शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

गांधी जरूरी हैं अथवा मजबूरी

-मनोज कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया विश्‍लेषक
महात्मा गांधी की जनस्वीकार्यता पर कभी कोई सवालिया निशान नहीं लगा ।  महात्मा के सादा जीवन, उच्च विचार लोगों को हमेशा से शालीन जीवन के लिए  प्रेरित करते रहे हैं। मांस-मदिरा के सेवन से दूर रहने की शिक्षा एवं अहिंसा के बल पर जीने के जो रास्ते महात्मा ने अपने जीवनकाल में बताए  थे, वह हर भारतीय के लिए  आजीवन आदर्श रहे हैं। भारतीय ही नहीं, दुनिया के लोगों को भी महात्मा का बताया रास्ता जीने का सबसे सहज एवं सुंदर रास्ता लगा है। इससे परे एक-डेढ़ दशक में महात्मा गांधी के प्रति राजनीतिक दलों की स्वीकार्यता अचरज में डालने वाली है।
आज 2 अक्टूबर को हर वर्ष की तरह जब महात्मा गांधी की जयंती का उल्लास मना रहे हैं और इस उल्लास में कैलेंडरी उत्सव से अलग होकर विभिन्न राजनीतिक दल भी महात्मा का स्मरण करेंगे। राजनीतिक दलों में जो महात्मा के प्रति यह चेतना जाग्रत हुई है, उसे सकारात्मक भाव से देखें तो अच्छा लगेगा कि जिस महात्मा को अपने ही देश में पचास साल से ज्यादा समय में राजनीतिक स्वीकार्यता नहीं मिली, आज उस देश की राजनीतिक पार्टियां महात्मा गांधी के सहारे के बिना नहीं चल पा रही हैं। महात्मा की यह स्वीकार्यता सहज नहीं है। इसे अनेक दृष्टिकोण से देखना और समझना होगा। यह बात सच है कि वोट की राजनीति में रंगे राजनीतिक दलों के लिए  महात्मा गांधी आदर्श हैं या नहीं किन्तु गांधी के आदर्शों की दुहाई देकर वोटबैंक को खींचा जा सकता है। भारतीय जनमानस की महात्मा में आज भी वैसी ही आस्था है, जैसा कि उनका अपने देवलोक पर।
बहुत ज्यादा छानबीन न करें तो भी 15-20 बरस से पहले सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने आदर्श राजनेता रहे हैं। समाजवादी पार्टी लोहिया के बताए  मार्ग पर चल रही है तो बहुजन समाज पार्टी के लिये डॉ.भीमराव आम्बेडकर प्रेरणास्रोत रहे हैं। कभी जनसंघ किन्तु अब भारतीय जनता पार्टी के पास डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोलवलकरजी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय एवं वीर सांवरकर जैसे अनेक नेता हैं जिनके बताए रास्ते का अनुसरण ये दल करते रहे हैं। मार्क्‍सवादियों के भी अपने आदर्श रहे हैं। इसे आप सहज रूप में यह कह सकते हैं कि सभी दलों के पास अपने अपने ये नेता ब्रांड एम्बेसडर के रूप में मौजूद हैं, जिन्हें जरूरत के अनुरूप उपयोग किया जाता रहा है। कांग्रेस के पास महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल सरीखे नेता रहे हैं। हालांकि ये नेता कांग्रेस पार्टी के नहीं बल्कि भारत वर्ष की विरासत हैं, किन्तु अन्य राजनीतिक दलों ने इनसे परहेज किया है और वे अपने ही नेताओं को आदर्श मानकर राजनीति करते रहे हैं। यहां उल्लेखनीय है कि स्वाधीनता के पूर्व महात्मा गांधी से अनेक नेताओं के विचार मेल नहीं खाते थे। जिन नेताओं से गांधीजी के वैचारिक मतभेद थे, वे जगजाहिर हैं और इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं। गांधीजी के विचारों से सहमत नहीं होने वाले नेताओं में डॉ. अम्बेडकर, डॉ. मुखर्जी, लोहिया और यहां तक कि कांग्रेस के प्रथम पंक्ति में गिने जाने वाले अनेक नेता भी उनके विचारों से सहमत नहीं थे।
अस्तु, स्वाधीन भारत में लोकतंत्र स्थापित हो गया। 1975 में देश में आपातकाल लग जाने के बाद राजनीति स्थितियां तेजी से बदली और जनता दल का उदय हुआ। सत्ता संघर्ष में जनता दल के अनेक टुकड़े हुए  और सबने अपने अपने रास्ते तय कर लिए । ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया। विस्तार होता गया और नए -नए  राजनीति दलों का जन्म होने लगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी इन्हीं में से हैं। प्रादेशिक दलों की बातें तो इनसे बिलकुल अलग है। इन सबके तब भी आदर्श अलग-अलग नेता थे लेकिन महात्मा गांधी की स्वीकार्यता वैसी नहीं थी, जैसा कि आज हम देख और समझ रहे हैं। आज हर दल के लिए  महात्मा गांधी सर्वोपरि है।
नोट से लेकर वोट तक महात्मा गांधी की छाप अलग से देखी जा सकती है। यह बात तो तय है कि राजनीतिक दलों के लिए  गांधीजी की स्वीकार्यता जरूरी नहीं बल्कि मजबूरी हैं क्योंकि एकमात्र गांधी ही ऐसे हैं जिनका ढिंढोरा पीट-पीटकर भारतीय जनता को बहलाया जा सकता है। राजनीति दलों का गांधीजी को मानना बिलकुल वैसा ही है जैसा कि हम ईश्वर को तो खूब मानते हैं किन्तु ईश्वर का कहा नहीं मानते। राजनीतिक दल गांधीजी को तो खूब मान रहे हैं किन्तु उनका कहा कोई मानने को तैयार नहीं है। गांधीजी की राजनीतिक दलों की स्वीकार्यता तब जरूरी समझी जाती जब दागी नेताओं को चुनाव लडऩे के अयोग्य किए  जाने फैसले के खिलाफ कोई पहल नहीं की जाती। हमारे लिए  महात्मा जरूरी नहीं, मजबूरी हैं और इसलिए  शायद आम चलन में कहा भी जाता है मजबूरी का नाम महात्मा गांधी.  

