घला एक दिन अंत आथे। लादेन ल देखेव नहीं, कइसे पताल के चटनी असन सील लोड़हा मं पीसागे। बहुत पदनीपाद पदोवत रिहिसे। रायपुर मंं काली सप्पड़ मं आगे, कप्तान ल जइसे सूचना मिलिस के रावन ओकर शहर मं आ धमके हे, ओकर कान खड़ा होगे। सायरन बजावत तीन-चार लारी (बस) समेत कप्तान पुलिस दल-बल के संग रामलीला मैदान मं पहुंचगे। मैदान मं कटाकट भीड़, सब रावन ल मारते राहय। कप्तान रावन के तीर मं पहुंचतिस तेकर पहिली ओकर ऊपर केरोसिन छिडक़ के आगी छोड़ दीन। भांय-भांय करके जले लगिस। 

नंदकुमार बघेल ल कोन कोती ले सूचना मिलिस ते उहू हर यहा सियानी उमर मं लुड़बुड़-लुड़बुड़ करत भीड़ ल काहत रिहिसे- ‘अरे मत मारौ रे ब्राम्हण कुमार रावन ल’ तुमन ल ब्रम्ह हत्या के पाप लग जही। अब भीड़ मं ओकर बात के कोन सुनइया। जब ये सुनिस के रावन तो भांय.. भांय.. करके जलत हे, मार डरिन ओला। ओ छाती पीटे ल धर लिस अउ किहिस- हत् रे हत्यारा हो। कोनो ओकर बात ल नइ सुनिन अउ रावन मरे के खुशी मं सब फटाखा फोरे लगिन। 

रावन मरे के खुशी तो महूं ल होइस, काबर ओकर परसादे कतको मोरो काम सधत रिहिसे। फेर रिहिसे बदमाश, जेकर घर जातिस तेकरे बहू-बेटी अउ बाई ल आरुग नइ छोड़तिस। ओकर आतंक के देखे सब मुंह मं पैरा बोज लंय। पउर साल वइसने रामसागरपारा मं बड़े परिवार के बेटी ल तलवार के बल मं खीचं के लेगे। मजाल कोनो रोक लय। शेर संग कोन बैर ठानही, जान गंवाही। कोनो सेठ, साहूकार अउ उद्योगपति ल फोन मं धमकी देके लाखों, करोड़ों रुपया मंगा लय, कोनो अनाकानी करतीन तब बहू-बेटी नइते छोटे-छोटे लइका मन के अपहरन करे के धमकी दे देवय। ओकर डर के मारे पुलिस मं कोनो रिपोट घला नइ लिखावयं।

बड़े-बड़े नेता, मंत्री, नौकरशाह, ठेकेदार मन ल तो ये रावन अपन लंगू-झंगू असन समझय। कोन ल चुनाव जितवाना हे, मंत्री बनवाना हे, ओ सब एक इशारा मं पलक झपकते करवा दय। पूरा देश का विदेश मं एकर डंका बाजत रिहिस हे तउन हा कइसे जब कुकुर के मौत आथे तब शहर कोती झपाथे कहिथे नहीं तइसे कस हाल होगे। शहर के जनता मन ओला दुचर-दुचर के मार डरिन, अउ आगी छोड़ दीन, भांय.. भांंय.. करके ओकर काया पंचतत्व मं मिलगे। सब कुछ होगे तब कप्तान पहुंचथे अपन पुलिस बल लेके। हमर देश के पुलिस अइसने होथे, हवा मं फायर करना भर जानथे अउ बहादुरी के बड़े-बड़े तमगा लेये मं कभू पीछू नइ राहय। 

बिलासपुर, दुरुग, भिलाई अउ राजनांदगांव ले मोर करा फोन आथे, कहिथे- हमन सुने हन, रायपुर वाले मन रावन ल मार डरेव, बड़ा बहादुरी के काम करेव। जेकर नांव ल सुन माईलोगिन के गरभ गिर जथे, रोवत लइका चुप हो जथे तउन परतापी रावन ल तुमन मार डरेव? मैं केहेंव- हां... हां... भई, मार डरेन, तुंहर मन असन गीदड़ नइ हन। रायपुर वाले मन डालडा घी नहीं बाबा रामदेव के कम्पनी पतंजलि के बने घी खाथन, समझेव। मोर जुआब ल सुनके ओकर मन के बोलती बंद होगे। 

रावन मरे के खुशी मं बने घर मं खीर-पुड़ी हकन के खायेन। बेफिकर होके रात मं लात-तान के सोयेन। बिहनिया ‘मार्निंग वाकिंग’ मं निकलिहौं सोच के दरवाजा करा पहुंचथौ तब देखथौं, उही रावन जउन ल काली दुचर-दुचर के मारे रेहेन, आगी मं लेसे रेहेन तउन ह संउहत अड़दंग खड़े राहय, मेंछा मं ताव देवत। ओला देखते साठ मोर चड्डी पेंट खराब होगे, केहेंव- अरे बाप रे, अब का होही, परान नइ बाचय ददा। दउड़े-दउड़े बाथ रूम मं आयेंव। अब का बतावौं, मोर ‘बी.पी.’ हाई होगे। मन मोला ललकारथे- शेर बनत रेहे बेटा, अब कइसे घुसडग़े तोर सबो होशियारी?

