बुधवार, 17 दिसंबर 2014

फेसबुक पर फुसफुसाहट और साहित्य उत्सव का समापन


संजय स्वदेश
रायपुर साहित्य उत्सव संपन्न हुआ। इसकी शुरुआत से लेकर समापन के बाद तक फेसबुक पर तरह तरह के मुद्दे को लेकर फुसफुसाहट जारी है। कोई दमादारी से इसके पक्ष में आवाज उठा रहा है तो कई मित्र छत्तीसगढ़ के कुछ मुद्दों को पैनालिस्टों द्वारा नहीं उठाने को लेकर विधवा विलाप कर रहे हैं। इस आयोजन के पहले और समापन के बाद तक ढेरों ऐसी बातें हैं जो इस समारोह में शामिल होने वाले भी नहीं जान पाए होंगे या दिल्ली से टाइमलाइन पर पोस्ट करने वाले महसूस कर पाए होंगे। जिस दौर में अखबारों के पन्नों से साहित्यिक को लेकर जगह के आकाल पड़ने को लेकर अखबार मालिक व संपादकों को कोसा जाता है, उस दौर में एक ऐसा राज्य साहित्य का एक ऐसा भव्य उत्सव का आयोजन करता है, जिससे न केवल रचनाकार बेहतरीन सम्मान पाता है बल्कि उसे अच्छा मानेदय दिया जाता है, यह कम बड़ी बात नहीं है। हिंदी साहित्य वाले हमेशा पारिश्रमिक को लेके रोना रोते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शायद अतिथियों को उतना मानदेय नहीं दिया जाता है जितना की छत्तीसगढ़ सरकार ने दिया।
इस पर यह तर्क देकर सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है कि यह पैसा गरीबों का है, नसबंदी कांड के पीड़ितों को दे दिया जाता तो उनका भला हो जाता। नसबंदी कांड निश्चय ही शर्मनाक घटना थी, लेकिन मामले के प्रकाश में आते ही जिस तरह से प्रशासन ने हरकत में आकर इस पर कार्रवाई की, उससे कई महिलाओं की जान बच गई। उन्हें सरकार ने मुआवजा दिया। उनके बच्चों को सरकार ने गोद ले लिया। 18 साल तक के उम्र तक बेहतरीन अस्पताल में इलाज का पूरा खर्च उठाने का निर्णय लिया। इन सब सकारात्मक चीजों को स्थानीय अखबारों में जगह तो मिल गई, लेकिन बाहरी मीडिया में इसे तब्बजों नहीं मिला। सरकार हर विभाग को अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए बजट देती है। तो क्या स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही से जो मातमी माहौल बना, उसमें सांस्कृतिक विभाग और जनसंपर्क विभाग अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को छोड़ दे।
रायपुर साहित्य उत्सव को लेकर सोशल मीडिया में जो बातें आ रही हैं, उसका न कोई ठोस तर्क है न ही विरोध का मजबूत आधार। चूंकि साहित्य का इतना बड़ा आयोजन पहली बार हो रहा था। थोड़ी बहुत चूक की गुजांईश स्वाभाविक है। लेकिन थोड़ी चुक से पूरी साकारात्मक पहल को नाकार देना कहां का न्याय है? दिल्ली में साहित्यिक संगोष्टि होती है तो तब उसमें विरोध करने वाले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाते हैं कि हर दिन दिल्ली की सड़कों पर लापरवाही से वाहन चलाने वाले दो-चार लोगों को अकाल मौत की नींद सुला देते हैं। आखिर वहां भी तो आयोजन होते हैं और दिल्ली की सड़कों पर होने वाली मौतें कम बड़ा मुद्दा नहीं है। चलिए इस मौतों को छोड़िए, दुष्कर्म के तो हर दिन मामले दर्ज होते हैं, फिर ये साहित्यकार क्यों नहीं भक्तिकाल और रीतिकाल से साहित्यिक गतिविधियों बहिष्कार या विरोध करते हैं। दिल्ली में महिला सुरक्षा तो बड़ा मुद्दा है। इस मुद्दे को लेकर साहित्यक गतिविधियों में साहित्यकारों का क्या स्टैंड होता है?
दरअसल पूरी प्रवृत्ति विरोध करने को लेकर विरोध की मानसिकता की दिखती है। शहर से कार्यक्रम स्थल तक पहुंचने तक इस कार्यक्रम को लेकर जितने होर्डिंग या बोर्ड लेगे थे निश्चय ही उससे कहीं ज्यादा कुर्सियां यहां खाली दिखी। लेकिन जो अतिथि वक्ता आएं, उनसे बातचीत के आधार पर स्थानीय अखबारों ने जो कवरेज और बातों को प्रस्तुत किया, अगले दो दिनों तक भीड़ बढ़ती गई। इसके बाद भी कुछ लोगों की यह शिकायत थी कि मंडल में कुर्सियां खाली रही। इसको लेकर एक बात और सुनिए।
हर मंडल में दिन एक ही समय पर तीन से चार कार्यक्रम। भव्य आयोजन था। इतने साहित्य प्रेमी कहां से आते। जिन्हें जो विषय पंसद आया वे उसे मंडप में बैठे रहे। हमें एक ही समय में दो मंडपों के कार्यक्रम पसंद आए, लेकिन एक ही मंडप में बैठना पड़ा। यदि दिल्ली में इसी तर्ज पर साहित्य का उत्सव हो तो संभवत हर मंडल में भीड़ उमड Þपड़े। लेकिन वह कार्यक्रम दिल्ली से बाहर सूरजकुंड में हो तो शायद दर्शकों और श्रोताओं का टोटा पड़ जाता। यहां तो एक छोटे से राज्य के एक छोटी सी राजधानी में बाहर जहां घुमने जाने के लिए भी हिम्मत जुटानी पड़ती है, वहां साहित्य का उत्सव होता है और सीधे सादे छत्तीसगढ़ के मुठ््ठी भर साहित्य प्रेमी इस उत्सव में पहुंचते हैं, यह कम बड़ी बात नहीं है। दिल्ली मुंबई से आए हुए वक्ताओं को तो यहां की ट्रैफिक उनके शहर की तुलना में नागण्य दिखी होगी, लेकिन वह यहां की जनता के लिए ज्यादा है? हर शहर की अपनी क्षमता होती है।
एक और चीज तो फेसबुक पर लेकर चर्चा हो रही है कि यहां आने वाले वक्ताओं ने सरकार को नहीं घेरा। मैं स्वयं एक मंडप में उपस्थित था। वहां देखा ही नहीं सुना भी। दिल्ली के एक वक्ता ने तो यहां के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह  के उद्घाटन में दिए गए वक्तव्यों को लेकर कटघरे में खड़ा करते हुए रियल दुनिया वर्चुअल और ओर वर्चुअल रियल है का बेहतरीन ओर सटीक उदाहरण दिया। इसी मंडप के मंच पर दो अन्य वक्ताओं से भी सत्ता को कटघरे में खड़ा करने वाली बातें सुनने को मिली।
कार्यक्रम में अंतिम दिन तो हालत यह थी कि पार्किंग दो पहिया और चार पहिया वाहनों से भरी हुई थी। भीड़ गैर साहित्यकारों से की ज्यादा थी। गैर साहित्य प्रेमी इस उत्सव को देखने पहुंचे थे। संभव हो इससे उनमें रुचि जगे ओर अगले बरस के आयोजन में वे सुनने के लिए मंडप में भी बैठ जाएं।
उत्सव में बाहर से आए वक्ताओं के बारे में एक और बात। यह साहित्य गैर साहित्यिक आयोजनों में हमेशा होता है। एक आयोजन में उसे विषय से जुड़े सभी साहित्यकारों को तो नहीं बुलाया जा सकता है। जिन्हें बुलाओ, उनके विरोधी गुट हमेशा मुंह फुलाते हैं और जो हवा छोड़ने हैं, वह निश्चय ही आयोजन को असफल करने के लिए होती है। मतलब उन्हें बुलाया जाता तो कार्यक्रम सफल होता। उनके नहीं जाने से ही यह अधूरा रह गया। कोई अतिथि सही है या गलत कभी कभी इसका निर्णय मेजवान पर भी छोड़ना चाहिए। मेहमान तो अपना चरित्र दिखा ही देते हैं। इसके भी उदाहरण है। एक पैनलिस्ट को आमंत्रण मिला तो उसने मेजबान अधिकारी को फोन लगा कर पूछा-कार्यक्रम में मेरी बेटी भी आने वाली है, क्या उसे भी प्लेन का टिकट मिलेगा...अधिकारी महोदय ने अपने अधिनस्त को बोला जो लड़की आना चाहती है, उसके और गेस्ट के सर नेम और उम्र का अंतर आदि सब मिलान कर देखों कि क्या सच में वह अपनी बेटी को ही ला रहा है न...।
रायपुर साहित्य उत्सव में बुलाए गए मेहमान वक्ताओं को  अच्छा खासा मानदेय मिला, प्लेन का किराया भी दिया गया। उस होटल, जिसमें एक रात का किराया कम से कम पांच साढ़े पांच हजार रुपए है, उसमें ठहराया गया। उन्हें खाने की सुविधा मिली। कार्यक्रम स्थल तक लाने ले जाने के लिए एसी वाली कार भी उपलब्ध कराई गई। लेकिन इसमें भी कुछ मेहमान ऐसे थे जो इस बात को लेकर नाराज थे कि होटल में इतनी बेहतरीन सुविधा तो थी, लेकिन लेकिन दारू की व्यवस्था नहीं थी। इसके लिए होटल में थोड़ा बहुत बवाल भी किया। पर होटल वाले ने साफ कह दिया कि उन्हें बस रखने और खिलाने की ही बुकिंग हुई है, पीने के लिए अपना खर्चना पड़ेगा।
ऐसी साहित्यिक आयोजनों में विचारों को लेकर वाद प्रतिवाद हमेशा से होता रहा है और होता भी रहेगा। लेकिन यदि कोई सरकार आगे साहित्य के हित में इतना बड़ा आयोजन करती है तो उसे दूसरे मुद्दे को लेकर नाकार देना उचित नहीं लगता है। छोटे से छत्तीसगढ़ ने देश के बड़े साहित्याकरों को बुलाया, इसको लेकर छत्तीसगढ़ का साहित्यप्रेमी गदगद है। इस आयोजन ने भविष्य में एक बेहतरीन साहित्यिक आयोजन की परंपरा का बीज बो दिया। जैसे जयपुर का लिटरेचर फेस्टिवल देश दुनिया में नाम कर चुका हैं, वैसे छत्तीसगढ़ का भी होगा, इतना सपना देखने का हक तो छत्तीसगढ़ को भी बनता है।
नया रायपुर के जिस पुरखौती मुक्तांगन में यह भव्य आयोजन संपन्न हुआ, उस ओर मुख्यमार्ग से जाने वाली करीब सौ मीटर की दिवार पर छत्तीसगढ़ की लोक कला भित्ति चित्र शैली में यहां के राम वन गमन व अन्य पौराणिक लोक कथाओं के प्रसंगों के चित्र बने हैं और उसकी चार लाइन की छोटी सी व्याख्या दी गई है। उसमें दो भित्ति चित्र पर नजर पड़ी। उस की व्याख्या लिखी थी-इधर महीने बाद राजा दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें पृथ्वी के तमाम महाराज व साधु संतों को आमंत्रित किया गया। किंतु शिव को नहंी बुलाया गया.....इस तरह से राजा दक्ष ने ना चाहते हुए भी सत्ती का विवाह बड़े ही धूमधाम से भगवान शंकर से संपन्न हुआ। आसमान से फुल  बरसे...। छत्तीसगढ़ में साहित्य का यह भव्य आयोजन निश्चय ही किसी यज्ञ से कम नहीं था। दिल्ली में बैठ कर इस यज्ञ को नकारने वालों की नाकारात्मक मंशा के बाद भी सफल हुआ। हालांकि यह युग शिव और दक्ष का नहीं है, इसलिए आसमान से फूल तो नहीं बरसे, लेकिन एक संवेदनशील साहित्यकार ने भविष्य में साहित्य की बेहतर संभावनाओं के प्रोत्साहन का आंकलन जरूर कर लिया।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

‘समागम’ के 14 वर्ष पूरे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का जनवरी अंक महात्मा गांधी पर केन्द्रित
भोपाल।  शोध पत्रिका ‘समागम’ जनवरी 2015 में अपने प्रकाशन का 14 वर्ष पूरे करने जा रही है। वर्ष 2014 का अंक एक गांधी के महात्मा हो जाने विषय पर केन्द्रित है। भोपाल से मासिक कालखंड में प्रकाशित हो रही द्विभाषी शोध पत्रिका ‘समागम’ का केन्द्रीय विषय मीडिया एवं सिनेमा है किन्तु मानव जीवन का हर पहलू मीडिया एवं सिनेमा से प्रभावित है अत: इससे जुड़े अन्य विषयों के शोधपत्रों का प्रकाशन भी किया जाता है। शोध पत्रिका ‘समागम’ का हर अंक विशेषांक होता है। 14 वर्षों के प्रकाशन की निरंतर श्रृंखला में प्रतिवर्ष जनवरी एवं अक्टूबर में महात्मा गांधी पर अंक प्रकाशन होता रहा है। अब तक के विशेष अंकों में लता मंगेशकर, दलित पत्रकारिता, रेडियो पत्रकारिता, न्यू मीडिया, पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर के साथ ही पत्रकारिता के स्तंभ पराडक़र, माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे, भवानीप्रसाद मिश्र पर प्रकाशित किया गया है। राज्य विधानसभा चुनाव एवं आमचुनाव पर भी विशेष अंकों का संयोजन किया गया है। इस आशय की जानकारी शोध पत्रिका ‘समागम’ के सम्पादक एवं वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार ने दी।
शोध पत्रिका ‘समागम’ का 15वें वर्ष का पहला अंक का विषय ‘मीडिया की सामाजिक जवाबदारी’ पर है। समाज के विभिन्न प्रकल्प यथा शिक्षा, अर्थ, राजनीति, ग्राम्य जीवन, साहित्य, संस्कृति, परम्परा, महिला एवं बच्चे के साथ ही बदलते परिवेश में मीडिया की भूमिका को चिंहित करते हुये तैयार किया जा रहा है। इसी तरह अप्रेल 2014 का अंक पत्रकार मार्क टुली पर केन्द्रित होगा। शोध पत्रिका ‘समागम’ विगत तीन वर्षों से लगातार वार्षिंकांक के रूप में वर्ष भर में प्रकाशित श्रेष्ठ शोध आलेखों की एक पुस्तक का प्रकाशन भी करता है। अब तक मीडिया एवं समाज, भारतीय सिनेमा के सौ साल तथा समाज, संचार एवं सिनेमा शीर्षक से क्रमश: पुस्तकों का प्रकाशन किया गया है। इस वर्ष मीडिया समग्र शीर्षक से किताब का प्रकाशन किया जा रहा है। 
शोध पत्रिका ‘समागम’ व्यक्तिगत प्रयासों का मंच है।  इस पत्रिका को देश के श्रेष्ठ एवं प्रतिष्ठित विशेषज्ञों का निरंतर मार्गदर्शन प्राप्त होता है। मीडिया के विभिन्न मंचों से भी शोध पत्रिका को सहयोग मिलता रहा है। शोध पत्रिका ‘समागम’ श्रेष्ठ शोध आलेखों का प्रकाशन हेतु स्वागत करता है। शोध आलेख भेजने हेतु सम्पर्क किया जा सकता है सम्पादक शोध पत्रिका ‘समागम’ 3, जूनियर एमआयजी, द्वितीय तल, अंकुर कॉलोनी, शिवाजीनगर, भोपाल-16 मो. 09300469918 ई-मेल है k.manojnews@gmail.com

बुधवार, 17 सितंबर 2014

साझी विरासत के साक्षी पाकिस्तान के मंदिर

पाकिस्तान के पंजाब के चकवाल जिले के कटास राज क्षेत्र में मंदिर समूह और बारादरी
पाकिस्तान में हिंदू मंदिर? महीने भर पहले दिल्ली में अपनी किताब के विमोचन के मौके पर रीमा अब्बासी से कुछ नौजवान श्रोताओं ने इस तरह के सवाले पूछे तो हैरान होने की बजाए वे खुश हुईं, ‘‘मुझे लगा कि मैंने आज के हिसाब से बेहद मौजूं विषय पर और ठीक समय पर यह किताब लिखी है.’’

