रविवार, 23 सितंबर 2012

मेरे दोस्त दरख्त माफ करना...


मनोज कुमार
वे मेरे दोस्त थे. रोज सुबह घर से दफ्तर जाते समय वे मुझे हंसी के साथ विदा करते. देर शाम जब मैं घर लौट रहा होता तो लगता कि वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं. मेरे और उनके बीच एक रिश्‍ता कायम हो गया था. ये ठीक है कि वे बोल नहीं सकते थे तो यह भी सच है कि मैं भी उनसे अपनी बात नही कह सकता था लेकिन बोले से अधिक प्रभावी अबोला होता था. हमारी दोस्ती को कई साल गुजर गये थे. इस बीच मैंने लगभग नौकरी का इरादा त्याग दिया था. यह वह समय था जब न तो मेरे आने का वक्त होता था और न जाने का लेकिन क्योंकर षाम को उनके पास से गुजरना मन को अच्छा लगता था. अचानक कहीं से बुलावा आया और न चाहते हुए भी मैं नौकरी का हिस्सा बन गया. इस नौकरी से मेरा मन जितना खुश नहीं था, शायद मेरे ये दोस्त खुश थे. रोज मिलने और एक दूसरे को देखकर मुस्कराने का सिलसिला लम्बे समय से चल रहा था। यह रिष्ता अनाम थ. आज सुबह मैंने उन्हें हलो कहा था और वे मुस्करा कर मुझे रोज की तरह विदा किया. तब शायद मुझे पता नहीं था कि रोज की तरह जब मैं शाम को घर लौटूंगा तो उसी रास्ते से लेकिन मेरे दोस्त मुझसे बिछड़ गये होंगे। कोई मुस्कराता हुआ आज मेरा स्वागत नहीं करेगा। शाम का मंजर देखते ही जैसे मेरा दिल बैठने लगा। थोड़ी देर के लिये मेरे पैर थम से गये। मैं अवाक था कि ये क्या हो गया। एक हफ्ते में मेरे लिये यह दूसरा हादसा था. दोनों हादसों में कोई साम्य नहीं था लेकिन दोनों के बिछड़ जाने का गम एक जैसा था.मेरी भांजी को विदा कर घर लौटते मेरे अपने जीजाजी सड़क हादसे में नहीं रहे. बहुत दिनों बाद मन जार जार कर रोया. अभी हफ्ता नहीं गुजरा था कि मेरे दोस्त की मौत ने मुझे झकझोर दिया है.
ये दोस्त थे मेरे आने जाने के रास्ते में खड़े हरे-भरे दरख्त. इनकी षाखाओं के लहराते पत्ते जैसे बार बार मुझे गले लगाने को बेताब होते थे. मैं कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस तरह एक दिन कोई निर्दयी इन्हें अकाल मौत दे देगा. कभी अपनी हरियाली के लिये इतराने वाला भोपाल आहिस्ता आहिस्ता कंगाल हो रहा है. क्रांकीट की इमारतों को खड़ा करने, सड़कों की छाती को रौंदने के लिये रोज ब रोज आ रही  महंगी विदेशी कारों के लिये पहले ही सालों से खड़े दरख्तों को अकाल मौत दे दी गयी है. आज एक और दरख्त ऐसा ही मारा गया. किसी आदमी की मौत का गम तो थोड़े वक्त का होता है लेकिन किसी दोस्त की मौत'षायद पूरे जीवन के लिये जख्म दे जाती है. जिस जगह यह दरख्त था, वहां खून का कोई निशान नहीं था लेकिन कटे हुए डंगाल, टूटे हुए पत्ते किसी बेरहम हाथों की कहानी बयान कर रहे थे. रोज की तरह चलता हुआ मैं जब गुजरने लगा तो एकाएक सन्नाटे सा महसूस हुआ. पैरों के नीचे मेरे दोस्त पत्ते कुचल गये तो मुझे झटका सा लगा. लगा कि जैसे मैंने अपने किसी को पैर से रौंदने का पाप कर लिया है. मैं आत्मग्लानी से भर गया.
मेरी आत्मग्लानी केवल पत्ते को पैर से कुचल जाने के लिये नहीं थी. बल्कि इस बात को लेकर भी मन विषाद से भर गया कि हम कितने निरीह हो गये हैं एक जीते-जागते दरख्त को अपने स्वार्थ के लिये बेमौत मार देते हैं. यह तो ठीक है कि हमारे कर्म उस गेंद की तरह होते हैं जो पलट कर हमारे पास आती है अर्थात हम अच्छा करते हैं तो अच्छा पाते हैं. इसे किताबी बात न मानें तो यह मानना ही पड़ेगा कि ऐसे बेमौत मरने वाले दरख्त हमारे दुख का कारण हैं. जीते-जी वे हमारे मुस्काने की वजह थी. उनसे हमंे छांह, पानी और साफ हवा मिलती थी और एक मुस्कान के लिये यह सब जरूरी है. अब जब हम एक बार नहीं, बार बार दरख्त को मौत दे रहे हैं तो उस दरख्त की आह भला हमें कब तक जीने देगी? यह सवाल उन सब लोगों से है जो दरख्त को मौत दे रहे हैं या देने में साथ दे रहे हैं या उसे चुपचाप मरने के लिये मजबूर होने दे रहे हैं. उन सब में मैं भी षामिल हूं. आज इस दरख्त की मौत ने मुझे एक बार फिर उस चिपको आंदोलन की याद दिला दी जिसकी याद आज की युवा पीढी को होगी भी नहीं. हे दरख्त, तुझे न बचा सकने का जो अपराध मुझसे हुआ है, उसके लिये मैं माफी चाहूंगा....सिर्फ माफी...
मनोज कुमार

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