सोमवार, 23 जनवरी 2012

शैतानी खेल की दुनिया


सुनील मिश्र
आजकल कुनकुनी दोपहर बड़ी सुहाती है। ज्यादातर दफ्तरों में दोपहर का आधा घंटा भोजनावकाश का रहता है। लोग उसका मौसम जरा पहले से काफी बाद तक मनाते हैं। बीच-बीच में भी जितनी बार किसी बहाने से कुर्सी से उठने का मौका मिल गया, तो बोनस ही हुआ। बहरहाल, ऐसी ही एक दोपहर अपने आॅफिस के पीछे जाकर कुछ देर के लिए खड़ा हुआ। सौ कदम की दूरी पर ही वहां एक नाला बरसों से बहता है। काला गंदा पानी ठहर-ठहर कर बहता है। कचरा, पन्नी, कभी-कभार मरे प्राणी भी बहते हैं उसमें। उसी नाले के ऊपर लोहे का अर्धचंद्राकार सेतु सरीखा बना हुआ है। वहीं काफी बगुले इक ट्ठा होते हैं। कुछ-कुछ खाते रहते हैं, मगर दस-पंद्रह की संख्या में उनका उड़-उड़ कर आता जमावड़ा देख कर अच्छा लगता है। उस दिन भी ऐसा ही था। मैंने देखा, जरा दूरी पर सात-आठ साल के दो बच्चे खड़े हैं। उनमें से एक गुलेल ताने एक आंख बंद किए किसी बगुले पर निशाना साध रहा था। मुझे लगा कि कुछ ही पल में आश्वस्त होते ही वह गुलेल में फंसाया कंकड़ किसी न किसी बगुले की तरफ मार ही देगा। अपनी ही जगह से मैंने जोर से डपटा तो दोनों निशाना छोड़ कर भाग गए।
उनको भागते देख कर मुझे हंसी आ गई और याद आ गया अपना बचपन। ऐसा ही कुछ करते हुए अपना बचपन भी बीता है। उस समय पास-पड़ोस और मुहल्ले के चाचा, बाबा इस कृत्य को शैतानी का खेल मानते थे। तब उनके इस फतवे पर बड़ी झुंझलाहट होती थी। गुलेल कोई बना-बनाया नहीं मिलता था। उसके लिए काफी जतन करना होता था। अंगूठे और उसके पड़ोस की उंगली की तरह लकड़ी को हम केटी कहा करते थे। उसकी तलाश बड़ी मुश्किल से पूरी होती थी और उसे किसी पेड़ की डाल में ढूंढ़ कर काटते थे। फिर पास से किसी साइकिल की दुकान से दस-पंद्रह पैसे में ट्यूब को फीतेनुमा कटवा कर लाते थे। कंकड़ फंसाने के लिए मोची से चमड़े का चौकोर टुकड़ा कटवाते थे। इन सबको लेकर भी फीतेनुमा ट्यूब के बीचोंबीच चमड़े का टुकड़ा फंसा कर दोनों छोरों को केटी के सिरों पर अलग-अलग बांध कर फिर चिड़िया, तोता, गिरगिट पर निशाना साध कर बड़ा मजा आता
था। कई बार हाथ में चोट भी लग जाती थी। हम सभी दोस्तों के पास गुलेल का जुगाड़ होता था। मस्ती-मजे में अपने किसी दोस्त के पुट्ठे पर छोटा-मोटा कंकड़ मार कर हंसते थे। जाहिर है, यह खेल शैतानी का खेल कहा जाता था। वक्त रहते यह सब छूट गया। बगुला मारने वाले छोकरों के हाथ गुलेल देख कर बचपन में जैसे जाकर लौट आए।
यों बचपन में जितने खेलों में अपनी महारथ याद आती है, उन सभी को करीब-करीब शैतानी का खेल ही करार दे दिया गया था। चालीस साल पहले पास-पड़ोस के रिश्ते बड़े मायने रखते थे। कोई न कोई चाचा या भैया डांट-फटकार और मारपीट के लिए पूरे मुहल्ले की ओर से अधिकृत होते थे। हममें से कोई भी इसका शिकार हो जाता था। उस समय हम कंचे खेलते थे, जो खालिस जीत-हार का खेल होता था। ‘डालडा’ के खाली डिब्बों में कंचों का संग्रह करते थे। यह खेल भी शैतानी का खेल माना जाता था। गिल्ली-डंडा अपना खुद बनाते थे और खेलते थे। यह भी शैतानी का खेल था, क्योंकि उससे किसी की भी आंख फूट जाने का खतरा होता था। गर्मियों के मौसम में बांस की लग्गी बना कर घरों के पीछे से कैरी चुराने और नमक के साथ खाने की मस्ती भी शैतानी कहलाती थी। घर के पास बिजली घर से चुपचाप अल्यूमीनियम का तार चुराते थे। रोज दोपहर को सोन पापड़ी-गजक करारी वाला सिर पर थाली लेकर निकलता था। उससे आधी तौल सोन पापड़ी लेकर मिल-बांट कर खाते थे। याद है कि एक बार पच्चीस-पचास ग्राम के तार के चक्कर में आधा किलो वजन का बड़ा तार खींच लाए थे, जिस पर सोन पापड़ी वाले ने धमकाया था। हम बहुत डर गए थे और कई दिन उसके आने के समय पर घर के भीतर चले जाते थे।
आज वैसा बचपन भी नहीं है और न उस तरह की शैतानी के खेल और न ही वैसा हौसला। आपस की दोस्ती जिस तरह बचपन में तब निभाई जाती थी, आज उसका एक उदाहरण भी देखने को नहीं मिलता। गुलेल, गिल्ली-डंडा, कंचे, पतंग, गुलाम डंडी जैसे खेल भी समयातीत हो गए। अब खेल से खिलवाड़ जैसा डर बन गया है। इसीलिए खेल की अवधारणा बचपन और किशोरावस्था से एक तरह से गायब ही हो गई है।
सुनील मिश्र