पाकिस्तान की पत्रकार रीमा अब्बासी कराची में रहती हैं. वे लंदन में पढ़ी हैं. परिवार के कई लोग हिंदुस्तान में हैं. संगीत और सिनेमा के अलावा योग में भी उनकी दिलचस्पी है. पाकिस्तान और भारत के कई अखबारों में अरसे से नियमित कॉलम लिखती हैं. वे पिछले एक दशक से धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को रेखांकित करने में जुटी हैं.

उनकी किताब हिस्टोरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान का मजमून, उसकी कवर फोटो और उपशीर्षक अ कॉल टु कॉनशंस (अंतरात्मा की आवाज) भी इसी ओर इशारा करते हैं. करीब 300 पन्नों की यह किताब एक दस्तावेजी साक्ष्य है. लाहौर और कराची जैसे राजधानी शहरों से लेकर ठेठ बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा तक के बीहड़ इलाकों में साथी महिला फोटोग्राफर मदीहा ऐजाज के साथ जाकर अब्बासी ने करीब दो दर्जन ऐतिहासिक मंदिरों की रचनात्मक परिक्रमा की है.
(कराची में 15,00 वर्ष पुराना पंचमुखी हनुमान मंदिर)
भारत में पाकिस्तान के मंदिरों की खबरें उन पर कथित ‘‘हमलों’’ या अतिक्रमणों के संदर्भ में ही आती रही हैं. उनकी ऐतिहासिकता, आज के वहां के परिवेश और तथ्यों को एक संवेदनशील आंख से देखने-बताने की कोशिश ही नहीं की गई. कभी-कभी चर्चा हुई भी तो मोटे तौर पर दो मंदिरों-कटास राज और हिंगलाज माता की. पंजाब (पाकिस्तान) के चकवाल जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर पहाड़ी पर बने कटासराज मंदिर के बारे में मान्यता है कि शिव की अर्द्धांगिनी सती ने यहीं देह त्यागी थी और पांडवों ने वनवास के चार साल वहां बिताए थे.
नागरपारकर के इस्लामकोट में पाकिस्तान का इकलौता राम मंदिर
नागरपारकर के इस्लामकोट में पाकिस्तान
 का इकलौता ऐतिहासिक राम मंदिर
कई विद्वानों का मानना है कि कटास ऋग्वेद, रामायण, उपनिषदों और महाभारत के लिए प्रेरणास्थल रहा है. वहीं बलूचिस्तान प्रांत के लासबेला जिले में हिंगोल नदी के किनारे स्थित हिंगलाज (दुर्गा का एक नाम) माता का मंदिर दुस्साहसी तीर्थयात्रियों का भी कड़ा इम्तिहान लेता है. ऊंचे-नीचे, संकरे दुर्गम पहाड़ी, मैदानी इलाकों के अलावा बुनियादी सुविधाओं से दूर जनजातीय आबादी को पार कर वहां पहुंचना, लेखिका के मुताबिक एक दूसरी दुनिया में होने का एहसास कराता है.

कभी सिंध, कभी थार और नागरपारकर तो कभी पंजाब, अब्बासी ने अपनी टीम के साथ एक साल तीन माह तक इसी तरह खाक छानी. सिंध में सक्खर का साधु बेला मंदिर, अरोड़ का कालका मंदिर और सिंध के दलितों-मुसलमानों की अगाध श्रद्धा वाला रामा पीर मंदिर या फिर खैबर के हजारा जिले में मनसेहरा का शिवाला मंदिर. आठ-नौ महीने अब्बासी ने इन पर शोध और अध्ययन में लगाए.
बलूचिस्तान के दूरदराज इलाके में स्थित दुर्गा का हिंगलाज मंदिर
(बलूचिस्तान प्रांत के दूरदराज इलाके में स्थित दुर्गा का हिंगलाज मंदिर)

इस दौरान उन्होंने पाया कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद पंजाब प्रांत समेत पाकिस्तान में करीब 1,000 मंदिर ध्वस्त किए गए. पंजाब वह इलाका है, जहां से पाकिस्तान के ज्यादातर हुक्मरान आते हैं. इस बारे में सवाल करने पर वे कहती हैं, ‘‘हैरत की बात है कि मुझे पेशावर में ऐसी कोई मुश्किल नहीं आई जबकि लोगों को लगता है कि वहां हालात ठीक नहीं होंगे. उस लिहाज से देखें तो पंजाब में हरेक के लिए मुश्किल है, क्या हिंदू, क्या शिया, क्या अहमदी और क्या खवातीन (महिलाएं). यह सब देखकर एक लेखक के तौर पर मुझे दुख हुआ.’’

लेकिन फिर वे जैसे एक झटके के साथ उस विषय से बाहर आते हुए स्पष्ट कहती हैं कि और भी 500 या 1,000 मंदिर होंगे लेकिन चूंकि उनकी किताब का मजमून ‘‘ऐतिहासिक मंदिर्य है, इसलिए उन्होंने, ‘‘इतिहास, सौहार्द, पुरातत्व और उपमहाद्वीप की साझा विरासत के मूल्यों पर ही फोकस रखा है.’’ उन्होंने पाया कि हिंगलाज माता के मंदिर में हिंदुओं के अलावा स्थानीय बलूच और यहां तक कि ईरान से गैर-हिंदू भी मन्नतें मांगने आते हैं. किताब में कई जगहों पर मंदिरों में मिले गैर-हिंदुओं का हवाला दिया गया है.
हिंगलाज मंदिर क्षेत्र का बाहर से दिखता बेहद खूबसूरत नजारा
(हिंगलाज मंदिर क्षेत्र का बाहर से दिखता बेहद खूबसूरत नजारा)

‘‘मैं जहां-जहां जिस मंदिर में भी गई, पुजारी हो, भक्त हो, बलूची हो या पेशावर के मुसलमान हों, जब मैंने उन्हें किताब का मजमून और इसके हिंदुस्तान में छपने की बात कही तो यकीन जानिए, हर किसी ने खुशी जताते हुए यही कहा कि हिंदुस्तान तक यह बात पहुंचनी चाहिए.’’ यही वह ताकत थी जिसने अब्बासी को इस जुनूनी काम में लगाए रखा. वरना ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों के हड्डियां चटका देने वाले रास्तों से गुजरते वक्त उन्हें एक वक्त लगा भी कि यह क्या बला मोल ले ली.

 ‘‘हिंगलाज पहुंचना तो वाकई बड़ा ही दुश्वार और चैलेंजिंग था. टीम का साजो-सामान लेकर चलना और फंड की दिक्कत. लेकिन चूंकि हमारे पास एक बड़ा मकसद था. एक धर्म विशेष की बजाए इसमें इंसानियत, बहुलतावाद और मंदिरों से जुड़े जीवन पर बात करनी थी. इस किताब में इतिहास को सेलिब्रेट किया गया है.’’
सिंध में दलित हिंदुओं और मुसलमानों का प्रमुख धर्म स्थल रामा पीर मंदिर
(सिंध में दलित हिंदुओं और मुसलमानों का प्रमुख धर्म स्थल रामा पीर मंदिर)

लेखिका के लिए मुल्क के कोने-कोने का सफर सिर्फ किताबी यात्रा नहीं थी. इससे वे खुद अपने मुल्क को कहीं बेहतर ढंग से जान पाईं, ‘‘पाकिस्तान के एक नागरिक के नाते अब इसे मैं पहले से बेहतर समझ पाई हूं. इन यात्राओं ने जेहनी तौर भी मुझे समृद्ध किया है.’’ इस किताब को लेकर भारत से मिली प्रतिक्रियाओं ने उनका हौसला बढ़ाया है. वे कहती हैं कि किताब के लिए जुटाए गए तमाम तथ्य और फोटो वगैरह लाहौर के पुरातत्व संग्रहालय में रखे जाएंगे.
रीमा अब्बासी‘‘यह सब तो ठीक है लेकिन हिंदुस्तान इस विषय पर सपोर्ट करने के लिए इतना ज्यादा खुला होगा, इसकी मुझे उम्मीद न थी.’’ 29 अगस्त को दिल्ली के हैबिटाट सेंटर में एक संस्था की ओर से उन्हें राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड दिया गया. इसमें वे खुद नहीं थीं पर अक्तूबर में एक साहित्य उत्सव में वे यहां होंगी. तब शायद यह किताब हिंदी में लाने की बात वे आगे बढ़ाएं, ‘‘मेरी दिली इच्छा है कि यह हिंदी में आए क्योंकि यहां की अहम जबान है हिंदी. हिंदी के लोग इसे पढ़ेंगे तो इससे मेरे मजमून को ताकत मिलेगी.’’ 
शिवकेश | सौजन्‍य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 3 सितम्बर 2014 |



