मंगलवार, 26 मार्च 2013

समागम का अप्रेल अंक राजेन्द्र माथुर पर एकाग्र

भोपाल. भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका समागम का अप्रेल अंक हिन्दी  पत्रकारिता के यशस्वी पत्रकार राजेन्द्र माथुर पर एकाग्र होगा.  मध्यप्रदेश के मालवांचल से निकले राजेन्द्र माथुर ने समूचे देश में  हिन्दी पत्रकारिता को शीर्ष पर स्थापित किया. अंगे्रेजी के विद्वान  राजेन्द्र माथुर ने माटी के सपूत होने का परिचय देेेते हुये हिन्दी  पत्रकारिता को एक नयी पहचान दिलाकर मिथक बन गये.  इस आशय की जानकारी शोध
पत्रिका समागम के सम्पादक मनोज कुमार ने दी. उल्लेखनीय है कि राजेन्द्र  माथुर के उल्लेख के बिना हिन्दी पत्रकारिता पर चर्चा होना लगभग असंभव सा  है. समागम का यह अंक वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां और  राजेन्द्र माथुर पर केन्द्रित है. नईदुनिया से अपनी पत्रकारिता आरंभ करने  वाले राजेन्द्र माथुर पर केवल मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि समूची हिन्दी  पत्रकारिता गर्व करती है. 9 अप्रेल को उनकी पुण्यतिथि है और इस अवसर पर  हिन्दी पत्रकारिता के महामना का स्मरण करते हुये हिन्दी पत्रकारिता में  राजेन्द्र माथुर के बाद कौन, तलाश करने का एक विनम्र प्रयास है.

मंगलवार, 12 मार्च 2013

उत्कृष्ट सिंधी साहित्यकार सम्‍मानित

सौ वर्षीय सृजक सतराम सायल  को  लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड 

भारत सरकार ने ऐसी तीन भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए राष्ट्रीय परिषदें गठित की थीं जिनके अलग प्रान्त नहीं पर उन भाषा-भाषियों का अपना साहित्य है और एक संस्कृति भी . ये भाषाएँ हैं-सिन्धी ,संस्कृत और उर्दू .हाल ही में( 1 0  मार्च ) मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अहमदाबाद में राष्ट्रीय सिन्धी भाषा विकास परिषद् की और से सिन्धी विद्वानों और साहित्यकारों को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान  किये .यह आयोजन साहित्य ,संस्कृति और आध्यात्म की त्रिवेणी के रूप में सामने आया जब प्रसिद्ध प्रवचनकर्ता और संत दादा जे पी वासवानी ने समारोह में  मौजूद रहकर संबोधित किया . दादा जश्न वासवानी  दो- एक वर्ष पहले अस्वस्थ  थे और उन्होंने प्रवचन कार्यक्रम काफी कम कर दिए थे. अहमदाबाद में उनकी उपास्तिथि सभी का उत्साह बढ़ाने वाली रही .दादा ने साहित्यकारों की भूमिका को अहम् बताते हुए समाज को सही दिशा में ले जाने के यत्न बढ़ाने का आह्वान किया .
सिन्धी भाषा विकास परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री रमेश वर्ल्यानी ने  इस गरिमामय  आयोजन के लिए लम्बे समय से तैयारियां की थी .साहित्यकारों को लोक कथाओ  की रोचक प्रस्तुति ,नाटक कला के इतिहास कथा साहित्य ,काव्य ,भाषा आधारित शोध कृतियों  के लिए पचास -पचास हजार रुपये की पुरस्कार राशि ,सम्मान पट्टिका और शाल ,श्रीफल द्वारा सम्मानित किया गया .कार्यक्रम के संयोजक श्री अमर दौलतानी और संचालक निर्मल गोपलानी थे .आयोजन का समापन महेश चंदर के सुमधुर गीतों से हुआ .श्री महेश के पिता मास्टर चंदर  भी जाने माने सिन्धी गायक,कंपोजर और फिल्म अभिनेता थे .दो वरिष्ठ साहित्यकार लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किये गए .ये हैं -सिन्धी व्याकरण,शब्दकोष और अनेक पाठ्य -पुस्तकों के लेखक अहमदाबाद निवासी श्री सतराम दास सायल और श्री जेठो लालवानी .श्री सायल  की आयु सौ बरस है और वे अभी भी सृजनरत है . समारोह में पुस्तको के विमोचन भी हुए .डॉ कमला गोकलानी ,भगवान बाबानी ,रश्मि रमानी ,सिन्धी दैनिक हिन्दू,मुंबई के संपादक श्री किशन वरयानी ,अखिल भारत सिन्धी बोली साहित्य सभा के सांस्कृतिक अध्यक्ष चंदर सावनानी ,कनयो  रूपानी , राम बक्शानी ,हीरो ठकुर , साहित्य अकादमी के सिन्धी भाषा संयोजक डॉ प्रेमप्रकाश और अनेक लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार इस समारोह की गरिमा बढ़ा रहे थे . विवरण -अशोक मनवानी ,भोपाल .