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

सुबह-सुबह

सुबह-सुबह
एक ख्वाब की दस्तक पर
दरवाजा खोला
देखा, सरहद के उस पार से
कुछ मेहमान आए हैं
आँखों से मानुस से सारे
चेहरे सारे सुने-सुनाए
पाँव धोए, हाथ धुलाए
आँगन में आसन लगवाए
और तंदूर पर मक्के के कुछ
मोटे-मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान पिछले साल की फसल का
गुड़ लाए थे
आँख खुली तो देखा,घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक
बुझा नहीं था
और होठों पर मीठे गुड़ का जायका अब तक चिपक रहा था
ख्‍वाब था शायद, ख्वाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है
कुछ ख्वाबों का खून हुआ है

गुलज्रार

सोमवार, 16 सितंबर 2013

रूप-रूपान्तर

-रमेश जोशी 

यह सृष्टि विभिन्न संज्ञाओं और उनके विभिन्न रूपों से बनी है | जिन संज्ञाओं का रूप हमें दिखाई नहीं देता उन्हें भी हमने रूपों में ढालने की कोशिश की है | ईश्वर का विस्तार इतना है कि उसे  किसी विशेष रूप में उसे बाँधा नहीं जा सकता फिर भी मनुष्य ने, चाहे वह  किसी भी धर्म का हो , ईश्वर को किसी न किसी प्रतीक के द्वारा रूपों में बाँधने ही कोशिश की है |

कौन, किसे,कैसे, किस रूप में बाँध सकता है  क्योंकि लाख सँभालते-सँभालते भी रूप बदल जाता है | रूप का रूपान्तर ही सृष्टि का सच है | कोई कुछ भी न करे तो भी रूप बदल जाता है | बच्चा जवान हो जाता है, जवान होकर बूढ़ा भी होता है और अंत में मरना भी पड़ता है | फिर भी पता नही क्यों आदमी बाल काले करता है, झुर्री पड़ी चमड़ी को खिंचवाकर जवान दिखने की कोशिश करता है, सच  दिखाने वाले दर्पण को भी धोखा देने की कोशिश करता है |जब कि उसकी पत्नी और यमराज दोनों सही उम्र को जानते हैं | लेकिन आदमी है कि धोखा देने के चक्कर में धोखा खाता रहता है |

वैसे स्वस्थ रहना बहुत  आवश्यक है - अपने और दूसरों में भले के लिए भी | स्वस्थ रहकर आप स्वयं खुश और आत्मनिर्भर रहते हैं और दूसरों को अनावश्यक सेवा-सुश्रूषा के झंझट से बचाते हैं | और स्वस्थ रहकर ही आप अपने सभी ऋणों पितृ , देव और ऋषि ऋण  चुकता कर सकते हैं अर्थात सकारात्मक रूप से सक्रिय रह सकते हैं | तभी कहा गया है- पहला सुख निरोगी काया |इसलिए सब को अपने खान-पान, दिनचर्या, विचारों से स्वस्थ रहने का प्रयत्न करते रहना चाहिए |