सोमवार, 2 जनवरी 2012

किसने कह दिया कि समाज का विश्‍वास नहीं रहा मीडिया पर!


-मनोज कुमार
अरूण शौ री पत्रकार हैं या राजनेता, अब इसकी पहचान कर पाना बेहद कठिन सा
होता जा रहा है। वे पत्रकार की जुबान बोल रहे हैं या राजनेता की, यह कह
पाना भी संभव नहीं है। पिछले दिनों भोपाल में एक मीडिया सेमीनार में
उन्होंने जो कुछ कहा, उसमें एक पत्रकार तो कहीं था ही, नहीं बल्कि एक
राजनेता की भड़ास दिख रही थी। पता नहीं उन्हें क्या हो गया था, वे भी औरों
की तरह मीडिया को कटघरे में खड़ा कर गये। वे अपनी रौ में कह गये कि मीडिया
पर समाज विष्वास नहीं करता है। अरूण षौरी को कौन बताये कि जिस मीडिया पर
आप सवाल उठा रहे हैं, वह मीडिया भी आपसे ही शुरू होता है। अरूण षौरी षायद
यह भूल रहे हैं कि वे उसी समाज का हिस्सा हैं जहां उनकी बोफोर्स रिपोर्ट
की गूंज दो दषक से ज्यादा समय से हो रही है। वे एक राजनेता के रूप में
मीडिया की विष्वसनीयता पर सवाल उठा सकते हैं किन्तु एक पत्रकार के रूप्
में उन्हें यह कहना षोभा नहीं देता है। मीडिया को अविश्‍सनीय कहने का
मतलब है स्वयं को अविष्वनीय बताना और हमारा मानना है कि अरूण षौरी
अविष्वनीय नहीं हो सकते। पत्रकार अरूण षौरी कतई अविष्वसनीय नहीं हो सकते
हैं, राजनेता अरूण शौरी के बारे में कुछ कहना अनुचित होगा।
अरूण षौरी जिस कद के पत्रकार हैं, उन्हें बहाव का हिस्सा नहीं बनना
चाहिए। उन्हें ऐसा कुछ नहीं बोलना चाहिए जिससे अपनों को ठेस लगे लेकिन
दुर्भाग्य से उन्होंने ऐसा ही सब कहा। वे जिस केन्द्र के आयोजन में बोल
रहे थे, जो इस समय अनेक कारणों से चर्चा में है। इस मंच से ऐसे ही अमृत
वचन की अपेक्षा थी, सो वे उनके मानस को षांत कर गये। लगभग एक दषक से
मीडिया घोर आलोचना के केन्द्र में है। कुछ अपने कर्मों से तो कुछ दूसरों
के रहम पर। मीडिया पर, पत्रकारों पर सवाल उठाने के बजाय उन मीडिया घरानों
पर क्यों पत्थर नहीं उछाले जाते जो लोग अपने कारोबार को बचाने के लिये
मीडिया को कारोबार बना दिया है। जिन लोगों का पत्रकारिता का ,, नहीं
आता, वे लोग मीडिया हाउस बनाते हैं तो अरूण षौरी उन लोगों का विरोध क्यों
नहीं करते। पुरानों की बात छोड़ दें, नयी पीढ़ी को अरूण शौरी पत्रकारिता की
षुचिता का पाठ क्यों नहीं पढ़ाते। अरूण शौरी अब महज एक पत्रकार नहीं हैं
बल्कि अनुभव की एक पाठषाला हैं और पाठषाला ही जब सार्वजनिक मंच से अपनी
ही आलोचना करेगा तो समाज का विष्वास उठना आवश्‍य है।
यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि अकेला पत्रकारिता एक ऐसा प्रोफेषन है
जहां उनके गुरू सार्वजनिक रूप से स्वयं की आलोचना करते हैं। इसे भी
