शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

रेल बजट ममता का मायाजाल

 अमित अरोड़ा
 कोलकाता की रॉयटर्स बिल्डिंग पर नजर रखते हुए रेलमंत्री ममता बनर्जी ने इस साल के लिए 57,630 करोड़ रुपये का रेल बजट पेश किया है। इस बजट में उन्होंने कई लोक लुभावन घोषणाएं की हैं। रेलमंत्री ने यात्री किराये में कोई बढ़ोतरी नहीं की, बल्कि ऑनलाइन आरक्षण कराने वालों को अब कम आरक्षण शुल्क चुकाना होगा। रेलमंत्री ने कुल 56 नई एक्सप्रेस रेलगाडि़यां, तीन शताब्दी और नौ दूरंतो शुरू करने की भी घोषणा की। पर इस पूरे बजट में सबसे ज्यादा उपेक्षा जिस बात की हुई, वह है यात्री सुविधा। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि नई रेलगाडि़यों के शुरू होने और पुरानी रेलगाडि़यों को विस्तार देने से यात्री सुविधाओं में इजाफा होगा। उनका यह तर्क एक हद तक सही है और यात्री किराये में कोई बढ़ोतरी नहीं करना महंगाई की मार से जूझ रहे आम आदमी के लिए किसी बड़ी राहत से कम नहीं है, लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब कोई रेलवे स्टेशन पर जाता है तो उसे कई तरह की बुनियादी सुविधाओं के अभाव का सामना करना पड़ता है। इन सुविधाओं को दुरुस्त करने के लिए ममता बनर्जी ने कोई ठोस घोषणा नहीं की। हालांकि इसके बावजूद वे इसे आम आदमी का बजट कह रही हैं। एक आम यात्री को रेलवे स्टेशन पर तो पीने लायक पानी मिलता है और ही उसे साफ-सुथरे शौचालय मिलते हैं। अगर किसी को रेलवे स्टेशन या रेलगाड़ी में प्यास लग गई तो उसे 10 से 15 रुपये खर्च करके बोतलबंद पानी खरीदना पड़ता है। खुद रेलवे भी रेल नीर के नाम से बोतलबंद पानी बेचकर हर साल करोड़ों रुपये कमा रहा है। रेलवे स्टेशन के शौचालय भी बदहाल हैं। रेलमंत्री ने कई योजनाओं की घोषणा तो कर दी, लेकिन उन्होंने आमदनी को लेकर तस्वीर बहुत साफ नहीं की। बीते वित्त वर्ष के दौरान भारतीय रेल का परिचालन औसत 95.3 फीसदी रहा। इसका मतलब यह हुआ कि अगर रेलवे को 100 रुपये की आमदनी हुई तो इसमें 95.3 रुपये परिचालन पर खर्च हुए यानी रेलवे के विकास योजनाओं पर निवेश के लिए हर 100 रुपये में से बचे सिर्फ 4.70 रुपये। रेलमंत्री ने परिचालन औसत में बढ़ोतरी के लिए छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने को वजह बताया। उन्होंने कहा कि इन सिफारिशों की वजह से 11वीं पंचवर्षीय योजना में रेलवे पर 73,000 करोड़ रुपये का बोझ बढ़ा है। इस रेल बजट से साफ है कि रेलवे का खर्च बढ़ रहा है और आमदनी को लेकर अनिश्चितता है। इसके बावजूद अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री रेल बजट पेश होने के थोड़ी देर बाद ही संसद परिसर में संवाददाताओं से बात करने आए और उन्होंने इस बजट के लिए रेलमंत्री की तारीफ की। इस बार के रेल बजट में ममता बनर्जी ने जिन नई रेलगाडि़यों और परियोजनाओं की घोषणा की, उसमें से कई तो सीधे तौर पर उनके गृह राज्य पश्चिम बंगाल से जुड़ी हुई हैं। बंगाल में मई में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इस रेल बजट के जरिए वहां तीन दशक से राज कर रहे वामपंथी दलों को सत्ता से बेदखल करने का मंसूबा भी ममता बनर्जी ने पाल रखा है। पश्चिम बंगाल के चुनावी माहौल को देखते हुए ममता बनर्जी ने इस राज्य को सिर्फ नई रेलगाडि़यां दीं, बल्कि यहां रेलवे की कई परियोजनाएं लगाने की भी घोषणा की। इसमें दार्जिलिंग में सॉफ्टवेयर एक्सिलेंस पार्क, नंदीग्राम में रेल इंडस्ट्रीयल पार्क और सिंगुर में मेट्रो रेल कोच कारखाना प्रमुख हैं। जाहिर है, ऐसे में ममता पर बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के सांसद भेदभाव का आरोप लगा रहे हैं। दरअसल, रेल बजट में अपने राज्य को ज्यादा देने का चलन नया नहीं है। बिहार से रेलमंत्री बनने वाले नेताओं ने भी ऐसा किया है और अब इसे स्वाभाविक मान लिया गया। लेकिन यह ठीक नहीं है। एक रेलमंत्री से पूरे देश की उम्मीदें जुड़ी रहती हैं और ऐसे में अपने राज्य के लिए खास और दूसरे राज्यों के लिए मन बहलाने वाली घोषणाओं से काम चला लेना असंतोष पैदा करने का काम कर रहा है। वैसे, इस परिचालन औसत को देखते हुए इस बात पर संदेह होना स्वाभाविक है कि ममता बनर्जी ने जिन परियोजनाओं की घोषणा की है, उनमें से कितने पर अमल हो पाएगा। योजनाओं को लटकाने में रेल मंत्रालय का रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। पिछले दो बजट में भी जिन नई परियोजनाओं की घोषणा रेलमंत्री ने की थी, उनमें से कुछ को छोड़कर ज्यादातर परियोजनाओं की प्रगति पर उन्होंने अपने बजट भाषण के दौरान कुछ नहीं बोला। हकीकत तो यह है कि पिछले दो बजट में घोषित की गई कई परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। इस बजट में रेलमंत्री ने कहा कि एक साल में 700 किलोमीटर नई रेल लाइन बिछाने की कोशिश की जाएगी। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा। संभव है कि पश्चिम बंगाल चुनावों में विजयी होकर ममता बनर्जी का कोलकाता के रॉयटर्स बिल्डिंग में पहुंचने का ख्वाब पूरा हो जाए, लेकिन ऐसे में जो नया रेलमंत्री बनेगा, उसके लिए इन घोषित परियोजनाओं पर अमल करना बेहद मुश्किल हो जाएगा।

