गुरुवार, 16 जनवरी 2014

गुमनामी की जिंदगी जीते असली हीरो

उन्नीस साल पहले जब माताप्रसाद ने अपने दो एकड़ के खेत के चारों तरफ़ जंगल लगाने की बात की थी, तब उनके पड़ोसियों ने सोचा था कि शायद इनका “दिमाग चल गया” है। लखनऊ से 200 किमी दूर जालौन के मीगनी कस्बे में माताप्रसाद के जमीन के टुकड़े को एक समय “पागल का खेत” कहा जाता था, आज 19 वर्ष के बाद लोग इज्जत से उसे “माताप्रसाद की बगीची” कहते हैं।

बुन्देलखण्ड का इलाका सूखे के लिये कुख्यात हो चुका है, इस बड़े इलाके में माताप्रसाद के खेत ऐसा लगता है मानो किसी ने विधवा हो चुकी धरती के माथे पर हरी बिन्दी लगा दी हो। माताप्रसाद (57) कोई पर्यावरणविद नहीं हैं, न ही “ग्लोबल वार्मिंग” जैसे बड़े-बड़े शब्द उन्हें मालूम हैं, वे सिर्फ़ पेड़-पौधों से प्यार करने वाले एक आम इंसान हैं। “हमारा गाँव बड़ा ही बंजर और सूखा दिखाई देता था, मैं इसे हरा-भरा देखना चाहता था”- वे कहते हैं।

बंजर पड़ी उजाड़ पड़त भूमि पर माताप्रसाद अब तक लगभग 30,000 पेड़-पौधे लगा चुके हैं और मरने से पहले इनकी संख्या वे एक लाख तक ले जाना चाहते हैं। इनमें से लगभग 1100 पेड़ फ़लों के भी हैं जिसमें आम, जामुन, अमरूद आदि के हैं। विभिन्न प्रकार की जड़ीबूटी और औषधि वाले भी कई पेड़-पौधे हैं। दो पेड़ों के बीच में उन्होंने फ़ूलों के छोटे-छोटे पौधे लगाये हैं। माताप्रसाद कहते हैं “ मेरे लिये यह एक जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान का मिलाजुला रूप है, यहाँ कई प्रकार के पक्षियों, कुत्ते, बिल्ली, मधुमक्खियों, तितलियों आदि का घर है…”। माताप्रसाद ने इन पेड़ों के लिये अपने परिवार का भी लगभग त्याग कर दिया है। इसी बगीची में वे एक छोटे से झोपड़े में रहते हैं और सादा जीवन जीते हैं। माताप्रसाद आगे कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि मैंने अपने परिवार का त्याग कर दिया है, मैं बीच-बीच में अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने जाता रहता हूँ, लेकिन इन पेड़-पौधों को मेरी अधिक आवश्यकता है…”। उनका परिवार दो एकड़ के पुश्तैनी खेत पर निर्भर है जिसमें मक्का, सरसों, गेहूँ और सब्जियाँ उगाई जाती हैं, जबकि माताप्रसाद इस “मिनी जंगल” में ही रहते हैं, जो कि उनके खेत से ही लगा हुआ है।

किताबी ज्ञान रखने वाले “पर्यावरण पढ़ाकुओं” के लिये माताप्रसाद की यह बगीची एक खुली किताब की तरह है, जिसमें जल प्रबन्धन, वाटर हार्वेस्टिंग, मिट्टी संरक्षण, जैविक खेती, सस्ती खेती के पाठ तो हैं ही तथा इन सबसे ऊपर “रोजगार निर्माण” भी है। पिछले साल तक माताप्रसाद अकेले ही यह पूरा विशाल बगीचा संभालते थे, लेकिन अब उन्होंने 6 लड़कों को काम पर रख लिया है। सभी के भोजन का प्रबन्ध उस बगीचे में उत्पन्न होने वाले उत्पादों से ही हो जाता है। माताप्रसाद कहते हैं कि “जल्दी ही मैं उन लड़कों को तनख्वाह देने की स्थिति में भी आ जाउंगा, जब कुछ फ़ल आदि बेचने से मुझे कोई कमाई होने लगेगी, यदि कुछ पैसा बचा तो उससे नये पेड़ लगाऊँगा, और क्या?…”।

हममें से कितने लोग हैं जो “धरती” से लेते तो बहुत कुछ हैं लेकिन क्या उसे वापस भी करते हैं? माताप्रसाद जैसे लोग ही “असली हीरो” हैं… लेकिन “सबसे तेज चैनल” इनकी खबरें नहीं दिखाते…

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