गुरुवार, 22 सितंबर 2022

गाँधी चौक : एक हरा भरा खेत

इस सृष्टि में मनुष्य का अस्तित्व आशा और निराशा के दो चक्रों के मध्य घूमता रहता है। इनमें से एक तीसरा चक्र अभिलाषा का निकलता है। खुद को अभिव्यक्त करने की अभिलाषा से ही साहित्य का जन्म होता है। बाहरी वातावरण में घटित घटनाओं का प्रभाव हमारे भीतर पड़ता है। जब हम उन प्रभावों को कागज पर उड़ेल देते हैं, तब भीतर का भारीपन कुछ कम होता है ;और मन फिर निकल पड़ता है, बाहरी प्रभावों को आत्मसात करने; ताकि उन्हें पुनः उड़ेला जा सके। यहाँ घटनाएँ उतनी महत्वपूर्ण नहीं होतीं, और ना ही उनका खुद पर प्रभाव उतना महत्वपूर्ण माना जा सकता है। क्योंकि जब तक स्वानुभूति प्रसारित होकर परानुभूति में परिवर्तित नहीं हो जाती, घटनाओं का प्रभाव व्यक्तिगत ही होता है। इस व्यक्तिगत प्रभाव को सार्वजनिक करने के लिए अभिव्यक्ति अनिवार्य है, जिसकी खोज करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं -

"खोजता हूँ पठार...पहाड़... समुंदर,

जहाँ मिल सके मुझे

मेरी वह खोई हुई

परम अभिव्यक्ति अनिवार आत्मसंभवा।"1

 क्योंकि इस आतुर अभिव्यक्ति का एक सशक्त और सुंदर माध्यम साहित्य है; इसलिए बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य को 'जनसमूह के हृदय का विकास' तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब' कहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध 'साहित्यकारों का दायित्व' में साहित्य की महत्ता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है-

" हमें जीवन के हर क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए साहित्य चाहिए- साहित्य जो मनुष्य मात्र की मंगलभावना से लिखा गया है और जीवन के प्रति एक सुप्रतिष्ठित दृष्टि पर आधारित हो।"2

       कल्पनाश्रित कथा तथा भोगे हुए यथार्थ में कोहरे और किरण जितना ही अंतर होता है,परंतु यदि यथार्थ की किरणों के इर्द-गिर्द कल्पना के कोहरे बिखेर दिए जाएँ,तो उन किरणों की धवलता अवश्य बढ़ जाएगी। डॉ. आनंद कश्यप ने प्रतियोगी परीक्षाओं को अपने पंद्रह वर्ष दिए। इतने वर्षों के यथार्थ अनुभव को कल्पना का ज़ामा पहनाकर, उन्होंने अपने उपन्यास 'गाँधी चौक' में प्रस्तुत किया है। यह  अश्विनी, नीलिमा तथा सूर्यकांत के इर्द-गिर्द घूमती सुखांत औपन्यासिक कथा है। गरीब, ग्रामीण किसान-पुत्र अश्विनी का पीएससी परीक्षा की तैयारी के लिए शहरी परिवेश में आकर संघर्ष करते हुए, कई असफलताओं के बाद सफलता प्राप्त करना, भीष्म जैसे कर्मनिष्ठ और जीवट पात्र का कई विफलताओं के बाद सफल होने के ठीक पहले धैर्य खोकर प्राण त्याग देना, मध्यम वर्गीय, खुद्दार परिवार की आत्म विश्वासी लड़की नीलिमा का डिप्टी कलेक्टर बनना, तथा अमीर और ओहदेदार पिता के इकलौते पुत्र सूर्यकांत की सोच में परिवर्तन तथा प्रतियोगी परीक्षा की तप्त भूमि में तप कर निखरने तक के सफर में साथ होना बड़ा दिलचस्प रहा। इस उपन्यास में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे परीक्षार्थियों की मन:स्थिति, संघर्ष, समर्पण तथा सफलता-विफलता की खट्टी-मीठी दास्तान को सरल किंतु असरदार शब्दों में प्रस्तुत किया गया है-

" सपने इंसानों के ऊबड़-खाबड़ मन की फसल है। गाँधी चौक भी एक हरा- भरा खेत है। एक ऐसा खेत जिसमें डिप्टी कलेक्टर , डी एस पी, आबकारी अधिकारी जैसी अनेक फसलों का उत्पादन होता है।यह चौक अमरत्व लेकर आया है। देशकाल, परिस्थितियां, परिदृश्य सब कुछ बदल गया है, लेकिन यह चौक नहीं बदला है।"3