अमित अरोड़ा

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

आग बबूला होता सूरज

 
मुकुल व्यास
14 फरवरी को सूरज ने अपना रौद्र रूप दिखलाया और उसका असर पृथ्वी पर भी हुआ। सूरज पर हुए विस्फोट ने चीन में रेडियो संचार में बाधा डाली और पूरी दुनिया की नींद उड़ा दी। करीब चार साल में यह सबसे शक्तिशाली विस्फोट था। विशेषज्ञों का कहना है कि 14 फरवरी की रात को सूरज पर उमड़ने वाला ज्वालाओं का तूफान ताकतवर होने के बावजूद पिछले अनेक विस्फोटों की तुलना में महज एक बच्चा था, लेकिन इसने पृथ्वीवासियों को यह अहसास जरूर करा दिया कि सूरज का गुस्सा कितना तीव्र हो सकता है। सूरज पर उठने वाला प्रचंड तूफान पूरी दुनिया में तबाही मचा सकता है। इससे संचार प्रणालियां अस्त-व्यस्त हो सकती हैं, उपग्रहों और अंतरिक्षयात्रियों के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। इस वक्त सूरज पर गतिविधि का चक्र तीव्र हो रहा है। अगले कुछ वर्षो में वहां और बड़े विस्फोट हो सकते हैं। सूरज अपने 11-वर्षीय मौसमी चक्र में शांत समय बिताने के बाद पिछले साल ही सक्रिय हुआ था। पिछले कुछ महीनों के दौरान उसकी गतिविधि अचानक तेज हो गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक सूरज पर तुरंत किसी बड़े तूफान की संभावना नहीं है, लेकिन यह बात गारंटी के साथ नहीं कही जा सकती। कभी भी कुछ हो सकता है। चूंकि हमारा आधुनिक समाज अपने अस्तित्व के लिए हाई-टेक उपकरणों पर निर्भर होता जा रहा है, ऐसे में सौर तूफान हमारे लिए ज्यादा परेशानी पैदा कर सकते हैं। ये तूफान आधुनिक उपकरणों की कार्य प्रणालियों को प्रभावित कर सकते हैं। आखिर ये सौर तूफान अथवा सौर लपटें क्या हैं? दरअसल सूरज पर उठने वाला तूफान तीव्र रेडिएशन-विस्फोट हैं, जिसमें फोटोन की तरंगें निकलती हैं। ये तरंगें पृथ्वी की ओर बढ़ती हैं। सौर-ज्वालाओं की ताकत का अंदाजा लगाने के लिए उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जाता है। ये हैं क्लास सी, क्लास एम और क्लास एक्स। क्लास एक्स की लपटों को सबसे ताकतवर माना जाता है। 14 फरवरी को निकली सौर ज्वाला को इस पैमाने पर क्लास एक्स 2.2 के रूप में अंकित किया गया। दूसरे सौर तूफानों को कोरोनल मास इजेक्शंस (सीएमई) कहा जाता है। ये सूरज की सतह से निकने वाले प्लाज्मा और मेग्नेटिक फील्ड के बादल होते हैं, जो बड़ी मात्रा में कणों को बाहर फेंकते हैं। सौर लपटों और सीएमई तूफान के पीछे बुनियादी कारण एक ही है और वह है सूरज के बाहरी वायुमंडल में चुंबकीय क्षेत्र में अवरोध। ये दोनों घटनाएं पृथ्वी पर जीवन को प्रभावित कर सकती हैं। मसलन, बड़ी-बड़ी ज्वालाएं उपग्रहों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप कर सकती हैं, जीपीएस और हाई-फ्रीक्वेंसी रेडियो संचार में रुकावट उत्पन्न कर सकती हैं। यह स्थिति कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों तक बनी रह सकती है। ये प्रभाव तुरंत महसूस किए जाते हैं क्योंकि प्रकाश को सूरज से पृथ्वी पर पहुंचने में सिर्फ आठ मिनट लगते हैं। सबसे ज्यादा नुकसान सीएमई से होता है। इसे पृथ्वी पर पहुंचने में तीन दिन लगते हैं। लेकिन एक बार यहां पहुंचने के बाद यह पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से टकरा कर भू-चुंबकीय तूफान उत्पन्न करता है। ऐसा तूफान पूरी दुनिया के विद्युत और दूरसंचार तंत्र पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है। पिछले साल नासा ने अंतरिक्ष की गंभीर मौसमी घटनाओं पर पूर्व चेतावनी देने के उद्देश्य से सोलर शील्ड प्रोजेक्ट लांच किया था। अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भयंकर सौर तूफान से धरती के दूरसंचार संपर्क के पंगु होने और दूसरी गड़बडि़यों से उत्पन्न होने वाला प्रारंभिक नुकसान करीब 2 खरब डालर का होगा। इस नुकसान की क्षतिपूर्ति में दस साल लग जाएंगे। सूरज की गतिविधि का चक्र 11 साल चलता है। इस समय यह गतिविधि ताकतवर हो रही है। सूरज पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों को 2013 या 2014 में सौर गतिविधि के चरम पर पहुंचने की उम्मीद है। अत: भविष्य में और अधिक सौर लपटें और सीएमई तूफान पृथ्वी की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
मुकुल व्यास
 (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