डर के मारे कांपे ले धर लेंव। हाथ तो छोड़े रेहेंव। एक झन महिला संगवारी ल फोन करथौं- मइया मोर संग अइसन-अइसन घटना होगे हे, आठ दस दिन बर तोर घर मं एकाध कमरा खाली होही ते दे देते। ओहर समझावत कहिथे- भइया, जउन रावन ल मारे हन कहाथौ ओ असली रावन नोहे, ओकर छाया ल देखे के डेर्रावत हस। असली रावन तो तोर हिरदे मं बसे हे, उही ल मार। उही ल जउन दिन मार लेबे तउन दिन तोर मन, हिरदय अउ घर मं रामराज आ जही। ओ दिन ओ मइया मोर आंखी ल खोल दीस, सोचेंव- रावन कोनो मनखे नोहय, हमरे मन के मन-चित्त मं रचे-बसे विकार हे, काम, क्रोध, मोह, लोभ अउ अहंकार हर हे, इही ल जउन दिन मारबो, विजय पाबो ओकर ऊपर तभे सबो कोती सुख, शांति अउ संतोष उजियारा बगर जही। 

-परमानंद वर्मा

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

बाऊजी की थाली

 


बाऊजी के लिये खाने की थाली लगाना आसान काम नहीं था।

उनकी थाली लगाने का मतलब था-थाली को विभिन्न पकवानों से इस तरह सजाना मानो ये खाने के लिए नहीं बल्कि किसी प्रदर्शनी में दिखाने के लिए रखी जानी हो।

सब्ज़ी,रोटी,दाल सब चीज़ व्यवस्थित तरीके से रखी जाती।

घर मे एक ही किनारे वाली थाली थी और वो थाली बाऊजी की थी।खाने की हर सामग्री की अपनी एक जगह थी बाऊजी की थाली में।

मजाल है कोई चीज़ इधर से उधर रख दी जाये।

दो रोटी, उसके एक तरफ दाल, फिर कोई भी सब्ज़ी, थोड़े से चावल और उसके साथ कोई भी मीठी चीज़।

मीठे के बिना बाऊजी का खाना पूरा नहीं होता था।

पहले घर में कुछ ना कुछ मीठा बना ही रहता था और यदि न हो तो शक्कर , घी बूरा मलाई कुछ भी हो लेकिन मीठा बाऊजी की थाली की सबसे अहम चीज थी और दूसरी अहम चीज़ थी पापड़। पापड़ का स्थान रोटी के ठीक बगल में होता था जो कि लंबे समय तक नहीं बदला।

बस घर के बने पापड़ की जगह बाजार के पापड़ ने ले ली थी। अचार का बाऊजी को शौक नहीं था।

हाँ, कभी कभार धनिया पुदीने की चटनी जरूर ले लिया करते थे। दही बाबूजी को पसंद नहीं थी लेकिन रायता तो उनकी जान थी फिर चाहे वह बूंदी का हो या घीया का और रायता थाली में पापड़ के ठीक साथ विराजमान रहता था।

मणि को तो शुरु शुरु में बहुत दिक्कतें आई।काफी समय तक तो नई बहू को यह जिम्मेदारी दी ही नही गई लेकिन फिर जब-जब सासू माँ बीमार रहती थी या घर पर नहीं होती थी तो बाऊजी को खाना खिलाने की जिम्मेदारी मणि पर आ जाती।

खाना बनाने में तो मणि ने महारथ हासिल कर रखी थी लेकिन बाऊजी के लिए खाने की थाली लगाने में उसके पसीने छूटने लगते।कभी कुछ भूल जाती तो कभी कुछ और कभी-कभी तो हड़बड़ाहट में कुछ न कुछ गिरा ही देती। एक बार तो थाली लगाकर जैसे तैसे बाऊजी के सामने रखी।

बाऊजी कुछ सेकंड थाली को देखते रहे फिर समझ गए कि आज उनकी धर्मपत्नी घर पर नहीं है। फिर चुपचाप खाना खाकर चले गए।

"माँ जी, यह कैसी आदत डाल रखी है आपने बाऊजी को। इतना समय खाना बनाने में नहीं लगता है जितना समय उनकी थाली लगाने में लगता है" उस दिन झल्ला सी गई थी मणि।

"मैं क्यूँ आदत डालूंगी मैं तो खुद इतने साल से इनकी इस आदत को झेल रही हूँ।" सासू माँ ने मुस्कुराकर जवाब दिया।

"तो बाऊजी हमेशा से ऐसे थे?"