        डॉ. आनंद कश्यप का उपन्यास 'गाँधी चौक' न केवल लोक सेवा आयोग परीक्षा की तैयारी के दौर से गुजर चुके और गुजर रहे, अनगिनत युवाओं के संघर्ष का खुला वृतांत है, बल्कि यह इक्कीसवीं सदी के भारत में भी बलभद्र जैसे जमीदारों के चंगुल में फंसे कई समयलाल,चंगू और भागीरथी जैसे खेतिहर मजदूरों की पिघलती दास्तान है, कार्यालय और गृहस्थ जीवन के दोहरे मापदंडों पर खरा उतरने के प्रयास में ख़ाक होती अनेक प्रज्ञाओं का आख्यान है,जिन्होंने सपने देखना कभी नहीं छोड़ा। अर्थ की सत्ता पर आधारित रिश्तों की संवेदनहीनता के घेरे में आकर, नौकरी के अभाव में, संघर्ष की सेज पर आत्महत्या करते अनेकानेक भीष्मों की मर्मभेदी कथा है।

             वैश्वीकरण की दुनिया में स्थानीय भाषा और संस्कृति तेजी से सिमटकर खत्म होने के कगार पर हैं। आज हम संसार के फैलाव को जान लेने की चाह में अपने आसपास की जीवन-पद्धति और संस्कारों को महसूसने का जहमत नहीं उठाना चाहते। परिणाम स्वरूप कई स्थानीय चलन और  प्रचलित- पूर्व प्रचलित शब्द हमसे छूटते चले जा रहे हैं। बल्कि यों कहें कि हम जानबूझकर उनका अस्तित्व मिटाते जा रहे हैं। इसलिए वास्तविक अशोक वृक्ष की गुमनामी से उदास होकर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा है-

" दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है।"4

 'गाँधी चौक' उपन्यास मूलतः हिंदी भाषा में लिखा गया है, परंतु बीच-बीच में छत्तीसगढ़ी बोली का प्रयोग उपन्यास में स्थानीयता का रंग भर देता है। छत्तीसगढ़ के खान-पान जैसे- बासी नून के साथ लालमिर्च-गोंदली, जिमी कांदा, खेड़हा, कोंचई, इड़हर साग, चरपनिया भाजी इत्यादि के स्वाद पाठकों की जिह्वा में रस भर देते हैं-

"बेटी महूं इहें खाहूं! इड़हर के साग हर अब्बड़ मिठाथे।"5

 साथ में सूरुज,पचरी, कथरी जैसे छत्तीसगढ़ी शब्दों का प्रयोग उपन्यास में आंचलिकता को स्थापित कर,इसकी विश्वसनीयता को पुख़्ता बनाते हैं। कई भाषाओं और बोलियों वाले भारतवर्ष में अक्सर रचनाकार की मातृभाषा उसकी साहित्यिक भाषा से भिन्न होती है। परंतु कभी-कभी साहित्यकार मातृभाषा का प्रयोग करके साहित्यिक भाषा को अधिक सुंदर,संप्रेषणीय एवं समृद्ध बनाते हैं। डॉ. कश्यप इसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं।स्थानीय बोलियों से संपृक्त होकर साहित्यिक भाषा अधिक असरदार बनकर पाठकों का ध्यान, संबंधित संस्कृति की ओर आकर्षित करती है। क्योंकि स्थानीय बोलियाँ भी उसी साहित्यिक भाषा परिवार की अभिन्न अंग होती हैं। साहित्यकार वक्त के थपेड़ों को मात देकर अपनी भाषा के साथ सदैव जीवित रहता है। कवि दिविक रमेश के शब्दों में-

"वे तमाम शब्द

जिन्हें लिखा है मैंने, रचा है जिन्हें और बोला भी है बोलियों की तरह टटोल कर तो देखो उन्हें

साक्षी हैं वे

मेरे जीवित होने के।"6

   रंग समायोजन के माध्यम से बिंब निर्माण करना इस उपन्यास की प्रमुख विशेषता है। जब कथा नायक सूर्यकांत की प्रथम भेंट, नायिका नीलिमा से होती है,तब नीलिमा नीले परिधान में होती है। नीली आँखों, नीले वस्त्र के साथ नाम का समायोग देखकर सूरदास के राधा-कृष्ण की स्मृति हो आती है। जब राधा को नीले वस्त्र में देखकर कृष्ण ठगे के ठगे रह जाते हैं-