    मंगलवार, 9 सितंबर 2014

    नेहरू के नाम मंटो का खत

    पंडित जी,
    अस्‍सलाम अलैकुम।
    यह मेरा पहला खत है जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्‍लाह अमरीकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमरीका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्‍न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्‍तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज साझा है कि आप कश्‍मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो... कश्‍मीरी होने का दूसरा मतलब खूबसूरती और खूबसूरती का मतलब, जो अभी तक मैंने नहीं देखा।
    मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते जि़ंदगी मुलाकात हो भी जाए)। मेरे बुजुर्ग तो आपके बुजुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाकात हो सके।
    यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं। आवाज रेडियो पर अल‍बत्ता जरूर सुनी है, वह भी एक बार।
    जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्‍मीर का रिश्‍ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी जरूरत ही क्‍या है? कश्‍मीरी किसी न किसी रास्‍ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्‍मीरी से मिल ही जाता है।
    आप किसी नहर के करीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो खैर लाखों बार कश्‍मीर देखा होगा। मुझे सिर्फ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है। मेरे कश्‍मीरी दोस्‍त जो कश्‍मीरी जबान जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब 'मंट' है यानी ढेढ़ सेर का बट्टा। आप यकीनन कश्‍मीरी जबान जानते होंगे। इसका जवाब लिखने की अगर आप जहमत फरमाएँगे तो मुझे जरूर लिखिए कि 'मंटो' नामकरण की वजह क्‍या है?
    अगर मैं सिर्फ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुकाबला नहीं। आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ डेढ़ सेर। आपसे मैं कैसे टक्‍कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं जो कश्‍मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार 'धूप में ठस करती हैं...'
    मुआफ कीजिएगा, आप इसका बुरा न मानिएगा। मैंने भी यह फर्जी कहावत सुनी तो कश्‍मीरी होने की वजह से मेरा तन-बदन जल गया। चूँकि यह दिलचस्‍प है, इसलिए मैंने इसका जिक्र तफरीह के लिए कर दिया है। हालाँकि मैं आप दोनों अच्‍छी तरह जानते हैं कि हम कश्‍मीरी किसी मैदान में आज तक नहीं हारे।
    राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व के साथ ले सकता हूँ क्‍योंकि बात कह कर फौरन खंडन करना आप खूब जानते हैं। पहलवानी में हम कश्‍मीरियों को आज तक किसने हराया है, शाइरी में हमसे कौन बाजी ले सका है। लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि आप हमारा दरिया बंद कर रहे हैं। लेकिन पंडित जी, आप तो सिर्फ नेहरू हैं। अफसोस कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ। अगर मैं तीस-चालीस हजार मन का पत्‍थर होता तो खुद को इस दरिया में लुढ़ा देता कि आप कुछ देर के लिए इसको निकालने के लिए अपने इंजीनियरों से मशविरा करते रहते।
    पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं, आप भारत के प्रधान मंत्री हैं। उस पर मुल्‍क, जिससे हमारा संबंध रहा है, आपकी हुक्‍मरानी है। आप सब कुछ हैं लेकिन गुस्‍ताखी मुआफ कि आपने इस खाकसार (जो कशमीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की।
    देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्‍प बात का जिक्र करता हूँ। मेरे वालिद साहब (स्‍वर्गीय), जो जाहिर है कि कश्‍मीरी थे, जब किसी हातो को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते साथ कुलचा भी होता। इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, "मैं भी काशर हूँ।"
    पंडित जी, आप काशर हैं... खुदा की कसम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक्त हाजिर हैं। मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ इसलिए कश्‍मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्‍मीरी होने के कारण कश्‍मीर से चुंबकीय किस्‍म का प्‍यार है। यह हर कश्‍मीरी को चाहे उसने कश्‍मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए।
    जैसा कि मैं इस खत में पहले लिख चुका हूँ। मैं सिर्फ बानिहाल तक गया हूँ। कद, बटौत, किश्‍तबार ये सब इलाके मैंने देखे हैं लेकिन हुस्‍न के साथ मैंने दरिद्रता देखी। अगर आपने दरिद्रता को दूर कर दिया है तो आप कश्‍मीर अपने पास रखिए। मगर मुझे यकीन है कि आप कश्‍मीरी होने के बावजूद उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फुरसत ही नहीं।
    आप ऐसा क्‍यों नहीं करते... मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए। मैं पहले आपके घर शलजम की शब देग खाऊँगा। इसके बाद कश्‍मीर का सारा काम सम्‍हाल लूँगा। ये बख्‍शी वगैरह अब बख्‍श देने के काबिल है... अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं। इन्‍हें आपने ख्‍वाहमख्‍वाह अपनी जरूरतों के मुताबिक आला रुतबा बख्‍श रखा है... आखिर क्‍यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ। लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकूँ।
    आप अंग्रेजी जबान के लेखक हैं। मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ... उस जबान में जिसको आपके हिंदुस्‍तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है। पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ। इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्‍यार है। लेकिन मैंने आपकी एक तकरीर रेडियो पर, जब हिंदुस्‍तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी... आपकी अंग्रेजी के तो सब कायल हैं लेकिन जब आपने नाम निहाद उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेजी तकरीर का तर्जुमा किसी ने ऐसा किया है जिसे पढ़ते वक्त आपकी जबान का जायका दुरुस्त नहीं था। आप हर फिक्रे पर उबकाइयाँ ले रहे थे।
    मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी तहरीर पढ़ना कुबूल कैसे की... यह उस जमाने की बात है जब रैडक्लिफ ने हिंदुस्‍तान की डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफसोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए। उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम। लेकिन आपकी हमारी अंगीठियों में आग बाहर से आ रही है।
    पं‍डित जी, आजकल बगू गोशों का मौसम है... गोशे तो खैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बगू गोशे खाने को जी बहुत चाहता है। यह आपने क्‍या जुल्‍म किया कि बख्‍शी को सारा हक बख्‍श दिया कि वह बख्‍शीश में भी मुझे थोड़े से बगू गोशे नहीं भेजता।
    बख्‍शी जाए जहन्‍नुम में और बगू गोशे... नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें। मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्‍यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफसोस है कि आपने दाद नहीं दी। और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज्यादा अफसोस का मुकाम है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं।
    अश्‍लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुकदमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज्‍यादती है कि दिल्‍ली में, आपकी नाक के ऐन नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह 'मंटो के फोह्श अफसाने' के नाम से प्रकाशित करता है।
    मैंने किताब लिखी है। इसकी भूमिका यही खत है जो मैंने आपके नाम लिखा है... अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज तौर पर छप गई तो खुदा की कसम मैं किसी न किसी तरह दिल्‍ली पहुँच कर आपको पकड़ लूँगा। फिर छोड़ूँगा नहीं आपको... आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे। हर रोज सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ। साथ में कुलचा भी हो। शलजमों की शबदेग तो खैर हर हफ्ते के बाद जरूर होगी।
    यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा। उम्‍मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना जरूर देंगे और मेरी तहरीर के बारे में अपनी राय से जरूर आगाह करेंगे।
    आपको मेरे इस खत से जले हुए गोश्‍त की बू आएगी... आपको मालूम है, हमारे वतन कश्‍मीर में एक शाइर 'गनी' रहता था जो गनी काश्‍मीरी के नाम से मशहूर है। उसके पास ईरान से एक शाइर आया। उसके घर के दरवाजे खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था। वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्‍या है जो मैं दरवाजे बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाजे बंद कर देता हूँ। इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ। ईरानी शाइर उसके सूने घर में अपनी बयाज छोड़ गया। इसमें एक शेर नामुकम्‍मल था। मिसरा सानी हो गया था, मगर मिसरा ऊला उस शाइर से नहीं कहा गया था। मिसरा सानी यह था :
    कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद
    जब वह ईरानी शाइर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी बयाज देखी। मिसरा ऊला मौजूद था :
    कदाम सोख्‍ता जाँ दस्‍त जो बदामानत
    पंडित जी, मैं भी एक सोख्‍ताजाँ (दग्‍ध-हृदय) हूँ। मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ।
    27 अगस्‍त, 1954
    सआदत हसन मंटो
    ( यह पत्र मंटो ने अपनी मृत्यु से चार महीना बाईस दिन पहले लिखा था।
    उर्दू से अनुवाद : डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा)

    सोमवार, 1 सितंबर 2014

    इतिहास के आईने में नालंदा विश्वविद्यालय

    ऐतिहासिक नालंदा विवि के पहले सत्र की पढ़ाई आज से शुरू हो रही है। विश्वविद्यालय में प्रथम बार दो विषयों की पढ़ाई शुरू हो रही है, जिसमें इतिहास एवं पर्यावरण विषय शामिल है। दोनों विषयों में कुल छात्रों की संख्या 15 हैं। जिसमें 10 छात्र एवं 5 छात्राएं शामिल है। इन विद्यार्थियों में एक जापान, एक भूटान, तीन बिहार सहित, बंगलोर, हजारीबाग (झारखंड), हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि जगह राज्यों के हैं।
    इसके अलावे फिलहाल 10 प्रोफेसर की भी नियुक्ति हो चुकी है। इनमें पर्यावरण विषय के प्रोफेसरों में विजिटिंग प्रोफेसर मिहीरदेव, एसोशिएट प्रोफेसर सोमनाथ बंदोपाध्याय, असिस्टेंट प्रोफेसर अर्ने हार्नस, असिस्टेंट प्रोफेसर प्रभाकर शर्मा शामिल हैं। वहीं इतिहास विषय के लिये प्रोफेसर एण्ड डीन आदित्य मल्लिक, प्रोफेसर पंकज मोहन, असिस्टेंट प्रोफेसर सैम्यूल राइट, असिस्टेंट प्रोफेसर येन कीर, असिस्टेंट प्रोफेसर मुरारी कुमार झा तथा असिस्टेंट प्रोफेसर कशाफ गांधी शामिल है।
    यूनिवर्सिटी आफ नालंदा के कुलपति डा.गोपा सभरवाल ने बताया कि आज से राजगीर के इंटरनेशनल कंवेन्शन हाल में पहली कक्षा की शुरुआत होगी। पहले दिन विषय की शुरुआत के बाद छात्र नालंदा खंडहर का अवलोकन करेंगे।
    इतिहास के आईने में नालंदा विश्वविद्यालय
    - स्थापना 450-470 ई. (अब अवशेष)
    -शिक्षक 2000 से अधिक -विद्यार्थी 10,000 से अधिक
    परिचय
    विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केंद्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धमरें के अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे।
    क्या है इतिहास
    पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में अलेक्जेंडर ने इस विश्वविद्यालय की खोज की थी। विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव के बारे में बता देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण आये चीनी यात्री ह्वेनसांग व इत्सिंग के यात्रा विवरणों में भी इस
    विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी है। ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहां एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक साल शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। स्थापना व संरक्षण-इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम 450-470 को जाता है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। यह विश्व का प्रथम पूर्णत: आवासीय विश्वविद्यालय था। नालंदा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति रही थी।
    स्थापत्य कला का था अद्भुद नमूना यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुद नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अब तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं।
    धर्म और विज्ञान का होता था अध्ययन
    यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, च्योतिष, योगशास्त्र व चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्त्रम के अन्तर्गत थे। धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। 13 वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णत: अवसान हो गया।
    आक्रमणों से पहुंची क्षति
    मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुकरें के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुंची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुंचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णत: नष्ट कर दिया।

    गुरुवार, 28 अगस्त 2014

    "तीजा जगार" विमोचित

        बस्तर (छत्तीसगढ़) अंचल के नारी-लोक 
                 की महागाथा "तीजा जगार" विमोचित
    पूरे दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा और धैर्य के बाद "तीजा जगार" का प्रकाशन पिछले महीने भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ। "तीजा जगार" (गुरुमायँ सुकदई द्वारा प्रस्तुत बस्तर, छत्तीसगढ़ अंचल के नारी-लोक की महागाथा) पुस्तक का विमोचन इस महागाथा की गायिका स्वयं गुरुमाय सुकदई कोर्राम के हाथों एक सादे कार्यक्रम में बिना किसी ताम-झाम के कोंडागाँव में सम्पन्aन हुआ। पुस्तक का विमोचन करते हुए गुरुमायँ सुकदई भाव-विभोर हो गयीं। उन्होंने कहा कि प्राय: पुस्तकों का विमोचन बड़े-बड़े समारोहों में नामी-गिरामी व्यक्तित्वों के द्वारा किया जाना तो उन्होंने सुन रखा था किन्तु इस अलिखित महागाथा को पुस्तक-रूप में प्रस्तुत करने वाले हरिहर वैष्णव ने बजाय किसी नामी-गिरामी व्यक्तित्व के मुझ जैसी अनपढ़ और ठेठ गँवई-श्रमिक महिला से इसका विमोचन मेरे ही घऱ पर करवा कर मुझे गौरवान्वित किया है। मेरा सम्मान बढ़ाया है। मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ।
    ज्ञात हो कि बस्तर अंचल में चार लोक महाकाव्य वाचिक परम्परा के सहारे पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते आ रहे हैं। इन्हीं चार लोक महाकाव्यों में एक "तीजा जगार" भी है। "आलोचना के अमृत-पुरुष" प्रो. (डॉ.) धनंजय वर्मा जी, जो डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्य प्रदेश) के कुलपति रह चुके हैं, इस पुस्तक के फ्लैप पर लिखते हैं, "वाचिक परम्परा में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित  होते आ रहे लोक-महाकाव्य "तीजा जगार" को, नारी के द्वारा, नारी के लिये, नारी की  महागाथा कहना अतिशयोक्ति न होगा। आदिवासी बहुल बस्तर अंचल शुरू से ही मातृ-शक्ति का उपासक रहा है। "तीजा जगार" उसी मातृ-शक्ति की महागाथा है। इसमें नारी का मातृ-रूप ही मुखर है। नारी यहाँ तुलसी का बिरवा रोपती है, सरोवर और बावड़ी खुदवाती है, बाग़-बगीचे लगवाती है तो निष्प्रयोजन नहीं; वह इनके माध्यम से सम्पूर्ण मानवता, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों यानि प्राणि-मात्र के लिये अपनी ममता का अक्षय कोष खुले हाथों लुटाती है। वर्षों से पिछड़ा कहे जाने को अभिशप्त बस्तर अंचल के आदिवासियों की नैतिक और सांस्कृतिक समृद्धि का दस्तावेज है, "तीजा जगार"। आदिवासियों की घोटुल जैसी पवित्र संस्था को विकृत रूप में पेश करने वाले विदेशी ही नहीं, देशी नृतत्त्वशास्त्री, साहित्यकार, छायाकार, कलाकार आदि संस्कृति-कर्मियों की दृष्टि से अब तक अछूती "तीजा जगार" महागाथा के माध्यम से हरिहर वैष्णव ने बस्तर की समृद्ध संस्कृति को समग्रता में प्रस्तुत किया है। बस्तर की लोक-संस्कृति और लोक-गाथा को एक नयी रोशनी में उद्घाटित करती उनकी यह शोधपूर्ण प्रस्तुति रचनात्मक अनुसन्धान के नये प्रतिमान भी स्थापित करती है।"
    इस पुस्तक में मूल लोक-भाषाहल्बी के साथ-साथ हिन्दी अनुवाद भी है, जिससे मूल लोक-भाषा का भी आनन्द आये और अनुवाद का भी। यह पुस्तक अंचल के लोक-चित्रकार और मेरे अनुज खेम वैष्णव द्वारा बस्तर की लोक-चित्र-शैली में तैयार अद्भुत-आकर्षक रेखांकनों एवं उनकी पुत्री, मेरी भतीजी रागिनी द्वारा तैयार मुख-पृष्ठ से सुसज्जित है।  383 पृष्ठीय इस हार्ड कवर पुस्तक की कीमत 490.00 रुपये है।
    हरिहर वैष्‍णव

    गुरुवार, 7 अगस्त 2014

    मुण्डन


    हरिशंकर परसाई 

    किसी देश की संसद में एक दिन बड़ी हलचल मची। हलचल का कारण कोई राजनीतिक समस्या नहीं थी, बल्कि यह था कि एक मंत्री का अचानक मुण्डन हो गया था। कल तक उनके सिर पर लंबे घुंघराले बाल थे, मगर रात में उनका अचानक मुण्डन हो गया था।

    सदस्यों में कानाफूसी हो रही थी कि इन्हें क्या हो गया है। अटकलें लगने लगीं। किसी ने कहा- शायद सिर में जूं हो गयी हों। दूसरे ने कहा- शायद दिमाग में विचार भरने के लिए बालों का पर्दा अलग कर दिया हो। किसी और ने कहा- शायद इनके परिवार में किसी की मौत हो गयी। पर वे पहले की तरह प्रसन्न लग रहे थे।

    आखिर एक सदस्य ने पूछा- अध्यक्ष महोदय! क्या मैं जान सकता हूं कि माननीय मंत्री महोदय के परिवार में क्या किसी की मृत्यु हो गयी है?

    मंत्री ने जवाब दिया- नहीं।

    सदस्यों ने अटकल लगायी कि कहीं उन लोगों ने ही तो मंत्री का मुण्डन नहीं कर दिया, जिनके खिलाफ वे बिल पेश करने का इरादा कर रहे थे।

    एक सदस्य ने पूछा- अध्यक्ष महोदय! क्या माननीय मंत्री को मालूम है कि उनका मुण्डन हो गया है? यदि हां, तो क्या वे बतायेंगे कि उनका मुण्डन किसने कर दिया है?

    मंत्री ने संजीदगी से जवाब दिया- मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं!

    कई सदस्य चिल्लाये- हुआ है! सबको दिख रहा है।

    मंत्री ने कहा- सबको दिखने से कुछ नहीं होता। सरकार को दिखना चाहिए। सरकार इस बात की जांच करेगी कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं।

    एक सदस्य ने कहा- इसकी जांच अभी हो सकती है। मंत्री महोदय अपना हाथ सिर पर फेरकर देख लें।

    मंत्री ने जवाब दिया- मैं अपना हाथ सिर पर फेरकर हर्गिज नहीं देखूंगा। सरकार इस मामले में जल्दबाजी नहीं करती। मगर मैं वायदा करता हूं कि मेरी सरकार इस बात की विस्तृत जांच करवाकर सारे तथ्य सदन के सामने पेश करेगी।

    सदस्य चिल्लाये- इसकी जांच की क्या जरूरत है? सिर आपका है और हाथ भी आपके हैं। अपने ही हाथ को सिर पर फेरने में मंत्री महोदय को क्या आपत्ति है?