"हाँ, बचपन से ही। सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। माँ के लाडले थे।

  खाना सही से नहीं खाते थे तो मेरी सास थाली में अलग अलग तरह के पकवान रखकर लाती थी कि कुछ तो खा ही लेंगे और फिर धीरे-धीरे तेरे बाऊजी को ऐसी ही आदत पड़ गई।उसके बाद मैं आई।

पहले पहल मुझे भी बहुत परेशानी हुई।

थाली में कुछ भी उल्टा-पुल्टा होता था तो तुम्हारे बाऊजी गुस्सा हो जाया करते थे। वैसे स्वभाव के बहुत नरम थे लेकिन शायद खुद ही अपनी इस आदत से मजबूर थे।

अव्यवस्थित थाली उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। शुरू-शुरू का डर मेरी भी आदत में ही बदल गया और बाद में तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता था।

हाथों को हर चीज अपनी जगह पर रखने की आदत पड़ गई थी।

मणि भी अपनी सासू माँ की तरह धीरे-धीरे आदी हो गई। अपने पूरे जीवन काल में बाऊजी ने कभी किसी चीज की अधिक चाह नहीं की थी। संतोषी स्वभाव के थे लेकिन भोजन के मामले में समझौता नहीं करते थे।

बहुत अधिक खुराक नहीं थी।

 थाली में प्रत्येक चीज़ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही होती थी। मणि तो कई बार  हँसकर बोल दिया करती थी कि बाऊजी को खाने में क्वांटिटी(quantity) नहीं वैरायटी(variety) चाहिए।बचपन में बेटे के प्रति लाड दिखाती माँ से लेकर बुढ़ापे में अपनी जिम्मेदारी निभाती बहु तक के सफर ने थाली के अस्तित्व को बरकरार रखा।

समय बीतता गया। अब मणि खुद सास बन चुकी थी। सासू माँ का देहांत हो गया था।बाऊजी भी काफी बूढ़े हो चले थे। ज्यादा खा-पी भी नहीं पाते थे।

समय के साथ थाली की वस्तुएं व आकार दोनों ही घटते गए। अपने अंतिम दिनों में अक्सर बाऊजी भाव विह्वल होकर मणि के सिर पर हाथ रख कर बोल पड़ते कि अब मेरी आत्मा तृप्त हो चुकी है।

बाऊजी का स्वर्गवास हुए पाँच साल हो गए थे।

आज भी श्राद्ध पक्ष की अमावस्या पर उनके लिए थाली लगाई जाती जिसमें पहले की तरह सभी चीजें व्यवस्थित तरीके से होती हैं। बाऊजी की आत्मा का तो पता नहीं लेकिन मणि का मन जरूर तृप्त हो जाया करता है।

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हमसे आगे हम -- 

टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।

सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।

प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।

सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।

मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।

चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।

उनके भी बाद वाले बच्चे, इनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।

शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।

पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "

" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।

" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "

" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।

" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "

थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "

" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "

" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।

" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "

" क्यों ? "

" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "

" ऐंसा हो सकता है पापा ? "

" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "

" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।

" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "

पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "

" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।

तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "

क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये।

सोमवार, 25 सितंबर 2023

मया मइके के संग तीजा पोरा

-परमानंद वर्मा

छत्तीसगढ़ का एक महान पर्व है तीज पोरा। बेटी, बहन, बहुएं औऱ माताओं को मातृ शक्ति के रूप में पूजन किया जाता है। साल में एक बार ससुराल से मायका आती हैं, लायी जाती हैं और यथायोग्य राशि, कपड़े, जेवर आदि भेंट कर आदरपूर्वक सम्मान किया जाता है। किसी कारणवश नहीं आ पातीं हैं तब मायके न आने के गम में सिसकती रहती हैं। एक कहावत भी है मइके के कुकुर नोहर। इसी संदर्भ में पढ़िए यह छत्तीसगढ़ी आलेख।