सोमवार, 11 मार्च 2013

शब्दों से झांकता इतिहास

गोपालकृष्ण गांधी, पूर्व राज्यपाल
किसी दिलकश गुफा में घुसने की मानिंद होती है शब्दों के मूल की तलाश। आप इनके एक-एक मोड़ व इनमें आए बदलावों को गहराई से देखते जाते हैं और आपका साबका कहीं हैरानी से, तो कहीं कुछ नया पाने की उम्मीद से और कभी-कभी एक जोरदार झटके से पड़ता रहता है। मेरे एक मित्र ने दो शब्दों का उल्लेख किया, दूसरे दिन वे दो ‘किस्मों’ के लिए प्रयुक्त हुए और फिर दो अतियों के लिए भी। वे शब्द हैं- ‘स्टोइक’ और ‘एपिक्योर।’ इन दोनों शब्दों के मतलब, इनके उदाहरण और इनके व्यवहार इतने रूपों में हमारे सामने आते हैं, जैसे बच्चों की किताबों से कूदकर तस्वीरें हमारे सामने आ खड़ी हुई हों। स्टोइक यानी आत्मसंयमी या नितांत सादगीपसंद। जिंदगी में आनंद देने वाली जितनी भी चीजें हैं, वह उन सबका निषेध करता है। एपिक्योर यानी स्वादप्रेमी या चटोरा। ऐसा इंसान भोग में यकीन करता है। जिंदगी से उसे कुछ भी मिले, खासकर आनंद देने वाला, उन्हें वह नकारता नहीं। आत्मसंयमी व्यक्ति कुछ खाएगा भी, तो भोज्य पदार्थ को वह उसके जैविक रूप में ग्रहण करना चाहेगा, जैसे वह फल, अंकुरित बीज व साबूत गेहूं की रोटी को अपने आहार में शामिल करता है। लेकिन एक स्वादप्रेमी अपनी पसंद की चीजें चुनता है।