    मंत्री बोले- मैं सदस्यों से सहमत हूं कि सिर मेरा है और हाथ भी मेरे हैं। मगर हमारे हाथ परंपराओं और नीतियों से बंधे हैं। मैं अपने सिर पर हाथ फेरने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं। सरकार की एक नियमित कार्यप्रणाली होती है। विरोधी सदस्यों के दबाव में आकर मैं उस प्रणाली को भंग नहीं कर सकता। मैं सदन में इस संबंध में एक वक्तव्य दूंगा।

    शाम को मंत्री महोदय ने सदन में वक्तव्य दिया-अध्यक्ष महोदय! सदन में ये प्रश्न उठाया गया कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं? यदि हुआ है तो किसने किया है? ये प्रश्न बहुत जटिल हैं। और इस पर सरकार जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं दे सकती। मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं। जब तक जांच पूरी न हो जाए, सरकार इस संबंध में कुछ नहीं कह सकती। हमारी सरकार तीन व्यक्तियों की एक जांच समिति नियुक्त करती है, जो इस बात की जांच करेगी। जांच समिति की रिपोर्ट मैं सदन में पेश करूंगा।

    सदस्यों ने कहा- यह मामला कुतुब मीनार का नहीं जो सदियों जांच के लिए खड़ी रहेगी। यह आपके बालों का मामला है, जो बढ़ते और कटने रहते हैं। इसका निर्णय तुरंत होना चाहिए।

    मंत्री ने जवाब दिया- कुतुब मीनार से हमारे बालों की तुलना करके उनका अपमान करने का अधिकार सदस्यों को नहीं है। जहां तक मूल समस्या का संबंध है, सरकार जांच के पहले कुछ नहीं कह सकती।

    जांच समिति सालों जांच करती रही। इधर मंत्री के सिर पर बाला बढ़ते रहे।

    एक दिन मंत्री ने जांच समिति की रिपोर्ट सदन के सामने रख दी।

    जांच समिति का निर्णय था कि मंत्री का मुण्डन नहीं हुआ था।

    सत्ताधारी दल के सदस्यों ने इसका स्वागत हर्ष-ध्वनि से किया।

    सदन के दूसरे भाग से ‘शर्म-शर्म’ की आवाजें उठीं। एतराज उठे- यह एकदम झूठ है। मंत्री का मुण्डन हुआ था।

    मंत्री मुस्कुराते हुए उठे और बोले- यह आपका ख्याल हो सकता है। मगर प्रमाण तो चाहिए। आज भी अगर आप प्रमाण दे दें तो मैं आपकी बात मान लेता हूं।

    ऐसा कहकर उन्होंने अपने घुंघराले बालों पर हाथ फेरा और सदन दूसरे मसले सुलझाने में व्यस्त हो गया।

    हरिशंकर परसाई   

    सोमवार, 28 जुलाई 2014

    आदमी पर निबंध


    शशिकांत सिंह ‘शशि’
    जंगल की एक निंबध प्रतियोगिता में गाय ने आदमी पर निबंध लिखा, जो इस प्रकार है। आदमी एक दोपाया जानवर होता है। उसको दो कान, दो आंखें और दो हाथ होते हैं। वह सब- कुछ खाता है। उसका पेट बहुत बड़ा तो नहीं होता, लेकिन कभी भरता नहीं है। यही कारण है कि आदमी जुगाली नहीं करता। उसके सींग नहीं होते, लेकिन वह सबको मारता है। उसके दुम नहीं होती, लेकिन वह दुम हिला सकता है। वह एक अद्भुत किस्म का प्राणी है। उसके बच्चे भी बड़े होकर आदमी ही बनते हैं। आदमी हर जगह पाया जाता है। गांवों में, शहरों में, पहाड़ों और मैदानों में। रेगिस्तान से लेकर अंटार्कटिका जैसे ठंडे स्थानों पर भी पाया जाता है। वह कहीं भी रह सकता है, लेकिन जहां रहता है उस जगह को जहरीला कर देता है। उससे दुनिया के सारे जानवर डरते हैं। वह जानवरों का दुश्मन तो है ही पेड़-पौधों का भी शत्रु है। आदमियों के अनेक प्रकार होते है। गोरा आदमी, काला आदमी, हिंदू आदमी, मुसलमान आदमी, ऊंची जाति का, नीची जाति का। पर सबसे अधिक सं या में पाए जाते हैं- धनी आदमी, गरीब आदमी। आदमी हमेशा लड़ने वाला जीव होता है। वह नाम, मान, जान, पहचान, आन और खानदान के लिए लड़ता ही रहता है। सबसे अधिक अपनी पहचान के लिए लड़ता है। जानवरों में यह हंसी की बात मानी जाती है कि पहचान के लिए कोई लड़े। किसी के सींग छोटे हैं तो किसी के बड़े। किसी की दुम छोटी है तो किसी की बड़ी। हाथी के कान विशाल होते हैं तो ऊंट के एकदम छोटे, लेकिन दोनों लड़ते नहीं हैं। कौआ काला होता है। तोता हरा, लेकिन दोनों एक ही डाल पर प्रेम से रह सकते हैं। आदमियों में सबसे ज्यादा लड़ाई पहचान के लिए होती है। कहते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है, जबकि समाज में रहना उसे आता ही नहीं। वह सबसे ज्यादा अपने पड़ोसी से लड़ता है। वह दो इंच जमीन के लिए भी लड़ सकता है और एक गज कपड़े के लिए भी। और तो और वह एक पके पपीते के लिए चौबीस घंटे अनवरत लड़े तो जानवरों को आश्चर्य नहीं होगा। लड़ने के लिए धर्म और जाति बनाई गई हैं। जानवरों में जाति और धर्म नहीं हैं तो वह कितने सुख से रहता है। ऐसा नहीं कि शेर के शक्‍ितशाली भगवान हैं और उन्हें मांसाहार पसंद है, तो खरगोश के भगवान शाकाहारी हैं। उनका अवतार जंगल को शेरों से मु त कराने के लिए हुआ था। मछलियों के भगवान पानी में रहते तो बंदरों के पेड़ पर। यदि ऐसा होता तो जंगल में जानवर लड़ते-लड़ते मर जाते। शुक्र है, जानवरों के पूर्वजों के दिमाग में ऐसी बातें नहीं आई। नहीं तो जंगल भी नगर बन जाते। हंसी तो तब आती है जब इतनी लड़ाइयों के बावजूद आदमी अपने को सामाजिक प्राणी मानता हैं। धन्य है आदमी!
    शशिकांत सिंह ‘शशि’

    गुरुवार, 24 जुलाई 2014

    नाम के पहले अक्षर में छिपा है आपका चरित्र

    आपके नाम का पहला अक्षर बताएगा कि आपका चरित्र कैसा है  ?