बियारी करके सुखराम गुड़ी मेर सकलाय राहय तेन संगवारी मन करा जाके बइठ जथे। इहां गांव भर के गोठ  बात ल लेके देश अउ परदेश भर के राजनीति, खेती-बाड़ी, घर-परिवार, बहू-बेटी के ऊपर चरचा होथे। कोनो तमाखू, गांजा मलत रहिथे तब कोनो चोंगी-बीड़ी के चस्का ले के जुगाड़ मं लगे रहिथे। 
सुखराम ला देखते साठ खेलावन दाऊ कहिथे- कस रे सुखराम, तैं कइसे लरघीयाय असन कोंटा मं सपटे हस, का गोसइन संग लड़ झगड़ के आय हस?
- 'नहीं दाऊ, वइसन बात नइहे गा, आज थोकन खेत मं जादा काम होगे रिहिसे। बियासी निंदई-कोड़ई अउ कोपर घला चलत रिहिसे न, बुता थोकन जादा होगे रिहिसे तेकर सेती थकासी लागत हे।
सुखराम के ये बात ल सुनके खेलावन दाऊ कहिथे- अरे थकासी लागत हे काहत हस, शरीर हा रसरसाय असन लागत होही तब एकाध अद्धी मार ले नइ रहिते रे? 
- अरे काकर नांव लेथस गौंटिया, ओ दिन अइसने ले परे रेहेंव तब तोर बहू हा नंगत ले भड़के रिहिसे अउ केहे रिहिसे अब कभू अइसन पीबे पियाबे तब ठीक नइ बनही ?
सुखराम के बात ल सुनके गौंटिया ओला चुलकावत कहिथे- तब अपन गोसइन ला अतेक डर्राथस रे। घर के मालिक तैंहर हस ते तोर गोसइन?
- कइसे करबे गौंटिया, बड़ तेज हे तोर बहू हा। कुछु एती-तेती करबे, उलटा-सुलटा कर परबे, ककरो कभू मुंह तो आय लपर-लिपिर गोठिया परेंव अउ ओहर कहूं सुन डरिस के फलाना के बेटी, बहू, बहिनी अउ गोसइन संग तोर गोसइया गोठियावत-बतावत रिहिस हे कहिके, तहां ले तो ओ दिन घर मं रंगझाझर मात जथे, मोर बुढ़ना ल झर्रा देथे, तीन पुरखा ल पानी पिया देथे। ते पायके नहीं गोंटिया ओहर जभे कहूं कोनो गांव या मइके जाय रहिथे तभे हरहिंछा, मेछराथव्  गोठियाथौं, बताथौं।
- हत रे कहां के डरपोकना नइतो, अइसने गोसइन ल कोनो डर्राही रे। गोंटिया ओला सीख देथे- छांद के रखना चाही ओकर मन के हाथ, गोड़ अउ मुंह ला..। जादा एती-ओती लपर-लिपिर, तीन-पांच करिस, मुंह फुलइस अउ शेर बने के कोशिश करिस तब देकर दू-चार राहपट। तैं ओला बिहा के लाय हस, ओ तोला नइ लाय हे, समझे। जादा हुसियारी करिस अउ मुंह चलाय के कोशिश करिस तब देखा दे ओकर मइके के रस्दा। एक घौं मं सोझ हो जाहय। 
खेलावन गौंटिया के बात ल सुनके सुखराम कहिथे, बात तो तैं सोलह आना सही काहत हस मालिक, फेर मैंहर तोर सही नइहौं ना, मैं तो ओकर बोली ल सुनके ओतके मं कुकुर ल देखथे साठ बिलई असन सपट जथौं। ऊंच भाखा मं जउन दिन बोल परिहौं न तब ओ दिन मोर का हालत करही तउन ला मैं जानत हौं। 
गोंटिया हांसथे अउ समझावत कहिथे- डर्राय के कोनो बात नइहे सुखराम। एक काम कर, ये दे मैं रखें हौं अद्धी, दूनो झन चल आधा-आधा मार लेथन। अउ घर मं जाबे न तब कुछु मत करबे, चुपचाप खटिया मं ढलंग जाबे। कुछु कइही, करही न तब एती ओती करके टरका देबे। 
सुखराम झांसा मं आगे गौंटिया के, आधा-आधा मारिन तहां ले सुखराम बइठ नइ सकिस, अउ घर आगे। 
- अई, आज कइसन जल्दी आगेस छितकी के कका, बइठक आज जल्दी उसलगे का? सुखराम अपन गोसइन रामकली के बात ल सुनिस तहां ले सकपकागे, अउ सोचे लगिस, ये कहूं जान डरही, ढरका के आय हे दारू ल कइके तहां ले मोर बारा ल बजा डरही भगवान। अब येला का जवाब देवौं, देवौं ते नइ देवौं?
अई कइसे कांही नइ बोलत हौ छितकी के कका? गोसइन तीर मेर आ जथे अउ सुखराम के धुकधुकी बाढ़ जथे। 
रामकली कहिथे- ये हो, सुनव ना, एक ठन बात हे, मान जतेव ते बने रहितिस। 
सुखराम सोचथे- मउका बढ़िया हे, कइसे ओहर बघनीन ले आज सरु गऊ बने ले जाथे, का बात हे, जरूर कोनो राज हे? अब दारू के नशा थोकन चढ़त हे तब लहसाय बरोबर ओहर पूछथे- का बात हे मोर परान पियारी रामकली?
गोसइन ल समझत देरी नइ लगिस के आज एहा दारू पीके आय हे, फेर उहू ल अपन काम सिध करवाना रिहिसे तहां ले ओकर तीर मं ओध के कहिथे- तीजा-पोरा आवत हे, मइके जाय के साध लागत हे। मोर बहिनी, संगी-सहेली मन आही, दाई हा घला रस्दा जोहत होही। ओला कहि परे रेहेंव एसो आहूं दाई, खतम आहूं। तब अरजी हे जान देना चार-आठ दिन बर। अतका काहत सुखराम के नाक, कान, गाल ल चूमा देये ले धर लेथे। 