अब जाग उपभोक्ता, तेरी बारी आई


डॉ. महेश परिमल
आजकल के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत हो गए हैं। देश में भ्रष्टाचार को लेकर जनांदोलन होने लगे हैं। दूसरी ओर उपभोक्ता अदालतें भी काफी व्यस्त हो गई हैं। यह उपभोक्ता की सजगता का एक उदाहरण है। अब तक अपने अधिकारों को न जानने वाला उपभोक्ता जब कुछ जानने की कोशिश करने लगता है, तो मानो हड़कम्प मच जाता है। ऐसा सभी दिशाओं में हो रहा है। लेकिन एक ऐसी भी दिशा है, जिसकी ओर अभी तक बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। वास्तव में यह दिशा हम सबका ध्यान सभी दिशाओं की ओर करती है। यही दिशा अब दिशाहीन होने लगी है।
बात मीडिया की है। टीवी के जिस चैनल से हम असंतुष्ट होते हैं, उसे बंद कर देते हैं। जो अच्छा नहीं लगता, उसे देखना भी पसंद नहीं करते। टीवी के लिए तो यह बात बिलकुल सटीक है, क्योंकि उसका रिमोट हमारे हाथ में होता है। पर इन अखबारों का क्या करें, जो यह कहते नहीं अघाते कि हम वही प्रकाशित करते हैं, जो पाठक चाहते हैं। पर क्या वे सच बोल रहे हैं? पाठक क्या चाहता है, यह तो पाठक को ही नहीं मालूम! पाठक भी दिग्भ्रमित है। वह जो चाहता है, उसे बता नहीं पा रहा है। वह चाहता है कि किसी खबर का असर कब कहाँ किस तरह हो रहा है, वह जान सके। वह चाहता है कि खबर के पीछे की खबर क्या है? ताकि देश-दुनिया में होने वाली घटनाओं पर अपने विचार कायम कर सके।
आज अखबारों की जो हालत है, उसे देखकर पाठकों को केवल सूचनाएँ ही प्राप्त हो रही हैं। पूरी जानकारी उसे कहीं से भी नहीं मिल रही है। कोई अखबार ऐसा नहीं है, जो उसकी ज्ञान-पिपासा को शांत कर सके। आज अखबारों के पेज बढ़ गए हैं, खबरें भी बढ़ गई हैं, पदर वह खबरें किस वर्ग के लिए है, यह कहना मुश्किल है। गले-गले तक विज्ञापनों से अटे अखबारों को यही लगता है कि यह उत्पादों की जानकारी देने वाला माध्यम है या फिर खबरों की जानकारी देने वाला। इस तरह से खबर भी एक उत्पाद हो गई है। अखबारों के अपने-अपने दावे हैं। हर अखबार अपने को ही सर्वश्रेष्ठ बताता है। सभी की नजर में पाठक वर्ग है। पर किस वर्ग का पाठक। आम समस्याओं से जुड़ी खबरें लगातार कम हो रहीं हैं। टीवी की तरह अखबारों पर भी टीआरपी का भूत सवार है। कहीं अखबार का उच्च वर्ग का पाठक नाराज न हो जाए, इसलिए प्रकाशन के सारे समीकरण तैयार किए जाते हैं। अब न तो नल की अंतिम बँूद को चोंच में लेती हुई चिड़िया की तस्वीर दिखाई देती है और न ही ठेला खींचते हुए किसी बाल मजदूर की। कभी-कभी प्रकृति के नयनाभिराम तस्वीर देखने को मिल जाती है, पर संवेदनाएँ जगाने वाली तस्वीर इन दिनों किसी अखबार में प्रकाशित हुई हो, ऐसा याद भी नही आता।