 "गए स्याम रवि तनया के तट, अंग लसति चंदन की खोरी,

औचक ही देखि तहं राधा, नैन विशाल भाल दिए रोरी ।

नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनि पीठि रूलती झकझोरी,

सूर स्याम देखत ही रीझे,

नैन- नैन मिली परी ठगोरी।"7

उपन्यास में समयलाल और चंगू मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके जीवन का संघर्ष दो वक्त की रोटी के लिए है। ऐसे में चंगू जैसे अनपढ़ व्यक्ति का शराब पीकर कृष्ण, राम, गौतम बुद्ध तथा जीवन और त्याग संबंधित दर्शन बघारना, पाठकों को कुछ असहज करता जरूर है-

" यदि राम अपने महलों से निकलकर जंगल नहीं जाते,लोगों से नहीं मिलते, तो राजा राम, भगवान राम कभी नहीं बनते। कान्हा भी माता यशोदा के हाथ के बने पकवान, उनके प्रेम के मोह का, गोपियों संग अठखेलियों  का त्याग करके मथुरा न जाते, तो वे कभी भी भगवान कृष्ण नहीं बनते। गौतम बुद्ध अपने राज महलों को नहीं त्यागते तो वह कभी भी भगवान बुद्ध नहीं बनते।×××× त्याग व्यक्ति को समाज में स्थापित करने में सहयोग करता है। आज यदि कोई सफल है तो उसके पीछे उसका त्याग है।"8

परंतु कभी-कभी पाठशाला के औपचारिक दौर के बिना भी जीवन का पाठ पढ़ चुके अपढ़ व्यक्तियों की विद्वता का डंका बजते देखा जाता है। 'मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ' कहने वाले कबीर की चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे दोहे आज भी इक्कीसवीं सदी में अपनी सार्थकता सिद्ध कर रहे हैं। 

     सामान्यतः शराबियों में लड़ाई- झगड़ा करके पारिवारिक कलह बढ़ाने की प्रवृत्ति देखी जाती है। परंतु बात-बात में पुत्र अश्वनी पर लात जमाने वाले समय लाल के साथ उल्टा होता है। शराब पीकर उसे अपराध बोध होता है, और वह सोए हुए पुत्र पर प्रेम लूटाता है-

"समयलाल को आज अश्वनी के प्रति प्रेम उमड़ रहा था। वह उसके सिरहाने जाकर बैठ गया और उसके सिर को सहलाने लगा। आज अपने बच्चे के पास बैठ कर उसे अलौकिक आनंद आ रहा था। कुछ देर बाद अश्वनी की आँखें खुल गईं लेकिन वह सोने का बहाना करता रहा। वह बाबूजी के मुँह से आने वाली गंध से समझ गया था कि वो पीकर आए हैं।" 9

 एक दो पैग लगाकर पढ़ने बैठे राजा का दिमाग दोगुनी गति से काम करने की बात भी हजम नहीं होती-

"जैसे ही राजा को मौका मिलता एक पैग लगा कर चुपचाप पढ़ने बैठ जाता था। पीने के बाद उसका दिमाग दुगुना काम करने लगता था। उस समय वह चाचा चौधरी को भी मात दे सकता था।"10

उपन्यास में घटित इस तरह की घटनाएँ शराब की महिमा का मंडन करती नजर आती हैं,परंतु प्रतियोगी परीक्षाओं में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले भीष्म की मृत्यु का कारण शराब को बताकर उपन्यासकार ने शराब की महिमा का खंडन भी किया है-

"भीष्म को नकारात्मक विचारों ने उसी तरह घेर लिया था। जैसे चंदन के वृक्षों को सर्प लपेट लेते हैं। नशे की वजह से उनके नकारात्मक विचार बढ़ते ही जा रहे थे। निराशा पीड़ा और अवसाद जैसी भावनाएँ उन पर हावी हो रही थीं ।11

              'गाँधी चौक' उपन्यास के प्रमुख चरित्रों को तीन भागों में विभक्त कर उपन्यासकार की वर्णन- पद्धति को समझा जा सकता है।  पहला- बने हुए को और बनाना, जैसे सूर्यकांत। दूसरा- टूटे हुए को और तोड़ना, जैसे- भीष्म और तीसरा- परिश्रम से अभाव की खाई को पाटना, जैसे -अश्विनी और नीलिमा।