मने मन अपन गोसइन ल गारी देवत कहिथे- आन पइत कइसे दारू के गंध ल पावय तहां ले कुकुर-बिलई असन गुर्राय ले धर लय, आज का मोर मुंह ले सेंट के सुगंध निकलत हे तब धरे-पोटारे कस करत हे। कइसे पासा पलटत हे। घुरुआ के दिन बहुरथे कहिथे तउन इही ल कहिथे। 
खेलावन दाऊ के बात सुरता आगे, बने गुरु मंत्र देये हस भइया। नशा मं तो रहिबे करे रेहेंव, केहेंव- कोनो जरूरत नइहे, मइके जाय के, भाड़ मं जाय तोर संगी-सहेली अउ दाई-काकी, तीजा-पोरा। खेत ल कोन देखही तोर बाप, तोर भाई-दाई। निंदई-कोड़ई परे हे, कोप्पर चलत हे, मैं अक्केला मरिहौं का? रांध के खाना कोन दिही?
अइसे दबकारिस सुखराम अपन गोसइन ल ते ओहर सकपकागे। अइसन टांठ भाखा मं कभू नइ बोले रिहिसे, ससुराल आय ऊपर ले पहिली बार आज जउन अइसन बगियाइस हे। जान तो डरे रिहिसे के दारू के नशा मं एहर बोलत हे अउ उतरही नशा तहं ले भीगी बिलई असन हो जही। कहूं एला रुतबा देखावत हौं, अपन ताव बतावत हौं तब दूर-चार गफ्फा देये मं कोनो देरी नइ करही। 
रामकली घला खिलाड़ी कोनो कम नइहे, अपन काम निकाले के तरकीब जानथे। सुखराम के हाथ-गोड़ ल मालिस करे असन, सुलहारे कस गुरतुर बोली मं बोलथे- जादा नहीं, दू-चार दिन बर जान देना छितकी के कका, जादा दिन नइ लगावौं। गऊकिन काहथौं, मैं जल्दी आ जाहौं। मैं जानथौं- मोर बिगन तैं रेहे नइ सकस, छटपटाथस रात भर। गोसइन हौं तोर, मरद के आदत-सुभाव ल नइ जानिहौं। 
सुखराम मने-मन गदकथे, अउ सोचथे ये डौकी-परानी के चाल ल तो देख, मइके जाना हे तब सरी खेल, दांव-पेंच खेलही। अउ बरज देथौं- नइ जाना हे तब कइसे थोथना फूल जही, कैकेयी बन जही, मोर खाना-पीना ल हराम कर दिही। 
कहिथे- वाह खेलावन दाऊ, टिरिक तो बढ़िया बताय भइया, इही ल कहिथे अइस न ऊंट पहाड़ के नीचे। बहुत अकड़त रिहिसे, महीच आंव काहय। मइके जा हौं... मइके जाहौं... कइके सुलहारत हे, बरजेंव नइ जाना तब कइसे लेवना कस बनगे ?
मोरो पारी आहे, केहेंव- का रखे हे मइके मं तेमा मइके... मइके... तीजा-पोरा... तीजा-पोरा के रटन धर ले हस? कोनो हे का तोर उहां लगवार तेमा मइके जाहौं काहत हस?
टेड़गा भाखा ल सुनिस तहां ले बोमफार के रोय ले धर लिस, अउ पांव तरी गिर के किहिस- मोला जतका मारना, पीटना हे मारपीट ले, फेर अतेक बड़े बद्दी झन लगा, मोर इज्जत मं कलंक झन लगा। जेकर नहीं तेकर कसम खवा ले तोर छोड़ ककरो संग करे होहूं ते। 
रतिहा के बेरा, गोसइन के रोवई ल सुनिस तहां ले आसपास के दूर-चार झन परोसिन मन आगे, का बात होगे ? बात बनाएंव, समझायेंव, केहेंव- तीजा-पोरा माने बर मइके जाहूं किहिस तब मैं मना करत केहेंव- खेती-किसानी के काम बगरे हे, बाद मं चल देबे। बस मोर माय-मइके ल तेहा छोड़ावत हस, अतके बात ल लेके एहर रोय-गाये ले धर लिस।
परोसिन मन किहिन- हमन समझेन कांही अउ कुछु दूसर बात, घटना तो नइ होगे, सोचके आ परेन भइया सुखराम, माफी देबे। 
सुखराम सोचथे- माय मइके के मया अड़बड़ होथे, अउ साल मं एके बार तो ये मउका मिलथे जेमा चारों डाहर के बेटी, बहिनी, सहेली जउन अपन-अपन ससुराल जाय रहिथे, मिलथे- जुलुथे। महूं तो जाहूं मोर बहिनी, दीदी ल लाय बर, नइ आही, तेकर बर लुगरा-कपड़ा धर के जाय ले परही। 
रामकली के दुख ल जानगेंव, समझगेंव, गजब मया पल-पलाय बरोबर रोवत रिहिसे तउन ल समझायेंव अउ केहेंव- जा रे मोर अनारकली मइके... छुट्टी देवत हौं, फेर झटकिन आबे, दिन्नी झन करबे। अतका काहत ओला पोटार लेंव। नशा तो चढ़े रिहिसे, ओकर चेहरा ल देखेंव तब बिहनिया तरिया मं खिले कमल फूल असन छतराय रिहिसे हे। गदकत रिहिसे। केहेंव- वाह रे मइके... वाह रे मया.. अउ वाह रे तीजा पोरा... तोर जादू...। 
जाती-बिराती-
काबर सुरता हर आ आ के 
हिरदय ल मोर निचोरत हे
कोन फूल फूले हे
कोन गंध मोहत हे
मुरझावत बिरवा ल
कोन ह उल्होवत हे। 
                         -  हरि ठाकुर