इसके बाद भी कभी-कभी बीमारी भी आ सकती है और मरना भी अटल है | फिर भी स्वस्थ रहने के प्रयत्नों और साफ-सुथरा रहने को  किसी को धोखा देना या सिर्फ माया-मोह भरा बचपना नहीं माना जा सकता | यह तो सृष्टि के रूप परिवर्तन करने की,  रूप-रूपान्तरता  को सहज स्वीकार करना है | कुछ लोग कभी-कभी अभिनय करने के लिए रूप बदलते हैं | फिल्मों में अभिनेता विशेषरूप से हीरो विशेष कारणों और आवश्यकताओं के तहत रूप बदलते हैं | लेकिन यह जीवन का स्वाभाविक सच नहीं है, कला है | वैसे जीवन भी एक प्रकार का नाटक ही है जिसमें व्यक्ति को तरह-तरह की भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं | एक ही दिन में कभी पति, कभी भाई, कभी मित्र, कभी मातहत, कभी मालिक | और कालांतर में बेटे को बाप बनना पड़ता है, बाप से फिर दादा भी बनना पड़ता है | इस प्रकार यह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से चलता रहता है |

कभी-कभी कुछ लोग किसी विशेष रूप के साथ अपने आप को इस तरह से जोड़ लेते हैं कि उन्हें उसी रूप में सर्वाधिक सहजता रहती है जैसे कि तुलसी ने अपने आप को राम रूप के साथ जोड़ लिया था | कहते हैं कि एक बार वे मथुरा गए, जहाँ कृष्ण के विग्रह को देखकर कहने लगे-
कहा कहों छवि आप की भले बने हो नाथ |
तुलसी मस्तक तब नवे जब धनुष बाण हो हाथ |
कहते हैं तुलसी की एक निष्ठा से प्रभावित होकर कृष्ण ने उन्हें राम रूप में दर्शन दिए |

कुछ मतलब ले किए,  लोगों की श्रद्धा का अनुचित लाभ उठाने के लिए अपने आप को बदल लेते हैं | नेता हर धार्मिक स्थान पर वोटों के लिए  मत्था टेकते हैं जब कि उन्हें किसी भी धर्म में कोई श्रद्धा नहीं होती | ऐसे नेता लोगों  को खुश करने के लिए भले ही एक दो शब्द ही सही,  श्रोताओं की भाषा में बोलते हैं | मज़मा लगाने वाले और भिखारी कहते ही हैं- हिन्दू को राम-राम, मुसलमान को सलाम, सरदार को सतश्री अकाल और ईसाई को गुड मोर्निंग | ऐसे नेताओं दल बदल भी न तो आत्मा  की आवाज़ है और न ही घर वापसी, मात्र लाभ को लपकने की शब्दावली है | यदि कोई  विदेशी नेता भारत में आकर अपने भाषण में  'नमस्ते'  कहता है तो यह न तो भारत प्रेम है और न ही हिन्दी प्रेम |शुद्ध स्वार्थ है |

लेकिन कुछ धूर्त और दुष्ट लोग अपने स्वार्थ के लिए, दूसरों को धोखा देने के लिए रूप रूपांतरित करते हैं जैसे रावण ने सीता का हरण करने के लिए साधु का वेश बनाया और राम को धोखा देने के लिए मारीच को भी स्वर्ण मृग का रूप धारण करने के लिए बाध्य किया, सूर्पणखा राम-लक्ष्मण को फँसाने के लिए  सुंदरी बन गई, रावण ने संजीवनी बूटी लाने जा रहे हनुमान जी को भ्रमित करने के लिए, उनके मार्ग में साधु का वेश बनाकर कालनेमि को बैठाया | पूतना ने अपने विष-बुझे स्तनों से दूध पिलाकर कृष्ण को मारने के लिए गोपिका का रूप बनाया, इंद्र आदि देवता दमयंती को छलने के लिए नल का वेश बनाकर स्वयंवर में गए,  इंद्र ने गौतम ऋषि का वेश बनाकर अहल्या के साथ दुराचार किया |आजकल यात्रियों को लूटने वाले कभी उनके हित-चिन्तक, जाति- धर्म और इलाके या गाँव-गली वाले बनकर खाने में नशीली वस्तु मिलाकर माल लेकर चम्पत हो जाते हैं | तभी रेल और बसों में लिखा रहता है -अनजान व्यक्ति द्वारा दी गई कोई वस्तु न खाएँ |

