शनिवार, 14 मई 2011

नामकरण के आग्रह



अनिल चमड़िया
मैं समझता हूं कि मेट्रो स्टेशनों के नामों के निर्धारण के लिए एक प्रक्रिया
होगी। मैं उस प्रक्रिया को समझना चाहता हूं, लेकिन उसके साथ मैं मेट्रो
प्रमुख ई श्रीधरन का ध्यान स्टेशनों के कुछ नामों की ओर ले जाना चाहता हूं।
मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि इनके निर्धारण और संबोधन के पीछे पूर्वग्रह
सक्रिय हैं। भारतीय समाज और संस्कृति में विविधता के बारे में श्रीधरन जी
मुझसे ज्यादा जानते हैं। मैं पहला सवाल यह पूछना चाहता हूं कि गुरु
तेगबहादुर नगर को ‘जीटीबी नगर’ क्यों संबोधित किया जाता है? क्या राजीव
चौक को ‘आरसी’ संबोधित किया जा सकता है? किसी नामकरण के पीछे
एक निश्चित उद्देश्य होता है। उसके संक्षिप्तिकरण से उसके उद्देश्यों में भटकाव
आता है। यह समझने की कोशिश आखिर क्यों की जाए कि जीटीबी का क्या
अर्थ होता है! क्या सिखों की भावनाओं को इससे ठेस नहीं लगती होगी?
ऐसे सवालों की गंभीरता को शायद एक घटना से समझ सकते हैं। एक
यात्री ने ‘यमुना बैंक’ स्टेशन पहुंच कर यह सोचा कि यहां इस नाम का कोई बैंक
होगा। अंग्रेजी में बैंक का अर्थ तट होता है और अगर यमुना तट की जगह यमुना बैंक
नाम रखा गया है तो इसके पीछे क्या उद्देश्य हो सकते हैं? किसी भी शब्द की रचना
समाज की बड़ी धरोहर होती है। लंबी प्रक्रिया के बाद शब्द सामान्य जन में पहुंचता
है। शब्द की अर्थवत्ता में छवि और कल्पनाएं भी होती हैं। तट की यात्रा आधुनिक
सभ्यता के विकास के साथ शुरू होती है। यमुना पर एक कविता की पंक्ति यों है‘
यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे...।’ मैं यह पंक्ति केवल उदाहरण के
लिए श्रीधरन जी के सामने रख रहा हूं, ताकि उन जैसे संवेदनशील लोग एक शब्द के
महत्त्व को समझ सकें। एक पूरा रचना संसार एक शब्द की अर्थवत्ता से जुड़ा होता है।
यमुना बैंक के नामकरण की प्रक्रिया में यह सोचने तक की जरूरत महसूस क्यों नहीं
की गई कि यमुना तट की जगह यमुना बैंक के नामकरण से उसका अर्थ ही बदल
जाता है। दो भाषाओं के इस तरह मिश्रण से संचार के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है।
यह किसी समाज की आभिजात्य संस्कृति का भी परिचायक नहीं, बल्कि एक
भौंडापन है। यह सांस्कृतिक विरासत के साथ खेल है। चूंकि इस समय हिंदी या
दूसरी भारतीय भाषाओं के समाज पर तरह-तरह के सांस्कृतिक आक्रमण चल रहे
हैं, ऐसे में बहुत सारे सवालों पर कोई आवाज नहीं उठ रही है। लेकिन मैं श्रीधरन
जी को यह कहना चाहता हूं कि मेट्रो महज ट्रेन सेवा नहीं है। इसके जरिए एक
भाषा और संस्कृति भी संचरित होती है। मैं तो यहां तक समझता हूं कि मेट्रो
महानगरीय सभ्यता की नदी का किनारा है।
मैं अपनी उस विरासत को हर संभव तरीके से सुरक्षित करने का पक्षधर हूं जो
समाज को जोड़ने में जरा भी मदद करता हो। मेरी समझ में यह बात नहीं आई कि
आखिर वजीरपुर के नाम से स्टेशन का नामकरण क्यों नहीं किया गया? क्या ‘नेताजी
सुभाष पैलेस’ और वजीरपुर एक साथ सुरक्षित नहीं रह सकते थे। पुरानी दिल्ली
स्टेशन के बजाय हमने ‘चांदनी चौक’ का नामकरण आखिर किस उद्देश्य से किया?
आखिर क्यों एक तरह की संवेदना और समझ दूसरी जगहों पर निष्क्रिय हो जाती है?
यह हमारे भीतर पूर्वग्रहों को टटोलने की जरूरत बताता है। इसी तरह कालकाजी
इलाके का नाम है और स्टेशन का नामकरण ‘कालकाजी मंदिर’ के नाम पर किया
गया। क्या हमें नहीं लगता है कि स्टेशन का नाम ‘कालकाजी’ हमारे समाज के लिए
बेहतर होता? मैं यह साफ करना चाहता हूं कि अक्षरधाम के पास के स्टेशन का
नामकरण इसके नाम पर किया गया। वहां शायद कोई और प्रसिद्ध जगह नहीं हो। मैं
समझता हूं कि समाज में कई तरह के लोग हैं और उनकी मानसिकता विभाजनकारी
है। मैं यह कई स्तरों पर ऐसे लोगों और संगठनों की नामकरण के समय सक्रियता के
मद्देनजर कह रहा हूं। ऐसे लोगों को लगता है कि उनकी सांस्कृतिक लड़ाई का
आधार इस तरह के नामकरणों से ही तैयार होता है।
इसके अलावा, मेट्रो में अंग्रेजी से हिंदी के जो अनुवाद प्रसारित किए जाते हैं, वे
चाहे लिखने में हों या बोलने में, उनकी भाषा के प्रति भी श्रीधरन जी को
संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। ‘दूरी का ध्यान रखें’- अंग्रेजी के जिस वाक्य
के लिए इस तरह के अनुवाद किए गए हैं, उस पर गौर करें। यहां स्टेशन पर उतरने
वाले यात्रियों को सावधानी बरतने की सलाह दी जा रही है। लेकिन हिंदी में यह
किस अर्थ के साथ संप्रेषित हो रहा है? हिंदी में अनुवादकों की एक धारा सृजनशील
नहीं है। उसके पूर्वग्रह इतने जड़ हैं कि वह इस उद्देश्य में यकीन नहीं करता है कि
अपनी भाषा के जरिए एक अर्थ संप्रेषित करना है। उसकी संवेदना में जनमानस नहीं
होता है। मेट्रो को जन-अनुवादकों की जरूरत है। सवाल है कि भारतीय भाषाओं
की सृजनशीलता को मेट्रो प्रशासन लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए क्यों नहीं
उपयोग करता है। अंग्रेजी की मानसिकता से भारतीय जनमानस के साथ संवाद
करने की प्रेरणा ही सांस्कृतिक घपलेबाजी के मूल में है।

अनिल चमड़िया
 (जनसत्‍ता से साभार)