शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

नवभारत रायपुर बिलासपुर में प्रकाशित मेरा आलेख


नवभारत रायपुर बिलासपुर में आज प्रकाशित मेरा आलेख







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सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

क्या बोल गया अन्ना का मौन?


डॉ. महेश परिमल
आखिर हिसार से कुलदीप विश्वोई जीत गए। यहाँ कांग्रेस तीसरे क्रम पर रही। कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश एक कमजोर प्रत्याशी थे। उनकी हार से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। एक लहर यह चली कि शायद अन्ना की अपील काम कर गई। पर अब अपनी इस अपील पर शायद अन्ना को ही मलाल है। अब उन्होंने मौन साध लिया है। उनका मौन इसलिए आवश्यक भी था कि इन दिनों जो नए सवाल उपजे हैं, उसके जवाब उनके पास नहीं हैं। एक तो उन्होंने अनजाने में भाजपा की जिस तरह से सहायता की है, उससे उन पर संघ से प्रभावित होने का आरोप लग रहा है। इसके बाद जब आडवाणी जी रथयात्रा सतना पहुँची, तब उसके कवरेज के लिए पत्रकारों को जिस तरह से धन दिया गया, उससे यही साबित होता है कि जिस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए उन्होंने रथयात्रा शुरू की है, उसके कवरेज के लिए भी भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ रहा है। तीसरी बात येद्दियुरप्पा का जेल जाना भी इस बात का परिचायक है कि यदि ये वास्तव में दोषी थे, तो फिर इन्हें भाजपा ने ही इतने लम्बे समय तक संरक्षण क्यों दिया? इन सवालों का जवाब अन्ना के पास नहीं है। यही नहीं, आडवाणी भी इन सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं। भोपाल में उन्होंने इस तरह के सवालों से बचने की भरसक कोशिश की। कई बार तो उन्होंने खामोशी का सहारा लिया। आखिर कब तक वे और अन्ना खामोशी की चादर ओढ़े रखेंगे। कुछ तो जवाब देना ही होगा।
इसके अलावा अन्ना अपनों से ही परेशान हैं। उनके साथियों की हरकतें ही ऐसी हो गई हैं कि अन्ना को भी जवाब नहीं सूझ रहा है। स्वामी अग्निवेश की कपिल सिब्बल से बातचीत की सीडी बाहर आने के बाद अन्ना को जो झटका लगा, वह तो उनके आंदोलन को मिले जनसमर्थन से कम हो गया। पर कश्मीर पर प्रशांत भूषण ने जो बयान दिया, उसकी प्रतिक्रिया के एवज में उनकी जिस तरह से धुलाई हुई, वह भले ही एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक है, पर नाराजगी को बाहर आने के लिए कोई रास्ता तो चाहिए। जो प्रशांत भूषण ने कहा, वही तो पाकिस्तान लम्बे समय से कह रहा है। उनके बयान से पाकिस्तान को ही बल मिला। वह तो इसी ताक में है कि कश्मीर में किसी तरह से जनमत संग्रह हो, ताकि वह अपनी चालाकी से लोगों को भरमा सके। अपनों के दर्द से परेशान अन्ना का अब खामोश रहना ही ठीक है। हिसार चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी भले ही न जीत पाया हो, पर अन्ना जीत गए, यह कहना मुनासिब नहीं होगा। जिस तरह से वहाँ कांग्रेस की हार तय थी, ठीक उसी तरह अन्ना की अपील कोई असर नहीं छोड़ेगी, यह भी तय था। अब भले ही कितना भी कह लिया जाए कि हिसार में कांग्रेस अन्ना के प्रभाव के कारण हारी, तो यह गलत ही होगा।