रूपान्तर परोपकार के लिए भी हो सकता है जैसे कि विष्णु भगवान ने नृसिंह, कच्छप, मत्स्य, वराह आदि के रूप में अवतार लिए | लेकिन आजकल बहुत से नकली लोग बढ़ गए हैं इसलिए भगवान ने अवतार लेना बंद कर दिया है | उसके बाद उसने अपने बेटे को भेजा जिसे लोगों ने सूली पर चढ़ा दिया | इसके बाद अपने प्रतिनिधि को भेजा | उसके बाद तो उसने लोगों की बदमाशियों से परेशान होकर दुनिया की तरफ से मुँह मोड़ लिया | अब तो सारी श्रद्धा लम्पटों के हवाले हो गई है जिन्होंने धर्म का व्यापार और राजनीति करनी शुरू कर रखी है |

हमारे देश पर दो सौ वर्ष शासन करने वाले गौरांग महाप्रभुओं ने कभी हमें अपनी बराबरी का नहीं समझा | इतिहास इस बात का गवाह है कि कई स्थनों पर लिखा रहता था- डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट अलाउड | भारत में ही बहुत सी सड़कें ( जिन्हें माल रोड़ कहा जाता था ) और ऐसे स्थान थे जहां भारतीयों का प्रवेश दंडनीय था | हमें ज़मीन पर हगने वाला काला आदमी कहा जाता था | गांधी को अफ्रीका में ट्रेन से फेंकने वाली घटना करुणा का धर्म मानने वालों के मानव और विशेषकर भारत प्रेम का प्रमाण है | हमारी भाषाएँ वर्नाक्यूलर अर्थात असभ्यों की भाषा कही जाती थीं | वेद चरवाहों के गीत थे | सारा भारतीय वांग्मय अंग्रेजी की किताबों के एक शेल्फ से अधिक नहीं समझा गया |

आज भारत की सभी भाषाओं और विशेषकर आदिवासियों की बोलियों में गौरांग धर्म  की पुस्तकें, चर्चा और रेडियो कार्यक्रम निरंतर प्रसारित हो रहे हैं | सेवा के नाम पर कम पैसों में सरकार से ज़मीन प्राप्त करके स्कूल और अस्पताल खोलकर पैसे तो कमाए ही जा रहे हैं बल्कि भोले-भाले लोगों की श्रद्धा भी खरीदी जा रही है |

१० जुलाई २०१३ का समाचार है कि रांची ( झरखंड ) से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर सिंहपुर में एक चर्च बना है जिसमें जीसस और मेरी की एक मूर्ति लगाई गई है जिसके नाक-नक्श, लाल किनारी की सफ़ेद साड़ी, गले में नेकलेस आदि  झारखण्ड के  सरना समुदाय जैसे हैं | भारत के काले आदिवासी धन्य हो गए जिनके काले रंग को पसंद करके प्रभु ने उनके रूप में अपना रूपान्तर किया | 

इस समुदाय के कुछ लोग ईसाई भी हैं | इस समुदाय के गैर ईसाई लोगों का कहना है कि जीसस और मेरी न तो हमारे समुदाय के थे और न ही उनके नाक-नक्श, रंग  और पहनावा हमारे जैसे थे | फिर जीसस और मेरी के इस रूपांतरण का क्या उद्देश्य है ? उनके अनुसार इस तरह ये लोग जीसस और मेरी को हमारे समुदाय की सिद्ध करके हमारे लोगों की श्रद्धा का शोषण करना चाहते हैं | इससे हमारे समुदाय के लोग धीरे-धीरे जीसस और मेरी को हमारे ही समुदाय के देवी देवता मानने लग जाएँगे | तब उन्हें ईसाई बनाने में सरलता रहेगी | कितना दूरगामी, योजनाबद्ध और षड़यंत्रपूर्ण रूपान्तर है ?

यह रूप-रूपान्तर स्वाभाविक है या किसी बड़े, दूरगामी और योजनाबद्ध षड्यंत्र का हिस्सा ?

