सोमवार, 7 जनवरी 2013

मजबूत होने चाहिए संस्कारों के तटबंध

डॉ. महेश परिमल
देश में कोई घटना हो या दुर्घटना, बयानवीर नेताओं को तो बोलना ही है। वह भी बेहूदा तरीके से, ताकि बयान सुर्खियां बन जाएं। मानव की सोच उसके विचार से स्पष्ट होती है और सोच तैयार होती है संस्कार से। आज की पीढ़ी इतनी संस्कारवान तो है कि अपनी प्रेमिका की जान बचाने के लिए जूझ सकती है। पीठ दिखाकर भागने वाली पीढ़ी नहीं है यह। पर यह तो सोचो कि क्या मोमबत्ती जलाने से सोच बदली जा सकती है? सोच बदलने के लिए अच्छे संस्कार होने चाहिए। एक मां अपनी कोख से बेटे को जन्म देती है और बेटी को भी। आगे चलकर बेटे को स्वतंत्रता और बेटी को जंजीरें मिलती हैं। आखिर इसका क्या कारण है? संस्कार की गलत शुरुआत तो यही से हो रही है। आज सोचने का वक्त  पालकों का है। हमारे देश के नेताओं को ऐसे संस्कार मिले ही नहीं, यह तो उनके बयानों से ही स्पष्ट हो जाता है। नेता हमेशा यही कहते हैं कि मीडिया ने उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया। किसी विवादास्पद बयान के बाद हर नेता यही कहता है कि उनके पूरे बयान पर ध्यान नहीं दिया गया। आश्चर्य होता है, ऐसा कभी बाल ठाकरे के बारे में नहीं कहा गया। उन्होंने जब भी बयान दिया, सोच-समझकर दिया। फिर चाहे मीडिया ने उसे किसी भी तरह से तोँड़-मरोड़कर पेश किया हो। पर वे अपने बयान से कभी नही पलटे। आखिर ये नेता अपने बयान से पलट क्यों जाते हैं?
बलात्कार जैसी घटना नृशंस है, पाशवी है, अमानवीय है और बलात्कारी कड़ी से कड़ी सजा का पात्र है। बलात्कार क्यों होते हैं, यह सभी जानते हैं, पर इसे रोकने के लिए क्या करना चाहिए, इस पर विचार नहीं किया जा रहा है। ये बयानवीर नेता बलात्कार के लिए केवल नारी को ही दोषी मान रहे हैं। क्या इसके लिए केवल और केवल नारी ही दोषी है? ये नेता भूल जाते हैं कि बलात्कार के आरोपी सांसद-विधायक भी हैं, जो उनके साथ संसद और विधानसभा में आज तक बैठ रहे हैं। बलात्कार किसी नेता की बेटी या पत्नी के साथ क्यों नहीं होता। क्यों मजबूर और लाचार युवतियों बलात्कारियों के चंगुल में फंस जाती हैं। नेताओं के बयान खाप पंचायतों के मनसबदारों की तरह हैं, जो आज भी पुरातत्वकालीन दिनों में जी रहे हैं। बलात्कार को लेकर आज जो भी बयान सामने आ रहे हैं, वे सभी पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। सोच बदलने की बात कोई नहीं कर रहा है। पहले नेताओं के बारे में यह कहा जाता था कि वे जब भी जो कुछ कहते हैं, पूरी तरह से नाप-तौलकर बोलते हैं। पर अब ऐसा नहीं है, अब तो बड़े-बड़े महारथी नेताओं की जबान फिसलने लगी है। उन्हें खुद ही पता नहीं होता कि वे क्या कह रहे हैं। बाद में पछताते हैं और अपने बयान वापस लेने का ढोंगे करते हैं। शायद उन्हें नही मालूम की बंदूक से निकली गोली और जबान से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते। आज सबसे अधिक आवश्यकता यह है कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को किस तरह से रोका जाए, ऐसे में हमारे बयानवीर नेता अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। विचार मंथन के समय ऐसी हरकतों शोभा नहीं देती। इन नेताओं को शायद इंडिया गेट और जंतर-मंतर पर भीड़ कम होने का ही इंतजार था। भीड़ घटी और नेता फट पड़े।
मध्यप्रदेश के उद्योग मंत्री कैलास विजयवर्गीय ने कहा कि यदि नारी लक्ष्मण रेखा पार करेंगी, तो रावण ही मिलेगा। यदि वे इसे दिल्ली में हुए गेंगरेप से जोड़कर कह रहे हैं तो सवाल यह उठता है कि दामिनी ने कौन सी लक्ष्मण रेखा पार की थी, जो उसे 6-6 रावण मिले? आज नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है और समाज को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रही है। ऐसे में इस तरह का बयान मूर्खतापूर्ण है। यदि सीता ने लक्ष्मण रेखा पार की थी, तो क्या उसे पूजा नहीं जाना चाहिए। आखिर उनकी पूजा क्यों हा ेरही है? सीता के बजाए रावण की हरकतों पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है? क्या रावण के लिए लक्ष्मण रेखा नहीं होनी चाहिए? नारी पर हर तरह से बंदिशें लगाई जा रही हैं, पर पुरुष आज तक अपनी मनमानी कर रहा है।  उधर संघ से भागवत का बयान भी कम आपत्तिजनक नहीं है। आज छोटे-छोटे गांव में दुष्कर्म हो रहे हैं। गुजरात में इस समय जितने भी दुष्कर्म के मामले सामने आए, उसमें अधिकांश गांव में हुए हैं। इन घटनाओं पर वे क्या कहना चाहेगे? शायद उन्हें ही नहीं मालूम। आज कई परिवार ऐसे हैं, जहां महिलाएं काम न करें, तो उनका गुजारा ही मुश्किल हो जाए। ऐसे में नारी के योगदान को किसी भी तरह से कम नहीं आंका जाना चाहिए।
देश में बलात्कार की घटना एक सामाजिक रोग है, इसे भौगोलिक सीमा में नहीं बांधना चाहिए। इसे ाश्चात्य संस्कृति से भी जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। नारी अत्याचार को लेकर पहले अपनी सोच बदलनी होगी। इसे संस्कार से जोड़कर देखा जाना चाहिए। राम बनने के लिए कौशल्या जैसी मां और दशरथ जैसे पिता का होना आवश्यक है। आज जवान बेटे की हरकतों से डरने वाले माता-पिता बेटे को अनजाने में किस तरह का संस्कार दे रहे हैं, किसी से छिपा नहीं है। बेटे को मिली छूट को ही देखकर बेटी भी यदि बगावत करे, तो उस पर तुरंत ही पाबंदी लगा दी जाती है। नारी पहले से ही अपनी सीमाओं में हैं, पर पहले पुरुष तो अपनी सीमा तय करे। संस्कारों के तटबंध मजबूत होंगे, तभी सीमाएं सुरक्षित रह पाएंगी, अन्यथा आज जो कुछ हो रहा है, हालात उससे भी बदतर हो सकते हैं।
    डॉ. महेश परिमल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें