गुरुवार, 3 मई 2018

मेरा यार शरद बिल्लौरे

दिवंगत कवि शरद बिल्लौरे का आज स्मृति दिवस है । रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन से बी ए ऑनर्स करने के बाद अरुणाचल प्रदेश में उनकी नौकरी लगी जहाँ से लौटते हुए रेल में उन्हें लू लगी और 3 मई 1980 को कटनी स्टेशन पर उनकी मृत्यु हो गई । असीम सम्भावनाओं से भरे कवि शरद बिल्लौरे आज होते तो देश के प्रमुख कवियों में उनका नाम होता । शरद मेरे मित्र थे, मैं उन्हें हमेशा याद करता रहूँगा और जब तक मैं जीवित हूँ उनकी कविताएँ इस पीढ़ी के लिए प्रस्तुत करता रहूँगा ।


प्रस्तुत कविता में महाभारत की कथा में उल्लिखित राजा शिवि का प्रतीक है । अपने त्याग के लिए प्रसिद्ध राजा शिवि की परीक्षा लेने हेतु इंद्र ने बाज का और अग्नि ने कबूतर का रूप धारण किया। बाज से कबूतर की प्राणरक्षा हेतु राजा शिवि ने उसे कबूतर की तौल के बराबर अपनी देह का मांस देने का वचन दिया लेकिन जब एक एक अंग काटकर रख देने के बाद भी इंद्र के छल की वजह से कबूतर  वाला पलड़ा नहीं झुका तो अंततः राजा शिवि समूचे खुद ही पलड़े पर बैठ गए । इंद्र और अग्नि प्रसन्न हुए और अपने मूल रूप में आकर उन्हें प्राणदान दिया ।


शरद बिल्लौरे ने इस कविता में राजा शिवि के रूप में भारत के आम आदमी को प्रस्तुत किया है ,जो अपना सब कुछ सत्ता को दे चुका है फिर भी सत्ता उससे छल कर रही है और उसका अस्तित्व ही समाप्त कर देना चाहती है । चालीस साल पहले लिखी यह कविता पढिये और सोचिये क्या स्थितियाँ पहले से अधिक बदतर नहीं हुई हैं ?


■ तय तो यही हुआ था ■
सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गये
खून दर्द के धक्के खा खा कर
नसों से बाहर निकल आया था


तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर की तौल के बराबर
अपने शरीर का माँस काटकर
बाज को सौंप दूँ और वह कबूतर को छोड़ दे


सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हार कर मैं
समूचा ही तराजू पर चढ़ गया


आसमान से फूल नहीं बरसे
कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया
और मैंने देखा
बाज की दाढ़ में
आदमी का ख़ून लग चुका है  ।


ये पहाड़ वसीयत हैं

ये पहाड़ वसीयत हैं
हम आदिवासियों के नाम
हज़ार बार
हमारे पुरखों ने लिखी है
हमारी सम्पन्नता की आदिम गंध हैं ये पहाड़।
आकाश और धरती के बीच हुए समझौते पर
हरी स्याही से किए हुए हस्ताक्षर हैं
बुरे दिनों में धरती के काम आ सकें
बूढ़े समय की ऎसी दौलत हैं ये पहाड़।
ये पहाड़ उस शाश्वत गीत की लाइनें हैं
जिसे रात काटने के लिए नदियाँ लगातार गाती हैं।
हरे ऊन का स्वेटर
जिसे पहन कर हमारे बच्चे
कड़कती ठण्ड में भी
आख़िरकार बड़े होते ही हैं।
एक ऎसा बूढ़ा जिसके पास अनगिनत किस्से हैं।
संसार के काले खेत में
धान का एक पौधा।
एक चिड़िया
अपने प्रसव काल में।
एक पूरे मौसम की बरसात हैं ये पहाड़।
एक देवदूत
जो धरती के गर्भ से निकला है।
दुनिया भर के पत्थर-हृदय लोगों के लिए
हज़ार भाषाओं में लिखी प्यार की इबारत है।
पहाड़ हमारा पिता है
अपने बच्चों को बेहद प्यार करता हुआ।


तुम्हें पता है
बादल इसकी गोद में अपना रोना रोते हैं।
परियाँ आती हैं स्वर्ग से त्रस्त
और यहाँ आकर उन्हें राहत मिलती है।


हम घुमावदार सड़कों से
उनका शृंगार करेंगे
और उनके गर्भ से
किंवदन्तियों की तरह खनिज फूट निकलेगा।


कविता : शरद बिल्लौरे
प्रस्तुति : शरद कोकास

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