शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

गांधी जरूरी हैं अथवा मजबूरी

-मनोज कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया विश्‍लेषक
महात्मा गांधी की जनस्वीकार्यता पर कभी कोई सवालिया निशान नहीं लगा ।  महात्मा के सादा जीवन, उच्च विचार लोगों को हमेशा से शालीन जीवन के लिए  प्रेरित करते रहे हैं। मांस-मदिरा के सेवन से दूर रहने की शिक्षा एवं अहिंसा के बल पर जीने के जो रास्ते महात्मा ने अपने जीवनकाल में बताए  थे, वह हर भारतीय के लिए  आजीवन आदर्श रहे हैं। भारतीय ही नहीं, दुनिया के लोगों को भी महात्मा का बताया रास्ता जीने का सबसे सहज एवं सुंदर रास्ता लगा है। इससे परे एक-डेढ़ दशक में महात्मा गांधी के प्रति राजनीतिक दलों की स्वीकार्यता अचरज में डालने वाली है।
आज 2 अक्टूबर को हर वर्ष की तरह जब महात्मा गांधी की जयंती का उल्लास मना रहे हैं और इस उल्लास में कैलेंडरी उत्सव से अलग होकर विभिन्न राजनीतिक दल भी महात्मा का स्मरण करेंगे। राजनीतिक दलों में जो महात्मा के प्रति यह चेतना जाग्रत हुई है, उसे सकारात्मक भाव से देखें तो अच्छा लगेगा कि जिस महात्मा को अपने ही देश में पचास साल से ज्यादा समय में राजनीतिक स्वीकार्यता नहीं मिली, आज उस देश की राजनीतिक पार्टियां महात्मा गांधी के सहारे के बिना नहीं चल पा रही हैं। महात्मा की यह स्वीकार्यता सहज नहीं है। इसे अनेक दृष्टिकोण से देखना और समझना होगा। यह बात सच है कि वोट की राजनीति में रंगे राजनीतिक दलों के लिए  महात्मा गांधी आदर्श हैं या नहीं किन्तु गांधी के आदर्शों की दुहाई देकर वोटबैंक को खींचा जा सकता है। भारतीय जनमानस की महात्मा में आज भी वैसी ही आस्था है, जैसा कि उनका अपने देवलोक पर।
बहुत ज्यादा छानबीन न करें तो भी 15-20 बरस से पहले सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने आदर्श राजनेता रहे हैं। समाजवादी पार्टी लोहिया के बताए  मार्ग पर चल रही है तो बहुजन समाज पार्टी के लिये डॉ.भीमराव आम्बेडकर प्रेरणास्रोत रहे हैं। कभी जनसंघ किन्तु अब भारतीय जनता पार्टी के पास डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोलवलकरजी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय एवं वीर सांवरकर जैसे अनेक नेता हैं जिनके बताए रास्ते का अनुसरण ये दल करते रहे हैं। मार्क्‍सवादियों के भी अपने आदर्श रहे हैं। इसे आप सहज रूप में यह कह सकते हैं कि सभी दलों के पास अपने अपने ये नेता ब्रांड एम्बेसडर के रूप में मौजूद हैं, जिन्हें जरूरत के अनुरूप उपयोग किया जाता रहा है। कांग्रेस के पास महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल सरीखे नेता रहे हैं। हालांकि ये नेता कांग्रेस पार्टी के नहीं बल्कि भारत वर्ष की विरासत हैं, किन्तु अन्य राजनीतिक दलों ने इनसे परहेज किया है और वे अपने ही नेताओं को आदर्श मानकर राजनीति करते रहे हैं। यहां उल्लेखनीय है कि स्वाधीनता के पूर्व महात्मा गांधी से अनेक नेताओं के विचार मेल नहीं खाते थे। जिन नेताओं से गांधीजी के वैचारिक मतभेद थे, वे जगजाहिर हैं और इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं। गांधीजी के विचारों से सहमत नहीं होने वाले नेताओं में डॉ. अम्बेडकर, डॉ. मुखर्जी, लोहिया और यहां तक कि कांग्रेस के प्रथम पंक्ति में गिने जाने वाले अनेक नेता भी उनके विचारों से सहमत नहीं थे।
अस्तु, स्वाधीन भारत में लोकतंत्र स्थापित हो गया। 1975 में देश में आपातकाल लग जाने के बाद राजनीति स्थितियां तेजी से बदली और जनता दल का उदय हुआ। सत्ता संघर्ष में जनता दल के अनेक टुकड़े हुए  और सबने अपने अपने रास्ते तय कर लिए । ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया। विस्तार होता गया और नए -नए  राजनीति दलों का जन्म होने लगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी इन्हीं में से हैं। प्रादेशिक दलों की बातें तो इनसे बिलकुल अलग है। इन सबके तब भी आदर्श अलग-अलग नेता थे लेकिन महात्मा गांधी की स्वीकार्यता वैसी नहीं थी, जैसा कि आज हम देख और समझ रहे हैं। आज हर दल के लिए  महात्मा गांधी सर्वोपरि है।
नोट से लेकर वोट तक महात्मा गांधी की छाप अलग से देखी जा सकती है। यह बात तो तय है कि राजनीतिक दलों के लिए  गांधीजी की स्वीकार्यता जरूरी नहीं बल्कि मजबूरी हैं क्योंकि एकमात्र गांधी ही ऐसे हैं जिनका ढिंढोरा पीट-पीटकर भारतीय जनता को बहलाया जा सकता है। राजनीति दलों का गांधीजी को मानना बिलकुल वैसा ही है जैसा कि हम ईश्वर को तो खूब मानते हैं किन्तु ईश्वर का कहा नहीं मानते। राजनीतिक दल गांधीजी को तो खूब मान रहे हैं किन्तु उनका कहा कोई मानने को तैयार नहीं है। गांधीजी की राजनीतिक दलों की स्वीकार्यता तब जरूरी समझी जाती जब दागी नेताओं को चुनाव लडऩे के अयोग्य किए  जाने फैसले के खिलाफ कोई पहल नहीं की जाती। हमारे लिए  महात्मा जरूरी नहीं, मजबूरी हैं और इसलिए  शायद आम चलन में कहा भी जाता है मजबूरी का नाम महात्मा गांधी.  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें