सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

क्या बोल गया अन्ना का मौन?


डॉ. महेश परिमल
आखिर हिसार से कुलदीप विश्वोई जीत गए। यहाँ कांग्रेस तीसरे क्रम पर रही। कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश एक कमजोर प्रत्याशी थे। उनकी हार से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। एक लहर यह चली कि शायद अन्ना की अपील काम कर गई। पर अब अपनी इस अपील पर शायद अन्ना को ही मलाल है। अब उन्होंने मौन साध लिया है। उनका मौन इसलिए आवश्यक भी था कि इन दिनों जो नए सवाल उपजे हैं, उसके जवाब उनके पास नहीं हैं। एक तो उन्होंने अनजाने में भाजपा की जिस तरह से सहायता की है, उससे उन पर संघ से प्रभावित होने का आरोप लग रहा है। इसके बाद जब आडवाणी जी रथयात्रा सतना पहुँची, तब उसके कवरेज के लिए पत्रकारों को जिस तरह से धन दिया गया, उससे यही साबित होता है कि जिस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए उन्होंने रथयात्रा शुरू की है, उसके कवरेज के लिए भी भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ रहा है। तीसरी बात येद्दियुरप्पा का जेल जाना भी इस बात का परिचायक है कि यदि ये वास्तव में दोषी थे, तो फिर इन्हें भाजपा ने ही इतने लम्बे समय तक संरक्षण क्यों दिया? इन सवालों का जवाब अन्ना के पास नहीं है। यही नहीं, आडवाणी भी इन सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं। भोपाल में उन्होंने इस तरह के सवालों से बचने की भरसक कोशिश की। कई बार तो उन्होंने खामोशी का सहारा लिया। आखिर कब तक वे और अन्ना खामोशी की चादर ओढ़े रखेंगे। कुछ तो जवाब देना ही होगा।
इसके अलावा अन्ना अपनों से ही परेशान हैं। उनके साथियों की हरकतें ही ऐसी हो गई हैं कि अन्ना को भी जवाब नहीं सूझ रहा है। स्वामी अग्निवेश की कपिल सिब्बल से बातचीत की सीडी बाहर आने के बाद अन्ना को जो झटका लगा, वह तो उनके आंदोलन को मिले जनसमर्थन से कम हो गया। पर कश्मीर पर प्रशांत भूषण ने जो बयान दिया, उसकी प्रतिक्रिया के एवज में उनकी जिस तरह से धुलाई हुई, वह भले ही एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक है, पर नाराजगी को बाहर आने के लिए कोई रास्ता तो चाहिए। जो प्रशांत भूषण ने कहा, वही तो पाकिस्तान लम्बे समय से कह रहा है। उनके बयान से पाकिस्तान को ही बल मिला। वह तो इसी ताक में है कि कश्मीर में किसी तरह से जनमत संग्रह हो, ताकि वह अपनी चालाकी से लोगों को भरमा सके। अपनों के दर्द से परेशान अन्ना का अब खामोश रहना ही ठीक है। हिसार चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी भले ही न जीत पाया हो, पर अन्ना जीत गए, यह कहना मुनासिब नहीं होगा। जिस तरह से वहाँ कांग्रेस की हार तय थी, ठीक उसी तरह अन्ना की अपील कोई असर नहीं छोड़ेगी, यह भी तय था। अब भले ही कितना भी कह लिया जाए कि हिसार में कांग्रेस अन्ना के प्रभाव के कारण हारी, तो यह गलत ही होगा।
हिसार में कांग्रेस की हार कोई अर्थ नहीं रखती। लेकिन अन्ना की सीडी जिस तरह से वहाँ लोगों को सुनाई गई, उससे यही लगता है कि अन्ना को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया। जनलोकपाल विधेयक के लिए अन्ना के आंदोलन को भले ही अपार जनसमूह का साथ मिला हो, पर अब सरकार की लेटलतीफी से उनकी छवि लगातार धूमिल होती जा रही है। उस पर उनके साथियों के बयानों ने इस छवि को काफी नुकसान पहुँचाया है। अपनी लेटलतीफी के लिए पहचानी जाने वाले मनमोहन सरकार यही चाहती है कि अन्ना को मिल रहे जनसमर्थन का ग्राफ लगातार कम हो। यही हो रहा है। हिसार चुनाव के पहले अन्ना ने जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ हवा चलाई थी, उसके जवाब में कांग्रेस ने कहा कि अगर अन्ना में हिम्मत है, तो वे हिसार में अपना प्रत्याशी खड़ा करके दिखाएँ, केवल प्रत्याशी खड़ा करना महत्वपूर्ण नहीं, उसे जीतना भी आवश्यक होता। तभी यह माना जाता कि अन्ना की अपील में दम है। ऐसा केवल लोकनायक जयप्रकाश ही कर सकते थे। जबलपुर में उन्होंने जिस तरह से कांग्रेस के गढ़ पर धावा बोला और एकदम नए नेता शरद यादव को जिताया, इससे उनके कद का पता चलता है।
लोकसभा चुनाव में जिस प्रत्याशी की जीत का संभावनाएँ प्रबल हो और वह चुनाव हार जाए, तो यह आश्चर्यजनक हो सकता है। हाँ यदि कमजोर प्रत्याशी जीत जाए, तो वह इसका पूरा श्रेय लेने से नहीं चूकता। हिसार में तो कांग्रेस के उम्मीदवार जयप्रकाश तीसरी पोजीशन में है। उनकी हार का श्रेय अन्ना को नहीं मिलेगा। इसे दूसरे नजरिए से देखें तो जयप्रकाश की हार के लिए कोशिश करने का मतलब यही है कि अन्य प्रत्याशियों को जिताने के लिए रास्ता साफ करना। ये दोनों प्रत्याशी भ्रष्ट हैं, यह तो सभी को पता है। पर शायद अन्ना को यह पता नहीं कि उन्होंने अनजाने में ही भ्रष्ट लोगों की सहायता ही की । भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले जब भ्रष्ट लोगों के संरक्षक बन जाए, तो इसे क्या कहा जाए?
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अन्ना अब रास्ते से भटक रहे हैं। उनकी अपनी सोच सीमित है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तक उनकी सोच में साफगोई थी, पर अब वे अपनों से ही संचालित होने लगे हैं। उनकी टीम आंदोलन करने में सक्षम हो सकती है, पर चुनावी मैदान में उतरकर लोगों को रिझाने में नाकामयाब है, यह तय है। अन्ना की टीम को अपने आप पर ही विश्वास नहीं है। टीम के अंतर्कलह भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं। ऐसे में आखिर वे कब तक खींच पाएँगे, विभिन्न विचारधाराओं की इस नाव को? भाजपा यदि भ्रष्ट न होती और अन्ना उनके प्रत्याशियों का समर्थन करते, तो संभव है, लोग उन्हें गंभीरता से लेते। पर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इससे साफ है कि वे न तो अंतर्कलह को ही रोक पा रहे हैं और न ही चुनाव लड़ने के लिए हिम्मत ही बटोर पा रहे हैं। ऐसे में उनकी स्वच्छ छवि को उज्ज्वल बनाए रखना एक दुष्कर कार्य है। आज भले ही वे मौनधारण किए हुए हों, पर सच तो यह है कि इस मौन ने ही काफी कुछ कह दिया, पर इसे समझा कितनों ने?
डॉ. महेश परिमल