रविवार, 10 सितंबर 2023

रविवार एक कहानी - पेंशन

" सुनो, आज चार तारीख हो गई,पेंशन लेने का समय आ गया है।बैंक जा रहा हूँ,आने में देर हो जाए तो परेशान मत होना।युवाओं को समय की कद्र कहाँ, छोटे-छोटे काम में भी घंटों लगा देते हैं।" पत्नी को कहकर रामनिवास जी बाहर जाने लगे तो पत्नी ने पीछे से कहा, " आपके इतने सारे विद्यार्थी हैं, उन्हीं में से किसी को क्यों नहीं कह देते?" 

 " ज़माना बदल गया है।पहले जैसे विद्यार्थी अब कहाँ जो अपने गुरु का मान करें।उन्हें तो मेरा नाम भी याद नहीं   होगा।" पत्नी को जवाब देकर वे बैंक चले गये।

 महीने का पहला सप्ताह होने के कारण बैंक में भीड़ थी।एक खाली कुर्सी देखकर वे बैठ गये और फार्म भरकर  कैशियर वाले डेस्क के सामने खड़े हो ही रहें थें कि एक स्टाफ़ ने उन्हें आदर-सहित कुरसी पर बैठा दिया और स्वयं फ़ार्म लेकर कैशियर के केबिन में चले गये।वे कुछ समझ पाते तब तक में बैंक का चपरासी उनके लिए चाय ले आया।उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वे बिना चीनी के चाय पीते हैं।चपरासी बोला, " साहब ने बिना चीनी वाली का ही आर्डर दिया है।" कहकर उसने रामनिवास जी के हाथ में चाय की प्याली थमा दी।

 रामनिवास जी ने घड़ी देखी, दस बजकर पाँच मिनट हो रहें थे।सोचने लगे, चाय पिलाया है,लगता है दो घंटे से पहले मेरा काम न होगा।तभी एक बत्तीस वर्षीय सज्जन ने आकर उनके पैर छुए और विड्राॅ की गई राशि उनके हाथ पर रख दिया।इतनी जल्दी काम पूरा होते देख रामनिवास जी चकित रह गए।उन्होंने उन सज्जन को धन्यवाद देते हुए परिचय पूछा तो उन्होंने कहा, " सर, मैं इस बैंक का नया मैनेजर हूँ, एक सप्ताह पहले ही मैंने ज्वाॅइन किया है लेकिन उससे पहले मैं आपका विद्यार्थी हूँ।" 

 " विद्यार्थी! " रामनिवास जी ने आश्चर्य से पूछा।उन्होंने कहा, "जी सर, सन् 2004 में आप सहारनपुर के उच्च माध्यमिक विद्यालय में नौवीं कक्षा के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाते थें।मैं भी उन्हीं में से एक था।गणित मुझे समझ नहीं आती थी।परीक्षा में पास होने के लिए मैंने नकल करना चाहा और पकड़ा गया।प्रिंसिपल सर मुझे रेस्टीकेट कर रहें थें तब आपने उनसे कहा था कि नासमझी में विद्यार्थी तो गलती करते ही हैं।हम शिक्षक हैं, हमारा काम उन्हें शिक्षा देने के साथ-साथ सही राह दिखाना भी है।संजीव की यह पहली गलती है,रेस्टीकेट कर देने से तो इसका पूरा साल बर्बाद हो जाएगा जो मेरे विचार से उचित नहीं है।आपने उनसे विनती की थी कि मुझे माफ़ी देकर अगली परीक्षा में बैठने दिया जाए।प्रिंसिपल सर ने आपकी बात मान ली थी,आपने अलग से मुझे ट्यूशन पढ़ाया और मैं परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर आज आपके सामने खड़ा हूँ।आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर!" हाथ जोड़कर मैनेजर साहब ने अपने गुरु को धन्यवाद दिया और ससम्मान उन्हें बाहर तक छोड़ने भी गए।

घर लौटते वक्त रामनिवास जी सोचने लगे, ज़माना चाहे कितना भी बदल जाए, जीवन भले ही मशीनी हो जाए लेकिन विद्यार्थियों के दिलों में शिक्षक का सम्मान हमेशा रहेगा,यह आज बैंक मैनेजर संजीव ने दिखा दिया।

