रविवार, 7 अगस्त 2011

नहीं मानेंगे अन्ना, प्रशासन है चौकन्ना


डॉ. महेश परिमल
भ्रष्टाचार इस देश की रग-रग में समा गया है। भ्रष्टाचार के बिना इस देश का पत्ता तक नहीं हिलता। इसके बिना तो बच्चे को स्कूल में एडमिशन तक नहीं मिलता। भ्रष्टाचार से ही थाने में किसी के खिलाफ एफआईआर लिखाई जा सकती है। भ्रष्टाचार के बिना चुनाव नहीं लड़ा जा सकता।  भ्रष्टाचार के बिना रोड बनाने के लिए ठेकेदार नही मिलता। इसके बिना न तो नौकरी मिलती है और न ही राशनकार्ड, और तो और बिना लेन-देन के आप अपना ड्राइविंग लायसेंस बनवाकर देख लें। भ्रष्टाचार से केवल हमारा ही देश नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ही इससे ग्रस्त है। सभी के लिए यह एक महारोग है। यह अच्छी बात है कि अन्ना हजारे ने देश में फैेले भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सरकार के खिलाफ लड़ाई शुरू की है। परन्तु सोचो, क्या एक लोकपाल की नियुक्ति हो जाने से गाँवों में होने वाले पुलिस अत्याचार कम हो जाएँगे? पटवारी ग्रामीणों से रिश्वत लेना बंद कर देंगे। सरकारी कार्यालयों में बाबू बिना दाम के लोगों का काम करना शुरू कर देंगे? एक लोकपाल की नियुक्ति से ही क्या पूरे देश में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? यह सोचना एक दिवास्वप्न ही है। देश में भ्रष्टाचार एक श्सिस्टम यानी व्यवस्था्य से पैदा हुआ है। जब तक सिस्टम नहीं बदला जाएगा, तब तक देश से भ्रष्टाचार को दूर नहीं किया जा सकता।
अन्ना साहब से यही कहना है कि भ्रष्टाचार ही इस देश की सबसे बड़ी समस्या नहीं है। गरीबी और भुखमरी इस देश की उससे बड़ी समस्या है। इसी देश में हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या करता है। इसकी वजह यही है कि उसकी फसल जब तक तैयार होती है, तब तक उसके बाजार भाव गिर जाते हैं। ओड़ीशा के जंगलों में एक विदेशी कंपनी को आदिवासियों की जमीन दी जा रही है। उमुम्बई के उपनगर धारावी की झोपड़पट्टी पर रहने वाले नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश में रोज एक दर्जन से अधिक किशोरियों से बलात्कार होता है। विरोध करने वाली किशोरी की आँखें भी निकाली जाने लगी है। मुम्बई में सरकार का नहीं, पर अंडरवल्र्ड का शासन चल रहा है। देश की राशन दुकानों का माल सीधे बाजार पहुँच रहा है। वायदा बाजार से व्यापारी खूब कमा रहे हैं। गरीबों का लगातार शोषण हो रहा है। खुलेआम नफरत की आग फैलाई जा रही है। अनशन के पहले जिसे चार मंत्री मनाने जाते हों, अनशन करने पर उसे डंडे से मार कर भगा दिया जाता हो। उसके बाद उस पर तमाम कानूनों का इस्तेमाल किया जाता हो, ऐसा केवल इस देश में ही हो सकता है। इस तरह की बहुत सी समस्याएँ हैं, जिनको लेकर अन्ना अनशन कर सकते थे। ये नहीं हो सकता, तो कम से कम केरोसीन, पेट्रोल और डीजल के दाम कम करने के लिए तो अनशन कर ही सकते थे।
जब अन्ना ने देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर अनशन करने की घोषणा की है, तब से उनके साथ कुछ समझदारों लोगों की एक टीम भी शामिल हो गई है। आज अन्ना के हर साथी का अपना अलग एजेंडा है। जब तक वे उपवास कर रहे थे, तब तक सब ठीक था, जैसे ही सरकार ने उनकी बात मान ली, सभी अपना-अपना राग अलापने लगे। अन्ना ने जब सरकार की बात को मानते हुए लोकपाल विधेयक तैयार करने के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी बनाई, उसमें जिन्हें शामिल किया गया, उन पर कई तरह के आरोप लगने लगे। प्रशांत भूषण और शांतिभूषण पर आरोप लगे, स्वामी