सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

माँ पर पी-एच.डी. और पी-एच.डी. पर माँ


बहुत ही अनजाना-सा नाम है, सिंधुताई सपकाल का। उनका संघर्ष भले ही किसी के लिए महत्वपूर्ण हो न हो, पर उनके बेटे के लिए अवश्य है। इन दिनों सिंधुताई का बेटा उन पर पी-एच.डी. कर रहा है। लोग अपने आदर्शो पर अनुभवों की किताबें लिखते हैं, पर पी-एच.डी. करना अलग बात है। पी-एच.डी. का एक अलग ही आधार होता है। माँ को अध्यायों में विभाजित करना होता है। उनके संघर्षो और कड़वे अनुभवों को अक्षरों का रूप देते हुए एक-एक पन्नों पर बाँटना होता है। जहाँ हर पूर्ण विराम एक वेदना को आँसू का रूप देता है। बूँद-बूँद आँसूओं से लिखी इबारत माँ के संघर्ष को एक नई ऊँचाई देगी, ऐसा विश्वास किया जा सकता है। सिंधुताई के बेटे की पी-एच.डी. का आधार भी शायद यह हो सकता है। माँ चिंदी के रूप में, दसवें वर्ष में शादी अर्थात बालिका वधू के रूप में, बदचलनी का आरोप झेलनेवाली एक बेबस माँ के रूप में, समाज से निष्कासित नारी के रूप में, भीख माँगनेवाली एक लाचार माँ के रूप में, श्मशान में रहनेवाली एक नि:सहाय माँ के रूप में, चिता की आँच में रोटी सेंकने वाली एक बेचारी माँ के रूप में और अंत में स्नेह लुटाने वाली हÊार बच्चों एक स्नेहमयी माँ के रूप में। सिंधुताई पर केन्द्रित शोधप्रबंध के उक्त अध्याय हो सकते हैं। माँ पर महाकाव्य तो लिखा जा सकता है, पर उन पर शोधप्रबंध तैयार करना मुश्किल है, क्योंकि शोधप्रबंध में ईमानदारी के अवयव होते हैं। जो कुछ पर माँ पर बीता, उसे शब्दों की माला पहनाना एक अलग ही अनुभव होता है।
भाषाविज्ञान में पी-एच.डी. पर माँ को लेकर मेरा अलग ही तरह का अनुभव है। जब मैं अपना शोधप्रबंध लेकर अनपढ़ माँ के पास पहुँचा, तो हमारे बीच जो संवाद हुआ, वह कुछ इस तरह था -
- बेटा ! इसे तूने लिखा है ?
- हाँ , माँ।
- क्या तू लेखक है ?
- नहीं, माँ।
- तो फिर इत्ता सारा कैसे लिख लिया ?
- इतना तो सबको लिखना ही पड़ता है माँ।
- पर तू तो विद्यार्थी है, लेखक नहीं।
- सभी विद्यार्थी को इतना लिखना ही होता है माँ।
- तब तो तुझे बहुत तकलीफ हुई होगी ?
- लिखने में कैसी तकलीफ माँ ?
- बेटा, मैं अनपढ़ जरूर हूँ, पर तुझे मिलाकर ग्यारह पढ़े-लिखे बच्चो की माँ भी हूँ। मुझे मालूम है, पढ़ने-लिखने में कितनी तकलीफ होती है।
- मैं खामोश!
- बेटे, अपने हाथों को जरा इधर ला, मैं उसे चूम लेती हूँ, ताकि तेरे हाथों की पीड़ा कुछ कम हो सके।
माँ मेरे हाथों को चूम रही थी। मैं गीली आँखों से उनका ममत्व रूप देख रहा था। मुझे तो उसी दिन पी-एच.डी. मिल गई थी। यह मैंने उसी दिन मान लिया था। यह बात 18 वर्ष पहले की है। माँ अब इस दुनिया में नहीं है। अभी दो अक्टूबर को उनकी दसवीं पुण्यतिथि थी। मैं आज भी पीड़ा के क्षणों में अपने हाथों पर माँ के चुम्बन को महसूस करता हूँ। हममें से कितने ऐसे हैं, जो माँ को इस रूप में याद करते हैं ?
माँ स्नेह की निर्झरिणी है, जो सतत प्रवाहमान है। इसकी हर बूँद में ममत्व का अहसास है, जो एक शिशु को जीवन जीने की प्रेरणा देता है। जब इसी माँ को वृद्धाश्रम में दिन बिताते हुए देखता हूँ तो माँ के प्रति हमारे दृष्टिकोण बदलते हुए दिखाई देते हैं। बदनसीब हैं वे जिनके माता-पिता वृद्धाश्रमों में कैद हैं और खुशनसीब है सिंधुताई का वह बेटा जो केवल अपनी माँ पर ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज में सिंधुताई की तरह जीवन व्यतीत करती माँओं पर पी-एच.डी. कर रहा है।
डॉ. महेश परिमल