यदि नहीं, तो अभिव्यक्ति और विश्वास की स्वतंत्रता और भाई-चारे का ढिंढोरा पीटने वालों को क्यों 'सूर्य- नमस्कार' तक अपने धर्म पर हमला लगने लग जाता है ? सूर्य तो एक ही है और समस्त सृष्टि का आधार और कारण स्वरूप है फिर उसके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता प्रकट करने मात्र से खतरे में पड़ जाने वाला धर्म क्या, कैसा और कितना खुला और कल्याणकारी हो सकता है ?
-रमेश जोशी 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

मीडिया चौपाल - 2013



जन-जन के लिए विज्ञान, जन-जन के लिए संचार
मीडिया चौपाल - 2013
वेब संचालक, ब्लॉगर्स, सोशल मीडिया संचारक और आलेख-फीचर लेखकों का जुटान
14-15, सितम्बर, 2013
मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद परिसर, नेहरू नगर, भोपाल, मध्यप्रदेश 

प्रिय साथी, 
संचार क्रांति के इस वर्तमान समय में सूचनाओं की विविधता और बाहुल्यता है. जनसंचार माध्यमों (मीडिया) का क्षेत्र निरंतर परिवर्तित हो रहा है. सूचना और माध्यम, एक तरफ व्यक्ति को क्षमतावान और सशक्त बना रहे हैं, समाधान दे रहे हैं, वहीं अनेक चुनौतियां और समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं. इंटरनेट आधारित संचार के तरीकों ने लगभग एक नए समाज का निर्माण किया है जिसे आजकल "नेटीजन" कहा जा रहा है. लेकिन मीडिया के इस नए रूप के लिए उपयोग किये जाने वाली पदावली - नया मीडिया, सोशल मीडिया आदि को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. लेकिन एक बात पर अधिकाँश लोग सहमत हैं कि "मीडिया का यह नया रूप लोकतांत्रिक है. यह लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा दे रहा है. मीडिया पर से कुछेक लोगों या घरानों का एकाधिकार टूट रहा है.  
आपको स्मरण होगा कि पिछले वर्ष 12 अगस्त, 2012 को "विकास की बात विज्ञान के साथ- नए मीडिया की भूमिका" विषय को आधार बनाकर एक दिवसीय "मीडिया चौपाल-2012" का आयोजन किया गया था. इस वर्ष भी यह आयोजन किया जा रहा है. कोशिश है कि "मीडिया चौपाल" को सालाना आयोजन का रूप दिया जाए. गत आयोजन की निरंतरता में इस वर्ष भी यह आयोजन 14-15 सितम्बर, 2013  (शनिवार-रविवार) को किया जा रहा है. यह आयोजन मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तथा स्पंदन (शोध, जागरूकता और कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान) द्वारा संयुक्त रूप से हो रहा है. इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य विकास में मीडिया की सकारात्मक भूमिका को बढ़ावा देना है. इस वर्ष का थीम होगा- "जन-जन के लिए विज्ञान, जन-जन के लिए मीडिया". इसी सन्दर्भ में विभिन्न चर्चा-सत्रों के लिए विषयों का निर्धारण इस प्रकार किया गया है- 1. नया मीडिया, नई चुनौतियां (तथ्य, कथ्य और भाषा के विशेष सन्दर्भ में) 2. जन-माध्यमों का अंतर्संबंध और नया मीडिया, 3. विकास कार्य-क्षेत्र और मीडिया अभिसरण (कन्वर्जेंस) की रूपरेखा, 4. आपदा प्रबंधन और नया मीडिया, 5. आमजन में वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और जनमाध्यम.
कृपया विशेष वक्तव्य और प्रस्तुति देने के इच्छुक प्रतिभागी इस सम्बन्ध में एक सप्ताह पूर्व
(
5 सितम्बर,2013 तक) सूचित करेंगे तो सत्रों की विस्तृत रूपरेखा तैयार करने में सुविधा होगी. इस सम्बन्ध में अन्य जानकारी के लिए संपर्क कर सकते हैं- अनिल सौमित्र - 09425008648, 0755-2765472. mediachaupal2013@gmail.com, anilsaumitra0@gmail.com
