सोमवार, 21 दिसंबर 2015

आखिर क्या है सोमरस ?

कितने ही टी.वी. सीरियल में दिखाया जाता है कि देवता इन्द्र की सभा में सुन्दर अप्सराएँ सोमरस पिलाती हैं और सभी देव उसका आनन्द लेते हैं। इस सोम रस को लोग शराब बताया करते हैं पर ये धारणा बिल्कुल गलत है। अक्सर शराब के समर्थक यह कहते सुने गए हैं कि देवता भी तो शराब पीते थे। सोमरस क्या था, शराब ही तो थी। क्या सच में वैदिक काल में सोमरस के रूप में शराब का प्रचलन था या ये सिर्फ एक भ्रम है? आइये जानें...
क्या देवता शराब जैसी किसी नशीली वस्तु का उपयोग करते थे ? कहीं वे सभी भंग तो नहीं पीते थे जैसा कि शिव के बारे में प्रचलित है? वैसे उस समय आचार-विचार की पवित्रता का इतना ध्यान रखा जाता था कि जरा भी कोई इस पवित्रता को भंग करता था उसका बहिष्कार कर दिया जाता था या फिर उसे कठिन प्रायश्चित करने होते थे। तो यह सामान्य-सी बात है कि कोई भी धर्म कैसे शराब पीने और मांस खाने की इजाजत नहीं दे सकता.

ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा

और फिर ये भी तो सच है की धर्म-अध्यात्म की किताबों में हम जगह जगह पर नशे की निंदा या बुराई सुनते हैं, तब धर्म के रचनाकर और देवता कैसे शराब पी सकते हैं? ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया - "हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्" यानी की सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।
ऋग्वेद मैं ही कहा गया है - "यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्र देव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5)" "हे वायुदेव यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)

सोमरस और शराब एक नहीं

ऋग्वेद में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। इसलिए यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब या भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था।

हवन में इस्तमाल होता था

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका पूरा वर्णन लिखा हुआ है। सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पण्डित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे। बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी खुश हो जाते थे।

सोमरस की जगह पंचामृत

आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की स्तिथि में कोई और चीज अर्पित करने पर क्षमा- याचना करने के मंत्र भी लिखे हैं।
सोम लताएं पहाड़ों में पाई जाती हैं। राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने के जिक्र है। कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर ही सोम का पौधा पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है।

कहाँ पाया जाता है सोम

कुछ वर्ष पहले ईरान में इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। हालांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैं।
अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और आजकल ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।

संजीवनी बूटी

कुछ विद्वान इसे ही 'संजीवनी बूटी' कहते हैं। सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर 'सोम' की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।
अगर हम ऋग्वेद के नौवें 'सोम मंडल' में लिखे सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी।
ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह लिखा है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।
वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।
ऋग्वेद में लिखा है "स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्, तीव्र: किलायं रसवां उतायम। उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रम, न कश्चन सहत आहवेषु" यानी की : सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।
शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।
कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- 'यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है.
कण्व ऋषियोंके अनुसार सोमरस उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है'। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही आनंद की अनुभूति कराने वाला है।
सोमरस देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ' यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है।
सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