हिसार में कांग्रेस की हार कोई अर्थ नहीं रखती। लेकिन अन्ना की सीडी जिस तरह से वहाँ लोगों को सुनाई गई, उससे यही लगता है कि अन्ना को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया। जनलोकपाल विधेयक के लिए अन्ना के आंदोलन को भले ही अपार जनसमूह का साथ मिला हो, पर अब सरकार की लेटलतीफी से उनकी छवि लगातार धूमिल होती जा रही है। उस पर उनके साथियों के बयानों ने इस छवि को काफी नुकसान पहुँचाया है। अपनी लेटलतीफी के लिए पहचानी जाने वाले मनमोहन सरकार यही चाहती है कि अन्ना को मिल रहे जनसमर्थन का ग्राफ लगातार कम हो। यही हो रहा है। हिसार चुनाव के पहले अन्ना ने जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ हवा चलाई थी, उसके जवाब में कांग्रेस ने कहा कि अगर अन्ना में हिम्मत है, तो वे हिसार में अपना प्रत्याशी खड़ा करके दिखाएँ, केवल प्रत्याशी खड़ा करना महत्वपूर्ण नहीं, उसे जीतना भी आवश्यक होता। तभी यह माना जाता कि अन्ना की अपील में दम है। ऐसा केवल लोकनायक जयप्रकाश ही कर सकते थे। जबलपुर में उन्होंने जिस तरह से कांग्रेस के गढ़ पर धावा बोला और एकदम नए नेता शरद यादव को जिताया, इससे उनके कद का पता चलता है।
लोकसभा चुनाव में जिस प्रत्याशी की जीत का संभावनाएँ प्रबल हो और वह चुनाव हार जाए, तो यह आश्चर्यजनक हो सकता है। हाँ यदि कमजोर प्रत्याशी जीत जाए, तो वह इसका पूरा श्रेय लेने से नहीं चूकता। हिसार में तो कांग्रेस के उम्मीदवार जयप्रकाश तीसरी पोजीशन में है। उनकी हार का श्रेय अन्ना को नहीं मिलेगा। इसे दूसरे नजरिए से देखें तो जयप्रकाश की हार के लिए कोशिश करने का मतलब यही है कि अन्य प्रत्याशियों को जिताने के लिए रास्ता साफ करना। ये दोनों प्रत्याशी भ्रष्ट हैं, यह तो सभी को पता है। पर शायद अन्ना को यह पता नहीं कि उन्होंने अनजाने में ही भ्रष्ट लोगों की सहायता ही की । भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले जब भ्रष्ट लोगों के संरक्षक बन जाए, तो इसे क्या कहा जाए?
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अन्ना अब रास्ते से भटक रहे हैं। उनकी अपनी सोच सीमित है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तक उनकी सोच में साफगोई थी, पर अब वे अपनों से ही संचालित होने लगे हैं। उनकी टीम आंदोलन करने में सक्षम हो सकती है, पर चुनावी मैदान में उतरकर लोगों को रिझाने में नाकामयाब है, यह तय है। अन्ना की टीम को अपने आप पर ही विश्वास नहीं है। टीम के अंतर्कलह भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं। ऐसे में आखिर वे कब तक खींच पाएँगे, विभिन्न विचारधाराओं की इस नाव को? भाजपा यदि भ्रष्ट न होती और अन्ना उनके प्रत्याशियों का समर्थन करते, तो संभव है, लोग उन्हें गंभीरता से लेते। पर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इससे साफ है कि वे न तो अंतर्कलह को ही रोक पा रहे हैं और न ही चुनाव लड़ने के लिए हिम्मत ही बटोर पा रहे हैं। ऐसे में उनकी स्वच्छ छवि को उज्ज्वल बनाए रखना एक दुष्कर कार्य है। आज भले ही वे मौनधारण किए हुए हों, पर सच तो यह है कि इस मौन ने ही काफी कुछ कह दिया, पर इसे समझा कितनों ने?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