"मीडिया चौपाल-2013" में सहभागिता हेतु अभी तक 1. श्री आर. एल. फ्रांसिस (नई दिल्ली) 2. श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी (नई दिल्ली), 3. श्री अनिल पाण्डेय (द संडे इंडियन, नई दिल्ली), 4. श्री यशवंत सिंह (भड़ास डाटकॉम, नई दिल्ली), 5. श्री संजीव सिन्हा (प्रवक्ता डाटकॉम, नई दिल्ली), 6. श्री रविशंकर (नई दिल्ली), 7. श्री संजय तिवारी (विस्फोट डाटकॉम, नई दिल्ली), 8. श्री आशीष कुमार अंशू, 9. श्री आवेश तिवारी, 10. श्री अनुराग अन्वेषी 11.श्री सिद्धार्थ झा, 12. श्री भावेश झा, 13. श्री दिब्यान्शु कुमार (दैनिक भास्कर, रांची), 14. श्री पंकज साव (रांची), 15. श्री उमाशंकर मिश्र (अमर उजाला, नई दिल्ली), 16. श्री उमेश चतुर्वेदी (नई दिल्ली), 17. श्री भुवन भास्कर (सहारा टीवी, नई दिल्ली), 18. श्री प्रभाष झा (नवभारत टाईम्स डाटकॉम, नई दिल्ली), 19. श्री स्वदेश सिंह (नई दिल्ली),  20. श्री पंकज झा (दीपकमल,रायपुर), 21. श्री निमिष कुमार (हिन्दी इन डाटकॉम, मुम्बई), 22. श्री चंद्रकांत जोशी (हिन्दी इन, मुम्बई), 23. श्री प्रदीप गुप्ता (मुम्बई), 24. श्री संजय बेंगानी (अहमदाबाद), 25. श्री स्वतंत्र मिश्र (शुक्रवार साप्ताहिक, नई दिल्ली) 26. श्री ललित शर्मा (बिलासपुर), 27. श्री बी एस पाबला (रायपुर), 28. श्री लोकेन्द्र सिंह (ग्वालियर), 29. श्री सुरेश चिपलूनकर (उज्जैन), 30. श्री अरुण सिंह (लखनऊ), 31. सुश्री संध्या शर्मा (नागपुर), 32. श्री जीतेन्द्र दवे (मुम्बई), 33. श्री विकास दवे ( कार्यकारी संपादक, देवपुत्र, इंदौर), 34. श्री राजीव गुप्ता  (नई दिल्ली) 35. सुश्री वर्तिका तोमर, 36. ठाकुर गौतम कात्यायन पटना, 37. अभिषेक रंजन 38. श्री केशव कुमार 39. श्री अंकुर विजयवर्गीय (नई दिल्ली) 40. जयराम विप्लव (जनोक्ति.कॉम, नई दिल्ली), 41. श्री कुंदन झा (नई दिल्ली), 42. सुश्री सीत मिश्रा (नई दिल्ली), 43. वागीश झा
बिजनेस स्टैंडर्ड, नई दिल्ली), 44. सुश्री आशा अर्पित (चंडीगढ), 45. सुश्री संध्या शर्मा (नागपुर), 46. श्री सुशांत झा (नई दिल्ली), 47. ऋषभ कृष्ण सक्सेना (बिजनेस स्टैंडर्ड, नई दिल्ली), 48. श्री अरुण सिंह (लखनऊ), 49. श्री शिराज केसर, 50. सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा (इंडिया वाटर पोर्टल, नई दिल्ली) 51. श्री आदित्यराज कॉल (टाइम्स नाऊ, नई दिल्ली), 52. श्री पुष्कर पुष्प (मीडिया खबर डाटकाम, नई दिल्ली), 53. श्री अनुराग पुनेठा (पी 7 चैनल, दिल्ली), ने अपनी सभागिता की सूचना दी है.
भोपाल से 1. श्री रमेश शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार), 2. श्री गिरीश उपाध्याय (वरिष्ठ पत्रकार), 3. श्री दीपक तिवारी (ब्यूरो चीफ, न वीक), 4. सुश्री मुक्ता पाठक (साधना न्यूज), 5. श्री रवि रतलामी (वरिष्ठ ब्लॉगर), 6. श्रीमती जया केतकी (स्वतंत्र लेखिका), 7. श्रीमती स्वाति तिवारी (साहित्यकार), 8. श्री महेश परिमल (स्वतंत्र लेखक), 9. श्री अमरजीत कुमार (स्टेट न्यूज चैनल), 10. श्री रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति (पीपुल्स समाचार), 11. श्री राजूकुमार (ब्यूरो चीफ, न संडे इंडियन), 12. श्री शिरीष खरे (ब्यूरोचीफ, तहलका), 13. श्री पंकज चतुर्वेदी (स्तंभ लेखक), 14. श्री संजय द्विवेदी (संचार विशेषज्ञ), 15. श्रीमती शशि तिवारी (सूचना मंत्र डाटकॉम), 16. श्री शशिधर कपूर (संचारक), 17. श्री हरिहर शर्मा, 18. श्री गोपाल कृष्ण छिबबर, 19. श्री विनोद उपाध्याय, 20. श्री विकास बोंदिया, 21. श्री रामभुवन सिंह कुशवाह, 22. श्री हर्ष सुहालका, 23. सुश्री सरिता अरगरे (वरिष्ठ ब्लॉगर), 24. श्री राकेश दूबे (एक्टिविस्ट), श्री दीपक शर्मा (प्रतिवाद डाटकाम) आदि रहेंगे ही.