समझ में नहीं आता, पाठक अपने अधिकारों के लिए सचेत क्यों नहीं होता? क्या वह उपभोक्ता फोरम में यह शिकायत नहीं कर सकता कि अमुक अखबार से मुझे शिकायत है कि उसमें विज्ञापनों की संख्या समाचारों से अधिक होती है। उसमें विज्ञापनों की संख्या कम की जाए। यह मेरा अधिकार है कि मैं बिना विज्ञापनों वाला अखबार पढूँ। क्या कोई उपभोक्ता अदालत ने इस दिशा में सोचा? प्रश्न यही उठता है कि जब पाठक ने ही नहीं सोचा, तो अदालत क्यों सोचे?
अब समय आ गया है कि अखबार पढ़ने वाले को भी अपने अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए। टीवी पर आने वाले विज्ञापन के समय वह चैनल बदल सकता है, तो अखबार में विज्ञापन के बजाए वह किस तरह के समाचार पढ़े, यह भी उसे ही तय करना है। बहुत से विज्ञापन प्रकाशित होते रहते हैं कि अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बनें। वैसे उपभोक्ता अभी तक अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बन ही नहीं पाया है। जिस दिन वह जागरुक बन जाएगा, उसी दिन से सरकार ही चलने बंद हो जाएगी। क्योंकि उपभोक्ता के पास कई प्रश्न हैं, जिसका उत्तर सरकार के पास भी नहीं है।
इसलिए अखबार के मामले में भी उपभोक्ता बनाम पाठक को यह सोचना है कि उसे किस तरह का अखबार चाहिए? पहले के अखबार और आज के अखबार में काफी अंतर आ गया है। पहले मृत्यृंजय, फैंटम, मैंड्रेक, फ्लैश गार्डन आदि के लिए सबको इंतजार रहता था, अब वैसी बातें नहीं रही। पहले सुबह केवल शीर्षक पढ़ लिए जाते थे, पूरा अखबार शाम या रात को ही पढ़ा जाता था। अब तो शीर्षक ही पढ़कर सूचना प्राप्त कर ली जाती है, विस्तार जानना भी चाहें, तो नहीं मिलता। इसलिए कम समय में केवल सूचनाओं से ही पाठक जागरुक होने लगे हैं। फिर घर में दिन भर बतियाने वाला बुद्धू बक्सा तो है ही। वह भी काफी कुछ बता ही देता है।
यह सच हे कि आज अखबार चलाना मिशन नहीं, बल्कि कमीशन हो गया है। अब सुबह अखबार के आने से उतना रोमांच नहीं होता, जितना पहले होता था। अखबार का आना एक सामान्य घटना बनकर रह गया है। क्योंकि हम अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के अखबार में क्या-क्या हो सकता है? ढेर सारे विज्ञापनों के बीच खबर को खोजना एक रुटीन में शामिल हो गया है। एक समय ऐसा भी था, जब अपने शुरुआती दिनों में जनसत्ता एक बार में पूरा पढ़ा भी नहीं जा सकता था। दो तीन किस्तों में पढ़ना पड़ता था। अब तो अखबारों की उम्र घटकर मात्र 5 मिनट ही रह गई है। अखबार वाले अब पाठकों को अधिक से अधिक समय के लिए बाँधने की जुगत कर रहे हैं। पर क्या अखबारों के खिलाफ कुछ ऐसा नहीं हो सकता, जो आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाए? आखिर जब अखबार उत्पाद है, तो उसे खरीदने वाला उपभोक्ता ही तो हुआ ना? फिर क्या अखबार वाले उपभोक्ताओं का ध्यान रख पा रहे हैं? कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि अखबारों की सूरत बदले। जनसमस्याओं की खबरें पढ़ने को मिले। हम सबको तलाश है एक पूरे अखबार की, क्या आपको भी ऐसे ही अखबार की तलाश है?
डॉ. महेश परिमल


