गुरुवार, 9 सितंबर 2021

सूरदास का स्वप्न

कभी सूरदास ने एक स्वप्न देखा था कि रुक्मिणी और राधिका मिली हैं और एक दूजे पर न्योछावर हुई जा रही हैं।  सोचता हूँ, कैसा होगा वह क्षण जब दोनों ठकुरानियाँ मिली होंगी। दोनों ने प्रेम किया था। एक ने बालक कन्हैया से, दूसरे ने राजनीतिज्ञ कृष्ण से। एक को अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेने वाला कन्हैया मिला था, और दूसरे को मिले थे सुदर्शन चक्र धारी, महायोद्धा कृष्ण। कृष्ण राधिका के बाल सखा थे, पर राधिका का दुर्भाग्य था कि उन्होंने कृष्ण को तात्कालिक विश्व की महाशक्ति बनते नहीं देखा। राधिका को न महाभारत के कुचक्र जाल को सुलझाते चतुर कृष्ण मिले, न पौंड्रक-शिशुपाल का वध करते बाहुबली कृष्ण मिले। 

रुक्मिणी कृष्ण की पत्नी थीं, पटरानी थीं, महारानी थीं, पर उन्होंने कृष्ण की वह लीला नहीं देखी जिसके लिए विश्व कृष्ण को स्मरण रखता है। उन्होंने न माखन चोर को देखा, न गौ-चरवाहे को। उनके हिस्से में न बाँसुरी आयी, न माखन। कितनी अद्भुत लीला है। राधिका के लिए कृष्ण कन्हैया था, रुक्मिणी के लिए कन्हैया कृष्ण थे। पत्नी होने के बाद भी रुक्मिणी को कृष्ण उतने नहीं मिले कि वे उन्हें "तुम" कह पातीं। आप से तुम तक की इस यात्रा को पूरा कर लेना ही प्रेम का चरम पा लेना है. रुक्मणि कभी यह यात्रा पूरी नहीं कर सकीं।

राधिका की यात्रा प्रारम्भ ही 'तुम' से हुई थीं। उन्होंने प्रारम्भ ही "चरम" से किया था। शायद तभी उन्हें कृष्ण नहीं मिले। कितना अजीब है न! कृष्ण जिसे नहीं मिले, युगों युगों से आजतक उसी के हैं, और जिसे मिले उसे मिले ही नहीं। तभी कहता हूँ, कृष्ण को पाने का प्रयास मत कीजिये। पाने का प्रयास कीजियेगा तो कभी नहीं मिलेंगे। बस प्रेम कर के छोड़ दीजिए, जीवन भर साथ निभाएंगे कृष्ण। कृष्ण इस सृष्टि के सबसे अच्छे मित्र हैं। राधिका हों या सुदामा, कृष्ण ने मित्रता निभाई तो ऐसी निभाई कि इतिहास बन गया।

राधा और रुक्मिणी जब मिली होंगी तो रुक्मिणी राधा के वस्त्रों में माखन की गंध ढूंढती होंगी, और राधा ने रुक्मिणी के आभूषणों में कृष्ण का वैभव तलाशा होगा। कौन जाने मिला भी या नहीं। सबकुछ कहाँ मिलता है मनुष्य को...  कुछ न कुछ तो छूटता ही रहता है। जितनी चीज़ें कृष्ण से छूटीं उतनी तो किसी से नहीं छूटीं। कृष्ण से उनकी माँ छूटी, पिता छूटे, फिर जो नंद-यशोदा मिले वे भी छूटे। संगी-साथी छूटे। राधा छूटीं। गोकुल छूटा, फिर मथुरा छूटी। कृष्ण से जीवन भर कुछ न कुछ छूटता ही रहा। कृष्ण जीवन भर त्याग करते रहे। 

हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ भी छूटने पर टूटने लगती है, उसे कृष्ण को गुरु बना लेना चाहिए। जो कृष्ण को समझ लेगा वह कभी अवसाद में नहीं जाएगा। कृष्ण आनंद के देवता है। कुछ छूटने पर भी कैसे खुश रहा जा सकता है, यह कृष्ण से अच्छा कोई सिखा ही नहीं सकता।