 उपन्यास का एक पात्र सूर्यकांत  सर्वसंपन्न पिता का इकलौता पुत्र है, जिसके जीवन में किसी भी चीज की कमी नहीं थी। उसकी बड़ी से बड़ी गलतियों पर पर्दा डाल दिया जाता है। वह दो बार यमराज को भी शिकस्त दे चुका है। लोक सेवा आयोग की परीक्षा में पहले वह पैसे के दम पर पद प्राप्त करता है, क्योंकि प्रारंभ में उसे विश्वास था कि पैसे के बल पर सबकुछ खरीदा जा सकता है।सूर्यकांत की इस सोच की नीलिमा विरोधी थी। नीलिमा को पाने की चाह में सूर्यकांत की सोच में बदलाव आया। नीलिमा उसके लिए प्रेरणा थी, जिसके कारण ही उसने विलासितापूर्ण जीवन का त्याग किया। बाद में वह मेहनत के दम पर पद हासिल कर लेता है। पिता हर कदम पर उसके साथ खड़े हैं। अंततः प्रेमिका पत्नी के रूप में मिल जाती है।उपन्यास के अंत में इसी पात्र को संपूर्णता प्राप्त होती है। कारण बने हुए को हर कोई बनाता है।

"शादी का मंडप वही रहता है। सजावटें वही रहती हैं। बस बदलता है तो दूल्हा। सूर्यकांत और नीलिमा का विवाह उसी मंडप में संपन्न हो जाता है।"12

    उपन्यास का दूसरा पात्र भीष्म, जिसने अपनी जवानी के कितने ही बसंत प्रतियोगी परीक्षाओं को समर्पित कर दिये। भीष्म का सफलता की गंगा में डुबकी लगाने का भागीरथ प्रयास बार-बार विफल होता रहा,और जब डुबकी लगाने का अवसर मिला तब तक उसका मृत शरीर अग्नि स्नान कर चुका था। वह जिन पुस्तकों पर माथा रखा करता था उन्हीं पुस्तकों पर पैर रखकर फाँसी के फंदे पर झूल गया। जिसका जीवन अंधेरे में गुज़रा , जिसे नौकरी की सबसे ज्यादा जरूरत थी; घरवालों के अमानवीय व्यवहार तथा गाँव वालों के असहनीय कटाक्ष ने आखिरकार उसके धैर्य की कड़ी को तोड़ दिया। कारण टूटे हुए को हर कोई तोड़ता है।

" रात भर सफर करने के बाद पार्थिव शरीर सवेरे सवेरे भीष्म के गाँव पहुँचा। गाँव में लोगों की भीड़ इकट्ठा थी। उनकी आँखें भी नम थीं। यह वही लोग थे जो जीते जी उन्हें ताना देते थे।"13

    इन दोनों पात्रों के मध्य का सर्वश्रेष्ठ भाव, पुरुष पात्र में अश्वनी तथा नारी पात्र में नीलिमा प्रस्तुत करते हुए दिखाई देते हैं। जिन्होंने आर्थिक थपेड़ों से जूझते हुए, मेहनत के बल पर अपने लक्ष्य को हासिल किया। यह उपन्यास सिविल सर्विस परीक्षा की श्रेष्ठता का बखान करते हुए यह संदेश देता है कि यदि इक्कीसवीं सदी में जमींदार बलभद्र जैसे रावण की लंका का दहन करना है तो अश्वनी के समान सिविल सर्विस परीक्षा की देवी को अपने कर्म की तपस्या से प्रसन्न करना होगा। परंतु बलभद्र की लंका दहन के बाद तहसीलदार अश्वनी का स्थानांतरण सुकमा (नक्सलाइट जिला) करवा दिया जाना तथा उसका स्थानांतरण रुकवाने में योगानंद जैसे, राजनीतिक दखल रखने वाले व्यक्ति का हाथ होना, इस बात की पैरवी भी करता है कि वर्तमान युग में देवी सरस्वती की कृपा के साथ-साथ देवी लक्ष्मी एवं देवी दुर्गा की छत्रछाया भी आवश्यक है। लिंगभेद के कारण पनपे आडंबरों का खुले शब्दों में विरोध डॉ. कश्यप ने किया है। पिता समयलाल की मृत्यु पर , अश्वनी के मुँह से, अपनी बहन माया के लिए यह कहलवाकर -

" वो भी तो उनकी ही पुत्री है।पिता की संपत्ति पर जब पुत्री का अधिकार हो सकता है तो उसके दाह- संस्कार पर क्यों नहीं।"14  उपन्यासकार ने स्त्री-पुरुष समानता का पक्ष लेते हुए स्त्रियों के संवैधानिक अधिकारों के प्रति समाज की आँखों में पड़े पर्दे को भी हटाया है। 