    A
    A- अक्षर से नाम वाले लोग काफी मेहनती और धैर्य वाले होते हैं। इन्हें अट्रैक्टिव दिखना और अट्रैक्टिव दिखने वाले लोग ज्यादा पसंद होते हैं। ये खुद को किसी भी परिस्थिति में ढाल लेने की गजब की क्षमता रखते हैं। इन्हें वैसी चीज ही भाती है, जो भीड़ से अलग दिखता हो।A- अध्ययन या करियर की बात करें तो किसी भी काम को अंजाम देने के लिए चाहे जो करना पड़े ये करते हैं, लेकिन लक्ष्य तक पहुंचने से पहले ये कभी हारकर बैठते नहीं। A- ए से नाम वाले लोग रोमांस के मामले में जरा पीछे रहना ही पसंद करते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे प्यार और अपने करीबी रिश्तों को अहमियत नहीं देते। बस, इन्हें इन चीजों का इजहार करना अच्छा नहीं लगता।A- चाहे बात रिश्तों की हो या फिर काम की, इनका विचार बिल्कुल खुला होता है। सच और कड़वी बात भी इन्हें खुलकर कह दी जाए तो ये मान लेते हैं, लेकिन इशारों में या घुमाकर कुछ कहना-सुनना इन्हें पसंद नहीं।A- ए से नाम वाले लोग हिम्मती भी काफी होते हैं, लेकिन यदि इनमें मौजूद कमियों की बात करें तो इन्हें बात-बात पर गुस्सा भी आ जाता है।
    B
    B- जिनका नाम बी अक्षर से शुरू होता है वे अपनी जिंदगी में नए-नए रास्ते तलाशने में यकीन रखते हैं। अपने लिए कोई एक रास्ता चुनकर उसपर आगे बढ़ना इन्हें अच्छा नहीं लगता। B- बी अक्षर वाले लोग ज़रा संकोची स्वभाव के होते हैं। काफी सेंसिटिव नेचर के होते हैं ये। जल्दी अपने मित्रों से भी नहीं घुलते-मिलते। इनकी लाइफ में कई राज होते हैं, जो इनके करीबी को भी नहीं पता होता। ये ज्यादा दोस्त नहीं बनाते, लेकिन जिन्हें बनाते हैं उनके साथ सच्चे होते हैं।B- रोमांस के मामले में ये थोड़े खुले होते हैं। प्यार का इजहार ये कर लेते हैं। प्यार को लेकर ये धोखा भी खूब खाते हैं। इन्हें खुद पर कंट्रोल रखना आता है। खूबसूरत चीजों के ये दीवाने होते हैं।
    C
    c- सी नाम के लोगों को हर क्षेत्र में खूब सफलता मिलती है। एक तो इनका चेहरा-मोहरा भी काफी आकर्षक होता है और दूसरा कि काम के मामले में भी लक इनके साथ हमेशा रहता है। इन्हें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है। अच्छी सूरत तो भगवान देते ही हैं इन्हें, अच्छे दिखने में ये खुद भी कभी कोई कसर नहीं छोड़ते।C- सी नाम वाले दूसरों के दुख-दर्द के साथ-साथ चलते हैं। खुशी में ये शरीक हों या न हों, लेकिन किसी के ग़म में आगे बढ़कर ये उनकी मदद करते हैं।C- सी नाम वालों के लिए प्यार के महत्व की बात करें तो ये जिन्हें पसंद करते हैं उनके बेहद करीब हो जाते हैं। यदि इन्हें अपने हिसाब के कोई न मिले तो मस्त होकर अकेले भी रह लेते हैं। वैसे स्वभाव से ये काफी इमोशनल होते हैं।
    D
    D- डी नाम वाले लोगों को हर मामले में अपार सफलता हाथ लगती है। कभी भाग्य साथ न भी दे तो उन्हें विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि उनकी जिंदगी में आगे चलकर सारी खुशियां लिखी होती हैं। लोगों की बात पर ध्यान न देकर अपने मन की करना ही इन्हें भाता है। जो ठान लेते हैं ये, उसे कहके ही मानते हैं। इन्हें सुंदर या आकर्षक दिखने के लिए बनने-संवरने की जरूरत नहीं होती। ये लोग बॉर्न स्मार्ट होते हैं। D- किसी की मदद करने में ये कभी पीछे नहीं रहते। यहां तक ये भी नहीं देखते कि जिनकी मदद के लिए उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया है वह उनके दुश्मन की लिस्ट में हैं या दोस्त की लिस्ट में।D- डी नाम के लोग प्यार को लेकर काफी जिद्दी होते हैं। जो इन्हें पसंद हो, उन्हें पाने के लिए या फिर उनसे रिश्ता निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। रिश्तों के मामले में इनपर अविश्वास करना बेवकूफी होगी।
    E
    E- ई या इ से नाम वाले मुंहफट किस्म के होते हैं। हंसी-मजाक की जिंदगी जीना इन्हें पसंद है। इन्हें अपने इच्छा अनुरूप सारी चीजें मिल जाती हैं। जो इन्हें टोका टाकी करे, उनसे किनारा भी तुरंत हो लेते हैं।E- ई या इ नाम वाले लोग जिंदगी को बेतरतीव जीना पसंद नहीं करते। इन्हें सारी चीजें सलीके और सुव्यवस्थित रखना ही पसंद है। E- ई या इ से नाम वाले लोग प्यार को लेकर उतने संजीदा नहीं रहते, इसलिए इनसे रिश्ते पीछे छूटने का किस्सा लगा ही रहता है। शुरुआत में ये दिलफेंक आशिक की तरह व्यवहार करते हैं, क्योंकि इनका दिल कब किसपर आ जाए कह नहीं सकते। लेकिन एक सच यह भी है कि जिन्हें ये फाइनली दिल में बिठा लेते हैं उनके प्रति पूरी तरह से सच्चे हो जाते हैं।
    F
    F नाम वाले लोग काफी जिम्मेदार किस्म के होते हैं। हां, इन्हें अकेले रहना काफी भाता है। ये स्वभाव से काफी भावुक होते हैं। हर चीज को लेकर ये बेहद कॉन्फिडेंट होते हैं। सोच-समझकर ही खर्च करना चाहते हैं ये। जीवन में हर चीज इनका काफी बैलेंस्ड होता है।
    F से शुरू होने वाले नाम के लोगों के लिए प्यार की काफी अहमियत होती है। ये खुद भी सेक्सी और आकर्षक होते हैं और ऐसे लोगों को पसंद भी करते हैं। रोमांस तो समझिए कूट-कूटकर इनमें भरा होता है।
    G
    G से शुरू होनेवाले नाम वाले लोग दूसरों की मदद के लिए हमेशा ही खड़े होते हैं। ये खुद को हर परिस्थितियों में ढाल लेते हैं। ये चीजों को गोलमोल करके पेश करना पसंद नहीं करते, क्योंकि इनका दिल बिल्कुल साफ होता है। अपने किए से जल्द सबक लेते हैं और फूंत-फूंककर कदम आगे बढ़ाते हैं ये।G से नाम वाले प्यार को लेकर ईमानदार होते हैं। प्यार के मामले में ये समझदारी और धैर्य से काम लेते हैं। कमिटमेंट से पहले किसी पर बेवजह खर्च करना इनके लिए बेकार का काम है।
    H
    .........
    H से नाम वाले लोगों के लिए पैसे काफी मायने रखते हैं। ये काफी हंसमुख स्वभाव के होते हैं और अपने आसपास का माहौल भी एकदम हल्का-फुल्का बनाए रखते हैं। ये लोग दिल के सच्चे होते हैं। काफी रॉयल नेचर के होते हैं और मस्त मौला होकर जीवन गुजारना पसंद करते हैं। झटपट निर्णय लेना इनकी काबिलियत है और दूसरों की मदद के लिए आधी रात को भी ये तैयार होते हैं।प्यार का इजहार करना इन्हें नहीं आता, लेकिन जब ये प्यार में पड़ते हैं तो जी जीन से प्यार करते हैं। उनके लिए कुछ भी कर गुजरते हैं ये। इन्हें अपने मान-सम्मान की भी खबह चिंता होती है।
    I
    I से शुरू होने वाले नाम के लोग कलाकार किस्म के होते हैं। न चाहते हुए भी ये लोगों के आकर्षण का केन्द्र बने रहते हैं। हालांकि मौका पड़े तो इन्हें अपनी बात पलटने में पल भर भी नहीं लगता और इसके लिए वे यह नहीं देखते कि सही का साथ दे रहे हैं या फिर गलत का। इनके हाथ तो काफी कुछ लगता है, लेकिन उन चीजों के हाथ से फिसलने में भी देर नहीं लगती। I से नाम वाले लोग प्यार के भूखे होते हैं। आपको वैसे लोग अपनी ओर खींच पाते हैं जो हर काम को काफी सोच-विचार के बाद ही करते हैं। स्वभाव से संवेदनशील और दिखने में बेहद सेक्सी होते हैं।
    J
    J से नाम वाले लोगों की बात करें तो ये स्वभाव से काफी चंचल होते हैं। लोग इनसे काफी चिढ़ते हैं, क्योंकि इनमें अच्छे गुणों के साथ-साथ खूबसूरती का भी सामंजस्य होता है। जो करने की ठान लेते हैं, उसे करके ही मानते हैं ये। पढ़ने-लिखने में थोड़ा पीछे ही रहते हैं, लेकिन जिम्मेदारी की बात करें तो सबसे आगे खड़े रहेंगे ये। j से नाम वाले लोगों के चाहने वाले कई होते हैं। हमसफर के रूप में ये जिन्हें मिल जाएं समझिए खुशनसीब हैं वह। जीवन के हर मोड़ पर ये साथ निभानेवाले होते हैं।
    K
    K से नाम वाले लोगों को हर चीज में परफेक्शन चाहिए। चाहे बेडशीट के बिछाने का तरीका हो या फिर ऑफिस की फाइलें, सारी चीजें इन्हें सेट चाहिए। दूसरों से हटकर चलना बेहद भाता है इन्हें। ये अपने बारे में पहले सोचते हैं। पैसे कमाने के मामले में भी ये काफी आगे चलते हैं।स्वभाव से ये रोमांटिक होते हैं। अपने प्यार का इजहार खुलकर करना इन्हें खूब आता है। इन्हें स्मार्ट और समझदार साथी चाहिए और जबतक ऐसा कोई न मिले तब तक किसी एक पर टिकते नहीं ये।
    L
    L से शुरू होने वाले नाम के लोग काफी चार्मिंग होते हैं। इन्हें बहुत ज्य़ादा पाने की तमन्ना नहीं होती, बल्कि छोटी-मोटी खुशियों से ये खुश रहते हैं। पैसों को लेकर समस्या बनती है, लेकिन किसी न किसी रास्ते इन्हें हल भी मिल जाता है। लोगों के साथ प्यार से पेश आते हैं ये। कल्पनाओं में जीते हैं और फैमिली को अहम हिस्सा मानकर चलते हैं ये।प्यार की बात करें तो इनके लिए इस शब्द के मायने ही सबकुछ हैं। बेहद ही रोमांटिक होते हैं ये। वैसे सच तो यह है कि अपनी काल्पनिक दुनिया का जिक्र ये अपने हमसफर तक से करना नहीं चाहते। प्यार के मामले में भी ये आदर्शवादी किस्म के होते हैं।
    M
    M नाम से शुरू होनेवाले लोग बातों को मन में दबाने वाली प्रवृत्ति के होते हैं। कहते हैं ऐसा नेचर कभी-कभी दूसरों के लिए खतरनाक भी साबित हो जाता है। चाहे बात कड़वी हो, यदि खुलकर कोई कह दे तो बात वहीं खत्म हो जाती है, लेकिन बातों को मन रखकर उस चलने से नतीजा अच्छा नहीं रहता। ऐसे लोगों से उचित दूरी बनाए रखना बेहतर है। इनका जिद्दी स्वभाव कभी-कभार इन्हें खुद परेशानी में डाल देता है। वैसे अपनी फैमिली को ये बेहद प्यार करते हैं। खर्च करने से पहले ज्यादा सोच-विचार नहीं करते। सबसे बेहतर की ओर ये ज्यादा आकर्षित होते हैं।प्यार की बात करें तो ये संवेदनशील होते हैं और जिस रिश्ते में पड़ते हैं उसमें डूबते चले जाते हैं और इन्हें ऐसा ही साथी भी चाहिए जो इनसे जी जीन से प्यार करे।
    N
    N से शुरू होनेवाले नाम के लोग खुले विचारों के होते हैं। ये कब क्या करेंगे इसके बारे में ये खुद भी नहीं जानते। बेहद महत्वाकांक्षी होते हैं। काम के मामले में परफेक्शन की चाहत इनमें होती है। आपके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण होता है, जो सामने वालों को खींच लाता है। ये दूसरों से पंगे लेने में ज्यादा देर नहीं लगाते। इन्हें आधारभूत चीजों की कभी कोई कमी नहीं रहती और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होते हैं ये।कभी-कभार फ्लर्ट चलता है, लेकिन प्यार में वफादारी करना इन्हें आता है। स्वभाव से रोमांटिक और रिश्तों को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं ये।
    O
    o अक्षर से नाम के लोगों के स्वभाव की बात करें तो बता दें कि इनका दिमाग काफी तेज दौड़ता है। ये बोलते कम हैं और करते ज्यादा हैं, शायद यही वजह है कि ये जल्दी ही उन हर ऊंचाइयों को छू लेते हैं जिनका ख्वाब ये देखा करते हैं। इन सबके बावजूद समाज के साथ चलना इन्हें पसंद है। जीवन के हर क्षेत्र में सफल होते हैं।प्यार की बात करें तो ये ईमानदार किस्म के होते हैं। साथी को धोखा देना इन्हें पसंद नहीं और ऐसा ही उनसे भी अपेक्षा रखते हैं। जिससे कमिटमेंट हो गया, बस पूरी जिंदगी उसपर न्योछावर करने को तैयार रहते हैं ये।
    P
    P से शुरू होनेवाले नाम के लोग उलझनों में फंसे रहते हैं। वैसे, ये चाहते कुछ हैं और होता कुछ अलग ही है। काम को परफेक्शन के साथ करते हैं। इनके काम में सफाई और खरापन साफ झलकती है। खुले विचार के होते हैं ये। अपने आसपास के सभी लोगों का ख्याल रखते हैं और सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं। हां, कभी-कभार अपने विचारों के घोड़े सबपर दौड़ाने की इनकी कोशिश इन्हें नुकसान भी पहुंचाती है।प्यार की बात करें तो सबसे पहले ये अपनी छवि से प्यार करते हैं। इन्हें खूबसूरत साथी खूब भाता है। कभी-कभार अपने साथी से ही दुश्मनी भी पाल लेते हैं, लेकिन चाहे लड़ते-झगड़ते सही साथ उनका कभी नहीं छोड़ते।
    Q
    Q से नाम वाले लोगों को जीवन में ज्यादा कुछ पाने की इच्छा नहीं होती, लेकिन नसीब इन्हें देता सब है। ये स्वभाव से सच्चे और ईमानदार होते हैं। नेचर से काफी क्रिएटिव होते हैं। अपनी ही दुनिया में खोए रहना इन्हें अच्छा लगता है।प्यार की बात करें तो ये अपने साथी के साथ नहीं चल पाते। कभी विचारों में तो कभी काम में असमानता इन्हें झेलना ही पड़ता है। वैसे, आपके प्रति आकर्षण आसानी से हो जाता है।
    R
    R से नाम वाले लोग ज्यादा सोशल लाइफ जीना पसंद नहीं करते। हालांकि, फैमिली इनके लिए मायने रखती है और पढ़ना-लिखना इन्हें नहीं भाता। जो भीड़ करे, उसे करने में इन्हें मजा नहीं आता। ये तो वह काम करना चाहते हैं, जिसे कोई नहीं कर सकता। R से नाम वाले लोग काफी तेजी से आगे बढ़ते हैं और धन-दौलत की कोई कमी नहीं रहती।अपने से ऊपर सोच-समझ और बुद्धि वाले लोग इन्हें आकर्षित करते हैं। दिखने में खूबसूरत और कोई ऐसा जिसपर आपको गर्व हो उनकी ओर आप खिंचे चले जाते हैं। वैसे वैवाहिक जीवन में उठा-पटक लगा ही रहता है।
    S
    S से नाम वाले लोग काफी मेहनती होते हैं। ये बातों के इतने धनी होते हैं कि सामने वाला इनकी ओर आकर्षित हो ही जाता है। दिमाग से तेज और सोच-विचार कर काम करते हैं ये। इन्हें अपनी चीजें शेयर करना पसंद नहीं। ये दिल से बुरे नहीं होते, लेकिन उनके बातचीत का अंदाज़ इन्हें लोगों के सामने बुरा बना देती है। प्यार के मामले में ये शर्मीले होते हैं। आप सोचते बहुत हैं, लेकिन प्यार के लिए कोई पहल करना नहीं आता। प्यार के मामले में ये सबसे ज्यादा गंभीर होते हैं।
    T
    T से शुरू होनेवाले नाम के लोग खर्च के मामले में एकदम खुले हाथ वाले होते हैं। चार्मिंग दिखने वाले ये लोग खुशमिजाज भी खूब रहते हैं। मेहनत करना इन्हें उतना अच्छा नहीं लगता, लेकिन पैसों की कभी कमी नहीं होती इन्हें। अपने दिल की बात किसी से जल्दी शेयर नहीं करते ये।प्यार की बात करें तो रिश्तों को लेकर काफी रोमांटिक होते हैं। लेकिन बातों को गुप्त रखने की आदत भी इनमें होती है।
    U
    U से शुरू होनेवाले नाम के लोग कोशिश तो बहुत-कुछ करने की करते हैं, लेकिन इनका काम बिगड़ते भी देर नहीं लगती। किसी का दिल कैसे जीतना है, वह इनसे सीखना चाहिए। दूसरों के लिए किसी भी तरह ये वक्त निकाल ही लेते हैं। ये बेहद होशियार किस्म के होते हैं। तरक्की के मार्ग आगे बढ़ने पर ये पीछे मुड़कर नहीं देखते।आप चाहते हैं कि आपका साथी हमेशी भीड़ में अलग नज़र आए। वह साथ न भी हो तो आप हर वक्त उन्ही के ख्यालों में डूबे रहना पसंद करते हैं। अपनी खुशी से पहले साथी की खुशियों का ध्यान रखते हैं ये।
    V
    V से शुरू वाले नाम के व्यक्ति स्वभाव से थोड़े ढीले होते हैं। इन्हें जो मन को भाता है वही काम करते हैं। दिल के साफ होते हैं, लेकिन अपनी बातें किसी से शेयर करना इन्हें अच्छा भी नहीं लगता। बंदिशों में रखकर इनसे आप कुछ नहीं करा सकते।बात प्यार की करें तो ये ये अपने प्यार का इजहार कभी नहीं करते। जिन बातों का कोई अर्थ नहीं या यूं कहिए कि हंसी-ठहाके में कही गई बातों से भी आप काफी गहरी बातें निकाल ही लेते हैं। कभी-कभीर ये बाते आपके लिए ही मुसीबत खड़ी कर देती हैं।
    W
    W से शुरू होनेवाले नाम के लोग संकुचित दिल के होते हैं। एक ही ढर्रे पर चलते हुए ये बोर भी नहीं होते। ईगो वाली भावना तो इनमें कूट-कूटकर भरी होती है। ये जहां रहते हैं वहीं अपनी सुनाने लग जाते हैं, जिससे सामने वाला इंसान इनसे दूर भागने लगता है। हालांकि, हर मामले में सफलता इनकी मुट्ठी तक पहुंच ही जाती है।प्यार की बात करें तो ये न न करते हुए ही आगे बढ़ते हैं। हालांकि, इन्हें ज्यादा दिखावा पसंद नहीं और अपने साथी को उसी रूप में स्वीकार करते हैं जैसा वह वास्तव में है।
    X
    X से नाम वाले लोग जरा अलग स्वभाव के होते हैं। ये हर मामले में परफेक्ट होते हैं, लेकिन न चाहते हुए भी गुस्से के शिकार हो ही जाते हैं ये। इन्हें काम को स्लो करना पसंद नहीं, फटाफट निपटाने में ही यकीन रखते हैं ये। बहुत जल्दी चीजों से बोरियत हो जाती है इन्हें। ये क्या करने वाले हैं इस बात का पता इन्हें खुद भी नहीं होता।प्यार के मामले में फ्लर्ट करना इन्हें ज्यादा पसंद है। कई रिश्तों को एकसाथ लेकर आगे चलने की हिम्मत इनमें होती है।
    Y
    Y से शुरू होनेवाले नाम के लोगों से कभी भी सलाह लें, आपकी सही रास्ता दिखाएंगे वह। खर्च के लिए कभी सोचते नहीं, बस खाना अच्छा मिले तो हमेशा खुश रहेंगे। अच्छी पर्सनैलिटी के बादशाह होते हैं। लोगों को दूर से ही पढ़ लेते हैं ये। इन्हें ज्यादा बातचीत करना पसंद नहीं। धन-दौलत नसीब तो होती है, लेकिन इन्हें पाने में वक्त लग जाता है।
    बात प्यार की करें तो इन्हें अपने साथी की कोई बात याद नहीं रहती। हालांकि सच्चे, खुले दिल और रोमांटिक नेचर के होने के कारण इनकी हर गलती माफ भी हो जाती है।
    Z
    Z से नाम वाले लोग दूसरों से काफी जल्दी घुल-मिल जाते हैं। गंभीरता इनके स्वभाव में है, लेकिन बड़े ही कूल अंदाज में ये सारे काम करते हैं। जो बोलते हैं साफ बोलते हैं और जिंदगी को इंजॉय करना इन्हें आता है। न मिलने वाली चीजों पर रोने की बजाय उसे छोड़कर आगे बढ़ना इन्हें पसंद है। इन्हें दिखावा नहीं पसंद। इनकी सादगी को देख इन्हें बेवकूफ समझना बहुत बड़ी बेवकूफी होगी। स्वभाव से ये रोमांटिक होते हैं। आपकी ओर कोई भी बड़ी आसानी से अट्रैक्ट हो जाता है। अपने प्यार के सामने आप किसी को अहमियत नहीं देते।