रविवार, 5 सितंबर 2021

तो हो जाए एक एक समोसा... ।।

"समोसा" सुनते ही मुंह में पानी आ जाना स्वाभाविक है। यह तिकोना, मोटा और भूरा सा व्यंजन अपनी कद काठी के कारण अपनी बिरादरी में अलग ही नजर आता है। अपने रूप रंग में भले ही यह उन्नीस बैठता हो लेकिन स्वाद में पूरा बीस है और शायद यही कारण है कि तेल की कढ़ाई में घंटों उछलकूद करने वाला गरमागरम समोसा हर उम्र के लोगों की पहली पसंद है। शायद ही कोई अभागा हो, जिसे समोसा खाने का मौका न मिला हो क्योंकि यह तो हर छोटी-बड़ी पार्टी की शान है....लेकिन क्या आपको पता है कि आपके जन्मदिन की तरह आपके प्रिय समोसे का भी एक दिन है जिसे विश्व समोसा दिवस (World Samosa Day) जाता है।...शायद कम ही लोगों को यह पता होगा कि दुनिया भर में 5 सितम्बर को विश्व समोसा दिवस मनाया जाता है।

हमारे-आपके प्रिय समोसे का बस यह दुर्भाग्य है कि उसका दिन ‘शिक्षक दिवस’ के साथ पड़ता है और गुरुओं को समर्पित इस दिन की गरिमा-भव्यता और दिव्यता में समोसा समर्पित शिष्य की भाँति अपने दिन को कुर्बान कर देता है।...इसलिए भले ही वह शिक्षक दिवस की हर दावत में डायनिंग टेबल पर पूरी शान और गर्व से इठलाता हो लेकिन अपना दिन खुलकर नहीं माना पाता। शिक्षक दिवस और समोसे के बीच एक खास सम्बन्ध यह भी है हर व्यक्ति का और प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी का ‘समोसा गुरु’ जरुर होता है, जो यह बताता है कि ‘गुरु फलाने शहर में फलाने के समोसे बहुत गज़ब हैं’...और हर शहर-हर गली नुक्कड़ पर स्वादिष्ट समोसे का यह गुरुपन पलता-बढ़ता रहता है।
समोसा दिवस पर अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए जब हमने इस लज़ीज़-मोटे समोसे का इतिहास खंगालना शुरू किया तो गूगल गुरु ने बताया कि समोसा असल में फारसी शब्द 'सम्मोकसा' से बना है। माना जाता है कि समोसे की उत्पत्ति 10वीं शताब्दी से पहले मध्य पूर्व में कहीं हुई थी और यह 13वीं से 14वीं शताब्दी के बीच भारत में आया। ऐसा माना जाता है कि समोसा मध्य-पूर्व के व्यापारियों के साथ भारत आया और आते ही पूरा भारतीय हो गया। तभी तो आजकल हर शहर की गली,मोहल्ले और नुक्कड पर समोसा आसानी से मिल जाता है। वैसे इन दिनों एक थ्योरी यह भी चल रही है कि अरब देशों में गेहूँ तो होता नहीं है तो उनको समोसा बनाने के लिए मैदा कहाँ से मिलेगा इसलिए समोसा पूरी तरह भारतीय पैदाइश है। बहरहाल अब तो समय के साथ समोसा रंग-रूप,आकार-प्रकार,स्वाद और गुण भी बदलता जा रहा है। शहरों में नमकीन की दुकानों पर मिलने वाले छोटे सूखे समोसों से लेकर दिल्ली के पास नोएडा में मिलने वाले गरमा-गरम छोटे समोसों और दिल्ली के ही नूडल्स वाले समोसे तक इसने लम्बा सफ़र तय किया है। अब तो इसने धीरे से मिठाइयों के बीच भी घुसपैठ कर ली है और चाकलेट और खोया भरे मीठे समोसे के रूप में भी अपने स्वाद से आमोखास की जुबान पर चढ़ने लगा है। पूर्वी दिल्ली में तो करीब 25 प्रकार के समोसे मिलते हैं। यहां आलू के साथ पास्ता, नूडल्स, पिज्जा और चॉकलेट समोसे जैसे कई प्रकार के समोसे लोगों को खूब भा रहे हैं । समोसे की लोकप्रियता का ही प्रमाण है कि दशक भर पहले बिहार के साथ साथ हिंदी पट्टी में यह नारा खूब लोकप्रिय हुआ था... ‘ जब तक रहेगा समोसे में आलू-तब तक रहेगा बिहार में लालू’...और इसीतरह ‘मिस्टर और मिसेज खिलाड़ी’ फिल्म के एक गीत ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहूँगा तेरा मैं शालू..’ ने भी समोसे की लोकप्रियता की आड़ में खूब कमाई की थी।....खैर इस फिल्म या लालूप्रसाद की लोकप्रियता तो समय के साथ कम होती गयी लेकिन हमारा समोसा आज भी पूरी आन-बान-शान के साथ स्वाद के पहले पायदान पर कायम है....तो चलिए हो जाए एक-एक समोसा.... ।।
संजीव शर्मा