सोमवार, 11 मार्च 2013

शब्दों से झांकता इतिहास

गोपालकृष्ण गांधी, पूर्व राज्यपाल
किसी दिलकश गुफा में घुसने की मानिंद होती है शब्दों के मूल की तलाश। आप इनके एक-एक मोड़ व इनमें आए बदलावों को गहराई से देखते जाते हैं और आपका साबका कहीं हैरानी से, तो कहीं कुछ नया पाने की उम्मीद से और कभी-कभी एक जोरदार झटके से पड़ता रहता है। मेरे एक मित्र ने दो शब्दों का उल्लेख किया, दूसरे दिन वे दो ‘किस्मों’ के लिए प्रयुक्त हुए और फिर दो अतियों के लिए भी। वे शब्द हैं- ‘स्टोइक’ और ‘एपिक्योर।’ इन दोनों शब्दों के मतलब, इनके उदाहरण और इनके व्यवहार इतने रूपों में हमारे सामने आते हैं, जैसे बच्चों की किताबों से कूदकर तस्वीरें हमारे सामने आ खड़ी हुई हों। स्टोइक यानी आत्मसंयमी या नितांत सादगीपसंद। जिंदगी में आनंद देने वाली जितनी भी चीजें हैं, वह उन सबका निषेध करता है। एपिक्योर यानी स्वादप्रेमी या चटोरा। ऐसा इंसान भोग में यकीन करता है। जिंदगी से उसे कुछ भी मिले, खासकर आनंद देने वाला, उन्हें वह नकारता नहीं। आत्मसंयमी व्यक्ति कुछ खाएगा भी, तो भोज्य पदार्थ को वह उसके जैविक रूप में ग्रहण करना चाहेगा, जैसे वह फल, अंकुरित बीज व साबूत गेहूं की रोटी को अपने आहार में शामिल करता है। लेकिन एक स्वादप्रेमी अपनी पसंद की चीजें चुनता है।

वह उनके जायके, उनकी खुशबू और उन्हें पकाने की विधि का भरपूर लुत्फ उठाता है। आत्मसंयमी लोग पानी को दो हिस्सों में बांटते हैं। एक हितकारी और दूसरा नुकसानदेह। लेकिन स्वादप्रेमी लोग सोच-समझकर पहले अपना पेय चुनते हैं, फिर उसका घूंट भरते हैं और अपनी जीभ के जरिये उसकी जटिलता का एहसास करते हैं।
आत्मसंयमी व्यक्ति आपको हमेशा दुबला-पतला मिलेगा। उसे देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह अपने कपड़ों के साथ ही पैदा हुआ था और उन कपड़ों पर कभी इस्तरी भी होनी चाहिए, इसकी जरूरत उसे कभी महसूस नहीं हुई। स्वादप्रेमी इंसान की निगाह में लिबास का मतलब सिर्फ बदन ढकना नहीं है, बल्कि उसके साथ उससे कहीं कुछ बेहतर करना है। इस किस्म का शख्स आपको प्राय: खुशमिजाज मिलेगा। आत्मसंयमी लोगों के चेहरे पर कभी मुस्कान नहीं दिखेगी, ऐसे लोग विनोदी नहीं होते, बल्कि उनका चेहरा बिल्कुल ऐंठा हुआ होता है।
तो क्या इसका मतलब यह है कि आत्मसंयमी लोगों का रिश्ता गरीबी से है और स्वादप्रेमियों का संपन्नता व समृद्धि से?
ऐसा जरूरी नहीं है, बल्कि इससे काफी अलग मामला है। मैं ऐसे कई आत्मसंयमी लोगों को जानता हूं, जो धनाढ्य हैं और खुशकिस्मती से मुझे उन स्वादप्रेमियों के साथ भी जीने का मौका मिला है, जिनकी बहुत साधारण कमाई है। विडंबना यह है कि आत्मसंयमी लोग कुलीन वर्ग का हिस्सा हैं। वे भले ही किशमिश खाएं, मगर उसे खाते हैं वे महंगी क्रिस्टल कटोरी में, उनका जूस उन्हें चांदी के गिलास में सर्व किया जाता है। और उनके साधारण-से लगने वाले वस्त्र भी काफी कीमती होते हैं। सादगीपसंद लोग अधीर हो सकते हैं, लेकिन स्वादप्रेमी लोग प्राय: उदार होते हैं। आत्मसंयमी लोगों के पास अपनी एक छोटी-सी ‘बुक-शेल्फ’ होती है, जिसमें उनकी पसंदीदा जीवनशैली या उनसे मिलते-जुलते विषय की किताबें आपको मिलेंगी। लेकिन स्वादप्रेमी लोग खरीदकर या मांगकर ही सही, शब्दों की विशाल दुनिया से वाकिफ मिलते हैं। बहरहाल, जिंदगी को देखने का दोनों का अपना-अपना नजरिया है और हमें उनकी सोच का सम्मान करना चाहिए। लेकिन मेरी अपनी जीवनदृष्टि है और मैं ऐसे ‘आत्मसंयमी’ लोगों को सलाम करने की बजाय स्वादप्रेमी लोगों के साथ कदमताल करना चाहता हूं। हालांकि बेहतर स्थिति तो यही थी या है कि हम कुछ हद तक आत्मसंयमी भी हों और कुछ स्वादप्रेमी भी। मगर संभावनाहीन जिंदगी को देखते हुए हमें आत्मसंयमियों के गुणों को त्यागना होगा। हमें स्वादप्रेमियों की प्रतिभा की जरूरत है, ताकि जिंदगी से हासिल अवसरों का सदुपयोग करते हुए हम नए-नए प्रयोग कर सकें। निर्लिप्ततावाद या आत्मसंयमवाद कोई क्या खाए, क्या पहने, क्या गाए या क्या पढ़े की ही प्रवृत्ति नहीं है।

