रविवार, 23 दिसंबर 2012

पंछी ताल नहाने आया

बहुत दिनों से
गायब कोई पंछी
ताल नहाने आया |
चोंच लड़ाकर
गीत सुनाकर
फिर -फिर हमें रिझाने आया |

बरसों से
सूखी टहनी पर
फूल खिले ,लौटी हरियाली ,
ये उदास
सुबहें फिर खनकीं
लगी पहनने झुमके ,बाली ,
शायद मुझसे
ही मिलना था
लेकिन किसी बहाने आया |

धूल फांकती
खुली खिड़कियाँ
नये -नये कैलेण्डर आये ,
देवदास के
पागल मन को
केवल पारो की छवि भाये ,
होठों में
उँगलियाँ फंसाकर
सीटी मौन बजाने आया |

सर्द हुए
रिश्तों में खुशबू  लौटी
फिर गरमाहट आई ,
अलबम खुले
और चित्रों को
दबे पांव की आहट भाई ,
कोई पथराई
आँखों को
फिर से ख़्वाब दिखाने आया |

दुःख तो
बस तेरे हिस्से का
सबको साथी गीत सुनाना ,
कोरे पन्नों
पर लिख देना
प्यार -मोहब्बत का अफ़साना ,
मैं तो रूठ गया था
ख़ुद से
मुझको कौन मनाने आया |


जयकृष्‍णा राय तुषार

बुधवार, 28 नवंबर 2012

अदृश्य रहस्यमयी गाँव टेंवारी


ब्लॉ.ललित शर्मा, शनिवार, 24 नवम्बर 2012

धरती पर गाँव-नगर, राजधानियाँ उजड़ी, फिर बसी, पर कुछ जगह ऐसी हैं जो एक बार उजड़ी, फिर बस न सकी। कभी राजाओं के साम्राज्य विस्तार की लड़ाई तो कभी प्राकृतिक आपदा, कभी दैवीय प्रकोप से लोग बेघर हुए। बसी हुयी घर गृहस्थी और पुरखों के बनाये घरों को अचानक छोड़ कर जाना त्रासदी ही है। बंजारों की नियति है कि वे अपना स्थान बदलते रहते हैं, पर किसानों का गाँव छोड़ कर जाना त्रासदीपूर्ण होता है, एक बार उजड़ने पर कोई गाँव बिरले ही आबाद होता है। गरियाबंद जिले का केडी आमा (अब रमनपुर )गाँव 150 वर्षों के बाद 3 साल पहले पुन: आबाद हुआ। यदा कदा उजड़े गांव मिलते हैं, यात्रा के दौरान। ऐसा ही एक गाँव मुझे गरियाबंद जिले में फिंगेश्वर तहसील से 7 किलो मीटर की दूरी पर चंदली पहाड़ी के नीचे मिला।

गूगल बाबा की नजर से
सूखा नदी के किनारे चंदली पहाड़ी की गोद में 20.56,08.00" उत्तर एवं 82.06,40.20" पूर्व अक्षांश-देशांश पर बसा था टेंवारी गाँव। यह आदिवासी गाँव कभी आबाद था, जीवन की चहल-पहल यहाँ दिखाई देती थी। अपने पालतू पशुओं के साथ ग्राम वासी गुजर-बसर करते थे। दक्षिण में चंदली पहाड़ी और पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती सूखा नदी आगे चल कर महानदी में मिल जाती है। इस सुरम्य वातावरण के बीच टेंवारी आज वीरान-सुनसान है। इस गाँव के विषय में मिली जानकारी के अनुसार इसे रहस्यमयी कहने में कोई संदेह नहीं है। उजड़े हुए घरों के खंडहर आज भी अपने उजड़ने की कहानी स्वयं बयान करते हैं। ईमली के घने वृक्ष इसे और भी रहस्यमयी बनाते हैं। ईमली के वृक्षों के बीच साँपों बड़ी-बड़ी बांबियाँ  दिखाई देती हैं। परसदा और सोरिद ग्राम के जानकार कहते हैं कि गाँव उजड़ने के बाद से लेकर आज तक वहां कोई भी रहने की हिम्मत नहीं कर पाया।

रमई पाट के पुजारी प्रेम सिंह ध्रुव

ग्राम सोरिद खुर्द से सूखा नदी पार करने के बाद इस वीरान गाँव में अब एक मंदिर आश्रम स्थित है। रमई पाट के पुजारी प्रेम सिंह ध्रुव कहते हैं- जब हम जंगल के रास्ते से गुजरते थे तो एक साल के वृक्ष की आड़ में विशाल शिवलिंग दिखाई देता था। जो पत्तों एवं घास की आड़ छिपा था। ग्रामीण कहते थे कि उधर जाने से देवता प्रकोपित हो जाते हैं इसलिए उस स्थान पर ठहरना हानिप्रद है। इसके बाद मंगल दास नामक साधू आए, उनके लिए हमने पर्णकुटी तैयार की। पहली रात को ही हमे भयावह नजारा देखने मिल गया। हम दोनों एक चटाई पर सोये थे, बरसाती रात में शेर आ गया और झोंपड़ी को पंजे से खोलने लगा। हम साँस रोके पड़े रहे और भगवान से जान बचाने की प्रार्थना करते रहे। छत की तरफ निगाह गयी तो वहां बहुत बड़ा काला नाग सांप लटक कर जीभ लपलपा रहा था। हमारी जान हलक तक आ गयी थी, भगवान से अनुनय-विनय करने पर दोनों चले गए। मैं झोंपड़ी से निकल कर शिवलिंग के सामने दंडवत हो गया। उस दिन के पश्चात इस तरह की घटना नहीं हुयी।

टानेश्वर नाथ महादेव

आश्रम में पहुचने पर भगत सुकालू राम ध्रुव से भेंट होती है, शिव मंदिर आश्रम खपरैल की छत का बना है, सामने ही एक कुंवा है। कच्ची मिटटी की दीवारों पर सुन्दर देवाकृतियाँ बनी हैं। शिव मंदिर की दक्षिण दिशा में सूखा नदी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शिवलिंग प्राचीन एवं मान्य है। इसे टानेश्वर नाथ महादेव कहा जाता है, यह एकमुखी शिवलिंग तिरछा है। कहते हैं कि फिंगेश्वर के मालगुजार इसे ले जाना चाहते थे, खोदने पर शिवलिंग कि गहराई की थाह नहीं मिली। तब उसने ट्रेक्टर से बांध कर इसे खिंचवाया। तब भी शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ। थक हार इसे यहीं छोड़ दिया गया। तब से यह शिवलिंग टेढ़ा ही है। मंगल दास बाबा की समाधी हो गयी। वे ही यहाँ रात्रि निवास करते थे, उसके बाद से आज तक यहाँ रात्रि को कोई रुकता नहीं है। अगर कोई धोखे से रुक जाता है तो स्थानीय देवी-देवता उसे विभिन्न रूपों में आकर परेशान करते हैं, डराते हैं। सुकालू भगत भी शाम होते ही अपने गाँव धुडसा चला जाता है।

सुकालू भगत

बाबा मंगल दास के पट्ट शिष्य परसदा निवासी भूतपूर्व सरपंच जगतपाल इस गाँव के उजड़ने का बताते हैं कि टेंवारी गाँव में इतने सारे देवी देवता इकट्ठे हो गए हैं कि त्यौहार के अवसर पर एक कांवर भर के उनके नाम के दिए जलाने पड़ते हैं। किसी देवता की भूलवश अवहेलना होने पर उसके उत्पात गाँव में प्रारंभ हो जाते थे। महिलाओं के मासिक धर्म के समय की अपवित्रता के दौरान अगर कोई महिला घर से बाहर निकल जाती थी तो ग्रामवासियों को दैवीय प्रकोप झेलना पड़ता था। बीमारी हो जाना, रात को जानवरों का बाड़ा स्वयमेव खुल जाना, मवेशियों को शेर, बुंदिया द्वारा उठा ले जाना, अकस्मात किसी की मृत्यु हो जाना इत्यादि दैवीय प्रकोपों को निरंतर झेलना पड़ता था। इससे बचने के लिए मासिक धर्म के दौरान पुरुष, महिलाओं के स्नान के लिए स्वयं पानी भर के लाते थे। सावधानी बरतने के बाद भी चूक हो ही जाती थी। तब फिर से दैवीय प्रताड़ना का सिलसिला प्रारंभ हो जाता था।

घरों के अवशेष

एक समय ऐसा आया की सभी ग्रामवासियों ने यहाँ से उठकर अन्य स्थान पर निवास करने का निर्णय किया।  भागवत जगत "भुमिल" कहते हैं कि सोरिद मेरी जन्म भूमि है, लगभग सन 1934 में टेंवारी के ग्राम वासी सोरिद खुर्द, नांगझर एवं फिन्गेश्वरी  में विस्थापित हुए, 1920 के राजस्व अभिलेखों में इस गाँव का उल्लेख मिलता है। अदृश्य शक्तियों के उत्पात इस वीरान गाँव में तहलका मचाते हैं। यहाँ के शक्तिशाली देवता बरदे बाबा हैं, इनका स्थान चंदली पहाड़ी पर है। जगतपाल कहते हैं कि यदि इस पहाड़ी पर कोई भटक जाता है तो बरदे बाबा उसे भूखा नहीं मरने देते। उसे जंगल में ही चावल, पानी और पकाने का साधन मिल जाता है। यहाँ के समस्त देवी देवताओं की जानकारी तो नहीं मिलती पर मरलिन-भटनिन, कोडिया देव, कमार-कमारिन, कोटवार, धोबनिन, गन्धर्व, गंगवा, शीतला, मौली, पूर्व दिशा में सोनई-रुपई जानकारी में हैं तथा नायक-नयकिन यहाँ के मालिक देवी-देवता हैं।

