गुरुवार, 2 सितंबर 2010

हिंदी सिनेमा की कुमुदिनी : साधना शिवदासानी


 अशोक मनवानी

१९६० के दौर में जो अभिनेत्रियां शीर्ष पर थीं उनमें साधना का नाम सम्मान से लिया जाता है। अपने बेजो़ड़ अभिनय और किस्म-किस्म के फैशन प्रवर्तित करने वाली इस नायिका ने स्वयं को गरिमामय तरीके से फिल्म जगत से अलग किया है। वे जवान दिनों की दिलकश नायिका की पहचान को बनाए रखना चाहती हैं। एक समारोह में कुछ बरस पहले साधना जी से मुलाकात का सौभाग्य मिला था। वे अपने फिल्मी सफर से बेहद संतुष्ट नजर आईं। अहंकार से कोसों दूर। बस अकेले रहना चाहती हैं। व्हाइट लिली कुमुदिनी की तरह (१९५८) में सिंधी फिल्म अबाणा से उनका फिल्मों में पदार्पण हुआ। बाद में लव इन शिमला (१९५९) में बतौर मुख्य नायिका आईं। आरके नैयर से विवाह के बाद लगातार हिट फिल्मों में आती रहीं। ३२ हिन्दी फिल्मों में अभिनय किया। आज ६८ की आयु में सिर्फ ओटर्स क्लब, लिंकिंग रोड जाना, समकालीन अभिनेत्रियों से बातचीत ही उनकी दिनचर्या है। देवानंद के साथ हम दोनों में आकर उन्होंने इस फिल्म की रंगीन कापी देखी है। यह फिल्म सितंबर माह में दिल्ली में देवानंद पर केंद्रित समारोह में दिखाई जा रही है।
साधना को वक्त और वो कौन थी के लिए फिल्म फेयर नामीनेशन का सम्मान मिला। मेरा साया, मेरे महबूब, परख अमानत, एक मुसाफिर एक हसीना, राजकुमार, वक्त, आरजू, दूल्हा दूल्हन, इश्क पर जोर नहीं, गीता मेरा नाम, अनीता, प्रेम पत्र, असली नकली, एक फूल दो माली उनकी कामयाब फिल्में हैं।
साधना शिवदासानी बाद में साधना नैयर अपनी आत्मकथा लिखे जाने के प्रश्न पर साफ इंकार करती हैं। यहां तक कि वे छायांकन भी पसंद नहीं करतीं। चार फिल्मों में दोहरी भूमिका और आधा दर्जन फिल्मों में रहस्यमयी स्त्री का चरित्र निभाने वाली इस अभिनेत्री को भले पद्मश्री, पद्मभूषण न मिले हों लेकिन उन्हें इसका कोई मलाल नहीं। साधना माता-पिता की इकलौती संतान थीं। स्वयं वे निःसंतान हैं पर जिंदगी के इस सच को साहस के साथ स्वीकार करती हैं। पूरा जीवन एक उत्सव की तरह बिताने वाली अदाकारा को उनकी फिल्मों के हिदायतकारों जैसे विमल राय, राज खोसला, आरके बैनर आदि ने न सिर्फ सराहा बल्कि अद्वितीय भी माना।
अशोक मनवानी

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