वह उनके जायके, उनकी खुशबू और उन्हें पकाने की विधि का भरपूर लुत्फ उठाता है। आत्मसंयमी लोग पानी को दो हिस्सों में बांटते हैं। एक हितकारी और दूसरा नुकसानदेह। लेकिन स्वादप्रेमी लोग सोच-समझकर पहले अपना पेय चुनते हैं, फिर उसका घूंट भरते हैं और अपनी जीभ के जरिये उसकी जटिलता का एहसास करते हैं।
आत्मसंयमी व्यक्ति आपको हमेशा दुबला-पतला मिलेगा। उसे देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह अपने कपड़ों के साथ ही पैदा हुआ था और उन कपड़ों पर कभी इस्तरी भी होनी चाहिए, इसकी जरूरत उसे कभी महसूस नहीं हुई। स्वादप्रेमी इंसान की निगाह में लिबास का मतलब सिर्फ बदन ढकना नहीं है, बल्कि उसके साथ उससे कहीं कुछ बेहतर करना है। इस किस्म का शख्स आपको प्राय: खुशमिजाज मिलेगा। आत्मसंयमी लोगों के चेहरे पर कभी मुस्कान नहीं दिखेगी, ऐसे लोग विनोदी नहीं होते, बल्कि उनका चेहरा बिल्कुल ऐंठा हुआ होता है।
तो क्या इसका मतलब यह है कि आत्मसंयमी लोगों का रिश्ता गरीबी से है और स्वादप्रेमियों का संपन्नता व समृद्धि से?
ऐसा जरूरी नहीं है, बल्कि इससे काफी अलग मामला है। मैं ऐसे कई आत्मसंयमी लोगों को जानता हूं, जो धनाढ्य हैं और खुशकिस्मती से मुझे उन स्वादप्रेमियों के साथ भी जीने का मौका मिला है, जिनकी बहुत साधारण कमाई है। विडंबना यह है कि आत्मसंयमी लोग कुलीन वर्ग का हिस्सा हैं। वे भले ही किशमिश खाएं, मगर उसे खाते हैं वे महंगी क्रिस्टल कटोरी में, उनका जूस उन्हें चांदी के गिलास में सर्व किया जाता है। और उनके साधारण-से लगने वाले वस्त्र भी काफी कीमती होते हैं। सादगीपसंद लोग अधीर हो सकते हैं, लेकिन स्वादप्रेमी लोग प्राय: उदार होते हैं। आत्मसंयमी लोगों के पास अपनी एक छोटी-सी ‘बुक-शेल्फ’ होती है, जिसमें उनकी पसंदीदा जीवनशैली या उनसे मिलते-जुलते विषय की किताबें आपको मिलेंगी। लेकिन स्वादप्रेमी लोग खरीदकर या मांगकर ही सही, शब्दों की विशाल दुनिया से वाकिफ मिलते हैं। बहरहाल, जिंदगी को देखने का दोनों का अपना-अपना नजरिया है और हमें उनकी सोच का सम्मान करना चाहिए। लेकिन मेरी अपनी जीवनदृष्टि है और मैं ऐसे ‘आत्मसंयमी’ लोगों को सलाम करने की बजाय स्वादप्रेमी लोगों के साथ कदमताल करना चाहता हूं। हालांकि बेहतर स्थिति तो यही थी या है कि हम कुछ हद तक आत्मसंयमी भी हों और कुछ स्वादप्रेमी भी। मगर संभावनाहीन जिंदगी को देखते हुए हमें आत्मसंयमियों के गुणों को त्यागना होगा। हमें स्वादप्रेमियों की प्रतिभा की जरूरत है, ताकि जिंदगी से हासिल अवसरों का सदुपयोग करते हुए हम नए-नए प्रयोग कर सकें। निर्लिप्ततावाद या आत्मसंयमवाद कोई क्या खाए, क्या पहने, क्या गाए या क्या पढ़े की ही प्रवृत्ति नहीं है।

यह समय के साथ कैसे पेश आना है, यह भी बताता है। लेकिन वहां उसके पास कोई विकल्प नहीं है। आत्मसंयमवाद एक इकहरा रास्ता है। शासक व दार्शनिक मर्कस ऑरेलियस एक महान आत्मसंयमी थे। उनकी कृति मडिटेशंस  को हम सभी को पढ़ना चाहिए, भले ही हम आत्मसंयमवादी हो या नहीं। इस कृति की तीन पंक्तियां यादगार हैं- ‘भविष्य के लिए इस सूत्र की गांठ बांध लो। जब कभी भी तुम्हें कोई चीज बहुत सताने लगे, तो याद रखना कि यह दुर्भाग्य नहीं है, बल्कि उसे उचित तरीके से सहना ही भाग्यशाली होना है।’
यदि कोई तुम्हें जख्मी करे, तो उससे सबसे अच्छा बदला यही है कि तुम उसकी तरह बिल्कुल न बनो।
अपने भीतर गौर से देखो; उसमें शक्ति का एक अजस्र स्रोत है और जब कभी भी तुम शिथिल पड़ोगे, वह तुम्हारी जरूरत को पूरा करेगा।
अब इन दोनों शब्दों- ‘स्टोइक’ और ‘एपिक्योर’ के अर्थो व उदाहरणों को एक तरफ रख दें, तो सवाल यह उठता है कि ये शब्द आए कहां से? बेशक ‘ग्रीक’ से। अंग्रेजी में इससे मिलते-जुलते कुछ शब्द हैं, जो संज्ञा रूप से अधिक विशेषण के तौर पर इस्तेमाल होते हैं। वे भी ग्रीक से आए हैं। इनमें से एक शब्द ‘स्पार्टन’ (अनुशासित) भी शामिल है, जो प्राचीन नगर स्पार्टा के नाम से बना है। स्पार्टा वही नगर है, जहां सादगी और मितव्ययिता को सद्गुण के रूप में चिन्हित किया गया था। इसी तरह, ‘लैकोनिक’ का इस्तेमाल मितभाषी इंसान या सार सामग्री के बारे में किया जाता है। इस शब्द भी व्युत्पत्ति भी ग्रीक राज्य ‘लैकोनिया’ के नाम से हुई है। स्पार्टा इसी राज्य की राजधानी था। जाहिर है, लैकोनिया के लोग अपनी बातें कम से कम शब्दों में करते थे। सिकंदर के पिता यानी फिलिप ऑफ मकदूनिया के बारे में एक दिलचस्प कहानी है।
फिलिप खुद एक बड़ा साम्राज्यवादी था। उसने लैकोनिया के स्पार्टावासियों को एक अशुभ संदेश भेजा था कि ‘यदि मैंने लैकोनिया में प्रवेश किया, तो मैं इसे मटियामेट कर दूंगा।’ लैकोनिया ने इसका जवाब दिया- ‘यदि।’
बहरहाल, शब्दों की जड़ों की तलाश इन दिनों बमुश्किल ही देखने को मिलती है। अब किसके पास इतना टाइम (वक्त) है? ‘टाइम’ से मुझे याद आया कि इसका संबंध ग्रीक दार्शनिक टाइमन से है। टाइमन ईसा से 300 साल पहले जीवित थे और वह स्केप्टिक (संशयवादी) थे। स्केप्टिक से मुङो याद आया कि इस शब्द का रिश्ता ग्रीक ‘स्केप्टिकोई’ से है..लेकिन मुझे यहीं रुकना होगा, क्योंकि इस कॉलम की भी शब्द सीमा है।
हिंदुस्‍तान से साभार 