ईमली के पेड़ों के बीच अवशेष

जगतपाल कहते हैं कि जब मैं आश्रम में रुकता था तो तरह-तरह के सर्प दिखाई देते थे। दूध नाग, इच्छाधारी नागिन, लाल रंग का मणिधारी सर्प दिखाई देता था, वह अपनी मणि को उगल कर शिकार करता है, अगर मैं चाहता तो उसकी मणि को टोकनी से ढक भी सकता था पर किसी अनिष्ट की आशंका से यह काम नहीं किया। आश्रम में रात को सोनई-रुपई स्वयं चलकर आती हैं। मैंने कई बार देखा है। इस स्थान पर सिर्फ मंगल दास बाबा ही टिक सके, अन्य किसी के बस की बात नहीं थी। बाबा ने बताया था कि एक बार 12 लोगों ने मिल कर खुदाई करके सोनई-रुपई को निकल लिया था, पर ले जा नहीं सके। यहाँ कोई चोरी करने का प्रयास करता है उससे स्थानीय अदृश्य शक्तियां स्वयं निपट लेती है। कहते हैं कि इस पहाड़ी की मांद में सात खंड हैं, पहले खंड में टोकरी-झांपी, दुसरे खंड में नाग सर्प, तीसरे में बैल , चौथे में शेर, पांचवे में सफ़ेद हाथी, छठे में देव कन्या एवं सातवें में बरदे बाबा निवास करते हैं।

बाबा मंगल दास के पट्ट शिष्य परसदा निवासी भूतपूर्व सरपंच जगतपाल

टानेश्वर नाथ शिवजी के विषय में मान्यता है कि जब इसके पुजारी धरती पर जन्म लेते हैं तब यह (भुई फोर) धरती से ऊपर आकर प्रकाशित होते हैं, इनके पुजारी नहीं रहते तो ये फिर धरती में समाहित हो जाते हैं। साथ ही किंवदंती है कि टानेश्वर नाथ महादेव के दर्शन करने से सभी पाप एवं कल्मषों का शमन हो जाता है। टेंवारी गाँव उजड़े लगभग एक शताब्दी बीत गयी पर दूबारा किसी ने इस वीरान गाँव को आबाद करने की हिम्मत नहीं दिखाई। ईश्वर ही जाने अब टेंवारी कब आबाद होगा? शायद इसकी भी किस्मत केडी आमा गाँव जैसे जाग जाए।

सूखा नदी के किनारे यायावर

सोमवार, 26 नवंबर 2012

ऑंसू पर अधिकार

आज जनसत्‍ता में प्रकाशित शिखा वार्ष्‍णेय की रचना। जनसत्‍ता से साभार

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

विश्वास का संकट

-मनोज कुमार
 भोपाल राजधानी तो है किन्तु महानगर नहीं बन पाया है. भोपाल के अपने ठाठ हैं और भोपाली कहलाने का गर्व भी अलग से तरह से होता है. इन दिनों भोपाल थोड़ा बहुत महानगर के रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहा है. तांगों और रिक्शों की इस शहर से विदाई तो कभी की हो चुकी है. तेज रफ्तार से भागती गाड़ियां महानगर होने का अहसास कराती हैं. मेरे भोपाल में भी मॉल संस्कृति की धमक सुनायी देने लगी है. मैं भी इस नयी संस्कृति के गवाह होने का सु ा ले रहा हूं. एक बड़े भव्य मॉल में जाने का मौका मिला. सामने से उसकी चमक-दमक देखकर ही मेरे पसीने छूट गये. इस पसीने यह तो बता दिया कि मेरी लाख कोशिशों के बाद मैं अपने ठेठ देहातीपन से बाहर नहीं आ पाया हूं. खैर, मॉल के भीतर कदम रखने से पहले ही विश्वास के संकट से मेरा सामना हो गया. दरवाजे पर खड़े लोगों ने मशीन से मेरी तलाशी ले डाली, गोया मैं ग्राहक नहीं, आतंकवादी हूं,  झटपट वहां से निकला, आगे बढ़ा. विश्वास के संकट के साथ मैं हर दुकान के सामने से निकलता चला जा रहा था. डर लग रहा था कि फिर कोई रोक कर तलाशी न ले ले. हि मत कर मैं एकाध दुकान में गया तो पता चला कि दुकान में लगा कैमरा मेरी निगरानी कर रहा है. इस निगहबानी को देखकर एक बार फिर मैं अपने गांव पहुंच गया. गांव के बनिये की दुकान पर पहुंच कुछ अपनी सुनायी और कुछ उसकी सुनी. कुछ सौदा-सुलह किया और घर को लौट आये. कभी कोई सामान ज्यादा आ गया तो बनिया को लौटा आये और कभी ज्यादा पैसे दे आये तो वो मेरा हिसाब में बकाया लिख लिया. बरसों से बना विश्वास का रिश्ता.

इस मॉल संस्कृति में आपस में सुख-दुख सुनने सुनाने की बात तो दूर विश्वास का रिश्ते की कोई सूरत दिखायी ही नहीं देती है. दुकान में आने वाले की नीयत पर संदेह और काम करने वालों की निगहबानी. मुझे समझ में नहीं आया कि विकास का यह कैसा पैमाना है? विस्तार से विश्वास का संकट, सोचने में भी अजीब सा लगता है लेकिन आज का सच यही है कि अब गैरों पर तो क्या अपनों पर भी किसी को भरोसा नहीं रहा. तोल-मोल के जमाने में अब विश्वास भी तोल-मोल कर खरीदा और बेचा जा रहा है. इस मॉल ने हमारी संस्कृति को नष्ट कर दिया है. हमारे विश्वास की दीवार दरकने लगी है. विकास का यह चेहरा उन लोगों को भा रहा है जिन्हें खुद पर विश्वास नहीं रहा है. मां की बनायी गुझिया और पिता की डांट मेरे विश्वास होने के गवाह है. मुझे नहीं मालूम की मॉल में बिकने वाले पिज्जा और बर्गर में कभी मां ेि हाथों की बनी गुझिया की मिठास मिलती होगी. मुझे तो यह भी नहीं पता कि जो लोग अपनों पर विश्वास नहंीं कर रहे हैं, वे अपने ही रिश्तों में कितने ईमानदार होंगे लेकिन एक बात मुझे पता है कि इस विकास के विस्तार ने मुझे और मुझ जैसे जाने कितने लोगों को लालची और स्वार्थी बना दिया है. रिश्तों की गर्माहट मैं मॉल में बहने वाली एयरकंडीशन की ठंडी हवा में भूलता जा रहा हूं. कोयले में पकी मोटी रोटियां और उसके साथ प्याज और मिर्च का स्वाद अब मेरी जुबान को नहीं भाती हैं. अब मेरी जुबान पर बासी और लगभग बीमार कर देने वाले पिज्जा और बर्गर का स्वाद लग गया है. यह संकट स्वाद का नहीं है और न ही सेहत का. यह संकट है विश्वास का जो मैं अपनों से खोता चला जा रहा हूं और शायद स्वयं से भी विश्वास उठ जाने का समय आ गया है.
-मनोज कुमार