मेरे एक और ब्‍लॉग का पता है
http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

अब जाग उपभोक्ता, तेरी बारी आई


डॉ. महेश परिमल
आजकल के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत हो गए हैं। देश में भ्रष्टाचार को लेकर जनांदोलन होने लगे हैं। दूसरी ओर उपभोक्ता अदालतें भी काफी व्यस्त हो गई हैं। यह उपभोक्ता की सजगता का एक उदाहरण है। अब तक अपने अधिकारों को न जानने वाला उपभोक्ता जब कुछ जानने की कोशिश करने लगता है, तो मानो हड़कम्प मच जाता है। ऐसा सभी दिशाओं में हो रहा है। लेकिन एक ऐसी भी दिशा है, जिसकी ओर अभी तक बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। वास्तव में यह दिशा हम सबका ध्यान सभी दिशाओं की ओर करती है। यही दिशा अब दिशाहीन होने लगी है।
बात मीडिया की है। टीवी के जिस चैनल से हम असंतुष्ट होते हैं, उसे बंद कर देते हैं। जो अच्छा नहीं लगता, उसे देखना भी पसंद नहीं करते। टीवी के लिए तो यह बात बिलकुल सटीक है, क्योंकि उसका रिमोट हमारे हाथ में होता है। पर इन अखबारों का क्या करें, जो यह कहते नहीं अघाते कि हम वही प्रकाशित करते हैं, जो पाठक चाहते हैं। पर क्या वे सच बोल रहे हैं? पाठक क्या चाहता है, यह तो पाठक को ही नहीं मालूम! पाठक भी दिग्भ्रमित है। वह जो चाहता है, उसे बता नहीं पा रहा है। वह चाहता है कि किसी खबर का असर कब कहाँ किस तरह हो रहा है, वह जान सके। वह चाहता है कि खबर के पीछे की खबर क्या है? ताकि देश-दुनिया में होने वाली घटनाओं पर अपने विचार कायम कर सके।
आज अखबारों की जो हालत है, उसे देखकर पाठकों को केवल सूचनाएँ ही प्राप्त हो रही हैं। पूरी जानकारी उसे कहीं से भी नहीं मिल रही है। कोई अखबार ऐसा नहीं है, जो उसकी ज्ञान-पिपासा को शांत कर सके। आज अखबारों के पेज बढ़ गए हैं, खबरें भी बढ़ गई हैं, पदर वह खबरें किस वर्ग के लिए है, यह कहना मुश्किल है। गले-गले तक विज्ञापनों से अटे अखबारों को यही लगता है कि यह उत्पादों की जानकारी देने वाला माध्यम है या फिर खबरों की जानकारी देने वाला। इस तरह से खबर भी एक उत्पाद हो गई है। अखबारों के अपने-अपने दावे हैं। हर अखबार अपने को ही सर्वश्रेष्ठ बताता है। सभी की नजर में पाठक वर्ग है। पर किस वर्ग का पाठक। आम समस्याओं से जुड़ी खबरें लगातार कम हो रहीं हैं। टीवी की तरह अखबारों पर भी टीआरपी का भूत सवार है। कहीं अखबार का उच्च वर्ग का पाठक नाराज न हो जाए, इसलिए प्रकाशन के सारे समीकरण तैयार किए जाते हैं। अब न तो नल की अंतिम बँूद को चोंच में लेती हुई चिड़िया की तस्वीर दिखाई देती है और न ही ठेला खींचते हुए किसी बाल मजदूर की। कभी-कभी प्रकृति के नयनाभिराम तस्वीर देखने को मिल जाती है, पर संवेदनाएँ जगाने वाली तस्वीर इन दिनों किसी अखबार में प्रकाशित हुई हो, ऐसा याद भी नही आता।
