गुरुवार, 26 जून 2014

सपनो से परे मासूम की दुनिया


मनोज कुमार
एक अबोध मन की कल्पना इस दुनिया की सबसे सुंदर रचना होती है। कभी किसी छोटे से बच्चे की निहारिये। वह सबसे बेखबर अपनी ही दुनिया में खोया होता है। जाने वह क्या देखता है। अनायास कभी वह मुस्करा देता है तो कभी भयभीत हो जाता है। कभी खुद से बात करने की कोशिश करता है तो कभी वह सोच की मुद्रा में पड़ जाता है। तब उन्हें यह नहीं पता होता था कि हाथी किस तरह का होता है या शेर कभी हमला भी कर सकता है। चिडिय़ों की चहचहाट उनका मन मोह लेती है तो बंदर का उलछकूद उसके लिये एक खेल होता था। सच से परे वह अपनी दुनिया खुद बुनता है। शायद इसलिये ही हमारे समाज में बच्चों के खेल खिलौनों का आविष्कार हुआ। बंदर से लेकर चिडिय़ा और गुड्डे गुडिय़ा ले कर घर-गृहस्थी के सामान बच्चों के खेल में शामिल होता था। नन्हें बच्चे का आहिस्ता आहिस्ता दुनिया से परिचय होता था। यह वह समय था जब मां बाप के पास भी समय होता था। वे अपने बच्चों को बढ़ता देखकर प्रसन्न होते थे। यह वही समय होता था जब मां लोरी सुनाकर बच्चों को थपथपा कर स्नेहपूर्वक नींद के आगोश में भेज देती थी। शायद इसी समय से शुरू होता था मां का स्कूल। इस स्कूल में मां का स्नेह तो था ही, संस्कार का सबक भी बच्चा यहीं से सीखता था। बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार। यह वही समय था जब गणेश चतुर्थी से मकर संक्रात, होली, दीवाली और दशहरा मनाने के कारणों से बच्चा संस्कारित होता था। वह रंगों का मतलब जानता था। पतंग की डोर से वह जीत की सीख लेता था। इस जीत की सीख में उसके पास संस्कार थे। वह जीतना चाहता था लेकिन किसी की पराजय उसका लक्ष्य नहीं होता था। 

स्वप्र लोक में बच्चों के विचरने के दिन अब गुम हो गये हैं।  अब न वह समय बचा और न सपने। अब बच्चे वयस्क पैदा होते हैं। मां बाप के पास वक्त नहीं है। अब उन्हें कोई नहीं सिखाता है कि ह से हाथी और ग से गणेश होता है। वे जानते हैं कि एलीफेंट किसे कहते हैं। बंदर मामा की कहानी उसे पता नहीं है लेकिन मंकी से वह बेखबर भी नहीं है। गणेश चतुर्थी पर ग्यारह दिनों तक पूजन करना उसे वैसा ही समय व्यर्थ करना लगता है जैसा कि घंटों मेहनत कर पतंग उड़ाना। दीवाली पर फूटने वाले फटाकों को वह पर्यावरण दूषित करना कहता है लेकिन एके-47 जैसे घातक हथियारों के मोहपाश में बंधा है। बंदूक उसे जीवन रक्षक लगता है। बच्चे का टेलीविजन के पर्दे पर उतरने वाले रंगों की तरह रंगा हुआ है लेकिन होली के रंगों से उसे एलर्जी है। इस समय का बच्चा इंटलीजेंट है। वह आइपेड से खेलता है और कॉमिक वाले सीरियल देखता है। उसे अब सपने नहीं आते। वह एनीमेटेड कैरेक्टर्स को देखकर उन्हें ही जीने लगता है। इन कैरेक्टर्स में भी विलेन उसका प्रिय पात्र होता है। बच्चे की बोलचाल और उसका व्यवहार खली की तरह होता है, दारासिंह की तरह नहीं। आज का बच्चा जल्दी में है। वह थोड़े समय में सबकुछ पा लेना चाहता है। जीत जाना उसका एकमात्र ध्येय है। पराजय उसे नापसंद है। वह दूसरों को पराजित होता देख आनंद से भर उठता है। एक खलनायक उसके भीतर पनप रहा है। 