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

संवेदना का सम्मान

सुनील मिश्र
जनसत्ता 6 नवंबर, 2012: पता नहीं ऐसा क्या है कि खंडवा इलाके में आते-आते मन भारी होने लगता है। हालांकि साल में कम से कम एक बार यहां आना  ही होता है। हर वर्ष तेरह अक्तूबर को किशोर कुमार की पुण्यतिथि के दिन मध्यप्रदेश सरकार यहां किशोर कुमार सम्मान का अलंकरण समारोह आयोजित करती है, जिसमें निर्देशक, अभिनेता, पटकथाकार और गीतकार सम्मानित होते हैं। सिनेमा पर लिखने-पढ़ने का रुझान है और मेरे कम ही दोस्त यह जानते-मानते हैं कि इस पुरस्कार की परिकल्पना मेरी ही थी जो पंद्रह साल पहले साकार हुई थी। जाहिर है, इससे जुड़ कर किशोर कुमार खंडवे वाले के स्वर-व्यक्तित्व प्रभाव और ऊष्मा से कहीं न कहीं अपने भीतर एक ऊर्जा महसूस करता हूं।
1995-96 की बात रही होगी, जब मैं खंडवा आया था। तब खबर छपती थी कि समाधि खस्ताहाल है, उसके पत्थर तक लोग उखाड़ कर ले गए हैं। किशोर कुमार के बालसखा रमणीक भाई मेहता और फतेह मुहम्मद रंगरेज ने महान गायक का पुश्तैनी घर ऊपर-नीचे, एक-एक कमरा दिखाया था। अब रमणीक भाई अत्यंत वृद्ध हो चुके हैं और फतेह मुहम्मद दुनिया में नहीं हैं। किशोर कुमार ताजिंदगी इन स्वाभिमानी और निस्वार्थ मित्रों की कद्र करते रहे। आज समाधि तो बहुत संवर गई है, लेकिन पुश्तैनी घर की वे निशानियां भी नहीं दिखतीं जो तब थीं। मसलन, किशोर कुमार के पिता कुंजीलाल गांगुली और माता गौरा देवी की मढ़ी तस्वीर, वह पलंग जिस पर किशोर दा का जन्म हुआ, बरसों की बंद पड़ी घड़ी, 1986 के अप्रैल माह को दर्शाता कैलेंडर, पूजा की जगह, क्लिक थर्ड कैमरे से खींचे गए छोटे-छोटे फोटो, जिनमें गांगुली परिवार की छवि कैद थी, ईपी रेकॉर्ड आदि। यह घर अब आसपास तमाम दुकानों से घिर गया है।
पहले किशोर कुमार सम्मान समारोह भोपाल में आयोजित होता था। पर बाद में शहर के भावनात्मक आग्रह पर यह खंडवा में किया जाने लगा। जिन्हें सम्मान प्रदान किया जाता है, उनके साथ इंदौर से खंडवा सड़क मार्ग से आना और इंदौर तक लौटना अविस्मरणीय होता है। ऐसे मौके मुझे मिले और जावेद अख्तर, श्याम बेनेगल, यश चोपड़ा और इस बार सलीम खान साहब के साथ ये यात्राएं हुर्इं। इस बार पटकथा लेखन के लिए सलीम खान को राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान प्रदान किया गया था। सलीम खान सत्तर के दशक में व्यावसायिक सिनेमा में लोकप्रियता के संवेदनशील तत्त्वों के साथ-साथ तब के समय और समाज की चुनौतियों के साथ युवा तेवर को सर्वाधिक गहराई से समझने वाले पटकथा और संवाद लेखक

रहे हैं। जावेद अख्तर के साथ मिल कर उन्होंने ‘हाथी मेरे साथी’, ‘सीता और गीता’, ‘अंदाज’, ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’ ‘दोस्ताना’, ‘काला पत्थर’ और ‘शोले’ जैसी कई सफल फिल्में लिखीं। बाद में जावेद अख्तर से अलग होने के बाद भी वे फिल्में लिखते रहे। इस समय उनके बेटे सलमान खान हिंदी सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय सितारे हैं।
सलीम खान ने खंडवा में दाखिल होने से पहले ही यह इच्छा व्यक्त की कि वे किशोर कुमार की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने जाएंगे। समाधि-स्थल पर सुबह से संगीत चल रहा था। स्थानीय कलाकार किशोर कुमार के गाने गा रहे थे। समाधि फूलों से सजी थी। दीया जल रहा था। कुछ दोने रखे थे, जिनमें दूध-जलेबी दिखाई दे रही थी। किशोर दा को दूध-जलेबी बहुत पसंद थी। खंडवा में उनके मकान के पीछे लाला की दूध-जलेबी की दुकान आज भी मौजूद है। लाला तो अब रहे नहीं, उनके बेटे दुकान चला रहे हैं। दुकान में किशोर कुमार की बड़ी फोटो लगी हुई है। अपने जीवन के आखिरी दिनों में किशोर कुमार कहते थे- ‘दूध-जलेबी खाएंगे, खंडवा में बस जाएंगे।’ लेकिन उनका यह सपना अधूरा ही रहा। लाला की दुकान से दूध-जलेबी खाने वाला संवाद किशोर दा ने फिल्म ‘हाफ-टिकट’ में भी बोला था।
बहरहाल, सलीम साहब से काफी बातें हुर्इं। इधर सलमान की फिल्मों की पटकथा को एक तरह से परिष्कृत करने और परामर्श देने का काम भी करते हैं। उनका बहुत सारा समय पढ़ने में व्यतीत होता है। वे बहुत सामाजिक हैं, हर एक के सुख-दुख में उनकी उपस्थिति और उदारता बहुत मायने रखती है। जो भीतर हैं, वही व्यक्त भी करते हैं। दोपहर में घर आने वाला बिना खाना खाए लौट जाए, यह संभव नहीं। किशोर कुमार पुरस्कार के संदर्भ में उनका कहना था कि मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, क्योंकि जिनके नाम पर यह पुरस्कार है उस परिवार से मैं बहुत गहरे जुड़ा रहा हूं। दादा मुनि ने ‘दो भाई’ फिल्म के लिए मेरी पहली कहानी खरीदी थी और जमने के लिए मुझे जमीन दी थी।
अपने जीवन में मिले ‘फिल्म फेयर’ सहित तमाम पुरस्कारों को सिनेमा में नई पीढ़ी के अच्छे कामों से खुश होकर बांट देने वाले सलीम खान ने यह भी कहा कि इंदौर मेरा शहर है, जहां मैं पैदा हुआ, बचपन गुजारा। आज भी मेरे बड़े भाई और परिवार वहां हैं। खंडवा दादामुनि और किशोर कुमार का शहर। दरअसल, यह पट्टी भावुक और संवेदनशील लोगों की है, जिनका दिल नापने के लिए शायद इतना बड़ा फीता नहीं बना है!
सुनील मिश्र