रविवार, 10 मार्च 2013

वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार की नई किताब

पत्रकारिता से मीडिया तक वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार की नई किताब
वर्तमान में पत्रकारिता हाशिये पर है और मीडिया शब्द चलन में है.
पत्रकारिता के गूढ़ अर्थ और मीडिया की व्यापकता को रेखांकित करता
मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका समागम के सम्पादक मनोज कुमार की नई किताब पत्रकारिता से मीडिया तक का प्रकाशन वैभव प्रकाशन रायपुर ने किया है. मनोज कुमार विगत तीन दशकों से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. अपने अनुभवों को और समय समय पर लिखे गये लेखों का यह संग्रह महज संकलन न होकर एक दस्तावेज बन पड़ा है. मनोज कुमार की यह पांचवीं किताब है.
पत्रकारिता के विविध विषयों पर ऐसे आलेख हैं जो हमेशा सामयिक बने रहेंगे.
किताब में शामिल पहला लेख पत्रकारिता से मीडिया तक में उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया है कि कभी हम अर्थात श्रमजीवी कहलाते थे और आज हम मीडिया कर्मी हो गये हैं. यह एक गंभीर सवाल है जिस पर हम सबको विचार करने की जरूरत है कि हम तो हमेशा से श्रमजीवी रहे हैं और रहेंगे. इसी तरह पत्रकारिता की भाषा, पाठकों की उदासीनता, अखबार के पन्नों पर बढ़ते विज्ञापन, पेडन्यूज, पीत पत्रकारिता आदि आदि विषयों पर उनके तल्ख टिप्पणियों वाले लेख शामिल है. यह किताब कई बार मन को भीतर तक परेशान कर जाती है.
मनोज कुमार की इस किताब में कुछ अन्य आलेख सामाजिक सरोकार के हैं. वह भी समय की नब्ज पर हाथ रखते दिखते हैं. 128 पेज की इस किताब में तीस लेख शामिल किये गये हैं. छपाई खूबसूरत है  और कीमत भी अधिक नहीं महज दो सौ रूपये. वैभव प्रकाशन को इस बात की दाद देनी चाहिये कि इस कठिन समय में वे ऐसी किताब छापने का साहस किया जब इसके खरीददार शायद ना मिले. यह किताब प्रोफेशनल्स के साथ ही पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये जरूरी किताब है.
 -अभिनव तैलंग, कला समीक्षक, भोपाल

मंगलवार, 5 मार्च 2013

खत्म नहीं होगी सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों की सदस्यता