सकरात्मक नजर से देखना चाहिए लेकिन बात केवल आलोचना तक ही रह जाती है।
सुधार की कोई कोषिष किसी भी स्तर पर नहीं हो रही है, यह इससे भी बड़ा
दुर्भाग्यजनक बात कहीं जानी चाहिए। मीडिया एवं मीडिया षिक्षण में रहे
लोगों के पास प्रषिक्षण की कमी है। जिस तरह मीडिया में काम करने वालों को
इस बात की समझ पैदा नहीं की जा रही है कि उनकी समाज के प्रति किस गंभीर
किस्म की जवाबदारी है, उसी तरह मीडिया षिक्षकों के पास भी प्रषिक्षण की
कमी है। मीडिया षिक्षकों के लिये अरूण षौरी सरीखे पत्रकार शिक्ष के काम
सकते हैं। सेमिनारों की संख्या में बढ़ोत्तरी करने के बजाय
षिक्षण-प्रषिक्षण में समय और साध्य लगाना उचित होगा। अच्छा होता कि मंच
से मीडिया की आलोचना करने के बजाय वे इसकी सुधार की बात करते। स्वयं कोई
पहल करने का संदेष दे जाते।
हम उम्मीद और केवल उम्मीद कर सकते हैं कि अरूण षौरी एवं उनके समकालीन
पत्रकार पत्रकारिता की नवीन पीढ़ी को यह पाठ बार बार नहीं पढ़ाएगी कि
मीडिया पर समाज का विष्वास उठ गया है बल्कि वह यह बताने की कोषिष करेगी
कि समय के साथ मीडिया का विस्तार हुआ है और यह विस्तार दिषाहीन है।
विस्तार को दिषा देने की जरूरत है। मंच पर खड़े होकर विलाप करने से मीडिया
का भला नहीं होने वाला है और ही समाज का। मेरा अपना मानना तो है कि
समाज का विष्वास मीडिया पर और बढ़ा है और कदाचित इसी विष्वास के कारण
मीडिया की छोटी सी छोटी भूल को भी समाज चिन्हित करता है ताकि मीडिया सजग
और सबल बने। इस बात को सभी को समझना होगा। स्वयं अरूण षौरी जी को भी। और
उन लोगों को भी जिन्हें मंच और माईक मिलते ही मीडिया की आलोचना करने पर
टूट पड़ते हैं। मैं उन सब लोगों से आग्रह करूंगा कि वे लोगों के बीच जाएं
और बतायें कि एक सिंगल कॉलम की खबर लिखने में एक पत्रकार को कितनी मेहनत
करनी होती है। एक पत्रकार सुविधाभोगी नहीं है और नहीं हो सकता है यदि वह
ताउम्र मीडिया में है तो। इस बहाने राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी को
याद कर लीजिये। और पहले जाएं तो पराड़करजी का भी स्मरण करना उचित होगा।
मायाराम सुरजन भी इसी कड़ी में एक नाम हैं। नीरा राडिया प्रकरण में उछलने
वाले नाम पर आरोप तो दागे गये लेकिन वे आज किसी किसी माध्यम में बैठे
हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज ने उन्हें अस्वीकार नहीं किया है। ऐसे में
समाज का मीडिया पर से विश्‍वा उठ जाने की बात निराधार है। अरूण शौरी जी एक
राजनेता के रूप् में मीडिया अविश्‍वनीयता की बात करते हैं तो ठीक है
लेकिन पत्रकार अरूण शौरी ऐसा कहते हैं तो उन्हें एक बार फिर सोचना होगा
कि सच क्या है।