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

बोलती फिल्म के जन्मदाता थे आर्देशिर ईरानी

 चौदह मार्च १९३१ में मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हॉल के बाहर दर्शको की काफी भीड जमा हो गयी थी। टिकट खिडकी पर दर्शक टिकट लेने के लिए मारामारी करने पर आमदा थे। चार आने के टिकट के लिए दर्शक चार से पांच रूपए ब्लैक में देने के लिए तैयार थे। इसी तरह का नजारा लगभग १८ वर्ष पहले दादा साहब फाल्के की फिल्म  राजा हरिशचंद्र  के प्रीमियर के दौरान भी हुआ था। लेकिन आज बात ही कुछ और थी सिने दर्शक पहली बार रूपहले पर्दे पर सिने कलाकारो कोबोलते सुनते देखने वाले थे। सिनेमा हॉल के गेट पर एक शख्स दर्शको का बडे खुशी के साथ स्वागत कर उन्हें अंदर जाकर सिनेमा देखने का निमंत्नण दे रहे थे। वो केवल इस बात के लिए खुश हो रहे थे कि उन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा का निर्माण किया है लेकिन तब तक उन्हें भी शायद नहीं पता था कि उन्होंने एक इतिहास रच दिया है और सिने प्रेमी उन्हें हमेशा बोलती फिल्म के जन्मदाता के रूप में याद करेंगे। ५ दिसंबर १८८६ को महाराष्ट्र के पुणे शहर में जन्में आर्देशिर ईरानी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद मुंबई के जे जे आर्ट स्कूल में कला का अध्ययन किया। इसके बाद वह बतौर अध्यापक काम करने लगे बाद में उन्होंने केरोसिन इंस्पैक्टर के रूप में भी कुछ दिनो तक काम किया। कुछ दिनो के बाद उन्होंने केरोसिन इंस्पैक्टर की नौकरी भी छोड दी और पिता के बाध यंत्न और फोनोग्राफ के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगे। इस सिलेसिले में उनका संपर्क कई विदेशी कंपनियों से हुआ और जल्द ही वह विदेशी फिल्मों का आयात कर उसे प्रदíशत करने लगे। इसी दौरान उनके काम से खुश होकर अमेरिकी यूनिवर्सल कंपनी ने उन्हें पश्चिम भारत में अपना डिस्ट्रीब्यूटर नियुक्त कर लिया। कुछ समय के बाद ईरानी ने यह महसूस किय कि फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए खुद का स्टूडियों होना चाहिए। वर्ष १९१४ में उन्होंने अब्दुल अली और यूसूफ अली के सहयोग से मैजेस्टिक और अलेक्जेंडर थिएटर खरीदा। वर्ष १९२0 में उन्होंने अपनी पहली मूक फिल्म  नल दमयंती का निर्माण किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात दादा साहब फाल्के की कंपनी  ¨हदुस्तान फिल्म्स  पूर्व प्रबंधक भोगी लाल दवे से हुयी।बाद में उन्होंने साथ मिलकर  स्टार फिल्म्स  की स्थापना की।
 स्टार फिल्म्स के बैनर तले सबसे पहले उन्होंने फिल्म  वीर अभिमन्यु का निर्माण किया। मणिलाल जोशी निर्देशित फिल्म वीर अभिमन्यु में अभिनेत्नी की भूमिका निभायी थी आलम आरा की अभिनेत्नी जुबैदा की बहन सुल्ताना ने जबकि सह अभिनेत्नी की भूमिका के लिए फातमा बेगम का चयन किया गया। फिल्म के निर्माण में लगभग ।क्क्क्क् रूपए खर्च हुए। फिल्म वीर अभिमन्यु की सफलता के बाद स्टार फिल्म्स के बैनर तले १७ फिल्मों का निर्माण करने के बाद आर्देशिर ईरानी  भोगीलाल दवे ने एक साथ काम करना बंद कर दिया। वर्ष १९२४ में आर्देशिर ईरानी ने मैजेस्टिक फिल्म्स की स्थापना की। मैजेस्टिक फिल्म्स के बैनर तले उन्होंने बी पी मिश्रा और नवल गांधी को बतौर निर्देशक काम करने का मौका दिया । स्टार फिल्म्स के रहते हुए जिस तरह उन्होंने मैजेस्टिक फिल्म्स की स्थापना की और दोनो का कार्य विभाजन किया उससे यह स्पष्ट हो गया कि दोनो बैनर का निर्माण उन्होंने अपनी कंपनी की संख्या बढ़ाने के लिए नही किया बल्की किसी खास उदेश्य के तहत किया। स्टार फिल्म्स के बैनर तले जहां उन्होंने पौराणिक और धाíमक फिल्मों का निर्माण किया वही मैजेस्टिक फिल्म्स के बैनर तले उन्होंन हॉलीवुड की शैली में ऐतिहासिक फिल्म का निर्माण किया। ़ मैजेस्टिक फिल्म्स के बैनर तले उन्होने १५ फिल्मों का निर्माण किया लेकिन बाद में कुछ कारणों से उन्होंने यह कंपनी भी बंद करनी पड़ी। वर्ष १९२५ में आर्देशिर ईरानी ने इंपीरियल फिल्म्स की स्थापना की और इसी के बैनर तले उन्होंने पहली बोलती फिल्म  आलम आरा  का निर्माण किया। वर्ष १९३0 में आर्देशिर ईरानी ने यूनिवर्सल फिल्म्स की फिल्म  शो बोट  देखी थी। इस फिल्म में ४0 प्रतिशत संवाद थे जबकि ६0 प्रतिशत फिल्म मूक थी। फिल्म को देखकर आर्देशिर ईरानी ने यह निश्चय किया कि क्यों ने संपूर्ण रूप से बोलती फिल्म का निर्माण किया जाए हालांकि इस तरह के फिल्म का निर्माण कैसे किया जाए वह इसके बारे में नही जानते थे और साउंड र्किा¨डग का भी उन्हों कोई ज्ञान नही था। लेकिन तबतक वह निश्चय कर चुके थे वह बोलती फिल्म बनाएगें अवश्य। आर्देशिर ईरानी का इंपीरियल स्टूडियों रेलवे लाइन के बहुत ही करीब था अत वहां रेलगाडियों के आने जाने के शोर के कारण फिल्मों की शू¨टग करने में काफी दिक्कत हुआ करती थी। इन सबके साथ ही साउंड र्किा¨डग की तकनीक से वह बिल्कुल अंजान थे। सांउडb र्किा¨डग की तकनीक सीखने के लिए वह लंदन गए और वहां १५ दिन रहकर साउंड र्किा¨डग की तकनीक सीखी। फिल्म के निर्माण में लगभग ४क्क्क्क् रूपए खर्च हुए जो उन दिनों काफी बडी रकम समझी जाती थी। फिल्म आलम आरा की कहानी जोसेफ डेविड के एक नाटक के उपर आधारित थी। फिल्म की कहानी कमरपुर के शाहजहां और उनकी दो बेगम नौबहार और दिल बहार के उपर आधारित थी। फिल्म आलम आरा की जबर्दस्त सफलता के बाद इंपीरियल फिल्म्स के बैनर तले कई फिल्मों का निर्माण किया। फिल्म के निर्माण के समय आर्देशिर ईरानी ने फिल्म में मुख्य अभिनेता के लिए महबूब खान का चयन किया था पर बाद में उन्होंने अपना फैसला बदल दिया। उन्होंने ऐसा महसूस किया कि फिल्म की सफलता के लिए नए कलाकार को मौका देने से अच्छा है किसी प्रख्यात अभिनेता को मुख्य अभिनेता की भूमिका दी जाए। बाद में उन्होंने अभिनेता के रूप में विट्ठल को काम करने को अवसर दिया जबकि सह अभिनेता के रूप में पृथ्वीराज कपूर का चयन किया।
 आर्देशिर ईरानी सदा कुछ नया करने चाहते थे इसी के तहत उन्होंने फिल्म ़  कालिदास  का निर्माण किया। फिल्म में दिलचस्प बात यह थी कि फिल्म के संवाद तमिल भाषा में रखे गए थे जबकि फिल्म के गीत तेलुगू में रखे गए। हालांकि इस बात के लिए उनकी काफी आलोचना हुयी लेकिन आर्देशिर ईरानी का मानना था कि तेलुगू भाषा संस्कृत के काफी नजदीक है और गीतों में यदि तेलुगू का इस्तेमाल किया जाए तो कालिदास के भाव को सही तरीके से अभिव्यक्त किया जा सकता है। बाद में फिल्म के प्र्दशन के बाद उनका यह प्रयोग सफल रहा और फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुयी। इन सबके साथ ही वर्ष १९३४ में उन्होंने भारत की पहली अंग्रेजीफिल्म  नूरजहां  का निर्माण किया। वर्ष १९३७ एक बार फिर से उनके सिने करियर का अहम वर्ष साबित हुआ जब उन्होंने भारत की पहली रंगीन फिल्म  किसान कन्या  का निर्माण किया। मोती गिडवानी निर्देशिन फिल्म की कहानी लिखी थी एस जियाउद्दीन ने जबकि इसके संवाद और पटकथा लेखक थे उर्दू के प्रसिद्ध कहानीकार सआदत हसन मंटो।
 वर्ष १९३८ में आर्देशिर ईरानी ने इंडियन मोशन फिल्म्स प्रोडयूसर ऐसोसिएशन की स्थापना की और उसके अध्यक्ष बने। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने फिल्मों में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें  खान बहादुर  की पदवी से सम्मानित किया। वर्ष १९४५ में प्रदíशत फिल्म पुजारी ! उनके सिने करियर की अंतिम फिल्म थी। आर्देशिर ईरानी ने अपने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे सिने करियर में लगभग २५ फिल्मों का निर्माण किया जिसमें १५ फिल्में मूक थी। हिन्दी फिल्मों के अलावा उन्होंने गुजराती मराठी तमिल  तेलुगू  बर्मी फारसी तथा अंग्रेजी फिल्म का भी निर्माण किया। अपने फिल्म निर्माण और निर्देशन की कला से लगभग तीन दशक तक सिने प्रेमियों का अपना दीवाना बनाए रखने वाले महान फिल्मकार आर्देशिर ईरानी १४ अक्टूबर १९६९ को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
प्रेम कुमार

