सोमवार, 28 जुलाई 2014

आदमी पर निबंध


शशिकांत सिंह ‘शशि’
जंगल की एक निंबध प्रतियोगिता में गाय ने आदमी पर निबंध लिखा, जो इस प्रकार है। आदमी एक दोपाया जानवर होता है। उसको दो कान, दो आंखें और दो हाथ होते हैं। वह सब- कुछ खाता है। उसका पेट बहुत बड़ा तो नहीं होता, लेकिन कभी भरता नहीं है। यही कारण है कि आदमी जुगाली नहीं करता। उसके सींग नहीं होते, लेकिन वह सबको मारता है। उसके दुम नहीं होती, लेकिन वह दुम हिला सकता है। वह एक अद्भुत किस्म का प्राणी है। उसके बच्चे भी बड़े होकर आदमी ही बनते हैं। आदमी हर जगह पाया जाता है। गांवों में, शहरों में, पहाड़ों और मैदानों में। रेगिस्तान से लेकर अंटार्कटिका जैसे ठंडे स्थानों पर भी पाया जाता है। वह कहीं भी रह सकता है, लेकिन जहां रहता है उस जगह को जहरीला कर देता है। उससे दुनिया के सारे जानवर डरते हैं। वह जानवरों का दुश्मन तो है ही पेड़-पौधों का भी शत्रु है। आदमियों के अनेक प्रकार होते है। गोरा आदमी, काला आदमी, हिंदू आदमी, मुसलमान आदमी, ऊंची जाति का, नीची जाति का। पर सबसे अधिक सं या में पाए जाते हैं- धनी आदमी, गरीब आदमी। आदमी हमेशा लड़ने वाला जीव होता है। वह नाम, मान, जान, पहचान, आन और खानदान के लिए लड़ता ही रहता है। सबसे अधिक अपनी पहचान के लिए लड़ता है। जानवरों में यह हंसी की बात मानी जाती है कि पहचान के लिए कोई लड़े। किसी के सींग छोटे हैं तो किसी के बड़े। किसी की दुम छोटी है तो किसी की बड़ी। हाथी के कान विशाल होते हैं तो ऊंट के एकदम छोटे, लेकिन दोनों लड़ते नहीं हैं। कौआ काला होता है। तोता हरा, लेकिन दोनों एक ही डाल पर प्रेम से रह सकते हैं। आदमियों में सबसे ज्यादा लड़ाई पहचान के लिए होती है। कहते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है, जबकि समाज में रहना उसे आता ही नहीं। वह सबसे ज्यादा अपने पड़ोसी से लड़ता है। वह दो इंच जमीन के लिए भी लड़ सकता है और एक गज कपड़े के लिए भी। और तो और वह एक पके पपीते के लिए चौबीस घंटे अनवरत लड़े तो जानवरों को आश्चर्य नहीं होगा। लड़ने के लिए धर्म और जाति बनाई गई हैं। जानवरों में जाति और धर्म नहीं हैं तो वह कितने सुख से रहता है। ऐसा नहीं कि शेर के शक्‍ितशाली भगवान हैं और उन्हें मांसाहार पसंद है, तो खरगोश के भगवान शाकाहारी हैं। उनका अवतार जंगल को शेरों से मु त कराने के लिए हुआ था। मछलियों के भगवान पानी में रहते तो बंदरों के पेड़ पर। यदि ऐसा होता तो जंगल में जानवर लड़ते-लड़ते मर जाते। शुक्र है, जानवरों के पूर्वजों के दिमाग में ऐसी बातें नहीं आई। नहीं तो जंगल भी नगर बन जाते। हंसी तो तब आती है जब इतनी लड़ाइयों के बावजूद आदमी अपने को सामाजिक प्राणी मानता हैं। धन्य है आदमी!
शशिकांत सिंह ‘शशि’

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