रविवार, 29 अप्रैल 2012

फिर निकला बोतल ने बोफोर्स का जिन्न

डॉ. महेश परिमल
बोफोर्स कांड हमारे देश के लिए एक बदनुमा दाग है। लेकिन इस दाग को धोने की कभी कोई ईमानदाराना कोशिश नहीं हुई। देखा जाए,तो बोफोर्स से बड़ा कांड तो उसे दबाने का है। राजीव गांधी सरकार की पूरी कोशिश रही कि इसमें धन किसने लिया है, उसका नाम कभी सामने न आने पाए। पूरी कवायद इस मामले को दबाने की ही रही है। इसीलिए यह मामला इतना संगीन था, पर इस देश की कई पीढ़ियाँ भी बोफोर्स के सही अपराधी का नाम नहीं जान पाएँगी। यह भारतीय राजनीति का ऐसा दु:स्वप्न है, जिसे दोबारा देखना किसी हादसे से कम नहीं होगा। राजनेताओं की ढिलाई किस हद तक हो सकती है, यह इस मामले से जाना जा सकता है। सत्ता के दलाल अपना खेल खेल जाते हैं और प्रजातंत्र सिसकता रहता है।
बोफोर्स कांड पहली बार 15 अप्रैल सन् 1987 में सामने आया था। मानो इस घटना की सिल्वर जुबली हुई हो, इस तरह से यह मामला एक बार फिर भारतीय राजनीति के परिद़श्य में छा गया है। इस बार इसका खुलासा स्वीडन के भूतपूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टार्म के एक साक्षात्कार से हुआ है। अपने साक्षात्कार में लिंडस्टार्म ने बताया है कि इटैलियन व्यापारी ओक्टोवियो क्वात्रोची की भूमिका पर पूरी तरह से परदा डालने के लिए उन पर भारत के बड़े नेताओं का दबाव था। उन्होंने दूसरी चौंकाने वाली बात यह कही कि इस मामले में राजीव गांधी के मित्र अमिताभ बच्चन के खिलाफ किसी भी तरह का सबूत न होने के बाद भी उन्हें फँसाने के लिए भी दबाव था। इस रहस्योद्घाटन से अमिताभ बच्चन को काफी राहत हुई है। उनके अनुसार दु:ख इस बात का है कि ऐसा उनके माता-पिता के रहते नहीं हो पाया। उन्हें निर्दोष साबित होने में 25 वर्ष लग गए। यहाँ सवाल यह उठता है कि अमिताभ को फँसाने और ओक्टोवियो क्वात्रोची को बचाने के लिए आखिर किस नेता ने दबाव बनाया था। इसका खुलासा क्यों नहीं हो पा रहा है? बोफोर्स कांड तो केवल 64 करोड़ रुपए का था, 2 जी स्पेक्ट्रम 1.75 लाख करोड़ के आगे यह राशि तो कुछ भी नहीं है। बोफोर्स कांड पिछले 25 वर्षो से देश की राजनीति में बार-बार सामने आता रहा है और हर बार गांधी परिवार को शर्मसार होना पड़ा है। इस कांड का मुख्य आरोपी कौन है, क्या भारतीय जनता कभी उसका नाम जान पाएगी? यह प्रश्न पिछले 25 सालों से देश को मथ रहा है।
मामले को दबाने की पूरी कोशिश हुई
15 अप्रैल 1987 को बोफोर्स कांड का धमाका स्वीडन रेडियो पर हुआ था। इस सौदे में 64 करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी। तब राजीव गांधी सरकार हिल गई थी। इस रिश्वत को देने के लिए भारतीय राजनेताओं और दलालों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए इटली के व्यापारी ओक्टोवियो क्वात्रोची का उपयोग किया गया था। क्वात्रोची गांधी परिवार का काफी करीबी था। इस कांड में शंका की सूई सदैव राजीव गांधी पर ही जाकर टिकती थी। इसीलिए इसकी लीपापोती करने के लिए एक बड़ा ऑपरेशन किया गया। ऐसा ऑपरेशन भारतीय राजनीति में इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। यह ऑपरेशन बोफोर्स से भी बड़ा कांड था। इसमें सीबीआई और आईबी का खूब इस्तेमाल भी किया गया। जब यह कांड बाहर आया, तब सीबीआई जैसी भारत की मुख्य जाँच एजेंसी को इस मामले की तह पर जाने के लिए कहा गया। सीबीआई के अधिकारी जाँच के बहाने यूरोप के अनेक देश घूम आए। उनका इरादा साफ था कि इसके सबूत को खोजने के बजाए उसे नष्ट कर दिया जाए। किसी भी रूप में यह मामला सामने न आए, इसकी पूरी कोशिश हुई। इसके लिए जो मशक्कत की गई, उसकी पटकथा राजीव गांधी ने लिखी थी। इसीलिए शक की सूई बार-बार राजीव गांधी पर आकर अटक जाती थी। इस कांड के चलते राजीव गांधी को सत्ता से दूर होना पड़ा था। उनके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने थे। राजीव गांधी ने जिस तरह से बोफोर्स कांड पर परदा डालने के लिए जाँच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल किया था, छीक उसी तरह वी.पी. सिंह सरकार ने इस मामले में राजीव गांधी की भूमिका को पर्दाफाश करने के लिए इन संस्थाओं क दुरुपयोग किया। वी.पी. सिंह के सचिव भूरे लाल के अनुसार स्व. राजीव गांधी के आर्थिक व्यवहार की जाँच के लिए यूरोप की एक निजी जाँच एजेंसी की सेवाएँ ली गई थी। इस एजेंसी ने जो कुछ भी जानकारी हासिल की, उसे कुछ पत्रकारों को देकर राजीव गांधी की छवि को धूमिल करने पूरी कोशिश की गई। उस समय राजीवन गांधी विपक्ष के नेता थे। वी.पी. सिंह के तमाम प्रयासों केबाद भी बोफोर्स कांड का सत्य बाहर नहीं आ पाया।