बुधवार, 26 सितंबर 2012

बापू को जन्मदिन का उपहार

मनोज कुमार
बापू इस बार आपको जन्मदिन में हम चरखा नहीं, वालमार्ट भेंट कर रहे हैं. गरीबी तो खतम नहीं कर पा रहे हैं, इसलिये गरीबों का खत्म करने का अचूक नुस्खा हम ईजाद कर लिया है. खुदरा बाजार में हम विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति दे दी है. हमें ऐसा लगता है कि समस्या को ही नहीं, जड़ को खत्म कर देना चाहिए और आप जानते हैं कि समस्या गरीबी नहीं बल्कि गरीब है और हमारे इन फैसलांे से समस्या की जड़ ही खत्म हो जाएगी. बुरा मत मानना, बिलकुल भी बुरा मत मानना. आपको तो पता ही होगा कि इस समय हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और आप हैं कि बारम्बार सन् सैंतालीस की रट लगाये हुए हैं कुटीर उद्योग, कुटीर उद्योग. एक आदमी चरखा लेकर बैठता है तो जाने कितने दिनों में अपने एक धोती का धागा जुटा पाता है. आप का काम तो चल जाता है लेकिन हम क्या करें. समस्या यह भी नहीं है, समस्या है कि इन धागों से हमारी सूट और टाई नहीं बन पाती है और आपको यह तो मानना ही पड़ेगा कि इक्कीसवीं सदी में जी रहे लोगों को धोती नहीं, सूट और टाई चाहिए. हमें गांव की ताजी सब्जी खाने की आदत छोड़नी पड़ेगी क्योंकि डीप फ्रीजर की सब्जी हम कई दिनों बाद खा सकते हैं. दरअसल आपके विचार हमेशा से ताजा रहे हैं लेकिन हम लोग बासी विचारों को ही आत्मसात करने के आदी हो रहे हैं. बासा खाएंगे तो बासा सोचेंगे भी. इसमें गलत ही क्या है?
बापू माफ करना लेकिन आपको आपके जन्मदिन पर बार बार यह बात याद दिलानी होगी कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं. जन्मदिन, वर्षगांठ बहुत घिसेपिटे और पुराने से शब्द हैं, हम तो बर्थडे और एनवरसरी मनाते हैं. अब यहां भी देखिये कि जो आप मितव्ययिता की बात करते थे, उसे हम नहीं भुला पाये हैं इसलिये शादी की वर्षगांठ हो या मृत्यु की हम मितव्ययिता के साथ एनवरसरी कहते हैं. आप देख तो रहे होंगे कि हमारी बेटियां कितनी मितव्ययी हो गयी हैं. बहुत कम कपड़े पहनने लगी हैं. अब आप इस बात के लिये हमें दोष तो नहीं दे सकते हैं ना कि हमने आपकी मितव्ययिता की सीख को जीवन में नहीं उतारा. सड़क का नाम महात्मा गांधी रोड रख लिया और मितव्ययिता की बात आयी तो इसे एम.जी. रोड कह दिया. यह एम.जी. रोड आपको हर शहर में मिल जाएगा. अभी तो यह शुरूआत है बापू, आगे आगे देखिये हम मितव्ययता के कैसे कैसे नमूने आपको दिखायेंगे.
अब आप गुस्सा मत होना बापू क्योंकि हमारी सत्ता, सरकार और संस्थायें आपके नाम पर ही तो जिंदा है. आपकी मृत्यु से लेकर अब तक तो हमने आपके नाम की रट लगायी है. कांग्रेस कहती थी कि गांधी हमारे हैं लेकिन अब सब लोग कह रहे हैं कि गांधी हमारे हैं. ये आपके नाम की माया है कि सब लोग एकजुट हो गये हैं. आपकी किताब स्वराज हिन्द पर बहस हो रही है, बात हो रही है और आपके नाम की सार्थकता ढूंढ़ी जा रही है. ये बात ठीक है कि गांधी को सब लोग मान रहे हैं लेकिन गांधी की बातों को मानने वाला कोई नहीं है लेकिन क्या गांधी को मानना, गांधी को नहीं मानना है. बापू आप समझ ही गये होंगे कि इक्कसवीं सदी के लोग किस तरह और कैसे कैसे सोच रखते हैं. अब आप ही समझायें कि हम ईश्वर, अल्लाह, नानक और मसीह को तो मानते हैं लेकिन उनका कहा कभी माना क्या? मानते तो भला आपके हिन्दुस्तान में जात-पात के नाम पर कोई फसाद हो सकता था. फसाद के बाद इन नामों की माला जप कर पाप काटने की कोशिश जरूर करते हैं.
बापू छोड़ो न इन बातों को, आज आपका जन्मदिन है. कुछ मीठा हो जाये. अब आप कहंेगे कि कबीर की वाणी सुन लो, इससे मीठा तो कुछ है ही नहीं. बापू फिर वही बातें, टेलीविजन के परदे पर चीख-चीख कर हमारे युग नायक अमिताभ कह रहे हैं कि चॉकलेट खाओ, अब तो वो मैगी भी खिलाने लगे हैं. बापू इन्हें थोड़ा समझाओ ना पैसा कमाने के लिये ये सब करना तो ठीक है लेकिन इससे बच्चों की सेहत बिगड़ रही है, उससे तो पैसा न कमाओ. मैं भी भला आपसे ये क्या बातें करने लगा. आपको तो पता ही नहीं होगा कि ये युग नायक कौन है और चॉकलेट मैगी क्या चीज होती है. खैर, बापू हमने शिकायत का एक भी मौका आपके लिये नहीं छोड़ा है. जानते हैं हमने क्या किया, हमने कुछ नहीं किया. सरकार ने कर डाला. अपने रिकार्ड में आपको उन्होंने कभी कहीं राष्ट्रपिता होने की बात से साफ इंकार कर दिया है. आप हमारे राष्ट्रपिता तो हैं नहीं, ये सरकार का रिकार्ड कहता है. बापू बुरा मत मानना. कागज का क्या है, कागज पर हमारे बापू की श िसयत थोड़ी है, बापू तो हमारे दिल में रहते हैं लेकिन सरकार को आप जरूर बहादुर सिपाही कह सकते हैं. बापू माफ करना हम इक्कसवीं सदी के लोग अब चरखा पर नहीं, वालमार्ट पर जिंदा रहेंगे. इस बार आपके बर्थडे पर यह तोहफा आपको अच्छा लगे तो मुझे फोन जरूर करना. न बापू न.फोन नहीं, मोबाइल करना और इंटरनेट की सुविधा हो तो क्या बात है.
मनोज कुमार

रविवार, 23 सितंबर 2012

मेरे दोस्त दरख्त माफ करना...


मनोज कुमार
वे मेरे दोस्त थे. रोज सुबह घर से दफ्तर जाते समय वे मुझे हंसी के साथ विदा करते. देर शाम जब मैं घर लौट रहा होता तो लगता कि वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं. मेरे और उनके बीच एक रिश्‍ता कायम हो गया था. ये ठीक है कि वे बोल नहीं सकते थे तो यह भी सच है कि मैं भी उनसे अपनी बात नही कह सकता था लेकिन बोले से अधिक प्रभावी अबोला होता था. हमारी दोस्ती को कई साल गुजर गये थे. इस बीच मैंने लगभग नौकरी का इरादा त्याग दिया था. यह वह समय था जब न तो मेरे आने का वक्त होता था और न जाने का लेकिन क्योंकर षाम को उनके पास से गुजरना मन को अच्छा लगता था. अचानक कहीं से बुलावा आया और न चाहते हुए भी मैं नौकरी का हिस्सा बन गया. इस नौकरी से मेरा मन जितना खुश नहीं था, शायद मेरे ये दोस्त खुश थे. रोज मिलने और एक दूसरे को देखकर मुस्कराने का सिलसिला लम्बे समय से चल रहा था। यह रिष्ता अनाम थ. आज सुबह मैंने उन्हें हलो कहा था और वे मुस्करा कर मुझे रोज की तरह विदा किया. तब शायद मुझे पता नहीं था कि रोज की तरह जब मैं शाम को घर लौटूंगा तो उसी रास्ते से लेकिन मेरे दोस्त मुझसे बिछड़ गये होंगे। कोई मुस्कराता हुआ आज मेरा स्वागत नहीं करेगा। शाम का मंजर देखते ही जैसे मेरा दिल बैठने लगा। थोड़ी देर के लिये मेरे पैर थम से गये। मैं अवाक था कि ये क्या हो गया। एक हफ्ते में मेरे लिये यह दूसरा हादसा था. दोनों हादसों में कोई साम्य नहीं था लेकिन दोनों के बिछड़ जाने का गम एक जैसा था.मेरी भांजी को विदा कर घर लौटते मेरे अपने जीजाजी सड़क हादसे में नहीं रहे. बहुत दिनों बाद मन जार जार कर रोया. अभी हफ्ता नहीं गुजरा था कि मेरे दोस्त की मौत ने मुझे झकझोर दिया है.
ये दोस्त थे मेरे आने जाने के रास्ते में खड़े हरे-भरे दरख्त. इनकी षाखाओं के लहराते पत्ते जैसे बार बार मुझे गले लगाने को बेताब होते थे. मैं कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस तरह एक दिन कोई निर्दयी इन्हें अकाल मौत दे देगा. कभी अपनी हरियाली के लिये इतराने वाला भोपाल आहिस्ता आहिस्ता कंगाल हो रहा है. क्रांकीट की इमारतों को खड़ा करने, सड़कों की छाती को रौंदने के लिये रोज ब रोज आ रही  महंगी विदेशी कारों के लिये पहले ही सालों से खड़े दरख्तों को अकाल मौत दे दी गयी है. आज एक और दरख्त ऐसा ही मारा गया. किसी आदमी की मौत का गम तो थोड़े वक्त का होता है लेकिन किसी दोस्त की मौत'षायद पूरे जीवन के लिये जख्म दे जाती है. जिस जगह यह दरख्त था, वहां खून का कोई निशान नहीं था लेकिन कटे हुए डंगाल, टूटे हुए पत्ते किसी बेरहम हाथों की कहानी बयान कर रहे थे. रोज की तरह चलता हुआ मैं जब गुजरने लगा तो एकाएक सन्नाटे सा महसूस हुआ. पैरों के नीचे मेरे दोस्त पत्ते कुचल गये तो मुझे झटका सा लगा. लगा कि जैसे मैंने अपने किसी को पैर से रौंदने का पाप कर लिया है. मैं आत्मग्लानी से भर गया.
मेरी आत्मग्लानी केवल पत्ते को पैर से कुचल जाने के लिये नहीं थी. बल्कि इस बात को लेकर भी मन विषाद से भर गया कि हम कितने निरीह हो गये हैं एक जीते-जागते दरख्त को अपने स्वार्थ के लिये बेमौत मार देते हैं. यह तो ठीक है कि हमारे कर्म उस गेंद की तरह होते हैं जो पलट कर हमारे पास आती है अर्थात हम अच्छा करते हैं तो अच्छा पाते हैं. इसे किताबी बात न मानें तो यह मानना ही पड़ेगा कि ऐसे बेमौत मरने वाले दरख्त हमारे दुख का कारण हैं. जीते-जी वे हमारे मुस्काने की वजह थी. उनसे हमंे छांह, पानी और साफ हवा मिलती थी और एक मुस्कान के लिये यह सब जरूरी है. अब जब हम एक बार नहीं, बार बार दरख्त को मौत दे रहे हैं तो उस दरख्त की आह भला हमें कब तक जीने देगी? यह सवाल उन सब लोगों से है जो दरख्त को मौत दे रहे हैं या देने में साथ दे रहे हैं या उसे चुपचाप मरने के लिये मजबूर होने दे रहे हैं. उन सब में मैं भी षामिल हूं. आज इस दरख्त की मौत ने मुझे एक बार फिर उस चिपको आंदोलन की याद दिला दी जिसकी याद आज की युवा पीढी को होगी भी नहीं. हे दरख्त, तुझे न बचा सकने का जो अपराध मुझसे हुआ है, उसके लिये मैं माफी चाहूंगा....सिर्फ माफी...
मनोज कुमार