यह इस समय का कडुवा सच है। मां-बाप धन कमाने की मशीन बन गये हैं। वे अपने बच्चों को शीर्ष पर देखने के लिये दीवानों की तरह पैसे कमाने में जुट गये हैं। उन्होंने अपने सपनों को भी मार दिया है। बच्चों को शीर्ष पर तो पहुंचाना चाहते हैं लेकिन वे इस बात से बेखबर हैं कि उनके बच्चे के पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही है। उनके पास संस्कार नहीं हैं। एक संस्कारहीन बच्चा कामयाब तो हो सकता है लेकिन यह कामयाबी उसे इंसान नहीं बना पायेगी। मां-बाप के पास अब बच्चे को लोरी सुनाकर थपथपा कर सुलाने का वक्त नहीं है। बच्चे की जिद के आगे कान की नसों को फाड़ते बेसुरे गीत लगा देते हैं। बच्चा उसी में रम जाता है। उसका भविष्य भी इसी तरह बेसुरा हो रहा है। मां-बाप के पास बच्चों को सुनाने के लिये कहानी नहीं है। एकल परिवार के चलते दादा-दादी और नाना-नानी तो पहले ही गुम हो चुके हैं। 

अब बच्चों को खाने में दुध-भात नहीं दिया जाता बल्कि अब उनके खाने के लिये मैगी या ऐसा ही कोई फास्टफूड है। बच्चों की जरूरत का हर जवाब मां-बाप के पास पैसा है। पैसों से खरीदने की ताकत तो मां-बाप बच्चों को दे रहे हैं लेकिन जीने की ताकत जिस संस्कार से आता है, उससे खुद मां-बाप दूर हो रहे हैं। यह समय बेहद डराने वाला है। इस समय ने बच्चों के सपनों को गुमशुदा कर दिया है। वे कल्पना के बिना जी रहे हैं। उनमें जिज्ञासा नहीं बची है। बची है तो जीत लेने की होड़। जीत और हार के बीच धीमे-धीमे बड़े होते इन बच्चों को कौन वापस ले जाएगा उनके सपनों की दुनिया में, यह सवाल जवाब की प्रतीक्षा में है। कहते हैं सपनों का मर जाना सबसे बुरा होता है और हम इस बुरे समय के साक्षी बनने लिये कहीं मजबूर हैं तो कहीं हम खुद होकर बच्चों के सपनों का कत्ल कर रहे हैं।
मनोज कुमार

