शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

छत्तीसगढ़ के राऊत नाचा के दोहों में कटाक्ष





छत्तीसगढ़ की दिवाली में एक प्रमुख आकर्षण होता है राऊत-नाचा। यदुवंशियों द्वारा पारे जाने वाले दोहों और  गाये जाने वाले गीतों के साथ ताल मिलाते हुए आकर्षक परिधानों से सुसज्जित बजनियों की थाप से जब गांड़ा बाजा घिड़कता है तब शौर्य-श्रृंगार से सजे अहीरों के संग संग समूचा छत्तीसगढ़ थिरकने लगता है।सरस दोहों, गीतों और नृत्यों की त्रिवेणी में पूरा छत्तीसगढ़ डूबकी लगाता है,

तब लगता है कि ये मतवाली दिवाली छत्तीसगढ़ की है।
राऊत नाचा छत्तीसगढ़ के लोकगीत,लोकसंगीत व  लोकनृत्यों का सिरमौर है। ऐसी कोई लोकविधा नही जो इसमें न समाया हो। स्वागत सत्कार,रामकृष्ण भक्ति,देवधामी पूजा अर्चना,संत कबीर,तुलसीदास व रहीम के दोहे,प्रकृति-प्रेम,पशुधन महिमा,आल्हा-उदल गाथा,लोकगाथायें,सुआ पंड़की,ददरिया,करमा,समाजोपयोगी संदेश परक दोहों गीतों के अलावा हास-परिहास के साथ हास्य-व्यंग्य के दोहे भी नर्तकों द्वारा उच्चारित किया जाता है जिसे दोहा पारना कहते हैं।जैसे सुआ गीत का परिचय मुखड़ा तरी हरि नाहना मोर नाहा नरी नाहना रे सुआ होता है वैसे ही राऊत नाचा दोहों-गीतों का परिचय मुखड़ा होता है- अरे ररे ररे ररे भाई रे.....होता है।इसी के साथ ही नर्तक दोहों व गीतों का उच्चारण करते हैं।
सबसे पहले सगा-पहुनों और आगन्तुकों के स्वागत में गांव एवं ग्राम देवता की महिमा बखान करते हुए दोहे की ये बानगी देखिए-

भले गांव मोर तुमगांव भईया कि,बहुते उबजे बोहार हो।
ठाकूर देवता के पंईया लागंव कि,सबो सगा ल जोहार हो।

दिवाली में गौमाता और उसका चरवाहा यानी अहीरों के शोभायमान साज श्रृंगार व मदमस्त मनोभावों को अभिव्यक्त करता एक दोहा- 

रंग माते रंगरसिया भईया कि,छापर माते गाय हो।
अहीरा माते देवारी संगी कि,शोभा बरन नहि जाय हो।।

राऊत चरवाहों के दैनिक उपयोग व उनके साज श्रृंगार में लाठी विशेष मायने रखती है।उनकी लाठी बहूधा तेंदू पेड़ की होती है जो काफी मजबूत मानी जाती है।लाठी उसकी मान-मर्यादा,ताकत और स्वाभिमान का प्रतीक होती है-

तेंदूसार के लउठी भईया कि,सेर सेर घीव खाय।
इही लउठी के परसादे अहीरा,पेल के गाय चराय।।

भगवान कृष्ण के वंशज होने के नाते कृष्ण ही उनके आराध्य हैं।संकट के समय उन्हे पुकारते ही सभी बाधाओं से मुक्त हो जाने का अहसास देखिये-

अड़गड़ टूटगे बड़गड़ टूटगे,भूरी भंईस के छांद हो।
उँहा ले निकले गोकुल कन्हैया,भागे भूत मसान हो।।

जैसे बाजा वैसे नाचा।बाजा ठीक से बजता रहे तभी नर्तकों में स्फूर्ति बनी रहती है और नाचा का आकर्षण बरकरार रहता है।वाद्यों को टन्न रखने व  वादकों में ऊर्जा का संचार करते रहने के लिये उनका हौसला आफजाई करने का अनोखा ढंग इस दोहे में-

आमा खांधी के ढोल बनाये,बेंदरा खाल छवाय हो।
परे बठेना बजकरी के तब,उदल खाँव खाँव नरियाय हो।।

माता पिता का स्वयं की सुख-सुविधा में मगन रहना और बच्चों के प्रति उनकी गैरजिम्मेदाराना हरकतों व लापरवाही  पर कटाक्ष करता यह दोहा-

दार भात के सरपट सईया,मोंगरी मछरी के झोर हो।
दाई ददा सुत भुलाईन, लईका ला लेगे चोर हो।।

भाइयों के प्रति स्नेह,दुलार व अपनापन झलकता यह प्रसंग-

राम दुलरवा लछमन भईया,पण्डो दुलरवा भीम हो।
आल्हा दुलरवा उदला भईया कि, रन में फिरे अधीर हो।।

जीवनसंगिनी के रंग रूप के फेर में न पडें,जीवन के सुख दुख में उसकी भूमिका को महत्व दें। हास-परिहास व हास्य-व्यंग्य से सराबोर यह दोहा-

तींवरा भाजी पेट पिरौना,बेल फर मतौना हो।
कारी सुआरी मन मिलौना,गोरी बड़ बिटोना हो।।

पर्यावरण संरक्षण में पेंड़ पौधों का खास महत्व है। पेड़ पौधों को न काटें,उसके काटने पर बुरा परिणाम भोगना पड़ता है। प्रकृति संरक्षण का भाव प्रकट करती ये पंक्तियाँ-

बर काटे बईमान कहाये,पीपर काटे चण्डाल हो।
मऊरत आमा ल काटे,तेला नइ आवय मनुख अवतार हो।।

राऊत चरवाहा अपने मालिक के प्रति यद्यपि पूज्य भाव रखता है तथापि जब वह मालिक के घर के आँगन में नृत्य करने जाता है तो आखिर में उन्हे सःपरिवार दीर्घायु होने की मंगलकामना के साथ हास्य से भरपूर आशीष कुछ इस तरह देता है-

भात भात ल खाहू मालिक,दार ल घलो पीहू।
असीस लेलव हमर अहिरा के,टूकना तोपात ले जींहू।
          
                                      बन्धु राजेश्वर राव खरे
                                           लक्ष्मण कुंज
             .        शिव मंदिर के पास,अयोध्यानगर महासमुन्द
छत्तीसगढ़ 493445