बुधवार, 12 सितंबर 2012

शुक्रिया, शुक्रिया हिन्दी सिनेमा

मनोज कुमार
हर बरस की तरह जब इस बरस भी चौदह सितम्बर को राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये हिन्दी दिवसए हिन्दी सप्ताह और हिन्दी माह बनाने की तैयारी में जुटे हुये हैं, तब इस बार बात थोड़ा सा अलग अलग सा है। इस बार हिन्दी उत्सवी माह में हम भारतीय सिनेमा के सौ बरस पूरे कर लेने का जश्र मना रहे हैं। हिन्दी और हिन्दी सिनेमा का चोली.दामन का साथ है। राजनीतिक मंचों पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को विस्तार देने और उसे आम आदमी की भाषा देने के लिये हल्ला बोला जाता है किन्तु सितम्बर के महीने तक ही लेकिन हिन्दी सिनेमा हिन्दी को आम आदमी की जुबान में न केवल बोलता है बल्कि उसे जीता भी है। हिन्दी सिनेमा हिन्दी ही क्यों, वह तो तमाम हिन्दुस्तानी भाषा और बोली के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये कार्य करता रहा है। भारतीय सिनेमा के सौ बरस की इस यात्रा में भाषा और बोली का कोई प्रतिनिधि माध्यम बना हुआ है तो वह है हिन्दी सिनेमा। हिन्दी सिनेमा ने अपने आपको हर किस्म के बंधन से मुक्त रखा हुआ है। वह मानता है कि कहानी के पात्र जिस भाषा और शैली के होंगे,  उसे वह फिल्माना पड़ेगा। यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा बार बार और हर बार का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखता है। भारतीय सिनेमा भाषा और बोली को न केवल बचाने का काम कर रहा है बल्कि उसे विस्तार भी देने का काम कर रहा है। हम यह कहते नहीं थकते कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है लेकिन यह कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच की भाषाए बोली और संस्कृति से हम परिचित नहीं होते यदि हिन्दी सिनेमा हमारे पास नहीं होता। आंचलिक सिनेमा की अपनी सीमायें हैं। वह किसी एक बोली अथवा भाषा में अपनी बात कह सकता है लेकिन भाषाए बोली और संस्कृति की इंद्रधनुषी तस्वीर तो हिन्दी सिनेमा के परदे पर ही आकार लेता दिखता है।

गुड़ खाये और गुलगुले से परहेज,  यह एक और सच है हिन्दी सिनेमा का। जितनी आलोचना हिन्दी सिनेमा की होती हैए संचार माध्यमों में वह शायद किसी की नहीं होती है। शायद यही आलोचना हिन्दी सिनेमा की ताकत भी है। सौ बरस के सफर में हिन्दी सिनेमा ने लोगों का न केवल भरपूर मनोरंजन किया बल्कि सामाजिकए राजनीतिक और आर्थिक दृश्य को बदलने में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। आज हिन्दुस्तान तो हिन्दुस्तानए हिन्दुस्तान के बाहर के देशें में भी हमारे हिन्दी सिनेमा की तूती बोल रही है। हमारा गीत.संगीत, हमारे कलाकार के साथ ही समूचा हिन्दी फिल्म उद्योग हमेशा से पूरे संसार के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इन सबके बाद हिन्दी सिनेमा की आलोचना एक बार नहीं बार बार की जाती है। मीडिया में सिनेमा की आलोचना लगभग तयशुदा है। कई दफा तो ऐसा लगता है कि आलोचना के बिना हिन्दी सिनेमा की चर्चा अधूरी रह जाती है।

हिन्दी की ऐसी दुर्दशा को देखकर इस बात पर संतोष कर लेने के लिये हमारे पास हमारा हिन्दी सिनेमा है। एक ऐसा माध्यम जो आम आदमी का है। संवाद का एक ऐसा माध्यम जो हर तबके की भाषा बोलता है। वह अंग्रेजी साहब की नकल भी उतार लेता है और झुग्गी में रहने वाले टपोरी को भी उसी मुकम्मल रूप में पेश करता है जिसे हम देखते चले आ रहे हैं। हिन्दुस्तान की जमीन पर हर सौ कोस पर भाषा और बोली बदल जाती है। यह बदलती हुई भाषा और बोली आप हिन्दी सिनेमा में ही देख सकते हैं। यह हिन्दी सिनेमा ही है जो भारत की इंद्रधनुषी जीवनशैली, परम्परा और संस्कृति को हर दिन नयी पहचान देता आया है। यह हिन्दी सिनेमा ही है जहां आप अपने आपको पा सकते हैं। अपने होने का अहसास कर सकते हैं और यह अहसास आता है अपनी बोली और भाषा को जस का तस फिल्माने से।

वरिष्ठ पत्रकार एवं सिने विशेष दयानंद पांडे लिखते हैं कि सच यही है कि हिन्दी भाषा के विकास में हमारी हिन्दी फिल्मों और हिन्दी गानों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। सिनेमा दादा फाल्के के जमाने से ले कर अब तक हमारे लिए हमेशा नयी और विदेशी टेक्निक थी और रहेगी। बोलने वाली फिल्मों का अविष्कार भी हमारे लिये नया जमाना लेकर आया। हमने विदेशी टेक्निक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये किया। बोली और भाषा को लेकर हिन्दी सिनेमा हमेषा से सजग और संवेदनशील रहा है। लगातार शोध और अध्ययन के बाद फिल्म की जरूरत के अनुरूप उसे ढाला और फिल्माया जाता है। कदाचित यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा के बोली और भाषा की सजगता को लेकर आलोचना नहीं की गयी।

ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी सिनेमा में बोली और भाषा को लेकर कभी कोई गलती नहीं हुयी हो लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह संचार के दूसरे माध्यमों की तरह भाषा से खिलवाड़ करता रहा हो। हिन्दी सिनेमा की भाषा सरल, सहज और हिन्दुस्तानी रही है। उर्दू अदब को लेकर हिन्दी सिनेमा ने काम किया है तो जहां जरूरत हुयी, वह बोलचाल की आसान भाषा से ऊपर उठकर हिन्दी के कठिन शब्दों के उपयोग से भी परहेज नहीं किया। दरअसल हिन्दी सिनेमा की यह भाषिक सजगता ही उसके अस्तित्व को बचाने में सहायक बनता रहा है। संचार माध्यमों के लगातार ढहती दीवारों का कारण भाषा के प्रति निर्मम होते जाना है।

मीडिया विश्‍लेषक सुधीश पचौरी का मानना है कि मनोरंजन उद्योग के ग्लोबल बाजार ने बताया है कि बॉलीवुड की फिल्मों और गानों की धुनों को जो लोग भाषा की दृष्टि से नहीं समझते हैं, वे भी उसकी सांस्कृतिक संरचनाओं के प्रभाव में रहते हैं। वे स्पेनिश, फ्रेंच, जापानी या चीनी बोलने वाले हो सकते हैं, कुछ हिन्दी शब्द इस बहाने उनके पास रह जाते हैं। अरबी, फारसी बोलने वालों की दुनिया में हिन्दी भाषा अनजानी नहीं है। हिन्दी मनोरंजन चौनलों ने वहाँ भी फैलाया है।

यह सच है कि हिन्दी सिनेमा के विषय.वस्तु में गिरावट आयी है तो यह गिरावट अकेले हिन्दी सिनेमा में ही नहीं आयी है। हिन्दी सिनेमा पर लगने वाला यह आरोप मिथ्या ही नहीं, भ्रामक भी है क्योंकि हिन्दी सिनेमा अथवा किसी भी भाषा का सिनेमा अपनी तरफ से कुछ गढ़ता नहीं है बल्कि सिनेमा समाज का आईना होता है और आईना वही दिखाता है जो उसके सामने होता है। अर्थात सिनेमा समाज का दर्पण है और दर्पण समाज में घटने वाली घटनाओं और बदलती जीवनशैली का रिफलेक्शन मात्र है। यह भी सच है कि सिनेमा एक उद्योग है और कोई भी उद्योग पहले अपना नफा देखता है और फिर बाजार में उतरता है। हमें हिन्दी सिनेमा का इस बात का शुक्रिया किया जाना चाहिए कि उसने भाषा के मामले में कोई समझौता नहीं किया।

