शनिवार, 24 सितंबर 2011

मौलवी, पादरी, आरएसएस और प्रजा सभी शामिल हैं उस आंदोलन में


डॉ. महेश परिमल
अगस्त में जिस तरह से अन्ना ने अपना आंदोलन चलाया और उसे देशव्यापी ख्याति मिली। इसी तरह का एक आंदोलन इन दिनों तमिलनाड़ु के कुंदनकुलम में चल रहा है, जिसमें  क्या विद्यार्थी, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, महिलाएँ सभी इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं। यह आंदोलन है रुस के सहयोग से करीब 15 सौ करोड़ की लागत से बनने वाले परमाणु संयंत्र के खिलाफ। यह आंदोलन तब शुरू हुआ है, जब इसका 99 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है। दिसम्बर में इसका उद्घाटन होना था। स्थानीय जनता इसका विरोध कर रही है। उनके इस आंदोलन में सभी वगोर्ं का साथ मिल रहा है। मुख्यमंत्री जयललिता के लिए एक नई परेशानी खड़ी हो गई है। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने राज्य की जनता से यह अपील की थी कि परमाणु संयंत्र की तरफ से आपको कोई नुकसान नहीं होगा, आप सुरक्षित रहेंगे। पर उनकी इस अपील का नागरिकों पर कोई असर नहीं हुआ। नागरिक जापान के फुकुशिमा और हाल ही में फ्रांस के परमाणु संयंत्र में हुई दुर्घटना के मद्देनजर परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे हैं।
परमाणु संयंत्रों में होने वाली दुर्घटनाओं को देखते हुए अब भारतीय जनता भी इसके प्रति सचेत हो गई है। नागरिक यह मान रहे हैं कि परमाणु संयंत्रों के आसपास रहने वाले लोग सुरक्षित नहीं है। संयंत्र कितने भी मजबूत हों, पर वह नागरिकों की जान की हिफाजत नहीं कर सकते। यही धारणा अब लगातार बलवती होती जा रही है। तमिलनाड़ु के कुंदनकुलम में परमाणु संयंत्र के निर्माझा के संबंध में सन् 1988 में रुस के साथ समझौता हुआ था। इसका निर्माण कार्य पिछले 20 वर्षो से चल रहा था। पहले तो नागरिकों ने यह समझा कि इस संयंत्र से उन्हें रोजगार मिलेगा, पर जापान और फ्रांस में हुई दुर्घटना के बाद नागरिको को अपनी सुरक्षा का भय सताने लगा है। अब जाकर यह पूरा होने को है, तो स्थानीय नागरिक उसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं।
तमिलनाड़ु के तिरुनलवेल्ली जिले के समुद्र किनारे एक हजार मेगावाट की क्षमता के दो परमाणु बिजली संयंत्र रुस के सहयोग से बन रहे थे। इसका काम दस वर्ष पहले शुरू हुआ था। राज्य सरकार की योजना है कि इससे 1200 मेगावॉट की क्षमता वाले चार और संयंत्र स्थापित किए जाएँ। इस प्लांट का काम शुरू हुआ, तब कुंदनकुलम करीब-करीब उजाड़ था। आबदी मात्र दस हजार रह गई थी। यहाँ रोजगार के अवसर बिलकुल भी न थे। इसलिए लोग रोजी रोटी की तलाश में मेंगलोर, मैसूर, मुम्बई और दुबई चले गए। धीरे-धीरे प्लांट की ख्याति बढ़ने लगी। इससे लोगों को लगा कि अब यहाँ हमें रोजगार मिल जाएगा, तो वे अपने घरों की ओर लौटने लगे। वे सभी लौट तो आए, पर उलझन यह थी कि वे परमाणु संयंत्र से होने वाली समृद्धि की ओर देखें कि उससे होने वाले नुकसान और असुरक्षा पर ध्यान दें। इसी बीच फुकुशिमा में होने वाली दुर्घटना से उन्हें यह सोचने को विवश कर दिया कि समृद्धि से अधिक महत्वपूर्ण है सुरक्षा। बस शुरू हो गया विरोध।
परमाणु संयंत्रों का विरोध केवल तमिलनाड़ु में ही हो रहा है, ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र के जैतापुर और गुजरात के मीठी वीरडी गाँव में भी परमाणु संयंत्रों का विरोध किया जा रहा है। इस विरोध और तमिलनाड़ु के विरोध में एक बड़ा अंतर यही है कि तमिलनाड़ु में परमाणु संयंत्रों का काम 99 प्रतिशत पूरा हो चुका है, जबकि इन दोनों का काम अभी शुरू ही नहीं हुआ है। विरोध करने वाले यही कह रहे हैं कि जब परमाणु संयंत्रों का काम शुरू हुआ, तब हम इनके दुष्परिणामों से अवगत नहीं थे, पर जापान के फुकुशिमा की हालत देखकर हम सचेत हो गए हैं। कुंदनकुलम में अभी 127 परिवार संयंत्र के सामने आमरण अनशन पर बैठे हैं। इनमें वरिष्ठ नागरिक, विद्यार्थी, पादरी, संघ परिवार के कार्यकत्र्ता और विकलांग नागरिक भी शामिल हैं। इस पूरे भू-भाग में करीब एक लाख लोग परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे हैं, इसलिए जयललिता सरकार भी मुश्किल में है। इस संयंत्र के लए न्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन ऑफ इंडिया द्वारा अभी तक करीब 15 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। 2003 में जब यहाँ सुनामी का कहर बरपा था, तब बेघर हुए लोगों को नए सिरे से बसाया गया था। बसाहट के दौरान बहुत से लोग आ गए, कोई अंकुश न होने के कारण अब यहाँ एक लाख लोग रह रहे हैं।