 प्रमोद भार्गव
यह हमारे देश की कानून व्यवस्था की ही विडंबना है कि जेल में कैद निर्दोष आरोपी तो मतदान करने के अधिकार से वंचित रहता है, लेकिन किसी सांसद और विधायक को गंभीर आपराधिक मामले में सजा भी हो जाए तो भी उसकी सदस्यता बेअसर रहती है। कानून की इस विसंगति को दूर करने और इनकी सदस्यता खत्म करने के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केंद्र सरकार से भी राय चाही थी। किंतु यहां गौरतलब है कि सरकार ने दागियों के फेबर में शपथ-पत्र देकर यह सुनिश्चित कर दिया कि वह मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कोई सुधार या बदलाव नहीं चाहती। इस हलफनामे ने यह भी तय किया कि राहुल गांधी कांग्रेस में जिस शुचिता, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली की मंचों से दुहाई दे रहे हैं, कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार का उससे कोई वास्ता नहीं है ? नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी राजनीतिक नेतृत्व की अगुआई करता रहेगा।
केंद्र सरकार ने शीर्ष - न्यायालय में हलफनामा दायर करके यह साफ कर दिया है कि वह जनप्रतिनिधित्व कानून के किसी भी मौजूदा प्रस्ताव में परिवर्तन नहीं चाहती। मौजूदा कानून में प्रावधान है कि यदि सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में सजा हो जाए तो उसकी सदस्यता बरकरार रहेगी। बीते कुछ सालों में यह लगातार देखने में आ रहा है कि कई मंत्रियों, सांसदों व विधायकों को आपराधिक मामलों में हवालात के सींखचों के पीछे जाना पड़ा है। किंतु यहां यह विरोधाभासी स्थिति है कि सजायाफ्ता नेता संसद और विधानसभा सत्रों के दौरान सदन की कार्यवाही में बेहिचक भागीदारी कर सकते हैं। मतदान कर सकते हैं। किसी नए कानून की संहिताएं रचने में राय देकर निर्णयात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।
हमारे संविधान का यह कितना अजीबोगरीब लचीलापन है कि कानून की अवज्ञा का अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। दरअसल नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिात्व कानून के जरिये मिला हुआ है। इस कानून में प्रावधान है कि सजा सुनाए जाने के छह साल बाद राजनेता मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करा सकता है और चुनाव भी लड़ सकता है। यदि निचली अदालत में दोषी पाए व्यक्ति की अपील उपरी अदालत स्वीकार कर लेती है और जब तक उसका फैसला नहीं आ जाता तब तक दोषी व्यक्ति को न तो मतदान से वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने के अधिकार से ? इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के बाबत दाखिल की गई थी और शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में टिप्पणी दर्ज करते हुए केंद्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा कयों मिलनी चाहिए ?
केंद्र सरकार ने बतौर हलफनामा पेश करते हुए दलील दी कि कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं और यदि सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त हो जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि यह उन मतदाताओं के संवौधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। यहां सवाल उठता है कि जो जनप्रतिनिधि जेल की हवा खा रहा है, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? यहां यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जब किसी प्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त होती है तो छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवौधानिक अनिवार्यता है, तब न तो कोई क्षेत्र नेतृत्व विहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है। दरअसल सजायाफ्ता प्रतिनिधि की सदस्यता को नेतृत्व और सरकार में उसकी भूमिका से कहीं ज्यादा नैतिकता के औचित्यों से आंकने की जरुरत है। हालांकि इस विसंगति को दूर करने के लिए यदि राजनीतिक नेतृत्व दृढ़ता दिखाएं तो बड़ी सरलता से जनप्रतिनिधत्व विधान के उस प्रावधान को विलोपित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत सजा प्राप्त नेता