इस चौपाल में प्रो. प्रमोद के. वर्मा (महानिदेशक, म.प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद), श्री मनोज श्रीवास्तव (प्रमुख सचिव, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन), प्रो. बृज किशोर कुठियाला (कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल), श्री राममाधव जी (अखिल भारतीय सह-संपर्क प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), 2. श्रीमती स्मृति ईरानी (वरिष्ठ भाजपा नेत्री), श्री जयदीप कार्णिक (वेब दुनिया, इंदौर), श्री अजय ब्रह्मात्मज (वरिष्ठ पत्रकार, मुम्बई) के उपस्थित रहने की भी संभावना है.
कुछ और भी नाम हैं जिन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर सहभागिता के लिए प्रयास करने का आश्वासन दिया है- श्री चंडीदत्त शुक्ल (मुम्बई), श्री प्रेम शुक्ल (सामना, मुम्बई), श्री लालबहादुर ओझा (नई दिल्ली), प्रो. शंकर शरण (स्तंभकार, नई दिल्ली) श्री नलिन चौहान (नई दिल्ली), श्री हितेश शंकर (संपादक, पांचजन्य, नई दिल्ली).
चर्चा के लिए चिन्हित विषयों पर आप तैयारी से आयेंगे तो यह आजोजन और भी सार्थक हो सकेगा. अपने विशिष्ट वक्तव्य का विषय बताएं तो सत्रों की रचना में सुविधा होगी.  इस पत्र के बाद अब आगे की सूचनाएं भेजी जायेंगी. कोशिश हो कि आप सभी की भागीदारी से मीडिया के बारे में एक सार्थक चिंतन व विमर्श हो सके. इसमें आपका सहयोग अपेक्षित है.
सादर,
(अनिल सौमित्र)
संयोजक
स्पंदन (शोध, जागरूकता एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान)