समझ में नहीं आता, पाठक अपने अधिकारों के लिए सचेत क्यों नहीं होता? क्या वह उपभोक्ता फोरम में यह शिकायत नहीं कर सकता कि अमुक अखबार से मुझे शिकायत है कि उसमें विज्ञापनों की संख्या समाचारों से अधिक होती है। उसमें विज्ञापनों की संख्या कम की जाए। यह मेरा अधिकार है कि मैं बिना विज्ञापनों वाला अखबार पढूँ। क्या कोई उपभोक्ता अदालत ने इस दिशा में सोचा? प्रश्न यही उठता है कि जब पाठक ने ही नहीं सोचा, तो अदालत क्यों सोचे?
अब समय आ गया है कि अखबार पढ़ने वाले को भी अपने अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए। टीवी पर आने वाले विज्ञापन के समय वह चैनल बदल सकता है, तो अखबार में विज्ञापन के बजाए वह किस तरह के समाचार पढ़े, यह भी उसे ही तय करना है। बहुत से विज्ञापन प्रकाशित होते रहते हैं कि अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बनें। वैसे उपभोक्ता अभी तक अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बन ही नहीं पाया है। जिस दिन वह जागरुक बन जाएगा, उसी दिन से सरकार ही चलने बंद हो जाएगी। क्योंकि उपभोक्ता के पास कई प्रश्न हैं, जिसका उत्तर सरकार के पास भी नहीं है।
इसलिए अखबार के मामले में भी उपभोक्ता बनाम पाठक को यह सोचना है कि उसे किस तरह का अखबार चाहिए? पहले के अखबार और आज के अखबार में काफी अंतर आ गया है। पहले मृत्यृंजय, फैंटम, मैंड्रेक, फ्लैश गार्डन आदि के लिए सबको इंतजार रहता था, अब वैसी बातें नहीं रही। पहले सुबह केवल शीर्षक पढ़ लिए जाते थे, पूरा अखबार शाम या रात को ही पढ़ा जाता था। अब तो शीर्षक ही पढ़कर सूचना प्राप्त कर ली जाती है, विस्तार जानना भी चाहें, तो नहीं मिलता। इसलिए कम समय में केवल सूचनाओं से ही पाठक जागरुक होने लगे हैं। फिर घर में दिन भर बतियाने वाला बुद्धू बक्सा तो है ही। वह भी काफी कुछ बता ही देता है।
यह सच हे कि आज अखबार चलाना मिशन नहीं, बल्कि कमीशन हो गया है। अब सुबह अखबार के आने से उतना रोमांच नहीं होता, जितना पहले होता था। अखबार का आना एक सामान्य घटना बनकर रह गया है। क्योंकि हम अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के अखबार में क्या-क्या हो सकता है? ढेर सारे विज्ञापनों के बीच खबर को खोजना एक रुटीन में शामिल हो गया है। एक समय ऐसा भी था, जब अपने शुरुआती दिनों में जनसत्ता एक बार में पूरा पढ़ा भी नहीं जा सकता था। दो तीन किस्तों में पढ़ना पड़ता था। अब तो अखबारों की उम्र घटकर मात्र 5 मिनट ही रह गई है। अखबार वाले अब पाठकों को अधिक से अधिक समय के लिए बाँधने की जुगत कर रहे हैं। पर क्या अखबारों के खिलाफ कुछ ऐसा नहीं हो सकता, जो आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाए? आखिर जब अखबार उत्पाद है, तो उसे खरीदने वाला उपभोक्ता ही तो हुआ ना? फिर क्या अखबार वाले उपभोक्ताओं का ध्यान रख पा रहे हैं? कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि अखबारों की सूरत बदले। जनसमस्याओं की खबरें पढ़ने को मिले। हम सबको तलाश है एक पूरे अखबार की, क्या आपको भी ऐसे ही अखबार की तलाश है?
डॉ. महेश परिमल