अग्निवेश पर नक्सलियों से सांठगाँठ के आरोप लगे, किरण बेदी पर अपनी लड़की का प्रवेश मेडिकल कॉलेज में कराने के लिए गलत तरीके का इस्तेमाल करने का आरोप लगा। मल्लिका पर कबूतरबाजी का आरोप लगा। उधर बाबा रामदेव ने भी अनशन किया, टीवी ने खूब टीआरपी बढ़ाई, हश्र यही हुआ कि पुलिस के डर से बाबा को महिला के वेश धारण कर भागना पड़ा। अब अन्ना ने तय कर ही लिया है कि 16 अगस्त स अनशन पर बैठना ही है। जो मानवीयता की थोड़ी सी भी समझ रखते हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि अन्ना कहीं न कहीं बच्चों से भी अधिक जिद्दी हैं। वे सरकार को हर बात बंदूक की नोक पर मनवाना चाहते हैं। एक आशंका यह है कि उन पर किसका वरदहस्त है। कहीं वे किसी गुप्त संगठन के इशारे पर तो काम नहीं कर रहे हैं? संभवतरू यह संगठन चाहता है कि हमारा देश आंदोलन, उपवास से अराजकता की स्थिति में पहुँच जाए। ताकि 1914 में होने वाले चुनावों में अपनी ताकत सिद्ध कर सकें। अन्ना की टीम में जो लोग हैं, उनमें इतनी कूब्बत नहीं है कि किसी गाँव में जाकर सरपंच का चुनाव जीत सकें। ये सभी फेसबुक पर सक्रिय दिखाई देेते हैं। धन इनके पास अपार है, लेकिन इनमें प्रचार की भूख है, इसी कारण लाइट में आने के लिए ये छटपटाते रहते हैं।
लगता है अन्ना इतिहास में अपनानाम जयप्रकाश की तरह अमर करना चाहते हैं। वे गांधीवादी हैं, इसमें कोई शक नहीं, पर वे इतने अधिक पढ़े लिखे नहीं है कि एक प्रजातांत्रिक देश के कानून को अच्छी तरह से समझ सकें। कंप्यूटर की भाषा में कहें, तो अन्ना हार्डवेयर हैं और सिविल सोसायटी उनका साफ्टवेयर। अपने उपवास से अधिक वे उसकी पब्लिसिटी में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। वे कांगे्रसाध्यक्ष को चुपचाप पत्र लिखते हैं और जब उसका जवाब आता है, तो उसे तुरंत मीडिया को दे देते हैं। ताकि सोनिया जी को पता चल जाए कि उन्होंने अन्ना के पत्र का जो उत्तर दिया था, वह उनके पास पहुँच गया है। एक बात तो है कि अगर अन्ना के पीछे से मीडिया हट जाए, तो न तो उनका अनशन चल पाएगा और न ही उनकी पब्लिसिटी हो पाएगी, क्योंकि उनका आंदोलन मीडिया को लक्ष्य करने वाला है। अन्ना सड़क की राजनीति कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि लोकपाल विधेयक के दायरे में प्रधानमंत्री और सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों एवं सांसदों का भी समावेश हो। इस बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि उन्हें तो कोई गुरेज नहीं है। परंतु अन्ना सड़क पर बैठकर सरकार को अपनी तरह से चलाना चाहते हैं। किसी भी प्रस्ताव को कानून बनाना हो,तो उसकी एक प्रक्रिया होती है। छोटे से छोटे प्रस्ताव को लाना होता है, तो प्रजा का अभिप्राय जानना होता है। इसके अलावा अन्य राजनैतिक दलों से बातचीत करनी होती है। लोगों से इस पर आपत्ति मँगानी होती है। लोकसभा में सांसद इस पर बहस करते हैं। इन सारी प्रक्रियाओं को दरकिनार रखते हुए अन्ना की टीम, जिसमें पिता-पुत्र वकील, स्वामी का वेश धारण करने वाले एक एक्टिविस्ट कहते हैं कि जैसा हम कह रहे हैं वैसा ही करो, नहीं तो अनशन। यह तो सीधा-सीधा भयादोहन यानी ब्लेकमेलिंग है। नागरिकों की भावनाओं को उकसाकर अनुशासित लोकतंत्र की सारी प्रक्रियाओं को ताक पर रखने वाली बात है। देश की 121 करोड़ की आबादी में से 98 प्रतिशत लोगों को यही नहीं मालूम कि ये सिविल सोसायटी आखिर क्या हे? देश में अनेक बुद्धिशाली कानूनविद हैं, पर अन्ना ने पिता-पुत्र की जोड़ी को ही आखिर क्यों पसंद किया?