हिन्दी सिनेमा की एक और खूबी है, भाषा और बोली की शुद्वता बनाये रखना। अपने आरंभ से लेकर अब तक की यात्रा में हिन्दी सिनेमा ने हर दौर के बदलते बोली.बात का खयाल रखा है और उसी के मान से सिनेमा को गढ़ा है। सिनेमा में बोली.भाषा की शुद्वता से मीडिया को रश्क हो सकता है।बात टेलीविजन की करें तो सबसे ज्यादा हिन्दी का सत्यानाश करने वाला यही संचार माध्यम है। आम आदमी को समझ आने वाली भाषा के नाम पर समाज को न तो हिन्दी का रखा और न अंग्रेजी का। हिंग्लिश कह कर भाषा का ऐसा सत्यानाश किया कि सौ शब्दों के कथन में साठ फीसद शब्द अंग्रेजी के होते हैं। लगभग यही स्थिति अखबारों की है। हिन्दी हिग्लिश के रूप में बोली और दिखायी जा रही है। हिन्दी की जो दुर्दशा इस माध्यम में हुई है, उससे तौबा कर लेना ही बेहतर होगा। समाचारों के शीर्षक अंग्रेजी में लिखे जा रहे हैं प्रधानमंत्री को पीएम और मुख्यमंत्री को सीएमए विश्वविद्यालय की जगह यूर्निवसिटी तो विद्यालय लिखना ही भूल गये और लिखा जा रहा है स्कूल। एक जगह लिखा गया था एफएमए मुझे लगा कि यह क्या शब्द है और इस जिज्ञासा के साथ आगे पूरी खबर पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि फायनांस मिनिस्टर का यह संक्षिप्तिकरण था। अखबारों में तो हिन्दी का अब कोई नामलेवा बचेगाए इस पर भी संदेह है। अखबारों में बोलचाल हिन्दी के नाम पर अंग्रेजी के दर्जनों शब्दों का बेधडक़ उपयोग हो रहा है। इन दिनों हिंग्लिश से भी आगे अखबार निकल गये हैं। एक ऐसा ही अखबार है जिसे हिन्दी का तो कहा जा रहा है लेकिन हिन्दी ढूंढऩे पर ही मिल पाता है। हिन्दी दिवस के अवसर पर जब हिन्दी दिवस की बात करते हैं हिन्दी मास की बात करते हैं तो हम कहते हैं कि हिन्दी वीक मना रहे हैं, हिन्दी मास शुरू हो गया।

ऐसे में संचार के सबसे प्रभावी माध्यम माने जाने वाले टेलीविजन एवं अखबारों की एक तरफ यह दुर्दशा है तो रोज ब रोज आलोचना का शिकार होता हिन्दी सिनेमा ने ही हिन्दी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों को सुरक्षित और संरक्षित करने में अपनी भूमिका निभा रहा है। निश्चित रूप से भाषा और बोलियों के प्रति हिन्दी सिनेमा की यह सजगता हमारे लिये गर्व करने लायक है। बात सीखने की है उन संचार माध्यमों के लिये जो हिन्दी सिनेमा से सीख सकते हैं कि अकेले हिन्दी ही नहींए भारत की सभी भाषाओं और बोलियों की रक्षा कैसे की जाए, बल्कि इनके संवर्धन में उनकी भूमिका क्या हो। अनेकता में एकता हमारे हिन्दुस्तान की पहचान है और इस पहचान को बनाये रखने की जवाबदारी संचार माध्यमों की है। हिन्दी सिनेमा अपनी जवाबदारी पूरी शिद्दत के साथ निभा रहा है। सिनेमा, शुक्रिया। शुक्रिया हिन्दी सिनेमा

शनिवार, 1 सितंबर 2012

सबसे बड़ा सवाल, कसाब को फांसी कब?


डॉ. महेश परिमल
29 अगस्त बुधवार को देश के न्यायप्रणाली की गरिमा और सर्वोपरिता का रहा। एक फैसला अहमदाबाद और दूसरा दिल्ली में सुनाया गया। एक तरफ देश के दुश्मन का फंदा बरकरार रहा, तो दूसरी तरफ सद्भाव के दुश्मन दोषी करार हुए। दोनों ही फैसलों से न्यायप्रणाली की छवि उजली हुई है। दोनों ही फैसलों को सुनकर देश के नागरिकों ने राहत की सांस ली। एक बार फिर यह साबित हो गया है कि हमारी न्याय प्रक्रिया शायद धीमी है, पर ढीली नहीं। उधर अहमदाबाद के नरोडा पाटिया इलाके में हुए नरसंहार के मामले में अदालत ने शुRवार को पूर्व मंत्री माया कोडनानी को कुल 28 साल और बाबू बजरंगी को उम्रकैद की सजा सुनाई है। बाकी 29 दोषियों को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। कोडनानी को दो अलग-अलग धाराओं के तहत 18 और 10 साल की सजा सुनाई गई। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई आतंकवादी हमले के आरोपी अजमल कसाब की फांसी की सजा बरकरार रखी है।
25 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले में 165 लोग मारे गए और ढाई सौ से अधिक लोग घायल हुए। पाकिस्तान से समुद्र के रास्ते से आए आतंकवादियों में से एकमात्र कसाब ही जिंदा पकड़ा गया। एक अंदाज के मुताबिक अजमल कसाब की सुरक्षा पर अब तक करीब 40 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। अभी उसे जब तक फांसी पर नहीं लटकाया जाता, तब तक उस पर लाखों खर्च होने हैं। अजमल कसाब को जिस तरह से सुरक्षा दी गई है, उसकी खूब आलोचना भी हो रही है। अलबत्ता जिस तरह से न्याय प्रक्रिया चल रही है, उसे भारत के मानव अधिकार और न्याय प्रणाली का श्रेष्ठतम उदाहरण बताया जा रहा है। विश्व में इसकी प्रशंसा भी हो रही है। मुम्बई हमले का यह चौथा वर्ष चल रहा है। यह समय कम नहीं है। फिर भी कहना पड़ेगा कि आतंकवाद के दूसरे अन्य मामलों की अपेक्षा यह मामला जल्दी चला है। वैसे ऐसे मामलों पर फैसला इससे भी जल्दी आ जाना चाहिए। ऐसा लोग मानते हैं। हमारे पास विदेशों का उदाहरण है, जिसमें ऐसे गंभीर मामलों पर बहुत ही जल्द निर्णय ले लिया जाता है। हाल ही में नार्वे की घटना को याद किया जाए, तो स्पष्ट होगा कि 22 जुलाई 2011 को ओस्लो में एंडर्स बेररिंग ब्रेइविक ने धुंआधार गोलीबारी और बम विस्फोट कर 77 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। अभी 24 अगस्त को ही अदालत ने उसे 21 वर्ष की सजा सुनाई है। यह मामला 13 महीने में ही निपटा दिया गया।
विकल्पों के द्वार खुले हैं..
अभी तो कसाब के सामने कई विकल्प हैं। वह राष्ट्रपति के सामने गुहार लगा सकता है। देखना यह है कि आखिर कसाब को फांसी पर कब लटकाया जाता है? 13 दिसम्बर 2001 में संसद में हुए हमले का मुख्य आरोपी अफजल गुरु अभी तक जिंदा है। उसे फांसी की सजा सुना दी गई है, पर वोट की राजनीति हावी होने के कारण वह अभी तक फांसी पर नहीं लटक पाया है। इस बात को 11 साल हो रहे हैं, फिर भी अफजल पर अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है। यह साफ हो गया है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी है। अभी तक पाकिस्तान यही कह रहा है कि मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले से उसका कोई लेना-देना नहीं है। बाद में यह भी स्पष्ट हो गया कि पूरी घटना पाकिस्तान से ही आपरेट की गई थी। आतंकवादी हमले के समय पाकिस्तान से सूचना मिल रही थी। पाकिस्तानी सेना और जासूसी संस्था आईएसआई ने इस पूरी वारदात को अंजाम दिया गया था। मजे की बात यह है कि अब स्वयं पाकिस्तान ही कह रहा है कि कसाब को फांसी दे देनी चाहिए। 10 नवम्बर 2011 को ही पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ने घोषणा की थी कि अजमल कसाब आतंकवादी है और उसे फांसी होनी चाहिए।
अदालत ने मुम्बई हमले को देश पर हमला निरुपित किया गया है। अब देश के एक-एक नागरिक को इसी बात का इंतजार है कि कसाब को कब फांसी दी जाती है। 2004 में पश्चिम बंगाल में धनंजय चटर्जी को बलात्कार और हत्या के मामले पर फांसी की सजा दी गई थी। उसके बाद कई अपराधियों को फांसी की सजा दी गई है। पर उन सभी मामलों को ताक पर रख दिया गया है। राजीव गांधी के तीन हत्यारों मुरुगन, सांथन और पेरारिवलन को फिल्मी घटना की तरह फांसी की तारीख तय होने के बाद भी सजा रोक दी गई। पता नहीं अजमल कसाब आखिर कब तक मुफ्त की रोटियां तोड़ता रहेगा। लोगों को सब्र रखना ही होगा, क्योंकि कसाब लम्बी उम्र लेकर इस दुनिया में आया है। अभी उसके पास तीन विकल्प हैं। यदि वह राष्ट्रपति के सामने दया याचिका करे, तो भी उसका क्रम 18 होगा। जिस व्यक्ति को सभी ने अंधाधुंध गोली चलाते हुए देखा, जिसने पुलिस के अधिकारियों को मार डाला, उस पर चार साल से मुकदमा चल रहा है। अभी तक उसे फाँसी नहीं हुई। उस पर 40 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, वह अलग। अभी जब तक वह जिंदा है, खर्च जारी रहेगा। उसे बचा रही है, हमारी न्याय प्रणाली। जो इतनी अधिक लम्बी-चौड़ी और पेचीदा है कि साधारण इंसान को तो तुरंत सजा मिल जाती है, पर कुख्यात को सजा देने में सरकार के सारे कानून सामने आ जाते हैं। राष्ट्रपति के पास अभी भी सजायाफ्ताओं के 17 आवेदन हैं, अभी उन पर विचार नहीं हो पाया है। जब तक अफजल गुरु की याचिका पर निर्णय नहीं हो जाता, तब तक कसाब पर भी निर्णय नहीं हो पाएगा। अफजल गुरु पिछले 11 साल से जीवित है ही। बसाब की लम्बी उम्र होने का कारण यह भी है कि अभी हमारे यहां जल्लाद हैं ही नहीं। 2004 में जिस धनंजय चटर्जी को जिस जल्लाद ने फांसी पर चढ़ाया था, उसकी मौत हो चुकी है। जब सरकार ने यह विचार किया कि अब किसी को फांसी नहीं दी जाएगी, तो जल्लादों को प्रशिक्षण देने का काम भी सुस्त हो गया। जल्लाद न होने के कारण ही पंजाब का आतंकवादी वलवंत सिंह तारीख तय होने के बाद भी बच गया। सोचो, कसाब की फाँसी की तारीख तय होने के बाद भी क्या वह जल्लाद की कमी के कारण बच नहीं सकता?
दो जल्लाद सामने आए
दूसरी ओर यह खबर भी आई है कि कसाब को फांसी देने के लिए दो जल्लाद सामने आए हैं। इसमें से एक ने इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी पर चढ़ाया है। अभी वह जीवन के 70 वें पड़ाव पर है। वह स्वयं ही टीबी का मरीज है, उसकी मौत भी करीब ही है। फिर भी उसने हिम्मत दिखाई, इसके लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए। दूसरा जल्लाद है कोलकाता का महादेव मलिक। वह नगर निगम में सफाई कर्मचारी है। पर उसने अभी तक न ही इसका प्रशिक्षण लिया है और न ही उसके किसी को फांसी पर चढ़ाया है। तो क्या कसाब को फांसी नहीं दी जाएगी? कानून कहता है कि ऐसी परिस्थितियों में सीनियर इंस्पेक्टर अथवा उससे ऊंचे पद पर आसीन पुलिस अधिकारी प्रशिक्षण के बाद फांसी दे सकता है। प्रशिक्षण प्राप्त करने में 6 महीने लगते हैं। इसका आशय यही हुआ कि यदि कसाब दया याचिका पेश करता है, तो उसमें जो देर होगी, उसके अलावा 6 महीने और लग जाएंगे। ये स्थिति उसकी सांसों को लम्बा कर सकती है। एक बात और पूरे विश्व में अभी फांसी की सजा न देने के प्रावधान पर बहस चल रही है। 2006 में राष्ट्रसंघ में लिथुआनिया ने मौत की सजा के प्रावधान को विश्व से रद्द करने का प्रस्ताव रखा था, जिस पर कुल 11 देशों ने हस्ताक्षर किए थे, हस्ताक्षर करने वालों में भारत भी एक था। केवल इस बात को लेकर विश्व की मानवाधिकार संस्थाएं सक्रिय हो जाती हैं, तो मानों कसाब को जीवनदान मिल जाएगा। कसाब इस देश का सबसे महंगा कैदी है। उसके नाम पर पकिस्तान में 6 संस्थाएं हैं। कसाब को संरक्षण देने वाली 125 वेबसाइट्स हैं। एक मक्कार आतंकवादी को आखिर हम कब तक सेलिब्रिटी बनाएंगे? ये सवाल जीतने तीखें हैं, उसका जवाब उतना ही मुश्किल है।

डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

दर्द भरे नगमों के बेताज बादशाह मुकेश आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी दर्दभरी सुरीली आवाज के दम पर वह आज भी अपने प्रशंसकों के दिल में ¨जदा हैं। उनकी दिलकश आवाज सुनकर बरबस श्रोताओं के दिल से बस एक ही आवाज निकलती है ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना। 22 जुलाई 1923 को दिल्ली मे एक मध्यम परिवार मे जन्में मुकेश चंद्र माथुर उर्फ मुकेश बचपन के दिनों में के एल सहगल से प्रभावित रहने के कारण उन्हीं तरह गायक बनना चाहते थे। हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता मोतीलाल ने मुकेश की बहन की शादी में उनके गानों को सुना। मोतीलाल उनकी आवाज से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुकेश को मुंबई बुला लिया। मोतीलाल मुकेश के दूर के रिश्तेदार भी थे। फिल्मों में कदम रखने के पहले मुकेश पी.डब्ल्यू.डी. में एक सहायक के रूप मे काम करते थे। वर्ष 1940 में अभिनेता बनने की चाह के साथ उन्होंने मुंबई का रुख किया। मोतीलाल ने मुकेश को अपने घर में ही रखकर उनके लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था की और वह पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मुकेश को बतौर अभिनेता वर्ष 1941 मे प्रदíशत फिल्म निदरेष में काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म केजरिए वह ुछ खास पहचान नहीं बना पाए । इसके बाद अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन मे मुकेश ने अपना पहला गाना दिल जलता है तो जलने दे वर्ष   945 मे प्रदíशत फिल्म पहली नजर केलिए गाया। इसे महज एक संयोग कहा जा सकता है कि यह गाना अभिनेता मोतीलाल पर ही फिल्माया गया। फिल्म की कामयाबी केबाद मुकेश गायक के रूप मे रातो।रात अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।
सहगल की गायकी के अंदाज से प्रभावित रहने के कारण अपनी शुरुआती दौर की फिल्मों में वह सहगल के अंदाज में ही गीत गाया करते थे। हालांकि वर्ष 1948 मे नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म अंदाज में गाए उनकेगीत तू कहे अगर जीवन भर, मैं गीत सुनाता जाऊँ, झूम झूम केनाचो आज. .हम आज कहीं दिल खो बैठे आदि जैसे सदाबहार गाने की कामयाबी के बाद मुकेश ने गायकी का अपना अलग अंदाज बनाया।
 मुकेश की ख्वाहिश थी कि वह गायक के साथ साथ अभिनेता केरूप में भी अपनी पहचान बनाए। वर्ष 1951 मे प्रदíशत फिल्म आवारा की कामयाबी के बाद उन्होंने गायकी के साथ-साथ ही अभिनय में एक बार फिर हाथ आजमाया लेकिन इस बार भी निराशा ही उनके हाथ आई। बतौर अभिनेता वर्ष 1953 मे प्रदíशत माशूका और वर्ष 1956 में प्रदíशत फिल्म अनुराग की विफलता के बाद उन्होंने पुन: गाने की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया। इसके बाद वर्ष 1958 मे प्रदíशत फिल्म यहूदी के गाने ये मेरा दीवानापन है गाने की कामयाबी के बाद मुकेश को एक बार फिर से बतौर गायक पहचान मिली। इसके बाद मुकेश ने एक से बढ़कर एक गीत गाकर श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। मुकेश ने अपने तीन दशक के सिने कैरियर मे 200 से भी ज्यादा फिल्मों के लिए गीत गाए। उन्हें चार बार फिल्म फेयर के सर्वŸोष्ठ पाश्र्व गायक के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
 मुकेश को सबसे पहले वर्ष 1959 में प्रदíशत फिल्म अनाड़ी केसब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी गीत के लिए सर्वŸोष्ठ पाश्र्व गायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसकेबाद वर्ष 1970 में प्रदíशत पहचान सबसे बड़ा नादान वही है, जो समझे नादान मुझे .फिल्म बेईमान जय बोलो बेईमान की। 1972 और वर्ष 1976 मे प्रदíशत फिल्म कभी कभी  के गाने कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है के लिए भी मुकेश को सर्वŸोष्ठ पाश्र्व गायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए।
इसके अलावा वर्ष 1974 मे प्रदíशत रजनीगंधा का गाना कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है, के लिए मुकेश नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किए गए। मुकेश के पसंदीदा संगीत निर्देशक के तौर पर शंकर जयकिशन और गीतकार मे शैलेन्द्र का नाम सबसे पहले आता है। वर्ष 1949 मेंप्रदíशत फिल्म बरसात  मुकेश .शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन कीजोड़ी वाली पहली हिट फिल्म थी। इसके बाद वर्ष 1951 मे फिल्म आवारा की कामयाबी के पश्चात पश्चात मुकेश .शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी के गीत संगीत से श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। वर्ष 1941 में बतौर अभिनेता फिल्म निदरेष से अपनेकैरियर की शुरुआत करने वाले मुकेश बतौर अभिनेता सफल नहीं हो सके। उन्होंने बतौर अभिनेता दुख सुख .1942 आदाब अर्ज .1943.माशूका.1953 आह .1953 .आक्रमण .1956 दुल्हन .1974 फिल्मे की। बतौर निर्माता मुकेश ने वर्ष 1951 में मल्हार और वर्ष 1956 में आक्रमण फिल्में भी बनाई और इसके साथ ही इसी फिल्म के लिए उन्होंने संगीत भी दिया।  26 अगस्त 1976 को राज कपूर की फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम के गाने चंचल निर्मल शीतल की रिकाíडग पूरी करने के बाद मुकेश अमेरिका में कन्सर्ट मे भाग लेने के लिए चले गए। इसके ठीक अगले दिन 27 अगस्त 1976 को मिशिगिन.अमेरिका. में दिल का दौरा पड़ा और वह अपने करोड़ों प्रशंसको को छोड़ सदा के लिए चले गए। इसके बाद उनके पाíथव शरीर को भारत लाया गया। राज कपूर ने उनके मरने की खबर मिलने पर कहा था मुकेश के जाने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे मेरी आवाज और आत्मा दोनों ही चली गई है। 
प्रेम कुमार