मंगलवार, 17 जून 2014

पहली महिला संगीतकार: सरस्वती देवी

भारतीय फिल्म जगत में मूक फिल्मो के बाद बोलती फिल्मों के चलन के साथ ही गीत संगीत का जादू दर्शको को लुभाने के लिए रखा गया। फिल्मो मे तब पुरूष संगीतकारो का ही बोलबाला था तब बाम्बे टाकीज के हिमांशु राय ने सन 1935 में लखनऊ के मारिस कालेज से एक पारसी युवती को खोज निकाला फिल्मों की पहली महिला संगीतकार बनाने के लिए। तब के पारसी समाज को यह नागवार लगा कि उनके समाज की कोर्इ लड़की फिल्मों से जुड़े। बंबर्इ के पारसी समाज ने धमकी दी कि इस लड़की को संगीतकार बनाने के अंजाम अच्छें नही होगे।
 पर हिमांशु राय नही माने। हां, उस लड़की की हिफाजत और पारसी समाज को भुलावे में रखने के लिए उस लड़की का मिस खुर्शीद होमजी का नाम बदल कर सरस्वती देवी कर दिया और संगीतकार, बनाकर ही दम लिया। साथ ही सरस्वती देवी की छोटी बहन मिस मानेक होमजी का भी नाम बदल कर चंद्रप्रभा कर दिया जो फिल्मों की जानी-मानी हीरोइन बनीं। अब पारसी समाज को इन दोनों लड़कियों पर गर्व था। एक बार किसी गाने की रिकार्डिंग पर सरस्वती माइक के सामने गा रही थी और चंद्रप्रभा दूर खड़ी सिर्फ होठ हिला रही थी। कहते है कि इसी घटना से प्रेरणा लेकर कुछ वर्षो बाद प्ले बैक सिस्टम का प्रचलन हुआ। इसलिए इन्हें प्ले बैक सिस्टम की जन्मदात्री भी माना जाता है। संगीत विशारद की डिग्री प्राप्त सरस्वती देवी ने पंद्रह वर्ष के कार्यकाल में बीस से अधिक फिल्मों में संगीत दिया।उनकी प्रमुख फिल्मे - जवानी की हवा - 1935 अछूत कन्या, निर्मला, बागी, बंधन और झूला आदि है।सरस्वती देवी की लोकप्रियता भारत तक ही सीमित नहीं रही। लंदन में भी उनका नाम अपरिचित नहीं था। बीबीसी ने जब भारतीय समाचार सेवा शुरू की तो उसकी सिगनेचर ट्यून उनकी फिल्म जन्मभूमि के गाने 'जय जय प्यारी जन्मभूमि माता’ की धुन पर ही आधारित थी। इस फिल्म के दो गाने 'दुनिया कहती मुझको पागल’ और 'संवा के हम व्रतधारी’ उस जमाने में खासे लोकप्रिय हुए थे।बॉम्बे टॉकीज के साथ जिस तरह देविका रानी अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थीं, उसी तरह संगीतकार सरस्वती देवी भी, उसी का एक हिस्सा बनकर रहीं। बॉम्बे टॉकीज की पहली ही फिल्म 'जवानी की हवा’ से सरस्वती देवी इसके साथ जुड़ गई थी। उन्होंने कुल तीस फिल्मों में काम किया और करीब डेढ़ सौ गीतों को अपने संगीत से संवारा।
मुम्बई के एक संपन्न और सम्मानित पारसी परिवार में जन्म लेने वाली सरस्वती देवी का मूल नाम खुर्शीद मिनोखर होमजी था। संगीत के प्रति उनका प्रेम देखते हुए उनके पिता ने प्रख्यात संगीताचार्य विष्णु नारायण भातखंडे के मार्गदर्शन में उन्हें शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलाई। बाद में लखनऊ के मॉरिस कॉलेज में उन्होंने संगीत की पढ़ाई की।
1920 के दशक में जब मुम्बई में रेडियो स्टेशन खुला, तो वहां खुर्शीद अपनी बहन मानेक के साथ मिलकर होमजी सिस्टर्स के नाम से नियमित रूप से संगीत के कार्यक्रम पेश किया करती थी। उनका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसी कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए हिमांशु राय ने जब बॉम्बे टॉकीज शुरू किया, तो खुर्शीद को अपने स्टूडियो के संगीत कक्ष में बुलाया और उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। यह एक चुनौती भरा काम था और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। वहीं सरस्वती देवी के रूप में उनका नया नामकरण भी हुआ। पहली फिल्म का नाम था 'जवानी की हवा’। उनकी बहन मानेक ने भी इसमें चंद्रप्रभा के नाम से एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। जहां तक हिंदी फिल्मों की पहली महिला संगीतकार का सवाल है, सरस्वती देवी से पहले भी कुछ महिला संगीतकारों के नाम आते जरूर हैं; दो नाम हैं-मुख्तार बेगम और गौहर कर्नाटकी। ये मूल रूप से शास्त्रीय शैली की गायिकाएं हैं उन्होंने 1932-33 में फिल्मों के लिए भी कुछ गाने गाए हैं। बाद में संभवत: कुछ फिल्मों के लिए संगीत भी उन्होंने तैयार किया, लेकिन उनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। 1934 की फिल्म 'अदल-ए-जहंगीर’ की संगीतकार के रूप में इशरत सुल्ताना का नाम आता है, लेकिन इसके गानों का कोई ग्रामोफोन रेकार्ड उपलब्ध नहीं है। इसी तरह मुन्नी बाई और जद्दन बाई के नाम भी आते हैं, लेकिन उनके भी कोई रेकार्ड उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए सरस्वती देवी को ही हिंदी फिल्मों की पहली संगीतकार के रूप में मान्यता दी जाती है।
पहली फिल्म जवानी की हवा के लिए संगीत तैयार करते हुए सरस्वती देवी को पता चल गया था कि यह आसान काम नहीं है। फिल्म के नायक नजमुल हुसैन और नायिका देविका रानी को गाने का कोई अभ्यास नहीं था। आसान धुनों को भी उनसे गवाने में खासी मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फिल्म का सिर्फ एक ही गाना ग्रामोफोन रेकार्ड पर उपलब्ध है। गाने के बोल है: 'सखी री मोहे प्रेम का सार बता दे’। संगीत वाद्यों के रूप में तबला, सारंगी, सितार और जलतरंग का इस्तेमाल किया गया था। इस गाने में नजमुल हुसैन और देविका रानी के अलावा चंद्रप्रभा की आवाजें भी हैं। लेकिन जिस फिल्म ने सरस्वती देवी को संगीतकार के रूप में अमर कर दिया, वह थी 1936 में बनी उनकी फिल्म अछूत कन्या। इस फिल्म में नौ गाने थे। फिल्म के सभी गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। फिल्म का एक गाना 'कित गए हो खेवनहार’ सरस्वती देवी ने खुद गाया था। दरअसल यह गाना उनकी बहन चंद्रप्रभा को गाना था, लेकिन ऐन वक्त पर उसका गला खराब हो गया। तब हिमांशु राय ने ही उन्हें सलाह दी कि वह खुद इस गाने को गाएं और परदे पर चंद्रप्रभा सिर्फ होंठ हिलाए। इसे एक तरह से 'प्लेबैक सिंगिंग’ की शुरुआत माना जा सकता है। हालांकि इस समय तक कोलकाता के न्यू थिएटर्स में राय चंद्र बोराल भी अपनी फिल्म 'धूप-छांव’ के लिए कुछ इसी तरह एक गाना गवा चुके थे। लेकिन फिल्म का सबसे लोकप्रिय गाना तो रहा, अशोक कुमार और देविका रानी का गाया 'मैं बन की चिडि़य़ा बनके बन बन बोलूं रे’।
सरस्वती देवी की लोकप्रियता भारत तक ही सीमित नहीं रही। लंदन में भी उनका नाम अपरिचित नहीं था। बीबीसी ने जब भारतीय समाचार सेवा शुरू की तो उसकी सिगनेचर ट्यून उनकी फिल्म जन्मभूमि के गाने 'जय जय प्यारी 'जन्मभूमि माता’ की धुन पर ही आधारित थी। इस फिल्म के दो गाने 'दुनिया कहती मुझको पागल’ और 'संवा के हम व्रतधारी’ उस जमाने में खासे लोकप्रिय हुए थे। फिल्म जीवन प्रभात (1939) में देविका रानी और किशोर साहू का गाया गीत 'तुम मेरी, तुम मेरे साजन’ हिट रहा था। इसी फिल्म का होली गीत 'होली आई रे कान्हा, ब्रज के रसिया’ भी बहुत पसंद किया गया था। सरस्वती देवी के लिए तब तक गीत लिखने का काम जे.एस. कश्यप ही करते थे। काश्यप बॉम्बे टॉकीज की फिल्मों के लिए संवाद लिखने का काम भी करते थे। सरस्वती देवी ने अपने सहायकों को भी स्वतंत्र रूप से संगीत रचना के लिए प्रोत्साहित किया। फिल्म कंगन के लिए उनके सहायक रह चुके रामचंद्र पाल ने संगीत तैयार किया। इस फिल्म के लिए गीत कवि प्रदीप ने लिखे। यह फिल्मों की दुनिया में उनकी शुरुआत थी। फिल्म के गीत संगीत खासे लोकप्रिय हुए। बाद की फिल्मों में सरस्वती देवी ने दूसरे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत देना शुरू कर दिया। दरअसल संगीत अब नए रंग में ढल रहा था और सरस्वती देवी उसके साथ चलने की भरसक कोशिश करते हुए भी पीछे छूट रही थी।
बॉम्बे टॉकीज के लिए सरस्वती देवी ने करीब बीस फिल्में की थीं। उनके लिए सरस्वती देवी की अंतिम फिल्म 1941 की नया संसार थी। अब तक की फिल्मों में एस.एन. त्रिपाठी उनके आर्केस्ट्रा का संचालन करते थे और बहुत अच्छी वॉयलिन बजाते थे। सरस्वती देवी के साथ ही उन्होंने भी बॉम्बे टॉकीज छोड़ दिया था और स्वतंत्र रूप से संगीतकार के रूप में काम करने लगे थे। अशोक कुमार के भतीजे अरुण कुमार ने भी सरस्वती देवी के सहायक के रूप में संगीत की दुनिया में प्रवेश किया और बाद में स्वतंत्र रूप से कुछ अच्छी धुनें भी बनाईं। इनकी प्रसिद्ध फिल्म थी 1953 में बनी परिणीता जिसमें मुख्य भूमिकाएं अशोक कुमार और मीना कुमारी ने निभाई थीं। बॉम्बे टॉकीज छोडऩे के बाद सरस्वती देवी ने किसी अन्य स्टूडियो में नौकरी तो नहीं की लेकिन उनके लिए फिल्में जरूर कीं। मिनर्वा मूवीटोन के लिए उन्होंने छह फिल्में की थीं कुछ में उन्होने अकेले ही संगीत दिया और कुछ में उनके साथ अन्य संगीतकार भी थे। 1943 में उन्होंने फिल्म 'प्रार्थना’ में जानी मानी गायिका जहांआरा कज्जन के लिए संगीत तैयार किया, तो उसी साल मिनर्वा मूवीटोन की फिल्म 'पृथ्वी वल्लभ’ में रफीक गजनवी के लिए गाने की धुन तैयार की। 1945 में उन्होंने फिल्म आम्रपाली के लिए अकेले संगीत तैयार किया। इसमें अमीर बाई कर्नाटकी ने कुछ अच्छे गाने गाए। लेकिन अब साफ लगने लगा था कि वह समय से कहीं पिछड़ रही हैं। उनकी अंतिम लोकप्रिय फिल्म ऊषा हरण (1949) थी जिसमें 12 गाने थे। इसमें दो गाने लता मंगेशकर ने भी गाए थे। इसे दो पीढिय़ों के दो महानों का संगम भी मान सकते हैं। इसके बाद 1950 में उनकी फिल्म 'बैचलर हस्बैंड’ आई थी। फिर पांच साल के बाद 1955 में फिल्म इनाम के लिए उन्होंने एक गाने की धुन तैयार की थी। बाकी गानों का संगीत उनके पुराने शिष्य एस.एन. त्रिपाठी ने तैयार किया था। 1961 में उनकी आखिरी फिल्म थी, राजस्थानी की 'बसरा री लाडी’। इसके बाद उन्होंने फिल्मों को अलविदा कहकर संगीत सिखाने का काम हाथ में ले लिया।

शुक्रवार, 6 जून 2014

समागम का नया अंक जारी

हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर शोधपत्रिका समागम का नया अंक जारी
भोपाल। अखिल भारतीय हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर हिन्दी पत्रकारिता का सफर, उसकी उपलब्धि एवं उसकी चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए अंतरराष्‍ट्रीय  मानक की शोध पत्रिका समागम ने अपना ताजा अंक जारी किया है। विगत 14 वर्षों से मीडिया एवं सिनेमा को केन्द्र में रखकर प्रकाशित हो रही मासिक शोध पत्रिका समागम के इस अंक में हिन्दी पत्रकारिता का पहला पत्र उदंत मार्तंड के प्रकाषन से लेकर आधुनिक युग में ट्वीट करती पत्रकारिता का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त हिन्दी पत्रकारिता में भाषा के संकट पर भी स्कॉलर ने अपना शोध पत्र लिखा है। विज्ञापन जगत एवं मीडिया के अंतर्सबंधों को रेखांकित करते आलेख सहज ही ध्यान आकर्षित करते हैं। इस आशय की जानकारी शोध पत्रिका के संपादक मनोज कुमार ने दिया। उन्हांेने बताया कि पूर्णकालिक मासिक शोध पत्रिका समागम में देशभर के मीडिया, शिक्षण एवं साहित्य के विशेषज्ञ का जुड़ाव है जिनके मार्गदर्शन में शोध पत्रिका समागम का प्रकाशन निरंतर किया जा रहा है। शोध पत्रिका समागम का जुलाई अंक हिन्दी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचंद को समर्पित किया गया है।