    बुधवार, 23 जुलाई 2014

    भाव भरी भूमि

    -मनोज कुमार
    एक साल पुरानी बात है. तब 23 जुलाई को अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की पुण्यभूमि पर जाने का मुझे अवसर मिला था. यह दिन मेरे लिये किसी उत्सव से कम नहीं था. कभी इस पुण्यभूमि को भाबरा के नाम से पुकारा जाता था किन्तु अब इस नगर की पहचान अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के रूप में है. मध्यप्रदेश शासन के आदिमजाति कल्याण विभाग के सहयोग से राज्य के आदिवासी बाहुल्य जिलों में सामुदायिक रेडियो केन्द्रों की स्थापना की पहली कड़ी में यहां दो वर्ष पहले रेडियो वन्या की स्थापना हुई. 23 जुलाई को रेडियो वन्या के दूसरी सालगिरह पर मैं बतौर रेडियो के राज्य समन्वयक के नाते पहुंचा था. मैं पहली दफा इस पुण्य धरा पर आया था. इस धरा पर अपना पहला कदम रखते ही जैसे मेरे भीतर एक कंपन सी हुई. कुछ ऐसा मन में लगा जिसे अभिव्यक्त कर पाना मुश्किल सा लग रहा है. एक अपराध बोध भी मेरे मन को घर कर गया था. भोपाल से जिस वाहन से हम चंद्रशेखर आजाद नगर पहुंचे थे, उसी वाहन में बैठकर मैं और मेरे कुछ साथी आजाद की कुटिया की तरफ रवाना हुये. कुछ पल बाद ही मेरे मन में आया कि मैं कोई अनैतिक काम कर रहा हूं. उस वीर की भूमि पर मैं कार में सवार होकर उसी तरह चल रहा हूं जिस तरह कभी अंग्रेज चला करते थे. मन ग्लानि से भर गया और तत्काल अपनी भूल सुधार कर वाहन से नीचे उतर गया. वाहन से नीचे उतरते ही जैसेे मन हल्का हो गया. क्षणिक रूप से भूल तो सुधार लिया लेकिन एक टीस मन में शायद ताउम्र बनी रहेगी.

    बहरहाल, मेेरे रेडियो स्टेशन पर कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद लगभग हजार विद्यार्थियों की बड़ी रैली अमर शहीद चंद्रशेखर की जयकारा करते हुये निकली तो मन खुश हो गया. परम्परा को आगे बढ़ाते देखना है तो आपको चंद्रशेखर नगर जरूर आना होगा. वीर शहीद की कुटिया को सरकार की तरफ से सुंदर बना दिया गया है. इस कुटिया में मध्यप्रदेश स्वराज संस्थान संचालनालय की ओर उनकी पुरानी तस्वीरों का सुंदर संयोजन किया गया है. इस कुटिया में प्रवेश करने से पूर्व ही एक अम्मां मिलेंगी जो बिना किसी स्वार्थ कुटिया की रखवाली करती हैं, जैसे वे अपने देश को अंग्रेजों से बचा रही हों. इस कुटिया के भीतर वीर शहीद चंद्रशेखर आजाद की आदमकद प्रतिमा है जिसे देखते ही लगता है कि वे बोल पड़ेंगे हम आजाद थे, आजाद रहेेंगे. सब-कुछ किसी फिल्म की रील की तरह आंखों के सामने से गुजरती हुई प्रतीत होता है. जब मैं प्रतिमा निहार रहा था तभी एक लगभग 30-35 बरस का युवा अपनी छोटी सी बिटिया को लेकर कुटिया में आया और बिना समय गंवाये नन्हीं बच्ची को गोद में उठाकर उसे इतना ऊपर उठाया कि बिटिया शहीद का तिलक कर सके. उसने यही नहीं किया बल्कि बिटिया को शहीद के पैरों पर ढोक लगाने के लिये प्रेरित किया. नन्हीं सी बच्ची को शहीद और भगवान में अंतर नहीं मालूम हो लेकिन एक पिता के नाते उस युवक की जिम्मेदारी देखकर मन भाव से भर गया.

    एकाएक मन में आया कि काश, भारत आज भी गांवों का देश होता तो अभाव भले ही उसे घेरे होते किन्तु भाव तो नहीं मरते. बिलकुल जैसा कि मैंने चंद्रशेखर आजाद की नगरी में देखा. विकास के दौड़ में हम अपना गौरवशाली अतीत को विस्मृत कर रहे हैं लेकिन यह छोटा सा कस्बानुमा आज भी उस गौरवशाली इतिहास को परम्परा के रूप में आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित कर रहा है. परम्परा के संवर्धन एवं संरक्षण की यह कोशिश ही सही मायने में भारत की तस्वीर है. मैं यह बात बड़े गौरव के साथ कह सकता हूं कि देश का ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में जितना बड़ा योगदान दिया और इनके शहीदों को जिस तरह समाज ने सहेजा है, वह बिराला ही उदाहरण है. यह वही चीज है जिसे हम भारत की अस्मिता कहते हैं, यह वही चीज है जिससे भारत की दुनिया में पहचान है और शायद यही कारण है कि तमाम तरह की विसंगितयां, विश्व वक्रदृष्टि के बावजूद भारत बल से बलवान बना हुआ है.
    दुख इस बात है कि विकास की अंधी दौड़ से अब चंद्रशेखर आजाद नगर भी नहीं बचा है. मकान, दुकान पसरते जा रहे हैं. वीर शहीद के नाम पर राजनीति अब आम हो रही है. हालांकि इसे यह सोच कर उबरा जा सकता है कि विकास होगा तो यह लालच बढ़ेगा और लालच बढ़ेगा तो विसंगतियां आम होंगी लेकिन यह बात भी दिल को सुकून देेने वाली हैं कि चंद्रशेखर आजाद की नगरी में 23 जुलाई का दिन हर वर्ष दीपावली से भी बड़े उत्सव की तरह मनाया जाता है. अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद को मेरा कोटिश: प्रणाम

    शनिवार, 19 जुलाई 2014

    बच्चों ने किया पौधरोपण

    एक पेड़ एक ब्यक्ति के नारे को सार्थक रूप देते हुए पटौदी के सरकारी स्कूल खंडेवला   गाॉव में बच्चों ने पौधरोपण का आगाज किया। इस कार्यक्रम को जी अर्थ 2025 फाउंडेशन ने खेल विभाग गुड़गाव्  के साथ तरु उत्सव के रूप में मनाया।  बच्चों को सुबह जी अर्थ के सदस्यों ने पेड़ों के बारे में जानकारी दी।  पानी बचाओ ,पेड़ लगाओ ,जनसख्या धटाओ ,जीवन सफल बनाओ के बिषय में बच्चो को काफी जानकारी दी गई। 
    संस्था की अधिकारी चेतना ने बच्चो को पेड़ो की अहमियत बताते हुए कहा की हम पुरे जीवन में 5  करोड़ से ज्यादा की ऑक्सीजन सांसों के माध्यम से लेते हे। अगर हम मात्र एक पीपल का पेड़ अपने जीवन में रोपें तो बह 150 सालो तक एक खरव् बीस अरव के करीब करीब ऑक्सीजन हमे देगा। ऊपर से वातावरण भी शुद्ध होगा। जिससे समाज में बीमारीया कम होगी और हमारा देश स्वछ व् सुन्दर होगा। 
    स्कूल के प्रधानाचार्य राजीव रस्तोगी  और अध्यापकगण सुरेश शर्मा, कृष्ण कुमार ,ज्ञानवती संगीता ,ओशिका ,रीता ,रचना ,सीमा   ने इस कार्य को काफी सराहनीये बताया और कहा  ज्यादा से ज्यादा लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर खनिज पदार्थों को जरुरत के मुताविक खर्च करना चाहिए।
    पानी ,खनिज ,बनस्पती ,इंधन ,बायु , को बर्वाद होने से रोकना चाहिए। इसी में हमारे कल की भलाई होगी। जैसे "पेड़ है तो पानी है पानी है तो कहानी है " आदमी की कहानी ही पानी से शुरू हुई थी कही फिर से पानी को हम खत्म करते जाये और हमारी ही कहानी ना खत्म हो जाये। जरुरत है इस समस्या को समझने की  और एक नई शुरुआत करने की। संस्था के बरिष्ट अधिकारी जयकिशोर ने इस बात की और ध्यान खेंचा। डाक्टर सतीश कोशीक व ओम प्रकाश  जी ( स्कूल P.T.I) ने भी इस मोके पर पौधरोपण में भाग लिया  .
     जी अर्थ  फाउंडेशन ने  जुलाई अगस्त का लक्ष्य् गुडगाँव के आसपास सभी ग्रामीण स्कूलों व् गावों में पौधरोपण का रखा है। इसके लिये वन विभाग ,हुडा प्रसाशन ,M,C,G से सहयोग की उम्मीद भी रखी है।   संस्था का लक्ष्य् वैसे ही पूरा हो जायेगा जव हर ब्यक्ति अपने सांसों के लिये एक एक पेड़ लगाएगा। यही सुन्दर और सवच्छ भारत का सपना भी होगा। कार्यक्रम के अंत में सभी बच्चों  ने एक एक पेड़ लगाया और उसे बड़ा करने का बीड़ा भी उठाया। इसमें उर्मिला ,पूजा,सोनिया ,गोपाल , हनी ,रिचल ,हिमानी ,ने भरपूर सहयोग दिया।

    सोमवार, 14 जुलाई 2014

    वोट बैंक की राजनीति

    हरविंदर सिंह कुकू
    पंजाब में ज्यादातर ऐसे भी लोग है जिन के पास वोटर कार्ड है, आधार कार्ड है व राशन कार्ड भी बने हुए हैं, अगर नहीं कुछ बना तो उनकी जिंदगी व उनके घर, बिना घर के यह लोग किस प्रकार अपने बच्चों के साथ अपनी जिंदगी गुजारते है. यह देख कर आप का और हमारा दिल कांप उठता है, लेकिन भारत का खुशहाल राज्य कहे जाने वाले पंजाब में भी हमारी राजनितिक पार्टियों का दिल कितना कठोर है कि इन लोगों को सिर्फ वोट पाने के लिए ही इस तरह के पहचान पत्र प्रदान किए जाते हैं। हैरान कर देने वाली बात यह है कि चुनाव के बाद कोई नेता इन को पहचानता तक नहीं।
    हम आपको दिखा रहे हैं, पंजाब का एक गाँव छाजली का सूरते हाल जहाँ दर्ज़नो परिवारों को सिर्फ वोट के खातिर ही बिना घर के यह पहचान पत्र दिए गए है, हमरे नेता गण को उनकी जिंदगी से कोई सरोकार नहीं के उन लोगों के भी अपने व अपने बच्चों के प्रति कुछ सपने हो सकते है, जिस को सोच कर वो पल पल मरते हैं.
    पंजाब में अकाली-भाजपा और कांग्रेस की सरकारें बनती बिगड़ती रही, हर बार सांसद बदलते रहे लेकिन नहीं बदला तो इस लोगों का जीवन, जो आज भी पिछले लगभग 40 साल से पंजाब में इस दर्दभरी जिंदगी अपने बच्चों के साथ जी रहे हैं। आप इन लोगों के पॉलिथीन से बने घरों को तो आप देख रहे हैं कि किस कदर इन के बच्चे व महिलाएं बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर नज़र आ रही है. आप और हम को इस बात पर भी दुःख होता है कि इन परिवारों की महिलाएं वाश रूम के लिए कहां जाती होंगी. 
        यह लोग सिकलीगर परिवार व राजपूत परवार से संबंधत लोहे के औजार बनाने का काम करने के माहिर है। यह मेहनत कश लोग किसान के औजारों से लेकर घर की रसोई में प्रयोग हो रहे समान को बना कर ही यह लोग अपने परिवार का पेट पालते हैं।
           छाजली गावं के सरदार जोगिन्दर सिंह से हमने बात की तो उन्होंने इन लोगों की दर्द भरी दास्ताँ सुनाई। उन्होंने कहा कि इन लोगों के प्रति दर्द तब और बढ़ जाता है, जब बरसात की रातों में यह लोग अपने बच्चों के साथ रातें गुजारते है जब आंसू और पानी में इन्हने कोई फर्क नज़र नहीं आता । जोगिन्दर सिंह ने बताया के इन लोगो ने सभी पार्टियों के नेताओं से गुहार लगा चुके हैं कि हमारे रहने का इंतजाम भी करवा दो ! लेकिन किसी ने अभी तक नहीं सुनी। उन्होंने इन लोगों के दर्द को समझते हुए कहा अगर देश व प्रदेश की सरकारें इस बारे में खुद कुछ नहीं करेंगी तो हमें ही कुछ करना होगा, जोगिन्दर सिंह ने जब इन लोगो की जिंदगी के बारे में पटियाला के समाज सेवी गुरु नानक मोदीखाना के सेवादार व अंतराष्ट्रीय भाऊ भाईचारा संगठन के प्रधान सरदार बलविंदर सिंह सैफ्दीपुर से बात की तो सरदार बलविंदर सिंह सैफ्दीपुर ने इनकी दुःख तकलीफों के बारे में जानकारी लेते हुए कहा के पिछले लगभग चालीस वर्षों से पंजाब के इस गाव में गरीबी से जूझ रहे लोगों के लिए गुरु की मैहर सदका अंतराष्ट्रीय भाऊ भाई चारा संगठन इनकी समस्यायों का हल करने के लिए पहल कदमी कर इस की समस्याओं का हल निकालेगा। उन्होंने इस बात पर दुःख जताया के राजनितिक पार्टियों ने सत्ता का सुख भोगने के लिए इन लोगो के वोटर कार्ड, आधार कार्ड व राशन कार्ड तो बना दिए लेकिन इनके जीवन व दु:खों के बारे में कभी नहीं सोचा, उन्होंने देश व विदेश में बैठी सिख संगतों को अपील की के हम सब को मिल कर पंजाब में इस कदर जिंदगी जी रहे लोगों के लिए हल निकालना चाहिए, जिस से हमारा पंजाब खुशहाल नज़र आए ।
    ऐसे लोगों की बदहाली का जिम्मेदार कौन ?
    आखिर हम कहना चाहेंगे कि ऐसे लोगों की बदहाली का जिम्मेदार कौन है ? हमारी राजनितिक पार्टिया वोट बैंक की राजनीती के तहत ऐसा घिनौना कार्य कब तक करती रहेंगी। जिस का खामियाजा इस प्रकार की जिंदगी जी रहे लोगों को कब तक भुगतना पड़ेग ? जिसका भला होना चाहिए था, उसका तो नहीं हुआ, जो पूंजीपति थे वो और पूंजीपति हो गए लेकिन गरीब बेचारा गरीब ही रह गया. हम सभ को मिल बैठ कर इस पर चिंतन करने की जरूरत है ।
    हरविंदर सिंह कुकू

    शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

    एक शरीर में रहते हैं दो लोग

     पढ़िए उस बहन की कहानी जिसका अस्तित्व मर कर भी नहीं मिटा  

    कसर लोग जब अपने बारे में किसी को बताते हैं तो वो अपने जन्म की तारीख, शादी की तारीख या फिर अपने जीवन से जुड़ी ऐसी ही कुछ बातों को सामने रखते हैं. लेकिन क्या आपने कभी कहीं पढ़ा है कि एक शख़्स अपने परिचय में शरीर के अंगों का भी विवरण दे रहा हो? जैसे; ‘मेरे दो हाथ, एक आंख और दो कान है’. ये सरासर बेवकूफी है लेकिन कोई है जिसे ऐसा भी करने की जरूरत पड़ती है. वो दुनिया से अलग है और अपने परिचय में उसे यह कहना पड़ता है कि ‘मेरे दो नहीं बल्कि चार पैर है’.


    myrtle

    ये हैं मायरटल कॉर्बिन

    मायरटल कॉर्बिन का जन्म यूनाइटेड स्टेट के टेनेसी में हुआ. उसके जन्म ने हर किसी को हैरान कर दिया. बेहद मासूम व प्यारी मायरटल बाकी लोगों की तुलना में केवल एक अंतर लेकर इस दुनिया में आई थी और वो है उसके चार पैर. जी हां, मायरटल के दो नहीं बल्कि चार पैर हैं, दो सामान्य उसी स्थान पर और बाकी दो टांगें उनके ठीक बीचोबीच एक अलग अंग से जुड़ी है जो मायरटल की कमर के बीच से आती हैं.

