शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

हाशिए की छवियां


मीनाक्षी

अनिता एक धारावाहिक ‘उतरन’ देखने अक्सर मेरे यहां आती। दो साल
पहले जब मैं यहां रहने आई, तब वह पूछने आई थी कि मुझे किसी काम
वाली की जरूरत तो नहीं। मेरी गृहस्थी बहुत छोटी थी, सो काम भी कुछ खास
नहीं था। पर बाहर दरवाजे पर ही टका-सा जवाब देकर लौटाना मुझे उचित नहीं
लगा, इसलिए मैंने उसे अंदर बुला लिया। मैं देख रही थी कि शीतलहरी की हाड़
कंपकंपाती सर्दी का मुकाबला करने में उसकी हल्की और मामूली किस्म की
शॉल नाकाफी थी। लेकिन जब मैंने उसे चाय का प्याला पकड़ाना चाहा तो उसने
मना कर दिया। बाद में उसने बताया कि महानगरीय व्यवहार के विपरीत मेरे
आचरण से उसे अपने प्रति बेचारगी दिखाने का अहसास हुआ था। गरीबी उसकी
खुद्दारी को खत्म नहीं कर सकी थी। टुकड़े-टुकड़े में मैंने जाना कि वह जिस
झुग्गी बस्ती में रहती है, वहां की आधी से अधिक स्त्रियां किसी न किसी श्रम के
काम में लगी हुई हैं। पौ फटते ही वे काम के लिए निकल जाती हैं और दिन ढले लौटती हैं
और अक्सर ओवरटाइम के चलते रात भी हो जाती है। कुछ उसके जैसी स्त्रियां घरों में
जाकर बर्तन-बासन का काम करती हैं और कुछ घर पर ही रह कर लिफाफे या जरी
बनाती हैं। इतनी मेहनत के बाद भी उनका गुजर जैसे-तैसे ही हो पाता था।
मैं सोचने लगी कि हमारे चारों तरफ अपनी मौजूदगी के बावजूद ये स्त्रियां
गुमनाम क्यों हैं? सच तो यह है कि हाड़तोड़ मेहनत करने वाली यही स्त्री वास्तव में
उस बहुसंख्यक स्त्री आबादी का प्रतिनिधि चरित्र है। लेकिन उसका जीवन और
उसकी जद्दोजहद हमारी नजरों से ओझल ही रहते हैं। किशोरावस्था में मंजुल भगत
की जिस मेहनतकश ‘अनारो’ से मैं रूबरू हुई थी, वह आज कहीं गुम हो चुकी है।
शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ से शब्द उधार लें तो यह ‘विच्छिन्न हो चुका समय’
है, जिसमें बाजार के मायाजाल ने साहित्य को भी स्तब्ध कर रखा है।
मीडिया के लिए ऐसी स्त्री तो और भी बेगानी है। वहां मध्य या अभिजात वर्ग की
बिंदास या मुक्ति के मिथ्या आभास में जीती सुखी-संतुष्ट स्त्रियां छाई हुई हैं। सामान्य
पत्र-पत्रिकाओं, खासकर उनके दैनिक और साप्ताहिक परिशिष्टोें में स्त्री की मौजूदगी
तरह-तरह की कामुक और अश्लील मुद्राओं में रहती है या स्तरीय समझे जाने वाले
किसी पत्र या पत्रिका में उनका जिक्र ‘स्त्री-सुलभ’ समस्याओं या चिंताओं को लेकर
होता है। शोषण-उत्पीड़न खबर तो बनती है, लेकिन अधिकतर ऐसे मामलों में जहां
इसके साथ ‘यौन’ का विशेषण लगा हो। वहां सहानुभूति नहीं, एक रसभोगी मानसिकता
काम करती है। चैनलों पर ऐसी खबरों की रिपोर्टिंग में यह बात और अधिक स्पष्ट
होकर सामने आती है। अगर कहीं स्त्री आबादी से जुड़े सरोकारों की बात की जाती है
तो उसे देखने का नजरिया अभिजात वर्गीय होता है। मेहनतकश औरतों की वास्तविक
समस्याएं और उनके जीने और काम करने का दमघोंटू परिवेश शायद ही अपनी
उपस्थिति दर्ज करा पाते हैं। इसकी चर्चा अगर कभी होती भी है तो महज इसलिए कि
उसकी कातरता पर करुणा से विगलित होने का संतोष पाया जा सके।
स्त्रियों को लेकर टीवी चैनल तो पूरी एक मायावी दुनिया ही रचते हैं। छोटे परदे के
लगभग सभी धारावाहिकों या अन्य मनोरंजन कार्यक्रमों में मौजूद स्त्रियां एक-सी सांचेखां
चे में ढली होती हैं। यहां तक कि अलग-अलग कथा धारावाहिकों में भूमिका निभाने
वाली लगभग सभी स्त्री पात्रों की संवाद अदायगी के अंदाज, अंग संचालन और भाव
मुद्राओं में एक जैसी अस्वाभाविकता मौजूद होती है। उनके शौक और शगल, आजादी
और सौंदर्य भी नकली लगते हैं। समाचार वाचन या परिचर्चा संचालन जैसी बौद्धिक
प्रस्तुतियों में भी उनकी शैली और भाव-भंगिमाओं में इतनी साम्यता होती है कि उनके
व्यक्तित्व की खासियत मिट जाती है। याद आता है करीब पच्चीस साल पहले, जब
बाजार की हठधर्मितापूर्ण घुसपैठ समाज के पोर-पोर तक नहीं हुई थी, कुछ समाचार
वाचिकाओं की सादगी और व्यक्तित्व से हम प्रभावित होते थे और उनकी वाचनशैली
और भाषा की शुद्धता उन्हें अपने समकक्षों से अलग और खास बनाती थी।
दरअसल, बाजार को आज वैसी स्त्रियों की जरूरत है जो उसके बनाए चौखटे के
अनुरूप ढल सकें। आम मेहनकश स्त्री की जिंदगी और कठिनाइयां, उसका शोषण-
उत्पीड़न तभी अपनी उपस्थिति बना पाता है, जब उनसे चकाचौंध पैदा की जा सके।
सीमा परिहार एक शोषित उत्पीड़ित स्त्री के रूप में हमेशा हाशिए पर ही रही। अपने
दस्यु रूप में, खासकर उस छवि से जुड़े चौंक-चमत्कार के चलते वह जानी तो गई
पर दिलचस्पी और चर्चा के दायरे में वह तभी आई जब ‘बिग बॉस’ के रियलिटी शो
ने उसे एक खास सांचे में ढाल कर पेश किया।

अनिता जिस ‘उतरन’ धारावाहिक को इतनी रुचि के साथ देखती है और उसके
जिन चरित्रों (गरीब नौकरानी और उसकी बेटी) में वह अपने जैसों की पहचान ढूंढ़ना
चाहती है, वे बाजार द्वारा गढ़ी दुनिया के नकली चरित्र हैं। जिस दिन अनिता उस
नकलीपन को समझ जाएगी, अपने जैसी मेहनतकश स्त्रियों के वास्तविक सपनों और
आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उसे किसी नकली सहारे की जरूरत नहीं पड़ेगी।

(जनसत्‍ता से साभार)