सोमवार, 2 सितंबर 2013

लायसेंसी पत्रकार

-मनोज कुमार
पत्रकारों को अब ट्रक ड्रायवर की तरह लायसेंस रखकर चलना होगा, यदि सरकार ने तय कर दिया कि पत्रकारों को भी डाक्टर और वकील की तरह लायसेंस लेना होगा. इस लायसेंस के लिये बकायदा परीक्षा भी पास करनी होगी. केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने कह दिया है कि पत्रकारों को भी लायसेंस दिया जाना चाहिये और इसके लिये डाक्टर-इंजीनियर की तरह परीक्षा भी आयोजित होना चाहिये. इसके पहले प्रेस कांऊसिल के अध्यक्ष ने तो पत्रकारों की शैक्षिक योग्यता तय करने के लिये एक कमेटी का गठन तक कर दिया है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई हर दल और हर नेता देता रहा है लेकिन जब जब उनके हितों पर चोट पहुंची है तो सबसे पहले नकेल डालने की कोशिश की गई. पश्चिम बंगाल में ममता बेनर्जी ने जो कुछ किया या कश्मीर और असम में जो कुछ हुआ, वह सब अभिव्यक्ति की आजादी में खलल डालने का उपक्रम है. 
पराधीन भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की बात समझ में आती थी. अंग्रेजों को अपने हितों को बचाने के लिये ऐसा करना जरूरी हो सकता था किन्तु स्वाधीन भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण करने का अर्थ समझ से परे है. पिछले तीन दशकों से एक शब्द मीडिया इजाद किया गया है और इस मीडिया ने पत्रकारिता को हाशिये पर डाल दिया है. समाज में जो समस्या उत्पन्न हो रही है, वह पत्रकारिता के कारण नहीं बल्कि मीडिया के कारण हो रही है. पत्रकारिता एक मिशन है और मीडिया पूरी तरह व्यवसाय. इस शब्द की उत्पत्ति के कारणों की तलाश में कुछ भी हाथ नहीं लगा. बस, जवाब मिला कि जिस तरह सम्पादक की कुर्सी पर प्रबंधक विराजमान है, उसी तरह पत्रकारिता पर मीडिया चिपक गया है. पत्रकारिता का रिश्ता दिल से है जबकि मीडिया का रिश्ता दिमाग से. दिल भावनाओं को समझता और जानता है तथा वह अपने से ऊपर उठकर जनहित और समाजहित में काम करता है जबकि दिमाग सबसे पहले नफा-नुकसान को देखता है और अपने हित के बारे में सोचता है. इस तरह मीडिया और पत्रकारिता के दायित्व, समझ और इन दोनों के बीच के अंतर को समझा जा सकता है.
जो लोग बार बार पत्रकारों की योग्यता की बात कर रहे हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि वे मीडिया के लोगों के बारे में कह रहे हैं या पत्रकारों के बारे में. तीन दशकों में कुछ इसी तरह का भ्रम फैलाकर सम्पादक की सत्ता को समाप्त कर दिया गया. प्रबंधकों को सम्पादक होना गैरजरूरी लगा और वे कुर्सी पर काबिज हो गये. अब पत्रकारों की शैक्षिक योग्यता और लायसेंस दिये जाने की बात की जा रही है और आने वाले दिनों में पत्रकार भी विलुप्त हो जाएंगे. इसी के साथ पत्रकारिता भी समाप्त हो जाएगी और रह जाएगा मीडिया. मीडिया में पत्रकार नहीं होते हैं बल्कि मीडियाकर होते हैं जो संस्था और प्रबंधकों के साथ स्वयं का लाभ देखते हैं. सन् 75 में जिस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला गया था और इसी का परिणाम है कि मीडिया का प्रार्दुभाव हुआ. इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ अखबारों को राजस्व कमाने का अधिकाधिक अवसर देने का और रातोंरात बहुख्यक नामी-बेनामी प्रकाशन आरंभ हो गये. बाद के सालों में तो अखबार और पत्रिकाओं का ऐसा अंबार खड़ा हुआ कि हर परिवार से कथित रूप से एक पत्रकार गिना जाने लगा. इस गिरावट को रोकने के लिये तब कोई प्रयास न तो संस्थागत हुये और न ही शासकीय नियंत्रण की कोई कोशिश ही हुई परिणामस्वरूप समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह पत्रकारिता में भी लगातार गिरावट आती गयी. प्रतिबद्ध लोगों के स्थान पर लाभ कमाने वालों की संख्या बढ़ती गयी.
सवाल यह है कि आखिरकार सरकार पत्रकारिता के लिये शिक्षा और लायसेंस का दायरा क्यों बांध रही है? क्या सरकार को इस बात का इल्म नहीं है कि पत्रकारिता विशुद्ध रूप से अनुभव का मामला है और अनुभव डिग्री या डिप्लोमा लेने से नहीं आता और न ही लायसेंस लेकर पत्रकारिता की जा सकती है. जिन डाक्टरों और इंजीनियर से पत्रकारों की तुलना की जा रही है, वहां यह भी याद रखना चाहिये कि पत्रकार कोई पेशेवर नहीं हैं. उसके पास कभी न तो स्थायी पूंजी रही है और न वह कोई व्यापार कर सकता है. वह तो मिशनरी भाव से जीता है और दूसरों को खुश देखकर स्वयं खुश हो जाता है. उसका पहला और आखिरी लक्ष्य समाज में शुचिता कायम करना होता है लेकिन पेशेवर लायसेंसशुदा लोगों से यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है. आजादी के पहले और बाद में भी खबर पर मर-मिटने वाला पत्रकार ही होता है. 
यह सोच कर अच्छा लगता है कि आजादी के 66 बरसों में हमने कितनी तरक्की कर ली है. आजादी के पहले वे हमें कुचलने के लिये बर्नाकुलर प्रेसएक्ट लाते हैं तो स्वाधीन भारत में लायसेंसी बना दिया जाता है. लायसेंसी का अर्थ तो आप बेहतर समझते होंगे. संभव है कि सरकार अपने मकसद में कामयाब हो जाए और पत्रकारों को जरूरी शैक्षिक योग्यता हासिल करना पड़े. इसके बाद उसे लायसेंस हासिल करने के लिये फिर से परीक्षा देना हो और उसमें पास हो जाये और लायसेंसी पत्रकार के रूप में विख्यात हो जाएगा. इसके बाद की स्थिति की कल्पना कीजिये कि एक पत्रकार जो लायसेंसी है, वह भला इतनी हिम्मत कहां से लायेगा कि वह सरकार के काले कारनामों से परतें उखाड़ सके. वह कर सकता है लेकिन करेगा नहीं क्योंकि तब उसे अपने लायसेंस रद्द हो जाने की चिंता होगी और नहीं तो कम से कम लायसेंस के रिनीवल की चिंता सतायेगी. लायसेंसी पत्रकार के राज में आम आदमी की आवाज पत्रकारिता के कान बंद हो चुके होंगे. उसे सरकार के द्वारा दिखायी जा रही, सुनाई जा रही चीजें ही समझ में आएंगी क्योंकि वह पत्रकार नहीं, लायसेंसी होगा.