कैंसर की सस्ती और सुरक्षित दवा

17 जनवरी 2007 के न्यू साइन्टिस्ट में एक आनलाइन लेख प्रकाशित हुआ था कि एक सस्ती और सामान्य दवा के द्वारा ज़्यादातर कैंसर खत्म हो सकते हैं केवल उनकी अमरता को समाप्त करके। डाइक्लोरोएसिटेट (डीसीए) दवा को पिछले कई वर्षों से दुर्लभ मेटाबॉलिक विकार के इलाज में इस्तेमाल किया जाता रहा है और यह दवा सुरक्षित उपचार के रूप में जानी जाती है। इस दवा के लिए कोई पेटेंट नहीं है, इसका मतलब है कि इस दवा को किसी भी नई विकसित दवा की कीमत से बहुत कम में बनाया जा सकता है। कनाडा की युनिवर्सिटी ऑफ एलबर्टा के एवानगेलास माइकेलाकिस और उनके साथियों ने डीसीए का परीक्षण शरीर के बाहर मनुष्य कोशिकाओं के कल्चर के साथ किया तो पाया कि यह फेफड़े, स्तन और मस्तिष्क कैंसर कोशिकाओं को मारती है, जबकि स्वस्थ मानव कोशिकाओं को प्रभावित नहीं करती है। मनुष्य कैंसर कोशिका के द्वारा चूहों में कैंसर पैदा करवाया गया। पानी में डीसीए घोलकर कुछ हफ्तों तक चूहों को देने के बाद देखा तो पाया कि उनमें भी कैंसर कोशिकाएं कम हो गर्इं थीं। डीसीए कैंसर कोशिका के एक महत्वपूर्ण गुण पर आक्रमण करता है। कैंसर कोशिकाएं ऊर्जा उत्पादन का काम माइट्रोकॉण्ड्रिया में नहीं बल्कि पूरी कोशिका में सम्पन्न करती हैं। इस प्रक्रिया  को ग्लाइकोलिसिस कहते हैं। अभी तक यह अनुमान था कि कैंसर कोशिकाएं ग्लाइकोलिसिस का इस्तेमाल करती हैं क्योंकि उनके माइट्रोकॉण्ड्रिया नष्ट हो जाते हैं। माइकेलाकिस के प्रयोग से पता चलता है कि कैंसर कोशिकाओं के माइटोकॉण्ड्रिया खत्म नहीं होते। डीसीए कैंसर कोशिका में माइट्रोकॉण्ड्रिया को पुन: सक्रिय कर देती है। इसके बाद कोशिका मर जाती है। माइकेलाकिस का कहना है ऊर्जा के रुाोत के रूप में ग्लाइकोलिसिस का उपयोग तब शुरू होता है जब कोशिका किसी गठान के असामान्य पर्यावरण में होती हैैं। इसके चलते माइट्रोकॉण्ड्रिया को ठीक से काम करने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती है। इसके बाद वे जीवनयापन के लिए अपने माइटोकॉण्ड्रिया को बंद करके गलाइकोलिसिस के ज़रिए ऊर्जा उत्पन्न करने लगती हैं। मगर माइट्रोकॉण्ड्रिया कोशिका में एक और काम करता है - एपोप्टोसिस। एपोप्टोसिस वह प्रक्रिया है जिसके ज़रिए कोशिका खुदकुशी करती है। जब कोशिका अपने माइटोकॉण्ड्रिया को बंद कर देती है तो वे अमर बन जाती हैं। डीसीए के द्वारा एपोप्टोसिस दोबारा सक्रिय होता है और असामान्य कोशिका को मरने के लिए प्रोत्साहित करता है। युनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स कैंसर सेंटर के डायरेक्टर दारियो एलटिरी का कहना है कि इस दवा के परिणाम बहुत दिलचस्प हैं क्योंकि इसमें माइट्रोकॉण्ड्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका सामने आई है और स्पष्ट हुआ है कि इसे कैंसर के इलाज में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। पता नहीं कि इस दिशा में आगे क्या कदम उठाए गए हैं। (रुाोत फीचर्स)

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

What is Karma?

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 Karma is the Sanskrit word for action. One can think of karma as the spiritual equivalent of Newton’s Law of Motion. “For every action there is an equal but opposite reaction.” Basically, when we exhibit a negative force in thought, word, or action, that negative energy will come back to us. However, karma is not meant to be a punishment. It is present for the sake of education. How else is someone to learn how to be a good person if they are never taught that harmful action is wrong. A person only suffers if they have created the conditions for suffering.

The Great Law

"As you sow, so shall you reap". This is also known as the "Law of Cause and Effect". - If what we want is Happiness, Peace, Love, Friendship... Then we should BE Happy, Peaceful, Loving and a True Friend.

The Law of Creation

Life doesn't just HAPPEN, it requires our participation. - We are one with the Universe, both inside and out. - Be yourself, and surround yourself with what you want to have present in your Life.

The Law of Humility

One must accept something in order to change it. If all one sees is an enemy or a negative character trait, then they are not and cannot be focused on a higher level of existence.

The Law of Growth

“Wherever you go, there you are.” It is we who must change and not the people, places or things around us if we want to grow spiritually. When we change who and what we are within our hearts, our lives follow suit and change too.