            'गाँधी चौक' उपन्यास को 20 शीर्षकों में विभक्त किया गया है, परंतु उपन्यास में अनुक्रमणिका की अनुपस्थिति ने पाठक के समक्ष पसंदीदा शीर्षक तक पहुँचने में कठिनाई उपस्थित कर दी है। जिस प्रकार 'गोदान' उपन्यास में प्रेमचंद ने प्रोफ़ेसर मेहता को अपनी विचारधारा का उद्घोषक बनाया है ठीक उसी प्रकार डॉ. आनंद कश्यप ने उपन्यास 'गाँधी चौक' में कृषि वैज्ञानिक रामप्रसाद को अपने विचारों का प्रवक्ता बनाया है।

 'गाँधी चौक'  वर्तमान सहायक प्राध्यापक डॉ. आनंद कश्यप द्वारा लिखित उपन्यास नहीं है, बल्कि इसे कई विफलताओं का दंश झेल चुके, सहायक प्राध्यापक पद की प्राप्ति के लिए संघर्षरत, डॉ. आनंद कश्यप ने लिखा है। छत्तीसगढ़ में सहायक प्राध्यापक पद का विज्ञापन सालों बाद निकलता है। विज्ञापन के बाद परीक्षा देने से लेकर पद प्राप्त करने में वर्षों लग जाते हैं। सहायक प्राध्यापक परीक्षा 2014 के परीक्षाफल में डॉ.आनंद कश्यप और मेरी लगभग समान स्थिति थी। हम दोनों ही पुरुष व महिला वर्ग में, प्रतीक्षासूची में प्रथम स्थान पर रहकर असफल हो चुके थे। तब से लेकर 2020 तक अपने आपको आगामी परीक्षा की तैयारी में लगाए रखना किसी तपस्या से कम नहीं था। परीक्षार्थी, परिवार वालों के साथ रहकर भी अकेला होता है। वह दीपावली, दशहरा, होली आदि सभी त्यौहारों की खुशियाँ ,अपने पठन की मोटी-मोटी पुस्तकों में ढूंढ लेता है। जहाँ इस तपस्या में दुनियावी माया ने प्रवेश किया कि तपस्या ख़त्म और तपस्वी धराशायी। ऐसी विषम परिस्थितियों में, परीक्षा के ठीक पहले , इतने प्रभावी लेखन के लिए मैं डॉ.आनंद कश्यप को बधाई देती हूँ । उन्होंने, वर्षों जिए यथार्थ के मोतियों को कल्पना के धागे में पिरोकर, तैयारी कर रहे परीक्षार्थियों के भविष्य के गले में पहना दिया है। सफल उपन्यासकार डॉ. आनंद कश्यप को उनके आगामी लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ!  पुनः बधाई!

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संदर्भ ग्रंथ  :-

1.मुक्तिबोध, गजानन माधव, चाँद का मुँह टेढ़ा है,भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, इक्कीसवां संस्करण 2013, पृष्ठ 296

2. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, अशोक के फूल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,  इकतीसवां संस्करण:2013,पृष्ठ-132

3.कश्यप, डॉ. आनंद, गाँधी चौक, हिंद युग्म ब्लू, नोएडा (उ.प्र.) पहला संस्करण:2021, पृष्ठ-9

4.सिंह, नामवर, हजारी प्रसाद द्विवेदी संकलित निबंध, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत ,नई दिल्ली, नौवीं आवृत्ति 202, पृष्ठ- 4

5.कश्यप, डॉ. आनंद, गाँधी चौक, हिंद युग्म ब्लू, नोएडा (उ.प्र.), पहला संस्करण:2021, पृष्ठ-21

6. वागर्थ, मासिक पत्रिका, वर्ष 28, अंक 315, फरवरी 2022, संपादक-शंभूनाथ, पृष्ठ-52

7.शुक्ल, रामचंद्र, भ्रमरगीत सार; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2012 ,पृष्ठ 23

8. कश्यप, डॉ. आनंद,गाँधी चौक, हिंद युग्म ब्लू, नोएडा (उ.प्र.), पहला संस्करण:2021, पृष्ठ 17

9.वही,पृष्ठ- 18

10. वही,पृष्ठ-156

11. वही, पृष्ठ -150

12. वही, पृष्ठ-190

13. वही, पृष्ठ-153

14. वही, पृष्ठ- 172


   डॉ. चंद्रिका चौधरी

  सहायक प्राध्यापक हिन्दी

  स्व. राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह शासकीय महाविद्यालय सरायपाली, 

जिला- महासमुंद (छ.ग.)

मोबाइल नंबर- 8889923883

drchandrikachoudhary@gmail.com

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