अन्ना शायद यह भूल जाते हैं कि लोकपाल के रूप में जो व्यक्ति आएगा, वह भी तो एक इंसान ही होगा। ईश्वर तो नहीं होगा? मान लो कि भ्रष्टाचार विरोधी जाँच के लिए सेंट्रल विजिलेंस कमिशन के चेयरमेन के रूप में थामस जैसा कोई विवादास्पद व्यक्ति का चयन हो गया? ऐसी स्थिति में क्या वह सबके साथ न्याय कर पाएगा? लोकपाल स्वयं भ्रष्ट नही होगा, इसकी गारंटी देने वाला कौन होगा? क्या अन्ना बता सकते हैं कि इस देश मे कौन ईमानदार है? भूतकाल में सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों पर भी आरोप लगे हैं। ऐसे में एक ईमानदार लोकपाल की कल्पना कैसे की जा सकती है? अन्ना कहीं समानांतर सरकार चलाने की चाहत रखने वाले कथित चरमपंथियों से तो नहीं मिल गए? भारत के प्रधानमंत्री कानूनी रूप से एक श्संस्था ्य हैं, व्यक्ति नहीं। उस पद की गरिमा का भी हमें खयाल रखना होगा। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री के सर पर लटकती तलवार हो, तो वे देश का संचालन नहीं कर पाएँगे। यदि उनके द्वारा कोई गलत काम होता है, तो वे सजा के हकदार हैं, पर जब तक वे एक सरकार को अनुशासित रूप से चला रहे हैं, तो उन्हें सरकार चलाने देना चाहिए।
क्या अन्ना को इतना भी नहीं पता कि भारत में प्रजातंत्र होने के बाद भी वह जातिवाद के दायरे से आज तक बाहर नहीं निकल पाया है। मायावती खुलेआम सवर्णों को मनुवादी कहकर उन्हें भला-बुरा कहती रहती हैं। कांगे्रस मुस्लिमों को रिझा रही है। उधर भाजपा हिंदुओं को रिझाने में लगी है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे बिहारियों से नफरत करते हैं। उधर कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों से नफरत करते हैं। क्या लोकपाल इन सबसे अलग होगा? ये सभी अत्यंत नाजुक और संवेदनशील मुद्दे हैं। इन सब पर पूरी चर्चा होनी चाहिए। लोकपाल बिल पर समग्र चर्चा के बाद ही इस पर विचार किया जाना चाहिए। हमारे देश का एक-एक सांसद अपने क्षेत्र के करीब दस से बीस लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। आखिर सांसदों अपने मतदाताओं के प्रति भी कुछ जवाबदार हैं। अब अगर अन्ना सड़क पर बैठकर सरकार को तारीख दे दें, कि इस तारीख तक उनका बनाया हुआ लोकपाल विधेयक पारित कर दिया जाए, नहीं तो अनशन। एक प्रजातांत्रिक देश में इस प्रकार से कोई असंवैधानिक कार्य करे, तो सरकार अपना बचाव तो करेगी ही। बिना चुनाव लड़े अन्ना गांधीजी के नाम पर तानाशाह बनना चाहते हैं, ऐसा कभी हो सकता है। कानून बनाने का काम सड़क पर बैठे कुछ लोगों का नहीं है। वह काम पार्लियामेंट का है। अन्ना का गर्व कुछ दिनों पहले टीवी के एक साक्षात्कार के दौरान दिखा- मैं एक मंदिर में 10 बाय 8 फीट के एक कमरे मे ं रहता हूँ, पर मैंने महाराष्ट्र के 6 मंत्रियों का विकेट गिराया है। इस प्रकार की भाषा उनके भीतर बैठे किसी दंभी व्यक्ति की लगती है। इसके अलावा जब वे कहते हैं कि ये सरकार तो अब जाने वाली है, तो क्या यह भाषा किसी गांधीवादी की लगती है आपको?
अब यदि अन्ना पेट्रोल-डीजल की भारी कीमतों को कम करने के लिए उपवास करते हैं आंदोलन करते हैं, तो इस देश का बच्चा-बच्चा उनके साथ होगा। पर किसी के इशारे पर सरकार को परेशान करने की बात करते हैं, तो उनकी ईमानदारी पर शक होता है। मात्र कुछ लोग अन्ना को चला रहे हैं और अन्ना इनसे पूरा देश चलाना चाहते हैं? यदि उनकी नीयत साफ होती, तो उनका यह आंदोलन तो बहुत पहले शुरू हो जाना था। भ्रष्टाचार के अलावा इस देश में ऐसी बहुत सी समस्याएँ हैं, जिन पर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराना आवश्यक है।
डॉ. महेश परिमल