यह समय के साथ कैसे पेश आना है, यह भी बताता है। लेकिन वहां उसके पास कोई विकल्प नहीं है। आत्मसंयमवाद एक इकहरा रास्ता है। शासक व दार्शनिक मर्कस ऑरेलियस एक महान आत्मसंयमी थे। उनकी कृति मडिटेशंस  को हम सभी को पढ़ना चाहिए, भले ही हम आत्मसंयमवादी हो या नहीं। इस कृति की तीन पंक्तियां यादगार हैं- ‘भविष्य के लिए इस सूत्र की गांठ बांध लो। जब कभी भी तुम्हें कोई चीज बहुत सताने लगे, तो याद रखना कि यह दुर्भाग्य नहीं है, बल्कि उसे उचित तरीके से सहना ही भाग्यशाली होना है।’
यदि कोई तुम्हें जख्मी करे, तो उससे सबसे अच्छा बदला यही है कि तुम उसकी तरह बिल्कुल न बनो।
अपने भीतर गौर से देखो; उसमें शक्ति का एक अजस्र स्रोत है और जब कभी भी तुम शिथिल पड़ोगे, वह तुम्हारी जरूरत को पूरा करेगा।
अब इन दोनों शब्दों- ‘स्टोइक’ और ‘एपिक्योर’ के अर्थो व उदाहरणों को एक तरफ रख दें, तो सवाल यह उठता है कि ये शब्द आए कहां से? बेशक ‘ग्रीक’ से। अंग्रेजी में इससे मिलते-जुलते कुछ शब्द हैं, जो संज्ञा रूप से अधिक विशेषण के तौर पर इस्तेमाल होते हैं। वे भी ग्रीक से आए हैं। इनमें से एक शब्द ‘स्पार्टन’ (अनुशासित) भी शामिल है, जो प्राचीन नगर स्पार्टा के नाम से बना है। स्पार्टा वही नगर है, जहां सादगी और मितव्ययिता को सद्गुण के रूप में चिन्हित किया गया था। इसी तरह, ‘लैकोनिक’ का इस्तेमाल मितभाषी इंसान या सार सामग्री के बारे में किया जाता है। इस शब्द भी व्युत्पत्ति भी ग्रीक राज्य ‘लैकोनिया’ के नाम से हुई है। स्पार्टा इसी राज्य की राजधानी था। जाहिर है, लैकोनिया के लोग अपनी बातें कम से कम शब्दों में करते थे। सिकंदर के पिता यानी फिलिप ऑफ मकदूनिया के बारे में एक दिलचस्प कहानी है।
फिलिप खुद एक बड़ा साम्राज्यवादी था। उसने लैकोनिया के स्पार्टावासियों को एक अशुभ संदेश भेजा था कि ‘यदि मैंने लैकोनिया में प्रवेश किया, तो मैं इसे मटियामेट कर दूंगा।’ लैकोनिया ने इसका जवाब दिया- ‘यदि।’
बहरहाल, शब्दों की जड़ों की तलाश इन दिनों बमुश्किल ही देखने को मिलती है। अब किसके पास इतना टाइम (वक्त) है? ‘टाइम’ से मुझे याद आया कि इसका संबंध ग्रीक दार्शनिक टाइमन से है। टाइमन ईसा से 300 साल पहले जीवित थे और वह स्केप्टिक (संशयवादी) थे। स्केप्टिक से मुङो याद आया कि इस शब्द का रिश्ता ग्रीक ‘स्केप्टिकोई’ से है..लेकिन मुझे यहीं रुकना होगा, क्योंकि इस कॉलम की भी शब्द सीमा है।
हिंदुस्‍तान से साभार 

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