    Myrtle_Corbin


    डॉक्टरों की मानें तो मायरटल के साथ जुड़े दो अलग पांव कमजोर हैं और मायरटल पूर्ण रूप से उनपर काबू भी नहीं पा सकती. ये पैर उनके दूसरे पैरों के मुकाबले में छोटे व नाजुक हैं.


    ये पैर मायरटल के नहीं किसी और के हैं

    डॉक्टरों के मुताबिक बीच की दो टांगें उसकी खुद की नहीं बल्कि उसकी डायपिजस जुड़वा बहन की हैं. अब आप शायद इस बात को समझ ना पा रहे हों और यह आपको कुछ अटपटा लग रहा हो, लेकिन यह सच है.

    myrtle_corbin2

    मायरटल के साथ जुड़ी वो दो अलग टांगें उसके जुड़वा बहन की है जो इस दुनिया में आ नहीं आई. डॉक्टरों का कहना है कि कई बार जो जुड़े हुए जुड़वा बच्चे होते हैं उनमें से एक के शरीर का तो पूरा आकार बन जाता है लेकिन दूसरे के शरीर के कुछ हिस्से पहले वाले बच्चे के साथ जुड़ जाते हैं. इसका मतलब है कि मायरटल की एक जुड़वा बहन थी जो कि उसके पैदा होने से पहले उनकी मां के गर्भ में थी. लेकिन जन्म केवल मायरटल का हुआ जो जन्म के साथ अकेली नहीं आई बल्कि अपनी जुड़वा बहन के पैर साथ लेकर आई.

    अजब-गजब है ये दुनिया

    यह अजीब और विचित्र ही तो है कि आप अपने जन्म के साथ किसी दूसरे के शरीर के अंगों को साथ लेकर आए हो. डॉक्टरों के अनुसार मायरटल अपने अजन्मी बहन के अंग पर काबू तो पा सकती थी, लेकिन चलते समय उनका उपयोग करना उसके लिए काफी चुनौतीपूर्वक था. यह भी कहा गया कि उन दो टांगों से जुड़े उन दो पैरों में केवल 3-3 उंगलियां ही थी.  मायरटल की इस विचित्र बात ने उसे दुनिया भर में मशहूर भी बनाया. जब वो केवल 13 साल की थी तब उसके जीवन पर एक जीवनी लिखी गई, ‘बायोग्राफी ऑफ मायरटल कॉर्बिन’.

    myrtlecorbinblog


    मायरटल ने भी की शादी

    मायरटल की एक बहन भी थी जिसका नाम विल्ले एन था. उसकी शादी लॉक बिकनैल नाम के लड़के से वर्ष 1885 में हुई थी. लॉक का एक भाई था डॉक्टर जेम्स क्लिंटन बिकनैल जिसने अपने भाई की शादी के कुछ समय बाद ही मायरटल के आगे शादी का प्रस्ताव रख दिया.

    myrtle corbin

    मायरटल और जेम्स की शादी एक सच्चे प्यार को बयां करती है. यहां एक और बात काफी अहम है और वो यह कि ना केवल मायरटल बल्कि उसकी अजन्मी बहन भी यौन संबंध बना सकती है. यानि कि मायरटल के शरीर में एक नहीं बल्कि दो योनि मौजूद थी.

    कहा जाता है कि मायरटल ने आठ बच्चों को जन्म दिया था जिनमें से तीन का बचपन में ही निधन हो गया था. मायरटल के बच्चों के संदर्भ में यह भी कहा गया है कि उसके तीन में से दो बच्चे उसकी योनि से पैदा हुए थे और बाकी दो दूसरी योनि से. अब यह तथ्य सच है या नहीं लेकिन चिकित्सकीय रूप से देखा जाए तो ऐसा होना संभव माना गया है.

    सोमवार, 7 जुलाई 2014

    रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात

    प्रेम कुमार
    फिल्मों में बरसात या उसमें फिल्माए गाने फिल्म का अहम हिस्सा रहे है और इनका इस्तेमाल फिल्मकार अपनी फिल्म को हिट बनाने के लिए अक्सर करते आए हैं। फिल्म इंडस्ट्री का इतिहास देखा जाए तो सबसे पहले संभवतघ् वर्ष 1941 में प्रदíशत फिल्म खजांची में बरसात पर आधारित ‘सावन के नजारे हैं अहा अहा’ गीत फिल्माया गया था। हालांकि इसके बाद भी बरसात पर आधारित कुछ गीत फिल्माए गए, लेकिन वर्ष 1949 में प्रदíशत फिल्म बरसात में फिल्म अभिनेत्री निम्मी पर ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन ’ गाना बारिश में फिल्माया गया, जो बरसात पर आधारित पहला सुपरहिट गीत बना। यूं तो फिल्म इंडस्ट्री में ना जाने कितनी फिल्में बनी होंगी, जिसमें बारिश के दृश्य या गाने फिल्माए गए होंगे, लेकिन वर्ष 1955 में प्रदíशत फिल्म श्री 420 की बात कुछ और ही है। तो यूं तो फिल्म श्री 420 कई कारणों से याद की जाती है, लेकिन फिल्म में राजकपूर और नरगिस बारिश में पर फिल्माया गाना ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ का फिल्मांकन इतने सजीव तरीके से पेश किया गया कि इसकी याद दर्शकों के दिल में आज भी ताजातरीन है। बरसात पर आधारित गीतों में वर्ष 1958 में प्रदíशत फिल्म चलती का नाम गाड़ी का नाम भी उल्लेखनीय है। तीन भाइयों की कहानी पर आधारित फिल्म की कहानी में बारिश से कोई मेल नही था, लेकिन एक दृश्य में जब अभिनेत्री मधुबाला बारिश से भींगने से बचने के लिए अभिनेता किशोर कुमार के गैरेज में शरण लेती है, तो उसे देख किशोर कुमार प्यार करने लगते हैं और उसे खुश करने के लिए ‘एक लड़की भीगी भागी सी’ गीत गाते हैं तो यह फिल्म की जान बन जाती है और यह गीत आज भी सिने प्रेमी नही भूल पाए है।
    नृत्य और संगीत की बात हो और अभिनेता शम्मी कपूर का जिक्र ना आए ऐसा संभव नही है। इसी क्रम में वर्ष 1962 में प्रदíशत फिल्म ‘दिल तेरा दीवाना’ में शंकर जयकिशन के संगीतबद्ध गीत ‘दिल तेरा दीवाना है सनम’ का जिक्र करना लाजमी है जो बरसात में ही फिल्माए गए थे। संभवत दिल तेरा दीवाना है सनम बरसात में फिल्माए गीत में पहले गानों में एक है, जब उसका फिल्मांकन स्टूडियो के सेट में न होकर आउट डोर लोकेशन में किया गया। इस गीत में शम्मीकपूर अपनी विशेष नृत्य शैली से अभिनेत्नी माला सिन्हा को रिझाने का प्रयास करते हैं। वर्ष 1980 में एक फिल्म प्रदíशत हुई थी ‘नमक हलाल’ यूं तो इस फिल्म के सारे गीत हिट हुए थे, लेकिन फिल्म में एक गाना ऐसा भी था जो बारिश में फिल्माया गया था, जिसे दर्शक आज भी नही भूल पाए हैं। अभिनेता अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गाना ‘आज रपट जाए तो हमें ना उठइयो’ गाने के माध्यम से अमिताभ बच्चन बारिश की फुहारों के बीच स्मिता पाटिल से अपने प्यार का इजहार कुछ इस तरीके से करते है कि दर्शक हंसते हंसते लोटपोट हो जाते हैं। ¨कग ऑफ रोमांस दिवंगत यश चोपड़ा अक्सर अपनी फिल्मों में बारिश के गीत का फिल्मांकन करते आए हैं। इनमें फिल्म चांदनी के गीत ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ और दिल्वाले दुल्हनिया ले जाएंगे के गीत ‘मेरे ख्वाबो में जो आए’ सिने दर्शका के बीच आज भी लोकप्रिय है। इसके अलावा ये दिल्लगी में देखो जरा देखा बरखा की झड़ी और दिल तो पागल है में कोई लड़की है जब वो गाती है गीत भी बारिश में ही फिल्माए है। देखा जाए तो फिल्मों में बारिश का इस्तेमाल फिल्मकार नायक और नायिका के प्रेम के इजहार के रूप में करते हैं, लेकिन कुछ मौके पर बारिश की मांग किसी शुभ काम के लिए की जाती है। ऐसे ही गानों में फिल्म गाइड का गाना अल्लाह मेघ दे और लगान का गाना काले मेघा काले मेघा खास तौर पर उल्लेखनीय है1
    इन सबके साथ ही बरसात के गाने के माध्यम से विरह की आग प्रेमियो को किस प्रकार जलाती है उसे पेश किया जाता रहा है। ऐसे गानो में फिल्म जख्मी का गीत जलता है जिया मेरा भीगी भीगी रातो में और दो बदन का गीत जब चली ठंडी हवा जब उठे काली घटा मुझको ऐ जाने वफा तुम याद आए । इसके अलावा बरसात के गीत के माध्यम से मस्ती को भी दिखाया गया है। फिल्म छलिया का गीत डम डम डिगा डिगा मौसम भीगा भीगा या गोपी किशन का गीत छतरी ना खोल बरसात में प्रमुख है। इन सबके साथ ही फिल्मकारो ने बरसात को ध्यान में रखते हुए कई फिल्मो का निर्माण किया। इन फिल्मों में बरसात बरसात की एक रात आया सावन झूम के सावन को आने दो, सावन भादों, मानसून वेडिग, सोलहवा सावन, बिन बादल बरसात, बादल जैसी कई फिल्में शामिल हैं। इसी तरह कई फिल्मकार ने अपनी फिल्मों में बारिश के गाने फिल्माए हैं, जो आज भी श्रोताओं की जुबान पर चढ़े हुए हैं। ऐसे ही गानों में शामिल लंबी फेहरिस्त में कुछ है बरसात में हमसे मिले तुम सजन, ये रात भीगी भीगी, बरखा रानी जरा जमके बरसो, ¨जदगी भर नही भूलेगी वो बरसात की रात, काली घटा छाए मोरा, हरियाला सावन ढोल बजाता आया, रिमझिम के तराने लेके आई बरसात, ओ सजना बरखा बहार आयी सावन का महीना पवन करे शोर मेघा छाई आधी रात रिमझिम के गीत सावन गाए भीगी भीगी रातो में  रिमझिम गिरे सावन काटे नही कटते दिन ये रात टिप टिप टिपटिप बारिश शुरू हो गयी रिमझिम रिमझिम, मेरे ख्वाबों में जो आए, टिप टिप बरसा पानी, दिल ये बेचैन रे, जो हाल दिल का, सांसों को सांसों से, बरसो रे मेघा आदि शामिल है।

    शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

    भाषा है समरसता की सेतु : स्‍वभाषा पर एक दृष्‍टिकोण

    विजयलक्ष्‍मी जैन
    अभी हर भारतीय अपनी भाषा में अंग्रेजी मिलाकर खिचड़ी पका रहा है। यही खिचड़ी अगर हम अपनी देशी भाषाओं को एक दूसरे में मिलाकर पकाएं तो क्‍या हर्ज है? क्‍या यह खिचड़ी अधिक स्‍वादिष्‍ट और समग्र भारत को स्‍वीकार्य नहीं होगी?
    भाषा सांस्‍कृतिक, वैचारिक और भावनात्‍मक समरसता की सेतु है। जब कोई दो भिन्‍न भाषा-भाषी नितान्‍त अजनबी लोग मिलते हैं तो वे आपसी संवाद के लिए क्‍या किसी तीसरी भाषा का उपयोग करते हैं? कदापि नहीं। वे दोनों अपनी-अपनी भाषा में बोलते हैं और सामने वाला उसकी बात समझ जाए इस हेतु भाषा को अर्थ देने वाली शारीरिक मुद्राओं का, संकेतों का प्रयोग करते है। इन संकेतों के माध्‍यम से धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे की भाषा की ध्‍वनियों को, उच्‍चारणों को, शब्‍दों को सीख जाते हैं। जैसे-जैसे वे एक दूसरे की भाषा को सीखते जाते हैं, संकेतों का, शारीरिक मुद्राओं का प्रयोग अपने आप ही घटता चला जाता है क्‍योंकि जब वे दोनों एक दूसरे की भाषा को समझने लगते हैं तो संकेतों की, शारीरिक मुद्राओं की आवश्‍यकता नहीं रह जाती, भाषा ही संवाद का मुख्‍य माध्‍यम हो जाती है। अब उनके लिए एक दूसरे से संवाद करना आसान हो जाता है। इस भाषाई सेतु के माध्‍यम से धीरे-धीरे उनके बीच अजनबीपन समाप्‍त हो जाता है, एक अपनापन घटित होता है जो उन्‍हें एक दूसरे के विचार और संस्‍कृति के प्रति उत्‍सुक और ग्रहणशील बनाता है। यह विकास की स्‍वाभाविक प्रक्रिया है जिससे गुजर कर दोनों समृद्‍ध होते हैं।
    आजादी के बाद हमने विकास की इस स्‍वाभाविक प्रक्रिया से अपने देश की जनता को गुजरने दिया होता तो आज हम भी चीन की तरह वैचारिक, सांस्‍कृतिक और भावनात्‍मक रूप से एक दूसरे के अधिक निकट होते, एक राष्‍ट्र के रूप में अधिक सुसंगठित होते और बहुत संभव था कि सड़सठ वर्षों के भाषाई आदान प्रदान के फलस्‍वरूप हमारी अपनी भाषाओं में से ही कोई भाषा ऐसे विकसित हो गई होती जो राष्‍ट्र भाषा के रूप में उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्‍चिम समग्र भारत को स्‍वीकार होती। कहना न होगा कि तब भारत के उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्‍चिम मानसिक तौर पर भी इस तरह बंटे हुए न होते जैसे आज हैं। हम एक दूसरे को संदेह से देखने की अपेक्षा, परस्‍पर घृणा करने की अपेक्षा, डरने की अपेक्षा एक स्‍वाभाविक अपनत्‍व से बंध चुके होते। तब हम मद्रासी, गुजराती, तमिल या बंगाली, हिन्‍दू- मुस्‍लिम-सिक्‍ख-ईसाई न होकर भारतीय हो गए होते क्‍योंकि यही स्‍वाभाविक था। यदि ऐसा होता तो देश में कोई विशिष्‍ट वर्ग नहीं होता, खास और आम का भेद न होता।

    दुर्भाग्‍य से ऐसा नहीं हुआ। आजादी के बाद न जाने किस दबाव में विकास की इस स्‍वाभाविक प्रक्रिया को न अपनाकर अपने आपसी संवाद के लिए हम पर तीसरी भाषा थोप दी गई है जो हमारी अपनी जमीन की उपज न होकर विदेश से आयातित है। विगत सड़सठ वर्षों से पूरा देश एक विदेशी भाषा को सीखने की जद्‍दोजहद से गुजर रहा है। यह संघर्ष स्‍वाभाविक न होकर थोपा हुआ है। परिणाम स्‍वरूप सीखने की प्रक्रिया आनन्‍द का स्रोत बनने की बजाए असहनीय तनाव का कारण बन गई है। इस तनाव ने देश के बहुत बड़े प्रतिभावान वर्ग को इतनी गहरी हीनभावना से भर दिया है कि जबतक वह इस विदेशी भाषा में दक्ष नहीं हो जाता, पढ़ालिखा होते हुए भी स्‍वयं को ही पढ़ालिखा मान नहीं पाता। वह स्‍वयं को अपने देश में ही दोयम दर्जे का नागरिक मानता है। प्रतिभावान होकर भी कुंठित रहता है। वह अपने लिए काम नहीं करता, अपने लिए कोई मांग नहीं करता, अपने लिए जीता नहीं है, वह अपने ही देश में उन मुट्‍ठीभर अंग्रेजीदां लोगों के लिए जीता है जिन्‍हें सौभाग्‍य से जन्‍मजात ही अंग्रेजी सीखने के अवसर सुलभ थे, उनकी ही मांगों की पूर्ति के लिए कड़ी मेहनत कर सारा उत्‍पादन करता है, उन ही के लिए काम करता है और बदले में जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाए उसे ही स्‍वीकार कर धन्‍य हो जाता है।

    नैतिकता के एक बहुत सामान्‍य से नियम के अनुसार दो के संवाद में तीसरे की दखलंदाजी अभद्रता मानी जाती है। इसी तरह हमारे देश की दो भाषाओं के बीच में एक विदेशी भाषा का क्‍या काम? इस तीसरी भाषा को अपने देशी संवाद का माध्‍यम बनाने के दुष्‍परिणाम अब बहुत स्‍पष्‍टतापूर्वक सामने आ चुके हैं। इससे जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है वह है सड़सठ वर्षों की आजादी के बावजूद देश व्‍यापी समरसता का विकास न होना। अत: उच्‍च शिक्षित भारतीयों के आपसी संवाद का दर्पयुक्‍त माध्‍यम बनती जा रही विदेशी भाषा को हटाने की नहीं, आवश्‍यकता है उसे एक कदम पीछे धकेल कर देशी भाषाओं को दो कदम आगे बढ़ाने की। यह बात हम भारतवासी जिस दिन समझ लेंगे, उसी दिन हम सच में स्‍वतंत्र होंगे, उसी दिन हम सच में एक राष्‍ट्र होंगे। इस समझ को पाने में पहले ही अत्‍यधिक विलम्‍ब हो चुका है। कहीं ऐसा न हो कि सड़सठ वर्षों में हो चुके नुकसान की भरपाई के अवसर भी शेष न रहें। अब जागना जरूरी है। जागो भारत जागो।               
     

    हमारे मात्र यह चार कदम बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं:-
    पहला कदम: हस्‍ताक्षर देशी भाषा में करें।                                 

    दूसरा  कदम: अपनी दुकानों, प्रतिष्‍ठानों के नामपट देशी भाषा में लगाएं।              

    तीसरा कदम: मोबाइल, एटीएम, कम्‍प्‍यूटर, इंटरनेट देशी भाषा में उपयोग करें।

    चौथा कदम: अपने प्रियजनों से शुद्ध हिन्दी मेँ बातचीत करें।     

    क्‍या हम अपने देश की खातिर इतना भी नहीं कर सकते?

    मंगलवार, 1 जुलाई 2014

    भटके मानसून पर कुछ शब्द चित्र

    गर्मी जाने का नाम नहीं ले रही है और मानसून रास्ता भटक गया है, हमेशा की तरह। ग वर्षा ऋतु के रास्ते में ग्रीष्म ऋतु अवरोधक बनी हुई है। बारिश की राह तकते-तकते आंखें भी थकने लगी हैं। पूरा देश अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर रहा है, पर पेट्रोल-डीजल, प्याज उसे आने ही नहीं दे रहे हैं। ऐसे में शब्द चित्र बनते हैं कुछ इस तरह...
    दो डॉक्टर खाली बैठे हैं, एक डॉक्टर दूसरे से कहता है:-

    देखो, खाली बैठे-बैठे मारने के लिए मक्खियां तक नहीं हैं, बारिश आए तो हमारी मंदी दूर हो जाए।


    मौसम विभाग के एक सीनियर अधिकारी को एक मामूली से चपरासी ने सलाह दी..,
    सर, इससे तो अच्छा है, विभाग में एक-दो ज्योतिष की भर्ती कर लो, कम से कम उनके गॉसिप सच्चे हो जाएं।

    एक बड़े मॉल में मैनेजर की केबिन में असिस्टेंट हाथ में लम्बा कागज लेकर रिपोर्ट दे रहा है, सर ‘समर डिस्काउंट’ में जितना ‘सेल’ हुआ, उससे कई गुना तो एसी का बिल आ गया है?
    एक एयरकंडीशंड डाइनिंग हॉल-कम-रेस्टारेंट के बाहर एक बोर्ड लगा है..
    दोपहर 2 से 5 बजे तक एसी बंद रहेगा। केवल छाछ पीने आने वाले ग्राहक इस पर विशेष ध्यान दें। बाय अॅार्डर
    मौसम विभाग के एक अधिकारी गुस्से से अपने मातहत से पूछ रहे हैं:- हमने 15 दिन पहले ऑफिस में भीगी हुई छतरियों को रखने के लिए स्टैंड का ऑर्डर दिया था, वह अभी तक कैसे नहीं बन पाया?
    असिस्टेंट- सर, उसे मालूम होगा कि आखिर बारिश कब हो रही है।

    गुरुवार, 26 जून 2014

    सपनो से परे मासूम की दुनिया


    मनोज कुमार
    एक अबोध मन की कल्पना इस दुनिया की सबसे सुंदर रचना होती है। कभी किसी छोटे से बच्चे की निहारिये। वह सबसे बेखबर अपनी ही दुनिया में खोया होता है। जाने वह क्या देखता है। अनायास कभी वह मुस्करा देता है तो कभी भयभीत हो जाता है। कभी खुद से बात करने की कोशिश करता है तो कभी वह सोच की मुद्रा में पड़ जाता है। तब उन्हें यह नहीं पता होता था कि हाथी किस तरह का होता है या शेर कभी हमला भी कर सकता है। चिडिय़ों की चहचहाट उनका मन मोह लेती है तो बंदर का उलछकूद उसके लिये एक खेल होता था। सच से परे वह अपनी दुनिया खुद बुनता है। शायद इसलिये ही हमारे समाज में बच्चों के खेल खिलौनों का आविष्कार हुआ। बंदर से लेकर चिडिय़ा और गुड्डे गुडिय़ा ले कर घर-गृहस्थी के सामान बच्चों के खेल में शामिल होता था। नन्हें बच्चे का आहिस्ता आहिस्ता दुनिया से परिचय होता था। यह वह समय था जब मां बाप के पास भी समय होता था। वे अपने बच्चों को बढ़ता देखकर प्रसन्न होते थे। यह वही समय होता था जब मां लोरी सुनाकर बच्चों को थपथपा कर स्नेहपूर्वक नींद के आगोश में भेज देती थी। शायद इसी समय से शुरू होता था मां का स्कूल। इस स्कूल में मां का स्नेह तो था ही, संस्कार का सबक भी बच्चा यहीं से सीखता था। बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार। यह वही समय था जब गणेश चतुर्थी से मकर संक्रात, होली, दीवाली और दशहरा मनाने के कारणों से बच्चा संस्कारित होता था। वह रंगों का मतलब जानता था। पतंग की डोर से वह जीत की सीख लेता था। इस जीत की सीख में उसके पास संस्कार थे। वह जीतना चाहता था लेकिन किसी की पराजय उसका लक्ष्य नहीं होता था। 

    स्वप्र लोक में बच्चों के विचरने के दिन अब गुम हो गये हैं।  अब न वह समय बचा और न सपने। अब बच्चे वयस्क पैदा होते हैं। मां बाप के पास वक्त नहीं है। अब उन्हें कोई नहीं सिखाता है कि ह से हाथी और ग से गणेश होता है। वे जानते हैं कि एलीफेंट किसे कहते हैं। बंदर मामा की कहानी उसे पता नहीं है लेकिन मंकी से वह बेखबर भी नहीं है। गणेश चतुर्थी पर ग्यारह दिनों तक पूजन करना उसे वैसा ही समय व्यर्थ करना लगता है जैसा कि घंटों मेहनत कर पतंग उड़ाना। दीवाली पर फूटने वाले फटाकों को वह पर्यावरण दूषित करना कहता है लेकिन एके-47 जैसे घातक हथियारों के मोहपाश में बंधा है। बंदूक उसे जीवन रक्षक लगता है। बच्चे का टेलीविजन के पर्दे पर उतरने वाले रंगों की तरह रंगा हुआ है लेकिन होली के रंगों से उसे एलर्जी है। इस समय का बच्चा इंटलीजेंट है। वह आइपेड से खेलता है और कॉमिक वाले सीरियल देखता है। उसे अब सपने नहीं आते। वह एनीमेटेड कैरेक्टर्स को देखकर उन्हें ही जीने लगता है। इन कैरेक्टर्स में भी विलेन उसका प्रिय पात्र होता है। बच्चे की बोलचाल और उसका व्यवहार खली की तरह होता है, दारासिंह की तरह नहीं। आज का बच्चा जल्दी में है। वह थोड़े समय में सबकुछ पा लेना चाहता है। जीत जाना उसका एकमात्र ध्येय है। पराजय उसे नापसंद है। वह दूसरों को पराजित होता देख आनंद से भर उठता है। एक खलनायक उसके भीतर पनप रहा है। 

    यह इस समय का कडुवा सच है। मां-बाप धन कमाने की मशीन बन गये हैं। वे अपने बच्चों को शीर्ष पर देखने के लिये दीवानों की तरह पैसे कमाने में जुट गये हैं। उन्होंने अपने सपनों को भी मार दिया है। बच्चों को शीर्ष पर तो पहुंचाना चाहते हैं लेकिन वे इस बात से बेखबर हैं कि उनके बच्चे के पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही है। उनके पास संस्कार नहीं हैं। एक संस्कारहीन बच्चा कामयाब तो हो सकता है लेकिन यह कामयाबी उसे इंसान नहीं बना पायेगी। मां-बाप के पास अब बच्चे को लोरी सुनाकर थपथपा कर सुलाने का वक्त नहीं है। बच्चे की जिद के आगे कान की नसों को फाड़ते बेसुरे गीत लगा देते हैं। बच्चा उसी में रम जाता है। उसका भविष्य भी इसी तरह बेसुरा हो रहा है। मां-बाप के पास बच्चों को सुनाने के लिये कहानी नहीं है। एकल परिवार के चलते दादा-दादी और नाना-नानी तो पहले ही गुम हो चुके हैं। 

    अब बच्चों को खाने में दुध-भात नहीं दिया जाता बल्कि अब उनके खाने के लिये मैगी या ऐसा ही कोई फास्टफूड है। बच्चों की जरूरत का हर जवाब मां-बाप के पास पैसा है। पैसों से खरीदने की ताकत तो मां-बाप बच्चों को दे रहे हैं लेकिन जीने की ताकत जिस संस्कार से आता है, उससे खुद मां-बाप दूर हो रहे हैं। यह समय बेहद डराने वाला है। इस समय ने बच्चों के सपनों को गुमशुदा कर दिया है। वे कल्पना के बिना जी रहे हैं। उनमें जिज्ञासा नहीं बची है। बची है तो जीत लेने की होड़। जीत और हार के बीच धीमे-धीमे बड़े होते इन बच्चों को कौन वापस ले जाएगा उनके सपनों की दुनिया में, यह सवाल जवाब की प्रतीक्षा में है। कहते हैं सपनों का मर जाना सबसे बुरा होता है और हम इस बुरे समय के साक्षी बनने लिये कहीं मजबूर हैं तो कहीं हम खुद होकर बच्चों के सपनों का कत्ल कर रहे हैं।
    मनोज कुमार