को मतदाता बनने का अधिकार प्राप्त है। पर जब संसद में ही 162 दागी बैठे हों तो वे ऐसा कानून संसद से कैसे पारित होने देंगे, जिससे उन्हीं की गर्दन नपने लग जाए ? क्योंकि हमारे देश में बीते ढाई दशकों में राजनीतिक अपराधियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। महिलाओं की हत्या उनसे बलात्कार और छेड़छाड़ करने वाले राजनीतिक अपराधी भी संसद और विधानसाभाओं में है। यह कोई कल्पित अवाारणा नहीं है, बल्कि खुद इन जनप्रतिनिधियों ने अपनी आपरधिक पृष्ठभूमि का खुलासा चुनाव लड़ते वक्त जिला निर्वाचन अधिकारी को दिए शपथ-पत्रों में किया है। इस जानकारी को सूचना अधिकार के तहत हासिल 'एसोसिएशन फॉर डेमोके्रटिक रिर्फोम' में किया है। इस रिर्पोट के मुताबिक 369 सांसदों और विधायकों महिलाओं को प्रताड़ित व यौन उत्पीड़ित करने के मामले पुलिस थानों में पंजीबद्ध हैं। कई मामले आदालातों में विचाराधीन हैं।
यदि सर्वोच्च न्यायलय में सेवानिवृत महिला आईएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकरता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे यहां अपराध भी अपराध की प्रकृति के अनुसार नहीं,व्यक्ति की हैसियात के मुताबिक पंजीबद्ध किए जाते हैं और उसी अंदाज में मामला न्यायायिक प्रकिया से गुजरता है। अलबत्ता कभी - कभी तो यह लगता है कि पूरी कानूनी प्रक्रिया दोषी को निर्दोषी सिद्ध करने की मानसिकता से आगे बढ़ रही है। यही वजह है कि आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसे में यह मुगालता हमेशा बना रहता है कि राजनीति का अपराधीकारण हो रहा है या अपराा का राजनीतिकरण।
ऐसे में क्यों न हत्या और बलात्कार जैसे जद्यन्य अपराधों के आरोपी संसादों व विधायको के खिलाफ मामलों की सुनवाई त्वरित न्यायालयों में हो और इन प्रकारणों को छह माह में निपाटने की बाध्यकारी शर्त छोड़ दी जाए ? हालांकि इस दिशा में पहल करते हुए तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललीता ने अनुकरणीय पहल कर दी है। जयललिता ने 13 सूत्रिय कार्ययोजना पेश करते हुए महिलाओं के विरूद्ध अपराधों की सुनवाई की दृष्टि से हर जिले में विशेष त्वरित अदालतों का गठन किया है। साथ ही लोक अभियोजकों का दायित्व भी महिला लोक अभियोजकों को सौंपा है। हांलाकि यह जरूरी नहीं है कि महिला लोक अभियोजक, जज, वकील अथवा पुलिस होने से कानूनी प्रकिया निर्विवाद रूप से आगे बढ़ जाए। क्योंकि बलात्कार में मौत की सजा पाए पांच अभियुक्तों को अभयदान देने का काम पूर्व राष्ट्र्रपति प्रतिभा देवी पटिल ने ही किया था। लेकिन त्वरित अदालतें गठित करने का निर्णय प्रशंसनीय है।
संवेदनशील राज्य सरकारें एक कदम और आगे बढ़ाते हुए यह भी कर सकती हैं कि भारतीय दण्ड संहिता की जो 354,506 और 509 धारांए है,इनके दायरे में आने वाले अपराधों को गैर जमानती अपराध घोषित कर दिया जाए। धारा 354 और 506 हमला और महिला का शीलभांग करने के लिए बल प्रयोग और आपराधिक भय से संबद्ध है। वहीं 509 अश्लील शब्द,अमर्यादिता भाव-भंगिमा या महिला कि आबरू को तार-तार करने की कोश्शि से जुड़ी गतिविधि से सबद्ध है। लेकिन राज्य सरकारें आईपीसी और जनप्रतिनिधित्व कानून की प्रचलित धाराओं में कोई बदलाव नहीं चाहती। जबकि संभवित कई परिर्वतन राज्य सरकारें अपने स्तर पर भी कर सकती है। दरअसल ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि यौन उत्पीड़न के मामलों में राजनेताओं के साथ प्रशासन व पुलिस के आला अधिकारी भी संलिप्त हैं। इस लिहाज से कई अवसारों पर पुलिसकर्मी अपराा रोकने में सहायक की संवेदनशील भूमिका का निर्वाह करने की बजाए पीड़ित महिला के साथ निर्ममता से पेश आने के कारण उसकी पीड़ा और बढ़ाने का काम करते है। जाहिर है राजनीतिक व्यवस्था पुलिस प्रजातंत्र में लोक कल्याणकारी भूमिका कैसे निभाए,इसे गंभिरता से नही ले रही ? इसीलिए पुलिस सुधार आयोग की सिफारिशें अर्से से ठण्डे बस्ते में पड़ी हैं। तय है सभी राष्ट व राजसत्ताएं पुलिस पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहती है जिससे कानून में संवेदनशीलता और पारदर्शिता की बजाए, सनातन जड़ता बनी रहे।
 प्रमोद भार्गव