माँ पर पी-एच.डी. और पी-एच.डी. पर माँ


बहुत ही अनजाना-सा नाम है, सिंधुताई सपकाल का। उनका संघर्ष भले ही किसी के लिए महत्वपूर्ण हो न हो, पर उनके बेटे के लिए अवश्य है। इन दिनों सिंधुताई का बेटा उन पर पी-एच.डी. कर रहा है। लोग अपने आदर्शो पर अनुभवों की किताबें लिखते हैं, पर पी-एच.डी. करना अलग बात है। पी-एच.डी. का एक अलग ही आधार होता है। माँ को अध्यायों में विभाजित करना होता है। उनके संघर्षो और कड़वे अनुभवों को अक्षरों का रूप देते हुए एक-एक पन्नों पर बाँटना होता है। जहाँ हर पूर्ण विराम एक वेदना को आँसू का रूप देता है। बूँद-बूँद आँसूओं से लिखी इबारत माँ के संघर्ष को एक नई ऊँचाई देगी, ऐसा विश्वास किया जा सकता है। सिंधुताई के बेटे की पी-एच.डी. का आधार भी शायद यह हो सकता है। माँ चिंदी के रूप में, दसवें वर्ष में शादी अर्थात बालिका वधू के रूप में, बदचलनी का आरोप झेलनेवाली एक बेबस माँ के रूप में, समाज से निष्कासित नारी के रूप में, भीख माँगनेवाली एक लाचार माँ के रूप में, श्मशान में रहनेवाली एक नि:सहाय माँ के रूप में, चिता की आँच में रोटी सेंकने वाली एक बेचारी माँ के रूप में और अंत में स्नेह लुटाने वाली हÊार बच्चों एक स्नेहमयी माँ के रूप में। सिंधुताई पर केन्द्रित शोधप्रबंध के उक्त अध्याय हो सकते हैं। माँ पर महाकाव्य तो लिखा जा सकता है, पर उन पर शोधप्रबंध तैयार करना मुश्किल है, क्योंकि शोधप्रबंध में ईमानदारी के अवयव होते हैं। जो कुछ पर माँ पर बीता, उसे शब्दों की माला पहनाना एक अलग ही अनुभव होता है।
भाषाविज्ञान में पी-एच.डी. पर माँ को लेकर मेरा अलग ही तरह का अनुभव है। जब मैं अपना शोधप्रबंध लेकर अनपढ़ माँ के पास पहुँचा, तो हमारे बीच जो संवाद हुआ, वह कुछ इस तरह था -
- बेटा ! इसे तूने लिखा है ?
- हाँ , माँ।
- क्या तू लेखक है ?
- नहीं, माँ।
- तो फिर इत्ता सारा कैसे लिख लिया ?
- इतना तो सबको लिखना ही पड़ता है माँ।
- पर तू तो विद्यार्थी है, लेखक नहीं।
- सभी विद्यार्थी को इतना लिखना ही होता है माँ।
- तब तो तुझे बहुत तकलीफ हुई होगी ?
- लिखने में कैसी तकलीफ माँ ?
- बेटा, मैं अनपढ़ जरूर हूँ, पर तुझे मिलाकर ग्यारह पढ़े-लिखे बच्चो की माँ भी हूँ। मुझे मालूम है, पढ़ने-लिखने में कितनी तकलीफ होती है।
- मैं खामोश!
- बेटे, अपने हाथों को जरा इधर ला, मैं उसे चूम लेती हूँ, ताकि तेरे हाथों की पीड़ा कुछ कम हो सके।
माँ मेरे हाथों को चूम रही थी। मैं गीली आँखों से उनका ममत्व रूप देख रहा था। मुझे तो उसी दिन पी-एच.डी. मिल गई थी। यह मैंने उसी दिन मान लिया था। यह बात 18 वर्ष पहले की है। माँ अब इस दुनिया में नहीं है। अभी दो अक्टूबर को उनकी दसवीं पुण्यतिथि थी। मैं आज भी पीड़ा के क्षणों में अपने हाथों पर माँ के चुम्बन को महसूस करता हूँ। हममें से कितने ऐसे हैं, जो माँ को इस रूप में याद करते हैं ?
माँ स्नेह की निर्झरिणी है, जो सतत प्रवाहमान है। इसकी हर बूँद में ममत्व का अहसास है, जो एक शिशु को जीवन जीने की प्रेरणा देता है। जब इसी माँ को वृद्धाश्रम में दिन बिताते हुए देखता हूँ तो माँ के प्रति हमारे दृष्टिकोण बदलते हुए दिखाई देते हैं। बदनसीब हैं वे जिनके माता-पिता वृद्धाश्रमों में कैद हैं और खुशनसीब है सिंधुताई का वह बेटा जो केवल अपनी माँ पर ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज में सिंधुताई की तरह जीवन व्यतीत करती माँओं पर पी-एच.डी. कर रहा है।
डॉ. महेश परिमल