परमाणु संयंत्र के विरोध के पीछे एक रोचक तथ्य यह भी है कि न्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन के अधिकारियों द्वारा स्थानीय नागरिकों को परमाणु संयंत्र की सुरक्षा के बारे में जब प्रशिक्षण दिया गया, तब इसकी मोक ड्रील की गई। इस दौरान अधिकारियों ने नागरिकों से कहा कि आप जितना अधिक तेज दौड़कर इस संयंत्र से दूर हो सकते हो, हो जाओ। इससे नागरिक इतने अधिक दहशत में आ गए कि उन्होंने संयंत्र का विरोध करने का निर्णय ले लिया। इनके साथ तमिलनाडु के सभी धर्मो के लोग और राजनेता, स्थानीय नेता भी संगठित हो गए हैं। इसके पहले इस तरह की एकता कभी देखी नहीं गई। इसका केंद्र बिंदु कुंदनकुलम में स्थित सेंट मेरी चर्च है। आरएसएस के कार्यकर्ता भी इस विरोध में पादरियों के साथ खड़े हैं। यही नहीं इन्हें स्थानीय मौलवियों का भी पूरा सहयोग मिल रहा है। कई पर्यावरणविदों को भी यहाँ देखा जा सकता है। ग्रीनपीस जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था भी इंटरनेट का उपयोग करते हुए इस विरोध को विश्वव्यापी बना रही है। पहले तो राज्य के नेताओं ने इस विरोध की उपेक्षा की, पर जब उन्होंने देखा कि पूरा प्रदेश इस मामले में एकजुट है, तो वे भी विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गए।
मजबूत संयंत्रन्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन ऑफ इंडिया के अधिकारी कहते हैं कि इस प्लांट को सुरक्षित बनाने के हरसंभव उपाय किए गए हैं। उनके अनुसार अणु रिएक्टरों को 1.20 मीटर मोटे सीमेंट के कांक्रीट से ढाँका गया है। उसकी सतह लीकप्रूफ लोहे की प्लेटों से बनाई गई है। इस प्लांट को समुद्र की सतह से 7.50 मीटर ऊँचे प्लेटफार्म पर बनाया गया है। ताकि सुनामी की आक्रामक लहरों से उसकी रक्षा की जा सके। सुनामी के दौरान इस संयंत्र की बिजली बंद हो जाए, तो रिएक्टरों को ठंडा रखने के लिए एक डीजल जेनेरेटर की आवश्यकता होती है, लेकिन यहाँ 4 जेरेरेटर रखे गए हैं।  यदि ये जेनेरेटर भी फेल हो जाएँ, तो गर्मी कम करने के लिए भी वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। दूसरी ओर संयंत्र का विरोध करने वाले यही कह रहे हैं कि ये सारी व्यवस्थाएँ जापान के फुकुशिमा में भी थीं। जापान विज्ञान एवं बेहतर प्रबंधन की दृष्टि से एक प्रगतिशील देश है, उसके बाद भी वहाँ दुर्घटना हो गई। प्रकृति के कोप के आगे उसने घुटने टेक दिए। यह सब होते हुए हम भारत के वैज्ञानिक, सरकारी अधिकारियों और प्रबंधन पर कैसे भरोसा करें? प्रकृति का कोप जब भी बरसता है, तो वह पहले से अधिक आक्रामक होता है। इसलिए हम कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। उधर तमिलनाड़ु सरकार उलझन में है। मुख्यमंत्री जयललिता ने कुछ दिनों पहले ही इस संबंध में कुंदनकुलम की जनता के नाम एक अपील जारी कर यह विश्वास दिलाया था कि इस संयंत्र से उन्हें कोई खतरा नहीं है। लेकिन जनता इस सरकारी आश्वासन पर भरोसा करना ही नहीं चाहती। उसका कहना है कि वे क्या इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि सुनामी की लहरे 7.5 मीटर से ऊँची नहीं होंगी। इसका जवाब किसी के पास नहीं था।
रुस सरकार की रोसेटम कंपनी द्वारा पश्चिम बंगाल के हरिपुर में एक हजार मेगावॉट की क्षमता वाले परमाणु संयंत्र के निर्माण की केंद्र सरकार की योजना थी। इस प्लांट के लिए समझौता 1988 में हुआ था। किंतु पश्चिम बंगाल की जनता द्वारा इसका विरोध किए जाने पर अभी तक इस प्लांट का काम शुरू ही नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल की कमान जब ममता बनर्जी ने सँभाली, तब इस प्लांट के निर्माण की आशा जागी थी, पर ममता बनर्जी ने एक बार में यह कहकर इस पर पानी फेर दिया कि मेरे रहते राज्य में कहीं भी परमाणु संयंत्र स्थापित करने की अनुमति नहीं मिलेगी। अब केंद्र सरकार इस प्लांट को और कहीं स्थापित करने की सोच रही है। फ्रांस के एटामिक पॉवर प्लांट में जो विस्फोट हुआ, उसे अरेवा कंपनी ने तयार किया था। यही नहीं उसका संचालन भी यही कंपनी कर रही थी। महाराष्ट्र के जैतापुर और गुजरात के मीठी वीरडी में जो परमाणु संयंत्र स्थापित होने हैं, उसका काम भी अरेवा कंपनी को ही करना है। साफ बात है जो कंपनी अपने ही देश में स्थापित परमाणु संयंत्र को सुरक्षित नहीं रख पाई, वह भारत में किस तरह से सुरक्षित रख सकती है? अब तो जब तक देश में स्थापित होने वाले परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के बारे में समग्र चर्चा नहीं हो जाती, तब तक इन परमाणु संयंत्रों का काम स्थगित कर दिया जाना चाहिए। क्या आपको ऐसा नहीं लगता?
      डॉ. महेश परिमल