·केमिकल वाले पानी से 200 परिंदों की मौत

मौत के आगोश में परिंदे। तस्‍वीर: कल्पित भचेच अहमदाबाद

सोमवार, 4 मार्च 2013

आंचलिक पत्रकारों को मिलेगा पुरस्कार

 भोपाल 3 मार्च। तकनीकी क्रांति और वैश्विक अर्थव्यवस्था ने आंचलिक पत्रकारिता का स्वरूप बदल दिया है। दूरदराज के गांवों में काम करने वाले आंचलिक पत्रकारों को इस बदलते माहौल को समझना होगा और अपनी शैली में थोड़ा सा बदलाव लाना होगा तभी वे खुद को इस परिवेश में सफल बना पाएंगे। स्वर्गीय पत्रकार भुवन भूषण देवलिया स्मृति व्याख्यानमाला में आंचलिक पत्रकारिता की चुनौतियां विषय पर मूल्य आधारित पत्रकारिता के आग्रह के उत्तर में भास्कर पत्र समूह के मराठी अखबार दिव्य मराठी के स्टेट एडीटर अभिलाष खांडेकर ने ये विचार व्यक्त किए। ये व्याख्यानमाला माधव राव सप्रे संग्रहालय सभागार में आयोजित की गई थी।
स्व. पत्रकार भुवन भूषण देवलिया स्मृति व्याख्यानमाला