वाट्स एप से साभार

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

बिन डोंगहार के डोंगा

 सुनो भाई उधो

परमानंद वर्मा

फिर मन गया बिना गोसइया के

 छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का स्थापना दिवस ।आते हैं इस  मे प्रदेश भर से छत्तीसगढ़ी  साहित्यकार, लेखक, कवि, भाषाविद्, संस्कृति कर्मी। मुख्य अतिथि के उद्घाटन के बाद निर्धारित विषयों पर वक्ता अपने विचार रखते हैं, कवि गण अपनी कविताओं के पाठ करते हैं, लोक कलाकार संगीतमय प्रस्तुति से आगंतुकों को भाव-विभोर कर देते हैं, और अंत में भोजन प्रसादी पाकर अपने-अपने ठिकाने लौट जाते हैं। विगत पांच सालों से ऐसा ही चल रहा है। सचिव के भरोसे नैया आगे सरक रही है । हालाकि उन्होंने किसी को ऐसा आभास नहीं होने दिया कि अध्यक्ष नहीं है लेकिन सबको इस बात का मलाल है कि जब सभी आयोगों, मंडलों में अध्यक्षों व अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रमुखता से की गई है तब छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग की उपेक्षा क्यों? इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख।

सीहोर वाले महाराज पंडित प्रदीप   मिश्रा ओ दिन गोढियारी म शिवपुराण के कथा बाचत रिहिसे तब ओ कथा ल सुने बर डोंगा(नाव) घला पहुंचे राहय। उही बेरा हाथ उठा के ओहर हर हर महादेव काहत महराज सो बिनती करत पूछ-थे, सब के दुख, करलेस ल टारत आवत हस महाराज, मोरो एक ठन जबर करलेस हे, टार देते ते बने होतिस।

महाराज ह पूछ-थे,का करलेस है दाई बता ना। डोंगा हाथ जोर के आँखि कोती ले आंसू ढारत गोहरा-थे, मोर गोंसिइया डोंगहार पांच साल होए ले जावत हे, कहां चल देहे। अतेक खोजत हौं, पता लगावत हौं फेर कांही सोर नई मिलत हे। तुंहर आसन महाराज मन करा बिचरवा घला डरे हौं फेर कुछु नई पता लगिस। कोनो कोनो बताईन, सीयम हाउस कोती जात देखे हन। अब भगवान जानय ओहर कहां हे।

डोंगा के सबो बात ल सुने के बाद सीहोर वाले महाराज ओला बताथे- एक उपाय बतावत हौं धियान देके सुन। कोनो मेर के शिव मंदिर म जाके रोज एक लोटा पानी, एक ठन बेल पत्ती अउ कनेर, धतूरा, गुलाब के फूल हो सकय ते शिवजी म अर्पन करना शुरू कर दे। एक न एक तोर गोसइया जरूर लहुट के घर आ जही। ये उपाय ल करके देख तो भला। अउ  हां श्री शिवाय नमस्तुभ्यम ये मन्त्र के जाप पांच घो जरूर करे करबे। अब दुनों हाथ ल उठा के बोल, हर हर महादेव। अइसने कस हाल छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के सध होवत हे। खोजत फिरत भटकत हे अपन गोसइया(अध्यक्ष) के फिराक मे ।

सोचथौं बिना किसान के खेती, बिना डॉक्टर के अस्पताल, बिना जज के कोर्ट, बिना परानी के गिरहस्थी, बिना डोंगहार के डोंगा (नाव), बिना पायलट के हवाई जहाज अउ बिन राजा के राज्य कइसे चलत होही, चलेच नइ सकय, अउ अइसने कतको अकन बात हे जेकर बिना अधूरा के अधूरा रहि जाथे. विधवा, रांड़ी-अनाथिन कस रोवत-धोवत जिनगी गुजर जथे। तइसने कस हाल छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के हे। पांच साल गुजरे ले जात हे, छत्तीसगढ़ के मुखिया कइसे आंखी-कान ला लोरमा दे हे ते  ये आयोग के अध्यक्ष के नियुक्ति नइ करिस। अउ सब मंडल, आयोग के अध्यक्ष, सचिव अउ पदाधिकारी मन  के नियुक्ति कर डरिस, फेर एती हीरक के नइ निहारिस। कतको सुख-सुविधा दे-दे, ददा (मुखिया) बिना घर सुन्ना लगथे, नइ सुंदरावय। लक्ष्मण मस्तुरिया, श्यामलाल चतुर्वेदी, दानेश्वर शर्मा अउ डॉ. विनय पाठक जइसे बड़े-बड़े गुनिक मन ये आयोग के अध्यक्ष बने रिहिन हे जेकर से ये आयोग के शोभा बढ़े रिहिसे। अइसे बात नइहे के कोनो अध्यक्ष पद के लइक नइहे, एक ले बढ़के एक सुजानिक चेहरा ये पद के काबिल हे। ओकर से छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के मान-शान मंं बरकत हो सकत रिहिसे। उपेक्षा के शिकार काबर होइस ये बात के सवाल सब साहित्यकार, कला, संस्कृति, भाषा, बोली के समझ रखइया मन उठाथे, उठावत हें। 'छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया' के नारा के ढिंढोरा पीटे भर ले छत्तीसगढ़िया के विकास नइ होना हे। विकास होही ओकर मातृभाषा ल पंदोली देके, ऊपर उठायले, प्राथमिक कक्षा ले पढ़ई शुरू करे ले। जइसने किसानी के रकम ल किसान ले बने दूसर कोनो जान नइ सकय, वइसने शिक्षा के विकास के रकम शिक्षा के विद्वान ले दूसर कोनो नइ जानय। राजा करा तो दुनिया भर के काम रहिथे, रात-दिन राज-काज मं बूड़े रहिथे। अइसन काम के नेत-घात जउन जानथे तेला सौंपना चाही। नहीं ते फेर बिन मांझी के डोंगा हवा के झोंका में कोन कोती के रसदा रेंग दिही, भगवाने मालिक हे। 