स्टेन ने ही दिए थे चित्रा को कागजात
बोफोर्स के बारे में जो कुछ हम जानते हैं, उसमें हिंदू अखबार की पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम की महत्वपूर्ण भूमिका है। 1987 में जब यह कांड बाहर आया, तब वे जिनेवा में पदस्थ थीं। उस समय स्वीडन के पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टार्म थे। उन्हीं ने चित्रा को बोफोर्स के गुप्त कागजात सौंपे थे। भारत में जब इस कांड ने तहलका मचाया, तब प्रजा के विरोध के चलते जाँच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट दो वर्ष बाद आई। आश्चर्य की बात यह है कि 1987 के अगस्त में यह मामला बाहर आया, लेकिन सीबीआई ने 1989 तक इसकी एफआरआई नहीं लिखी थी। मतलब यही कि जब तक राजीव गांधी प्रधानमंत्री रहे, तब तक इसी एफआरआई ही नहीं लिखी गई। 1989 में जब लोकसभा के चुनाव हुए, तब कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला, तब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। उसके बाद जनवरी 1990 में इस मामले की एफआईआर सीबीआई ने लिखी। 1991 की मई में राजीव गांधी की हत्या हो गई। लोकसभा चुनाव हुए और नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने, तब बोफोर्स मामले की जाँच सीबीआई ने ढीली कर दी। आश्चर्य की बात यह है कि उस समय ओक्टोवियो क्वात्रोची भारत में ही था। वह तो जुलाई 1993 में भारत से चला गया। सीबीआई की वर्षो की मेहनत से यह सामने आया कि स्वीस सरकार ने 1997 में अपने बैंक के गुप्त खातों की जानकारी दी। जिसमें बोफोर्स कांड की रिश्वत जमा होने की जानकारी दी गई। स
क्वात्रोची निर्दोष साबित
ीबीआई ने 1997 के अंत में बोफोर्स मामले में जो चार्ज शीट फाइल की, उसमें स्व. राजीव गांधी के अलावा ओक्टोवियो क्वात्रोची, बोफोर्स कंपनी के भूतपूर्व प्रमुख मार्टिन आर्डबो, बोफोर्स के भारत के एजेंट विन चड्ढा, तत्कालीन रक्षा सचिव एस. के. भटनागर आदि का नाम थ। जब यह आरोप पत्र फाइल किए गए, तब क्वात्रोची मलेशिया में था। उसकी धरपकड़ के लिए सन् 2000 में भारत सरकार द्वारा मलेशिया सरकार को पत्र भी लिखा गया था। इस समय सत्ता पर एनडीए सरकार थी। तब प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। किन्हीं कारणवश सरकार ने बोफोर्स कांड की जाँच को धीमा करने का आदेश दिया गया। इसका लाभ क्वात्रोची ने भरपूर उठाया। मलेशिया सरकार ने उसे जमानत पर रिहा कर दिया। 2001 में विन चड्ढा और भटनागर का निधन हो गया। 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि बोफोर्स कांड में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भूमिका के कोई सबूत नहीं मिले हैं। इस मामले का आरोपी ओक्टोवियो क्वात्रोची ही था। इस पर सीबीआई के अनुरोध के चलते ओक्टोवियो क्वात्रोची की गिरफ्तारी के लिए इंटरपोल ने रेड कार्नर नोटिस जारी किया था। इस नोटिस के अनुसार अर्जेटिना की पुलिस ने 2007 में क्वात्रोची की धरपकड़ की थी, उस समय उसे भारत लाकर उस पर मुकदमा चलाया जा सकता था, पर ऐसा नहीं हो पाया। पर भारत सरकार ने अर्जेटीना सरकार को आवश्यक कागजात नहीं दिए, इसलिए क्वात्रोची एक बार फिर छूट गया। मार्च 2011 में सीबीआई ने क्वात्रोची को सारे आरोपों से मुक्त कर निर्दोष साबित कर दिया। आज की तारीख में भारत में क्वात्रोची के खिलाफ कोई मामला नहीं है। अब वह इज्जत के साथ भारत आ सकता है। इस मामले में अब तक के परिश्रम से यही बाहर आया है कि स्वीडिश कंपनी द्वारा 64 करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी। पर यह रिश्वत किसे मिली, यह किसी को नहीं पता। स्वीडन के पुलिस प्रमुख के रहस्योद्घाटन से यही पता चलता है कि यह रिश्वत जिसे दी गई, उसकी पहचान छिपाने के लिए राजीव गांधी ने खूब मेहनत की थी। उसकी पहचान छिपाने के पीछे उनका इरादा क्या था, इसकी जानकारी शायद हमें कभी नहीं मिल पाएगी।
डॉ. महेश परिमल

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