शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

विजय का दशहरा

मनोज कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया विश£ेषक
भारत वर्ष में बस्तर और कुल्लू का दशहरा पर्व संसार भर में ख्यात है. दोनों स्थानों में मनाये जाने वाले दशहरा पर्व की अपनी अपनी विशेषतायें हैं. इस बार बस्तर का दशहरा पर्व कुछ अलग ही मायने रखता है. बस्तर का इस वर्ष का दशहरा पर्व सही अर्थों में विजय का दशहरा पर्व कहा जा सकता है. कुछ महीने पहले ही बस्तर की हरी-भरी भूमि पर जो रक्तपात हुआ और इसके पहले जो रक्तपात होता रहा है, वह दिल दहला देने के लिये कम नहीं है. पूरा देश इस रक्तपात की घटनाओं से जख्मी है और हतप्रभ भी. ऐसी विषम स्थितियों में भी आदिवासियों द्वारा अपने परम्परागत दशहरा पर्व को उसी उत्साह से मनाये जाने को विजय का दशहरा ही कहा जा सकता है. एक मामूली बम फटने के बाद जब लोग दुबक जाते हैं, बम फटने की आवाज देर तक डराती रहती है तब बस्तर की धरती और उसके जन बार बार के रक्तपात से न सहमते हंै, न सिहरते हैं बल्कि दुगुने उत्साह के साथ स्वयं को खड़ा कर लेते हंै. बस्तर के आदिवासियों का यह उत्साह केवल उत्सव का उत्साह नहीं है बल्कि जीवन का उत्साह है जो समूचे संसार को एक नया पाठ पढ़ाता है. 
बस्तर में पिछले दशकों में निरंतर आतंक के साये में रहा है. नक्सलियों और तंत्र के साथ मुठभेड़ के बीच जो रक्तपात होता रहा है, वह जनपदीय समाज को भयभीत किये हुये है. जंगलों के बीच जी रहे आदिवासियों के मन में भी भय न हो, यह कहना मुश्किल है. सरकारें बदलती रहीं और हर सरकार ने बस्तर के आदिवासियों का लेखा भी बदलने की कोशिश की. इन कोशिशों से बस्तरिया आदिवासियों का जीवन कितना बदला या नहीं बदला, यह तो कहना मुश्किल है लेकिन उनका उल्लास से भरे आदिम मन को कोई तंत्र, कोई सरकार नहीं बदल पायी, यह दावे के साथ कहा जा सकता है. बरसों पुराने परम्परागत बस्तर दशहरे के उत्साह को देखकर कोई अंदाज नहीं लगा सकता कि इस जमीन पर कुछ महीने पहले आतंक ऐसे पसरा था, मानो समय थम गया हो. समय को उसी गति से जीने और चलने देने की जीजिविषा आदिम समाज में अपनी उत्पत्ति के समय रही होगी, वह ताप आज 21वीं सदी में भी देखने को मिल रहा है.
बस्तर दशहरा दो-एक दिन का उत्सव नहीं होता है और न ही प्रतीकात्मक रूप से रावण का पुतला जलाने की रस्मअदायगी होती  है. बस्तर दशहरा का उत्सव पूरे पचहत्तर दिन का होता है. पूरे विधान के साथ जिसमें आम आदमी से लेकर राज परिवार तक शामिल होता है. बस्तर दशहरे के लिये बनाये जाने वाले रथ के लिये आदिम समाज जुट जाता है. इस विशालकाय बस्तर रथ के निर्माण में जुटे आदिवासीजनों का उत्साह देखने योग्य होता है. बस्तर दशहरे का रथ भोपाल में बने मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय  एवं राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में भी देखने को मिल जायेगा. 75 दिनों के इस उत्सव का उल्लास और भी पहले से शुरू हो जाता है. इस उल्लास में कोई खलल डाले, यह आदिम समाज को मंजूर नहीं है. जो रक्तपात हो रहा है, बस्तर के घने जंगलों में आतंक की जो सरसराहट है और जो इस उत्सव में बाधा पैदा कर सके, वह स्थितियां भी हैं लेकिन आदिम समाज इस सबसे बेफिकर हंै. उनके लिये हर सांझ दुख बिसराने के लिये होता है और हर सुबह वह प्रकृति का स्वागत करता है, मुस्करता है. उसके पास पीछे देखने के लिये कुछ भी नहीं होता है. इस बार के दशहरे को लेकर जनपदीय समाज में भले ही आशंका रही हो लेकिन आदिम समाज हमेशा से आशा में जीता रहा है. बस्तर दशहरे की गमक और खनक इस बार भी वैसा ही है, जैसा कि परम्परागत रूप से बीते अनेक दशकों से रहा है. बस्तर का यह दशहरा सचमुच में विजय का दशहरा है जो सिखाता है कि तम से कैसे लड़ें, कैसे आतंक को आशंका से नहीं आशा से निपट लें. बस्तर का यह दशहरा पर्व समूचे संसार को आतंक के खिलाफ एक संदेश देता है आओ, हम सब मिलकर रोज पैदा हो रहे दशानन का वध करें, तम को दूर कर उजाले का दीपक जलायें.

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