उन्होंने कहा कि यदि हम भारतीय मूल्यों को बचाए रखना चाहते हैं तो हमें दुनिया के बदलते परिवेश से शिक्षा लेकर खुद को बदलना होगा ।इस व्याख्यानमाला में पूर्व मंत्री महेश जोशी, मूल्यानुगत मीडिया पत्रिका के संपादक कमल दीक्षित, राष्ट्रीय एकता परिषद के उपाध्यक्ष रमेश शर्मा, पत्रकारिता विवि की पूर्व प्राध्यापिका सुश्री दविंदर कौर उप्पल, लोकमत समाचार के ब्यूरो प्रमुख शिव अनुराग पटैरिया, माखनलाल विवि के पत्रकारिता विभाग के प्राध्यापक पुष्पेन्द्र पाल सिंह, नव दुनिया के संयुक्त संपादक राजेश सिरोठिया ने भी अपने विचार व्यक्त किए। 
 जनसंपर्क विभाग के सहायक संचालक और स्व. देवलिया जी की स्मृति में प्रकाशित स्मारिका के संपादक अशोक मनवानी ने कार्यक्रम का संचालन किया। आभार प्रदर्शन राजेश सिरोठिया ने किया।समिति की ओर से सभी वक्ताओं को स्मृति चिन्ह भेंट किए गए।
 आयोजन समिति की ओर से शिव अनुराग पटैरिया ने भी आंचलिक पत्रकारों को हर साल 11 हजार रुपए का पुरस्कार देने की घोषणा की।
अध्यक्षीय संबोधन में स्व. देवलिया जी के साथ प्राध्यापक रहीं पत्रकारिता की शिक्षिका सुश्री दविंदर कौर उप्पल ने कहा कि अब्दुल गनी,मास्टर बल्देव प्रसाद और पं. ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जैसे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के अनुभवों से पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों को प्रेरणा देने वाले स्व. देवलिया पत्रकारों में देशभक्ति के बीज बोने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। उनका मानना था कि बेशक तकनीकी या आर्थिक क्रांति हो जाए पर यदि पत्रकारों में भारतीय संस्कृति से लगाव नहीं होगा तो पत्रकारिता की चमक फीकी पड़ जाएगी। उन्होंने कहा कि बेशक आज की पत्रकारिता में धन की वर्षा हो रही हो पर हमें उस माहौल में सेंधमारी करके भारतीय मूल्यों का प्रचार प्रसार करना होगा ताकि पत्रकारिता की प्रतिष्ठा भी बढ़े और समाज का चहुंमुखी विकास भी हो। उन्होंने कहा कि आज जब मैं अपनी नौकरी से सेवा निवृत्त हो चुकी हूं तब मुझे इस बात का संतोष है कि हमने अपने विद्यार्थियों को मूल्यों से संस्कारित पत्रकार बनाने की चेष्ठा तो की है। उन्होंने कहा कि स्व. देवलिया जी की स्मृति में आयोजित ये व्याख्यान माला सागर में भी आयोजित होनी चाहिए ताकि वहां की नई पीढ़ी के पत्रकार भी प्रेरणा प्राप्त कर सकें।
मूल्यानुगत मीडिया के संपादक प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि बेशक वैश्विक परिवेश बदल गया है पर गांवों में संसाधन सीमित हैं इसलिए पिछड़ रही आंचलिक पत्रकारिता को सफल बनाने की जवाबदारी भी बड़े मीडिया संस्थानों को ही संभालनी होगी। उन्होंने कहा कि स्व. भुवन भूषण देवलिया जी एक्टिविस्ट जर्नलिस्ट थे। इस तरह के पत्रकार आज कम हो रहे हैं। आज बड़े अखबारों के कंप्रोमाईजिंग एजेंट के रूप में काम कर रहे पत्रकारों को नई पीढ़ी के पत्रकार अपना आदर्श मान रहे हैं जो चिंता का कारण है। स्व. देवलिया जी जैसे आंचलिक पत्रकार समाज के रोल माडल बनें इसके लिए उनकी स्मृति में आयोजित ये कार्यक्रम गांव गांव में होने चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा ने कहा कि  पत्रकारिता को समाज की जरूरत के मुताबिक विकसित किया जाए तो आंचलिक पत्रकारिता की चुनौतियां भी समाप्त हो सकती हैं। उन्होंने कहा कि शहरी चमक दमक से प्रभावित युवा संपादकों में गुलाम मानसिकता के कारण भाषा पर से नियंत्रण छूट रहा है। वे हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू जैसी कई भाषाओं के मिले जुले संवाद को पत्रकारिता की भाषा मान बैठे हैं जबकि अंचलों के पत्रकार हिंदी के ही कई नए शब्द खोजकर लाते हैं जिन्हें मुख्यधारा की पत्रकारिता में जगह मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जिस तरह प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आईंस्टीन का कहना था कि ऊर्जा न तो पैदा हो सकती है न ही नष्ट हो सकती केवल उसका रूपांतरण हो सकता है, उसी तरह ऋग्वेद में भी कहा गया है कि जड़, चेतन सभी में ब्रह्रम का वास है। इसी तरह बाजारवाद भी भारतीय मूल्यों और भारतीय दर्शन में पहले से मौजूद है। हमें उसे हमारे संदर्भों में ही अपनाना होगा तभी हम आंचलिक पत्रकारिता का लाभ समाज को पहुंचा पाएंगे।
कि अखबारों को गांवों तक अपना ढांचा खड़ा करना होगा तभी आंचलिक पत्रकारों को मुख्य धारा की पत्रकारिता में शामिल किया जा सकेगा।
 स्व. देवलिया जी अपने मिलने वालों के लिए हमेशा कुछ न कुछ देने की अभिलाषा रखते थे। 
डॉ. सर हरिसिंह गौर विवि पूर्व छात्र कुल संघ के अध्यक्ष प्रो. राधेश्याम दुबे ने स्व. देवलिया जी के साथ बिताए अपने अनुभवों का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि स्व. देवलिया की स्मृति अद्भुत थी और वे घटनाओं को याद रखकर समाचार लिख देते थे। समाज की तमाम घटनाओं पर उनकी पैनी नजर रहती थी। उनकी पत्रकारिता राष्ट्रवादी थी और उसे वे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों से लगातार संवाद करके सक्रिय बनाए रखते थे।
आयोजन के प्रारंभ में व्याख्यानमाला समिति की ओर से सभी अतिथियों का पुष्प गुच्छ भेंटकर अभिनंदन किया गया। समिति की ओर से सर्वश्री राजेश सिरोठिया-अपर्णा सतीश एलिया,रुणा-डॉ.बी.के. दुबे,राजीव सोनी, सुनील-साधना गंगराड़े, अजय त्रिपाठी, आलोक सिंघई ने भी अतिथियों को पुष्प गुच्छ भेंटकर उनका अभिनंदन किया।