The Law of Responsibility

-Whenever there is something wrong in my life, there is something wrong in me. - We mirror what surrounds us - and what surrounds us mirrors us; this is a Universal Truth. - We must take responsibility what is in our life.

The Law of Connection

The smallest or seemingly least important of things must be done because everything in the Universe is connected. Each step leads to the next step, and so forth and so on. Someone must do the initial work to get a job done. Neither the first step nor the last are of greater significance. They are both needed to accomplish the task.

The Law of Focus

One cannot think of two things at the same time. If our focus is on Spiritual Values, it is not possible for us to have lower thoughts like greed or anger.

The Law of Giving and Hospitality

If one believes something to be true, then sometime in their life they will be called upon to demonstrate that truth. Here is where one puts what they claim to have learned into practice.

The Law of Here and Now

One cannot be in the here and now if they are looking backward to examine what was or forward to worry about the future. Old thoughts, old patterns of behavior, and old dreams prevent us from having new ones.

The Law of Change

History repeats itself until we learn the lessons that we need to change our path.

The Law of Patience and Reward

All Rewards require initial toil. Rewards of lasting value require patient and persistent toil. True joy comes from doing what one is supposed to be doing, and knowing that the reward will come in its own time.

The Law of Significance and Inspiration

One gets back from something whatever they put into it. The true value of something is a direct result of the energy and intent that is put into it. Every personal contribution is also a contribution to the Whole. Karma is a lifestyle that promotes positive thinking and actions. It also employs self-reflection to fix the problems in one’s life.
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सोमवार, 14 दिसंबर 2015

लाला जगदलपुरी जयंती 17 दिसम्बर को

"बस्तर के महाकवि", "साहित्य ऋषि" और "अक्षरादित्य" आदि नामों से जाने जाने वाले प्रणम्य साहित्यकार लाला जगदलपुरी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को याद करने के लिये 17 दिसम्बर 2015 को कोंडागाँव में "लाला जगदलपुरी जयंती" आयोजित करने का निर्णय "लाला जगदलपुरी जयंती आयोजन समिति" कोंडागाँव द्वारा लिया गया है। 
स्मरण रहे कि 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे और लम्बी अस्वस्थता के बाद 93 वर्ष की आयु में 14 अगस्त 2013 की संध्या 07.00 बजे प्रयाण कर गये लाला जगदलपुरी जी ने साहित्य के माध्यम से बस्तर की अप्रतिम सेवा की। हिन्दी के साथ-साथ हल्बी, भतरी एवं छत्तीसगढ़ी में भी कविता, गीत, मुक्तक, नाटक, एकांकी, निबंध आदि साहित्य की अनेकानेक विधाओं पर 1936 से सृजन आरम्भ करने वाले लालाजी ने अपने अन्तिम समय से कुछ ही दिनों पहले अपनी अस्वस्थता के कारण लेखन-कर्म छोड़ दिया था। उनकी पुस्तक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" ने उन्हें पूरे देश में चर्चित कर दिया था। यह पुस्तक "मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी", भोपाल से प्रकाशित हुई थी और इसकी इतनी माँग थी कि प्रकाशक को इसके कई-कई संस्करण प्रकाशित करने पड़े। आज यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है जबकि माँग जस-की-तस बनी हुई है। इसी माँग को देखते हुए शीघ्र ही इसका नया संस्करण राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहा है। उनकी अन्तिम पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ सम्पादित) 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई। यह पुस्तक भी पूरे देश में चर्चित हुई और आज भी हो रही है। इसके भी अब तक दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें अन्यानेक सम्मानों के साथ ही छत्तीसगढ़ राज्य के सर्वोच्च राजकीय साहित्य सम्मान "पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य/आंचलिक साहित्य अलंकरण" से 2005 में विभूषित किया गया था। 
इस आयोजन में लालाजी के सम्पर्क में रहे किन्तु अब बस्तर से बाहर रह रहे कई ख्यातनाम साहित्यकार  शिरकत करेंगे।

(हरिहर वैष्णव)
संयोजक
लाला जगदलपुरी जयंती आयोजन समिति
कोंडागाँव