अभी ओ दिन 14 अगस्त के छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के स्थापना दिवस मनाये गिस, जेमा प्रदेश भर के साहित्यकार, कलाकार, संस्कृति कर्मी, कवि, विद्यार्थी मन सकलाय रिहिन हे। माई पहुना संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत दीया बार के कार्यक्रम के उद्घाटन करिस, जेकर पगरइत रिहिन हे संसदीय सचिव कुंवरसिंह निषाद। ये मौका मं गीत-संगीत के प्रस्तुति राज गान के बाद होइस। ये बेरा मं फिल्म डायरेक्टर मनोज वर्मा अउ टीवी के उद्घोषक श्रीमती मधुलिका पाल अपन-अपन विचार रखिन। 

महंत सर्वेश्वर दास सभा भवन में आयोजित ये समारोह मं प्रदेशभर ले आये छत्तीसगढ़ी साहित्य प्रेमी के मन मं इही बात के जादा चरचा अउ दुख होवत रिहिसे के प्रदेश के मुखिया ये आयोग ल काबर अनदेखी करत हे, काबर अध्यक्ष नइ नियुक्त करत हे। कोनो खुसुर-फुसुर गोठियावय तब कोनो टांठ भाखा मं। फेर कोनो ये बात, ये मुद्दा ल लेके सोझ मुखिया मेर जाके हिम्मत नइ जुटा सकत रिहिन हे। 

कार्यक्रम के दूसर सत्र मं श्रीमती धनेश्वरी सोनी, टिकेश्वर सिंह, अरविन्द मिश्र, नवलदास मानिकपुरी, कपिलनाथ कश्यप, दुर्गाप्रसाद पारकर, अशोक पटेल आशु अउ हितेश कुमार के लिखे पुस्तक मन के मुख्य अतिथि संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत अउ दूसर अ्तिथि मन के हाथों विमोचन होइस। ये पुस्तक मन के प्रकाशन राजभाषा आयोग करे हे। युहू मं एक ठन बड़े विडम्बना  ये हे के लेखक मन ल सिरिफ पुस्तक के 20-20 प्रति देके भुलवार दे हे। इही ये आयोग के योजना हे। मर-खप के लिखबे, गरीब, दीन-हीन साहित्यकार मन, ओमन ल मिलथे का... फुसका। कुछ तो  बीस पच्चीस  हजार देतीन ओकर मेहताना, जउन लिखत-पढ़त हे तेकर जुगाड़ करना चाही। हो सकत अउ ये लिखे हे तेकर ले बढ़िया कोनो पुस्तक, ग्रंथ, महाकाव्य लिख परही? अउ दूसर बाहिर के मन बर सरकार के खजाना खुले हे, हजारों, लाखों लुटा देवत हे अउ इहाके  बुद्धिजीवी, कलाकार, संस्कृति कर्मी मन बर फुसका परे हे। बस्तर, सरगुजा, बिलासपुर, रायगढ़, राजनांदगांव मं अइसन कतको बुद्धिजीवी कलाकार  भरे परे हे, पढ़े-लिखे नइहे फेर कला, संस्कृति, बोली भाखा मं शहरी क्षेत्र ले तो गंवई क्षेत्र मं जादा हे कोनो ओकर हियाब करइया नइ हे । ये बात के जानकारी संसदीय सचिव कुंवर सिंह निषाद के मारफत मिलिस। 

तीसर सत्र के चरचा गोष्ठी मं डॉ. परदेशी राम वर्मा, डॉ. सविता मिश्रा अउ सेवक राम बांधे  अपन-अपन विचार रखिन। एकर बाद कवि सम्मेलन मं प्रदेशभर ले आए कवि मन अपन-अपन कविता पाठ करिन, कार्यक्रम के समापन राजभाषा आयोग के अनुवादक सुषमा गौराहा के आभार प्रदर्शन  ले होइस।

जाती बिराती

बाग बगइचा दीखे ले हरियर 

हां...हां... दीखे ले हरियर,

मोर डोगहार नइ दीखत हे

बदे हां नरियर हां...हां...होरे।